शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

किसे चाहिए लोकायुक्त


किसे चाहिए लोकायुक्त

लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच ठनी हुई है। इससे राज्य में इस संस्थान के अस्तित्व पर ही संकट उत्पन्न हो गया है। मनोरमा की रिपोर्ट
राजधानी दिल्ली में जोर-शोर से लोकपाल के समर्थन और भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलकर बैठी भाजपा मे अपने ही एक राज्य में लोकायुक्त पद के लिए एक बेदाग नाम प्रस्तावित नहीं कर पा रही है। नतीजा, पिछले दो महीने से ज्यादा समय से कर्नाटक लोकायुक्त का पद खाली है। कर्नाटक सन् 1986 में लोकायुक्त नियुक्त करने वाला देश का पहला राज्य है। लेकिन फिलहाल नये लोकायुक्त की नियुक्ति के मसले पर राज्यपाल और राज्य सरकार में ठनी हुई है। राज्यपाल एचआर भारद्वाज सरकार की ओर से भेजे गये जस्टिस एसआर बन्नुरमठ के नाम को मंजूर नहीं कर रहे हैं तो राज्य सरकार कोई और नाम सुझा नहीं रही है। सरकार के इस रवैये ने ये सवाल पैदा कर दिया है कि कहीं वह लोकायुक्त दफ्तर पर ही ताला तो नहीं लगाना चाहती? और यह संदेश सीधे ना देकर विवाद के जरिये दे रही है? जो भी हो, जस्टिस संतोष हेगड़े के कार्यकाल के दौरान मिले जख्मों के कारण केवल मौजूदा सदानंद गौड़ा सरकार ही नहीं बल्कि राज्य की पूरी भाजपा इकाई छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना चाहती है। आखिर पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े की अवैध खनन रिपोर्ट के कारण पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को न सिर्फ कुर्सी छोड़नी पड़ी बल्कि जेल भी जाना पड़ा। मौजूदा सरकार के कई मंत्रियों के सिर पर भ्रष्टाचार की तलवार अब भी लटकी हुई है। जाहिर है ऐसे में राज्य में मजबूत लोकायुक्त संस्थान सरकार की सेहत के लिए तो अच्छा नहीं होगा। दरअसल विवाद की शुरुआत शिवराज पाटिल के लोकायुक्त पद से इस्तीफा दे देने के बाद सरकार की ओर से इस पद के लिए केरल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एसआर बन्नुरमठ का नाम प्रस्तावित किये जाने के बाद से हुई। गौरतलब है कि संतोष हेगड़े का कार्यकाल खत्म होने के बाद जस्टिस शिवराज पाटिल नये लोकायुक्त बने पर सहकारी आवासीय सोसायटी में सहकारी सोसायटी के नियमों का उल्लंघन कर जमीन हासिल करने के कारण सितंबर में नियुक्ति के छह सप्ताह के बाद ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। इसके बाद नये लोकायुक्त के तौर पर जस्टिस बन्नुरमठ का नाम सरकार ने प्रस्तावित किया जिसे राज्यपाल मंजूरी नहीं दे रहे हैं। बन्नुरमठ पर भी कानून का उल्लंघन कर जमीन हासिल करने का आरोप है। लेकिन सरकार इन आरोपों को बाद की बात कहकर खारिज कर देती है। संवैधानिक तौर पर राज्यपाल की लोकायुक्त की नियुक्ति में कोई भूमिका नहीं होती। मुख्यमंत्री, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, दोनों सदनों के सभापति और दोनों सदनों के नेता विपक्ष से सलाह-मशविरा करने के बाद राज्यपाल के पास प्रस्तावित नाम अनुमोदन के लिए भेज देता है। उनका कार्यकाल पांच साल का होता है और केवल सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों के ही नाम प्रस्तावित किये जा सकते है। बहरहाल, बन्नुरमठ के नाम को तीसरी बार राज्यपाल खारिज नहीं कर सकते। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो सरकार और राज्यपाल के बीच संवैधानिक विवाद की स्थिति पैदा होगी।हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब राज्यपाल और कर्नाटक सरकार के बीच ऐसी स्थिति बनी हो। इससे पहले जुलाई 2010 में रेड्डी बंधुओं को तत्कालीन सरकार के मंत्रिमंडल से निकालने की मांग पर, जनवरी 2011 में जमीन घोटाले के संदर्भ में तत्कालीन मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा पर मुकदमा चलाने को मंजूरी देने पर और मई 2011 में राज्य में राष्ट्पति शासन की सिफारिश करने पर, जिसे केंद्र ने खारिज कर दिया, भी संवैधानिक विवाद के हालात पैदा हुए थे, जो बाद में सुलझ गये। फिलहाल सदानंद गौड़ा सरकार जस्टिस एसआर बन्नुरमठ के अलावा कोई और नया नाम भी नहीं सुझाना चाहती। उसका कहना है कि अगर राज्यपाल नहीं मानते तो हम इस मसले पर एडवोकेट जनरल से राय लेंगे। उसके बाद ही अगला कदम तय होगा। इसके अलावा राज्य सरकार ने एचआर भारद्वाज के खिलाफ राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के पास अपना प्रतिनिधिमंडल भेजने का फैसला किया है। इधर भारद्वाज कह रहे हैं, "मैं गलत व्यक्ति की नियुक्ति को मंजूरी नहीं दूंगा। अगर राज्य सरकार संतोष हेगड़े का नाम दोबारा प्रस्तावित करती है तो मैं तत्काल मंजूरी दे दूंगा।' जबकि भारद्वाज कानून के जानकार हैं और उन्हें मालूम होगा कि एक व्यक्ति दोबारा लोकायुक्त नहीं बन सकता।सच तो यह है कि जस्टिस संतोष हेगड़े के जाने के बाद राज्य में लोकायुक्त संस्था की विश्वसनीयता और इसपर लोगों का भरोसा पहले से कम हुआ है। आंकड़े तो यही कहते हैं। संतोष हेगड़े के पास रोजाना बीस से पच्चीस शिकायतें आ रही थीं, लेकिन शिवराज पाटिल के कार्यकाल में रोजाना केवल 5-10 शिकायतें ही मिलीं।दरअसल लोकायुक्त पद को सन् 2001 में जस्टिस एन व्येंकटचेलैया ने जो ताकत और गरिमा प्रदान की थी उसे जस्टिस संतोष हेगड़े ने और बताया और प्रासंगिक बनाया। इसलिए गौड़ा-सरकार ऊपरी तौर पर चाहे जो कहे पर मजबूत लोकायुक्त नहीं चाहती। हालात यह है कि एक ओर येदियुरप्पा जेल से बाहर आने के बाद पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े पर वार कर रहे हैं तो भाजपा के के ईश्वरप्पा और जेडीएस के एचडी कुमारस्वामी जैसे नेता लोकायुक्त संस्था की जरूरत पर ही सवालिया निशान लगा रहे हैं। दूसरी ओर, केवल राज्यपाल ही नहीं बल्कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा कानून मंत्री वीरप्पा मोईली भी बन्नुरमठ के चयन को सही नहीं मानते। लेकिन लोकायुक्त की नियुक्ति या लोकायुक्त संस्था को खत्म करना राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आता है। डर इस बात का है कि कहीं हरियाणा सरकार की तरह यहां भी कानून बनाकर लोकायुक्त कार्यालय ही न भंग कर दिया जाये। कुल मिलाकर, भ्रष्टाचार के मसले पर केंद्र में राजनीति कर रही भाजपा के लिए कर्नाटक में भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाले लोकायुक्त संस्था की अनदेखी करना आसान नहीं होगा। लेकिन ताकतवर लोकायुक्त से राज्य सरकार को डर भी कम नहीं हैं, क्योेंकि वहां राज्य सरकार और इसके मंत्रियों के खिलाफ कई मामले पहले से ही चल रहे हैं। लेकिन कमजोर लोकायुक्त या बगैर लोकायुक्त के रहने से सरकार की अपनी साख ही दांव पर लग जायेगी। 

सरकार बहाना तलाश रही है
कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े से द पब्लिक एजेंडा की बातचीत

लोकायुक्त की नियुक्ति में देरी की वजह?
यह सरकार नहीं चाहती कि लोकायुक्त नियुक्त हो। दरअसल सरकार की मंशा तो लोकायुक्त संस्था को ही खत्म कर देने की लग रही है, लेकिन यह अच्छा नहीं है। ज्यादा दिनों तक यह स्थिति घातक है। कुछ और नहीं हो सकता तो नियुक्ति में देरी करके ही सरकार बचने के रास्ते तलाश रही है।

राज्यपाल ने कहा कि अगर जस्टिस संतोष हेगड़े का नाम फिर से सरकार लोकायुक्त पद के लिए भेजती है तो मैं एक मिनट में उसे मंजूर कर दूंगा।
मैं किसी भी सूरत में दोबारा यह पद स्वीकार नहीं करूंगा। किसी भी राजनीतिक दल से मेरे अच्छे संबंध नहीं हैं। मैं अब उनके लिए ब्लैकलिस्टेड हूं। जब मैं लोकायुक्त बना था तब तो मुझे सब बेदाग मान रहे थे, लेकिन अब अलग-अलग दलों के लोग मुझ पर आरोप लगा रहे हैं। 

आपकी राय में कौन इस पद के लिए उपयुक्त हैं?
यह दुःखद और त्रासद है कि सदानंद गौड़ा जी की सरकार को राज्य में इस पद के लिए एक भी बेदाग न्यायाधीश नहीं मिल रहा है। दरअसल, इस संस्था को ही खत्म करने का यह बहाना है। अगर राज्य में योग्य उम्मीदवार नहीं मिल रहे तो दूसरे राज्यों या भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों में से किसी का नाम प्रस्तावित किया जा सकता है। पहले भी दो लोकायुक्त कर्नाटक से बाहर के रहे हैं। 

राज्यपाल बान्नुरमठ के नाम को खारिज कर रहे हैं । क्या यह सही है?
राज्यपाल एक सीमा तक ही ऐसा कर सकते हैं। सदन में चर्चा कराने के बाद अगर तीसरी बार भी सरकार की ओर से वही नाम भेजा गया तो राज्यपाल को मंजूरी देनी पड़ेगी। 

लोकायुक्त को लेकर राज्यपाल और सरकार के बीच चल रही खींचतान पर आपका क्या कहना है? 
मेरा कुछ कहना ठीक नहीं होगा। आखिरकार दोनों अपने संवैधानिक दायरों में ही रहकर फैसला करेंगे। मुझे यह जरूर लगता है कि मेरा कार्यकाल खत्म होने के बाद सरकार की ओर से इस संस्थान को कमजोर करने की ही कोशिशें हुई हैं वरना सरकार दागी मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाय लोकायुक्त संस्थान को ही अपना निशाना नहीं बनाती। 

सरकार का इरादा क्या लोकायुक्त दफ्तर पर ताला लगाने का है?
दरअसल, समस्या यही है। राज्य सरकार को लोकायुक्त दफ्तर बंद करने का अधिकार है। कितने दिनों तक यह पद खाली रह सकता है या कितने दिन के भीतर नियुक्ति हो जानी चाहिए, इस बारे में भी कोई साफ निर्देश नहीं है। हां, केवल उच्च न्यायालय से लोकपाल नियुक्त करने के संदर्भ में निर्देश लिये जा सकते हैं। मैं यह नहीं कह सकता कि सरकार लोकायुक्त दफ्तर बंद करेगी या उसे चलने देगी। 

बुधवार, 23 नवंबर 2011

नाम बड़े और दर्शन छोटे

कन्नड़ फ़िल्मों के दो अभिनेताओं पर घरेलू उत्पीड़न के आरोप हैं लेकिन इससे उनकी फ़िल्मों की सफलता प्रभावित नहीं हुई। हिंसा की शिकार पत्नियां भी उन्हें माफ़ करती आयी हैं। मनोरमा की रिपोर्ट (Public Agenda)


चाहे कोई स्थापित अभिनेत्री हो या किसी फिल्मी सितारे की पत्नी, औरतों का दर्जा दोयम ही होता है । कुछ ऐसा ही मानते हैं कन्नड़ फल्मों के स्टार अभिनेता। बीवियों की पिटाई करना इन दिनों उनका दूसरा शौक बन गया है। और बाद में उनकी पत्नियों और प्रशंसकों से उन्हें माफी भी मिल जाती है। इस सबके बावजूद उनकी फिल्में पहले की ही तरह सुपर हिट होती रहती हैं। ऐसे ही एक कन्नड़ नायक के खलनायक बनने का हाई वोल्टेज ड्रामा पिछले महीने बंगलुरू में देखने को मिला। कन्नड़ फिल्मों के सुपर स्टार टी दर्शन अपनी पत्नी की पिटाई के आरोप में जेल भेजे गये, फिर उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने पत्नी के साथ अपने प्रशंसको से माफी भी मांग ली। यही नहीं, उन्होंने फिर एक यात्रा का नाटक भी रचा। एक और कन्नड़ अभिनेता प्रशांत भी अपनी पत्नी शशिरेखा को मारने-पीटने और लगातार प्रताड़ित करने के आरोप में गिरफ्तार रहे। दोनों मामलों ने साबित किया कि कन्नड़ फिल्म उद्योग और वहां का समाज औरतों के लिए अभी भी नहीं बदला है। कन्नड़ फिल्मों के बड़े नायक टी दर्शन की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सोना उगलती रही हैं। लेकिन पर्दे का यह नायक घर में खलनायक बन गया। शादी के दस साल बाद उनकी पत्नी विजयलक्ष्मी को थाने में अपने ही पति के खिलाफ शिकायत दर्ज करानी पड़ी। अपनी शिकायत में उन्होंने कहा कि दर्शन ने उन्हें और उनके तीन साल के बेटे को न सिर्फ प्रताड़ित किया, बल्कि जान से मारने की कोशिश भी की। दर्शन ने सिगरेट से विजयलक्ष्मी के हाथों को जलाया और चप्पल से पटाई की। दर्शन को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन जेल में उनकी तबीयत खराब हो गयी और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। बाद में विजयलक्ष्मी उनसे मिलने अस्पताल गयीं और फिर अपनी बात से पलट गयीं। चोट लगने का कारण बाथरूम में पैर फिसल जाना बताने लगीं। उन्होंने पति पर लगाये सारे आरोप भी वापस ले लिये, लेकिन इसके बावजूद बंगलुरू की दोनों निचली अदालतों ने दर्शन की जमानत याचिका खारिज कर दी। लेकिन आखिरकार कर्नाटक उच्च न्यायालय से उन्हें जमानत मिल गयी। विजयलक्ष्मी ने मीडिया के सामने स्वीकार किया कि घर के झगड़े को बाहर लाना उनकी नासमझी थी। दर्शन ने भी इस पूरे प्रकरण के लिए माफी मांगी और एक अच्छा पति और पिता बनने की कसमें खायीं। लोगों का मानना है कि दर्शन के "पश्चाताप' का कारण यह था कि अगले कुछ ही दिनों में उनकी फिल्म "सारथि' रिलीज होने वाली थी। सारथि के रिलीज होने से पहले दर्शन को अपनी छवि की चिंता सताने लगी थी इसलिए उन्होंने फिल्म के प्रचार के लिए "यात्रा' की और इस दौरान लोगों से माफी मांगी। हैरानी की बात यह रही कि बंगलुरू से लेकर मांड्या, मैसूर, चित्रदुर्गा तुमकूर और दावणगेरे सभी जगह लोगों ने दर्शन को हाथों-हाथ लिया, उसका घंटों इंतजार किया, यहां तक कि कई जगहों पर पुलिस को हल्का लाठी चार्ज भी करना पड़ा। बकौल दर्शन, "सारथि' की सफलता और यात्रा में मिले जन-समर्थन ने उन्हें लोगों का आभारी बना दिया है और जो हुआ, उसके लिए वे बेहद शर्मिंदा महसूस कर रहे हैं। दरअसल कई बार औरतों के मामले में मर्द संवेदनशीलता की हदें तोड़ते आये हैं। औरतें मर्दो की दुनिया में सिर्फ गैर-बराबरी ही नहीं, तमाम किस्म के हिंसक वार भी झेलती आयी हैं। मध्य या उच्च वर्ग में होने वाली ऐसी घटनाएं अक्सर घर की दीवारों के अंदर ही दब जाती हैं। बड़े स्टार जो परदे पर अक्सर आदर्शवादी नायक के रूप में अन्याय के खिलाफ खड़े दिखते हैं, वे भी यह भूल जाते हैं कि निजी जीवन से भी उन्हें ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। दर्शन भी कन्नड़ फिल्मों के ऐसे ही स्टार नायक रहे हैं, इसलिए पत्नी से मनमुटांव होने पर उनसे परिपक्व व्यवहार की उम्मीद थी, लेकिन उन्होंने परदे पर अपनी छवि के विपरीत आचरण किया। कन्नड़ फिल्म उद्योग के अंदर घटे ऐसे कई उदाहरणों से यह भी साफ हुआ कि सामाजिक संदेश केवल परदे पर ही दी जानेवाली चीज है। कहा जाता है कि यह मनमुटाव एक अभिनेत्री निकिता ठुकराल से उनकी निकटता और उनके साथ फिल्मों में काम करने को लेकर हुआ। कन्नड़ फिल्म उद्योग ने तीन साल के लिए निकिता ठुकराल पर प्रतिबंध लगा दिया लेकिन दर्शन को उनकी कारगुजारियों के बावजूद सहयोग और समर्थन ही मिला। इससे पता चलता है कि ग्लैमर की दुनिया में भी लोगों की सोच महिलाओं के संदर्भ में कितनी संकीर्ण है। फिल्मी नायकों को पसंद करने वाली जनता को भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका नायक असल जिंदगी में कैसा है। दर्शन को हिरासत में लिये जाने की खबर मिलते ही पूरा कन्नड़ फिल्म उद्योग विजयनगर पुलिस थाना दर्शन को छुड़़ाने पहुंच गया था। फिल्म उद्योग के बड़े-बड़े नामों ने दर्शन की पत्नी विजयलक्ष्मी पर ही समझौता करने का दबाव बनाया। यहां तक कि जनता ने, जिसमें महिलाएं भी बड़ी तादाद में शामिल थीं, दर्शन के समर्थन में प्रदर्शन किया। इसी दबाव में दर्शन पर लगे हत्या की कोशिशों के आरोप धारा 107 को, जिसके तहत जमानत मुश्किल होती है, धारा 324 में बदल दिया गया। बहरहाल, दर्शन और विजयलक्ष्मी प्रकरण ने फिर एक बार साबित किया कि औरतें अपने खिलाफ हो रही घरेलू हिंसा के मामलों में कितनी लचीली और समझौतावादी हैं। अपनी सामाजिक सुरक्षा का सवाल और बच्चों का भविष्य उन्हें अपने ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ कदम आगे बढ़ाने के बावजूद पीछे हटाने को मजबूर कर देता है। दरअसल, घरेलू हिंसा को पारिवारिक और सामाजिक दायरे में गंभीर अपराध नहीं माना जाता और ज्यादातर मामलों में तो पत्नी को भी ये एक सामान्य सी बात लगती है। दर्शन और विजयलक्ष्मी के मामले में दर्शन की आलोचना करने के बाद ज्यादातर लोगों की पहली प्रतिक्रिया यही रही कि ये आपस का मामला था, जिसे विजयलक्ष्मी को आपस में सुलझाना चाहिए था। "सारथि' की सफलता भी इस बात की तसदीक करती है कि समाज पत्नी के साथ की गयी मारपीट को कोई गंभीर अपराध नहीं मानता और इससे अभिनेता के कैरियर पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। हैरानी की बात नहीं कि हाल ही में महिलाओं पर शोध करनेवाली अंतरराष्ट्रीय संस्था आईसीआरडब्ल्यू के सर्वेक्षण में 65 फीसद पुरुषों ने माना कि कभी-कभी महिलाओं को मारना जरूरी होता है। बंगलुरू में भी एक सर्वेक्षण में 35 फीसद लोगों को दर्शन का अपराध बड़ा नहीं लगा। अठारह फीसद लोगों की निगाह में यह बहुत आम बात है और 65 फीसद लोग तो मुद्दे को सार्वजनिक करने के कारण विजयलक्ष्मी को ही गलत मान रहे हैं। वैसे हाल ही के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में भी यह बात सामने आयी है कि देश में 40 फीसद शादी-शुदा महिलाएं अपने घरों में पतियों से शारीरिक और यौन हिंसा का शिकार होती हैं और 51 प्रतिशत भारतीय पुरुष और 54 प्रतिशत भारतीय महिलाओं को पत्नियों को मारा-पीटा जाना स्वीकार्य और वैध लगता है। दर्शन प्रकरण ने कन्नड़ फिल्म उद्योग के दोमुंहे चेहरे को भी उजागर किया है जो कमोबेश देश के पूरे शो बिजनेस का एक सच है। यहां बातें बड़ी-बड़ी होती हैं लेकिन हकीकत में औरतों और मर्दो में बराबरी नहीं है, चाहे वह पारिश्रमिक की बात हो या शादी के बाद काम करने की स्वीकार्यता की बात। हिंदी फिल्म उद्योग में भी जीनत अमान, नीतू सिंह, और ऐश्वर्या राय तक घरेलू हिंसा का शिकार हुई हैं। वैसे, घरेलू हिंसा कानून 2005 घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए एक कारगर सुरक्षा कवच है। मसलन इसके तहत घरेलू हिंसा की शिकार महिला के लिए हर तरह की कानूनी सहायता मुफ्त मिलती है और दर्ज शिकायत पर कार्रवाई करने के लिए अधिकतम तीन दिन का ही समय दिया गया है। कोई भी महिला सीधे मजिस्ट्रेट के पास शिकायत लेकर जा सकती है।

बुधवार, 7 सितंबर 2011

यह अभी शुरुआत है


Published in Public agenda

कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े से मनोरमा की बातचीत
कर्नाटक के लोकायुक्त पद से रिटायर हुए न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े कर्नाटक में अवैध खनन पर अपनी जांच-रिपोर्ट के कारण चर्चा में रहे। हेगड़े जन लोकपाल विधेयक बनाने वाली संयुक्त समिति के सदस्य और अण्णा टीम के भी एक महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। बातचीत के मुख्य अंश :

आप अण्णा की टीम और सरकार के बीच बातचीत में अहम भूमिका निभा रहे थे?
नहीं, मैं कोई मध्यस्थता नहीं कर रहा था और न ही मेरे पास सरकार की ओर से ऐसा कोई प्रस्ताव आया। मैं अण्णा की टीम में हूं और हम एक टीम के तौर पर बातचीत के लिए हमेशा से तैयार रहे हैं।

क्या अण्णा के अनशन में दुराग्रह नहीं था?
अण्णा बिल्कुल सही कर रहे थे। सरकार को लोकपाल विधेयक पर व्यापक बहस से गुरेज नहीं होना चाहिए। आखिरकार सर्वसम्मति का ही विधेयक संसद में पारित होगा। लेकिन लोगों को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है। संविधान ने सर्वोच्च सत्ता देश के नागरिकों को ही माना है और सरकार का यह कहना बेबुनियाद था कि हम लोग कानून बना रहे थे। हम सिर्फ सरकार को सुझाव दे रहे थे और संविधान ने ऐसा करने का हमें अधिकार दिया है। 

सरकार के रवैये पर आप क्या सोचते हैं?
जब यह आंदोलन शुरू हुआ था तो हमें उम्मीद नहीं थी कि लोगों का ऐसा साथ और समर्थन मिलेगा। जाहिर है, अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में आम आदमी भ्रष्टाचार से बेहद परेशान है। लोगों के पास अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के पैसे नहीं हैं, लेकिन जनता के ही करोड़ों-अरबों रुपये राजनेता घोटाले करके लूट रहे हैं। इस आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में लोगों की हिस्सेदारी को इसी रूप में देखा जाना चाहिए। 

आप कर्नाटक के लोकायुक्त रहे हैं। क्या लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक में कोई समानता है?
कर्नाटक का लोकपाल रहते हुए मैंने सुओमोटो पावर के लिए काफी प्रयास किये। भाजपा सरकार से आश्वासन मिलने के बावजूद लोकायुक्त को मुख्यमंत्री या कैबिनेट के मंत्रियों के खिलाफ सुओमोटो पावर नहीं मिली। हां, उप-लोकायुक्त पहली श्रेणी के अधिकारियों और उससे नीचे चपरासी तक के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत होने पर संज्ञान ले सकते हैं। इसके बावजूद मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत विशेष लोकायुक्त अदालत में दर्ज होने के कारण उनके खिलाफ मामला बना। 

अण्णा की टीम अपने विधेयक पर इतनी क्यों अड़ी रही?
हम बहस और बातचीत के लिए हमेशा तैयार थे। हमारा तर्क था कि सरकार को अण्णा टीम द्वारा सौंपे गये लोकपाल विधेयक के आठ मुद्दों पर एतराज है तो ठीक है, उन्हें छह मुद्दों पर राजी होने दीजिए और संसद में लेकर आने दीजिए। वैसे भी हम यह नहीं कह रहे कि जन-लोकपाल विधेयक हमने जैसा दिया है, वही पारित हो। हम चाहते हैं कि संसद में इस पर बहस हो, सरकार हमारी मांग और जनभावनाओं को जाने-समझे।

लोकपाल विधेयक भ्रष्टाचार रोकने में कितना कारगर होगा?
यह सच है कि केवल इस विधेयक से देश और समाज से भ्रष्टाचार पूरी तरह से खत्म नहीं होगा, लेकिन कुछ तो फर्क पड़ेगा ही । 

इस आंदोलन के बाद आप लोगों की रणनीति क्या होगी?
हम चुनाव सुधार और सांसदों और विधायकों को वापस बुलाने या राइट टु रिकॉल के लिए मुहिम चलाने वाले हैं। अब हम रुकने वाले नहीं हैं। जनहित के अलग-अलग मुद्दों पर हम जनता को जागरूक करने उसके साथ मिलकर मुहिम चलाने का काम करते रहेंगे।

शुक्रवार, 24 जून 2011

एक छोटी-सी जीत


एक छोटी-सी जीत
[For Public Agenda]
ऐसा रोज-रोज नहीं होता जब समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोग अपने हक के लिए लड़ पाते हों और फिर जीत भी जाते हों। पर बंगलूरू की घरेलू कामगार पापम्मा की कहानी असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे लाखों लोगों के लिए  मील का पत्थर है। नौकरी से अचानक निकाल दिए जाने पर अदालत का दरवाजा खटखटाने वाली पापम्मा से मिलने जब हम बंगलूरू के लिंगराजपूरम इलाके की झुग्गी-बस्ती में गए तो ईंटों के मलबे से भरे प्लाट पर प्लास्टिक शीट से बनी छोटी सी एक झोपड़ी के आगे पतली-दुबली सावंले रंग की 65 साल की महिला बैठी मिली। उसकी ओर इशारा करके उसके बेटे नागराज ने कहा- मैडम, शी इज पापम्मा, माई मदर!  बगल में ही चोट लग जाने की वजह से 25 साल से बेरोजगार, पापम्मा के पति भी बैठे थे। पापम्मा की टूटी हिन्दी को उसका बेटा नागराज हमें अंग्रेजी में समझा दे रहा था। बात बेटे से ही शुरू हुई, पापम्मा कहने लगी- 12वीं तक पढ़ा है, हम दलित हिन्दु हैं पर छोटे बेटे ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है और यहीं किसी रियल इस्टेट ऑफिस  में काम करता है, इसे साढ़े पांच हजार रूपए मिलते हैं। पांच बच्चों में दो बेटे और दो बेटी  अपने-अपने परिवार के साथ रहते हैं जिन्हें किसी तरह पाल-पोष दिया था उसने। 22 साल तक 8 घंटे काम करने के एवज में महज 60 रूपए महीने की आमदनी पर सात लोगों का गुजारा, सोचने वाली बात है। इसलिए बच्चें छोटी उम्र से ही कुली का काम करने लगे और सबको बस रोटी मिलती रही। 2003 से पापम्मा को 500 रूपए मिलने षुरू हुए जबकि एक साल बाद 2004 में कर्नाटक सरकार ने घरेलू कामगारों के लिए 8 घंटे की न्यूनतम मजदूरी 2,279 तय कर दी। और 2007 में काम से निकाले जाने के छः महीने पहले, बार-बार कहने पर उसे 15 सौ मिलने शुरू हुए थे पर ये भी 2008 के सरकार के न्यूनतम मजदूरी के मानक से कम ही था। बहरहाल, ऐसा ही चलता रहता  अगर वो बीमार न पड़ती और 8 दिन काम पर ना जाती। नौंवे दिन जब वो काम करने गयी तो उसे गेटआउट कह दिया गया, बगैर कारण बताए। यहीं नहीं उन्होंने उसे पैसे देने से भी इनकार कर दिया, जबकि पापम्मा जब 60 रूपए पर काम करती थी, तो उसके मालिक उसे ये कहकर चुप करा देते थे कि जरूरत पर हम दे देंगे। 31 साल काम करने के बाद भी मिले इस अपमान और तिरस्कार ने उसे गहरी चोट दी।
अंततः पापम्मा अपने मामले को बंगलूरू के घरेलू मजदूर युनियन के पास ले गई।  युनियन  पापम्मा के मामले को अदालत ले गई जहां आखिर में फैसला पापम्मा के हक में हुआ। हालांकि पापम्मा को सेटलमेंट में 60 हजार रूपए ही मिले जबकि उसे 1 लाख 45 हजार मिलने चाहिए थे, पर ये भी अपनेआप में उल्लेखनीय है।
दरअसल, पापम्मा का मामला घरेलू काम करने वालों के हालात पर रोशनी डालता है। जहां सिर्फ मुंह से बोलकर सब तय होता है, कोई लिखित एग्रीमेंट नहीं होता और नौकरी पर होने का कोई रिकार्ड नहीं होता, ऐसे में शोषण होने पर कभी भी कुछ साबित ही नहीं किया जा सकता। देश के तमाम घरेलू कामगार इसी तरह से काम करते हैं जबकि इस क्षेत्र में काम करने वालों की तादाद लगभग 45 लाख है।  पर अभी तक सरकार के पास इनके लिए स्पष्ट कानून नहीं है, इन्हें किसी किस्म का सरकारी संरक्षण और आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है। पापम्मा कानूनी सहायता ले पायी तो उसकी वजह बंगलूरू में घरेलू कामगारों के मजबूत यूनियन का होना और इसी के मार्फत आल्टरनेटिव लाॅ फोरम जैसे संगठनों से मिली कानूनी मदद है। जबकि अक्सर ऐसे मामले रजिस्टर ही नहीं हो पाते, इसलिए यह जीत अपने-आप में एक मिसाल तो है ही। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये है कि बावजूद इसके पापम्मा के हालात अब भी नहीं बदले हैं। सब जानते हुए भी वो फिर से 800 रूपए महीना पर चार घंटे रोजाना काम कर रही है। छः महीने पहले स्थानीय कारपोरेटर लावण्या गणेश  रेड्डी के आश्वाशन पर उसने अपना अस्थायी कच्चा घर तोड़ दिया था पर मकान बनाने के लिए कॉर्पोरटर फंड से पैसा नहीं मिला है।  अब वो डेढ़ हजार के किराये के एक कमरे में रहती है और बेटे के दिए दो हजार और अपने 8 सौ में से किराया देने के बाद 1300 रूपए में पति के साथ गुजारा करती है। ऐसा क्यों?े यह पूछने पर वह कहती हैं-इससे ज्यादा इस इलाके में कोई देने का तैयार नहीं होता, या तो मुझे इतने पर ही काम करना होगा या फिर घर बैठना होगा। घर बैठने से काम नहीं चलेगा और ज्यादा दूर काम करने मैं जा नहीं सकती। आल्टरनेटिव लाॅ फोरम की ओर से पापम्मा को कानूनी मदद देने वाली मैत्रेयी कृष्णन कहती हैं दरअसल, ये बहुत ही जटिल मसला है और बगैर किसी स्पष्ट कानून के किसी को न्याय दिलाना मुश्किल है। सबसे बड़ी दिक्कत तो घरेलू कामगार की पहचान की है। ऐसे में कोई भी पलट सकता है कि अमुक उसके यहां नौकरी नहीं करती है। दूसरी ओर सरकार ने 8 घंटे काम के एवज में लगभग 3 हजार न्यूनतम मजदूरी इनके लिए तय की है जबकि सरकार का ही मानना है कि बंगलूरू में गुजारे के लिए कम से कम 6 हजार रूपए मासिक जरूरी है। न्यूनतम मजदूरी के मानक का पालन अभी भी नहीं हो रहा। और इससे भी बड़ा सवाल उनके सम्मान का है जो कोई कोर्ट नहीं उनसे काम लेने वालें ही दे सकते हैं।  इसके लिए इनके प्रति नजरिए में बदलाव की जरूरत होगी।  मैत्रेयी कहती हैं हालांकि कर्नाटक में घरेलू कामगारों का यूनियन काफी मजबूत है और यहां जागरूकता भी है, इसलिए हफ्ते में एक दिन की छुट्टी इन्हें यहां मिल जाती है पर अभी भी काफी कुछ किया जाना बाकी है।
कर्नाटक घरेलू कामगार अधिकार यूनियन की गीता मेनन भी यही मानती हैं कि  सुधार सोच में बदलाव से ही संभव है और उस ओर पहला कदम यही होगा कि इन्हें नौकर नहीं बल्कि कामगार या श्रमिक समझा जाए। अपनी बेहतरी के लिए इनका संगठित होना बेहद जरूरी है तभी ये अपने हक के लिए लड़ पाएंगे।
वैसे, कर्नाटक घरेलू कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी मानक लागू करने वाला पहला राज्य है। लेकिन छः साल में न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलने का कोई भी मामला दर्ज नहीं हुआ है, इससे हकीकत समझा जा सकता है। दूसरी ओर केन्द्रीय श्रम मंत्री एम मल्लिकार्जून खाड़गे सबसे गरीब तबके के मजदूरों के लिए बनायी गई राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना जो कर्नाटक को छोड़कर 24 राज्यों में लागू है के तहत घरेलू कामगारों को भी लाने की बात कर रहे हैं। पर कर्नाटक में तो अभी मनरेगा के मजदूर ही इससे बाहर हैं।
बहरहाल, इसी साल अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में पूरे विश्व के घरेलू कामगारों के लिए सम्मानजनक कार्यदशा  मुहैया कराने के लिए नया अंतरराष्ट्रीय कानून लाए जाने की चर्चा है। जबकि भारत में अभी भी ठोस कानून नहीं है। राष्ट्रीय सलाहकार समिति की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने हाल ही में प्रधानमंत्री  को प्रस्तावित राष्ट्रीय घरेलू कामगार नीति के तहत घरेलू कामगारों को व्यापक श्रम अधिकारों के ढ़ाचें में लाए जाने का सुझाव दिया है जिसके तहत बराबर भुगतान, काम करने की जगह पर यौन-शोषण  और अन्य शोषण के खिलाफ संरक्षण ,हफ्ते में एक और साल में 15 अवकाश देने का भी सुझाव दिया है। प्रस्तावित नीति की घोषणा के बाद हालात,  हो सकता है थोड़ा बदलें।




बंगलूरू में घरेलू कामगारों को सबसे पहले संगठित करने वाली और उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली सामाजिक कार्यकर्ता और बंगलूरू गृह कार्मिक संघ की संस्थापिका रूथ मनोरमा से बातचीत
-कर्नाटक में घरेलू कामगारों की स्थिति क्या है?
बंगलूरू में घरेलू कामगारों की संख्या 3 लाख के करीब है, जिनमें से ज्यादातर किसी यूनियन से रजिस्टर्ड नहीं हैं। पर फिर भी यहां घरेलू कामगारों के युनियनों की मजबूत मौजूदगी है और इनके हक की लड़ाई में इनका सार्थक हस्तक्षेप है। कर्नाटक सरकार द्वारा न्यूनतम मजदूरी तय किये जाने को हम अपनी इस लड़ाई में एक महत्वपूर्ण कदम मानते हैं। यहां जागरूकता और हमारे काम से थोड़ा फर्क तो आया है और हालात बाकी जगह से कुछ बेहतर हैं।

-बंगलूरू गृह कार्मिक संघ की इसमें क्या भूमिका रही?
-1987 में हमने इसकी नींव रखी और तबसे हमारी लड़ाई जारी है। इससे पहले 1986 में पुलिस में घरेलू कामगारों का रिकार्ड और फोटो दिए जाने का आदेश  हुआ था। हमने वीमेन व्वाईस के जरिए इसका विरोध किया, क्योंकि ये इन कामगारों के सम्मान के खिलाफ था इसके बदले लेबर ऑफिस में इन्हें रजिस्टर्ड किया जाना चाहिए। खैर, वो आदेश  वापस ले लिया गया। न्यूनतम मजदूरी तय होना बंगलूरू गृह कार्मिक संघ की जीत रही है।
-न्यूनतम मजदूरी के बाद अगली मांग क्या है?
हम घरेलू कामगारों को असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सूची में लाना चाहते हैं। राष्ट्रीय घरेलू कामगार अधिनियम पर हमारी नजर है। और राज्य सरकार की पहल पर भी। हमारी मांग इन्हें सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाए जाने की है। निर्माण क्षेत्र के मजदूरों को लेबर ऑफिस से मिलने वाले पहचान पत्र की तरह ही इन्हें भी आईडेंटिफिकेशन कार्ड मिलना चाहिए। इससे इन्हें 17 फायदें मिलेंगे। साथ ही प्रवासी कामकारों को सरकार की ओर से पूर्ण संरक्षण मिलना चाहिए
- बंगलूरू गृह कार्मिक संघ कामगारों को आर्थिक मदद भी मुहैया कराता है?
हम सदस्यों की आर्थिक मदद भी करते हैं, पर हमारे पास लाए गए मामलों में हम कानूनी मदद करते हैं। इनके सामाजिक, पारिवारिक मसलों में भी हस्तक्षेप करते हैं। लेकिन सरकार के पास इनकी मदद के लिए कोई फंड नहीं है। हम चाहते हैं कि सरकार मामूली सेस लगाकर इनके लिए कोई फंड बनाए और जरूरत पड़ने पर इनकी आर्थिक मदद करें।  

गुरुवार, 23 जून 2011

चंदन के तस्कर


(Published in Public agenda)
कभी दक्षिण-भारत के जंगलों में आतंक का पर्याय रहे और जंगल का राजा कहे जाने वाले वीरप्पन को मरे हुए 7 साल हो चुके हैं। अपने जीवनकाल में दस हजार टन से भी ज्यादा चंदन की लकड़ी की तस्करी करने वाले वीरप्पन ने कर्नाटक, तमिलनाडू और केरल के जंगलों से चंदन के पेड़ों की सफाई करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी, पर उसके जाने के बाद भी यहां एक नहीं बल्कि कई वीरप्पन सक्रिय हैं, जो रातों-रात बंगलूरू जैसे  शहर में विधानसभा से सटे वीवीआईपी इलाके से भी चंदन के पेड़ काट ले जाते हैं और उनका कोई कुछ नहीं कर पाता। हाल ही में तस्करों ने यहाँ चंदन के 3 पेड़ रातों रात काट डाले। जिसमें से एक तो  विधानसभा और हाई कोर्ट के सामने कब्बन पार्क जैसे इलाके  में था।  सार्वजनिक जगह पर साबुत बचा यह शहर का इकलौता चंदन का पेड़ था और जिसकी सुरक्षा में हमेशा  एक सशस्त्र सुरक्षाकर्मी भी तैनात रहता था। और 2 पेड़ सीवी रमण नगर इलाके के एक घर के अहाते से बंदुक की नोक पर काट लिया गया। एक पेशेवर तस्कर  केवल 3 मिनट में परिपक्व चंदन का पेड़ को काट डालता है। आईआईएम बंगलूरू के कैंपस से भी चंदन के पेड़ काट लिए जाते हैं । यहां तक कि इन्सटीट्यूट ऑफ वुड साईंस एंड टेकनॉलजी से भी पांच परिपक्व चंदन के पेड़ों को काटने की कोशिश की गई। सरकार द्वारा अभी भी तमाम सरकारी जमीन और भवनों के अहाते में चंदन के पेड़ लगाए गए हैं पर इन्हें तस्करी से बचाना बड़ा काम है। अभी भी तुराहल्ली के जंगल, बंगलूरू विश्वविद्यालय परिसर, जीकेवीके कैपस, इन्सटीट्यूट ऑफ वुड साईंस एंड टेकनॉलजी और इबलुर में चंदन के पेड़ों की ठीक-ठाक संख्या है जो कुछ सालों में परिपक्व हो जाएंगे पर ये तस्करों से बच पाएंगे या नहीं ये बड़ा सवाल है। अभी के हालात देखकर तो यही लगता है कि तस्करों के हौसले सरकार से ज्यादा बुलंद हैं। कर्नाटक फारेस्ट सेल के रिकार्ड के मुताबिक 2007 में राज्य में चंदन की लकड़ी की तस्करी के 88 मामले सामने आए थे जो 2008 में 191 हो गए लेकिन 2009 में 102 मामले ही दर्ज हुए। लेकिन मामलों में कमी इसलिए नहीं आयी कि पुलिस-प्रशासन ज्यादा मुस्तैद हो गया बल्कि इसलिए कि दिनों दिन चंदन के पेड़ घटते जा रहे है। असलियत ये है कि राज्य के जंगलों में संभवतः गिने-चुने ही प्राकृतिक रूप से उगे चंदन के पेड़ बचे हों या शायद  वो भी नहीं। जबकि कर्नाटक के उत्तरी इलाके में कभी हजारों किलोमीटर तक चंदन के जंगल हुआ करते थे।

अभी एक दशक पहले तक ही बंगलूरू में 97 बड़़े और पुराने चंदन के पेड़ हुआ करते थे जिसमें 21 कब्बन पार्क में थे। लेकिन जल्दी ही इनकी संख्या 21 से 6 रह गई, धीरे-धीरे सब माफियाओं की भेंट चढ़ते गए। और आखिरकार इकलौता पेड़ भी उनकी नजर हो गया। हांलाकि कब्बन पार्क और लाल बाग जैसी जगहों में चंदन के और पेड़़ है पर उन्हें लगाए कुछ ही साल हुए है और वो अभी परिपक्व नहीं हुए हैं।
चंदन, कर्नाटक की पहचान और संस्कृति का हिस्सा रहा है। सिल्क के साथ-साथ कर्नाटक अपने मैसूर सैंडल सोप और चंदन की लकड़ी से बनी खूबसूरत कलाकृतियां के लिए भी उतना ही जाना जाता है। यहां लाखों लोगों की रोजी रोटी, चंदन और इससे जुड़े कारोबार से चलती है मसलन, अगरबत्ती से लेकर  साबुन, टेल्कम पाउडर, परफ्यूम और ऐसे ही अनगिनत सौन्दर्य उत्पाद यहां बनते हैं। इसके अलावा चंदन की लकड़ी पर नक्काषी या इससे कलाकृतियां बनाने का काम भी यहां बड़े पैमाने पर होता है, दवाईयों में भी चंदन के तेल का इस्तेमाल होता है। यह कर्नाटक का राजकीय वृ़क्ष भी है। और मैसूर तो कर्नाटक का चंदन का षहर ही कहलाता है। देष का 70 प्रतिशत चंदन कर्नाटक ही मुहैया कराता रहा है। जो हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि दुनियां में सबसे बेहतरीन माना जाता है।  पर दिनों दिन बढती मांग और घटती आपूर्ति ने आज इस पेड़ के आस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है।
वैसे चंदन के पेड़़ भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं भी लगाए जा सकते हैं, केवल सही किस्म का चयन करना होता है। फिलहाल देश में 27 किस्म के चंदन के पेड़ पाएं जातें है। मध्यम उर्वर मिट्टी, और थोड़ी ढाल वाली जमीन ताकि जड़ों में पानी नहीं रूके इसके लिए उत्तम है। लेकिन शुष्क जलवायु दशाओं में पेड़ में बनने वाले हार्टवुड और तेल की गुणवत्ता जरूर बहुत उम्दा हो जाती है। कर्नाटक की आबो हवा और प्राकृतिक दशाएं चंदन के पेड़ों के लिए एकदम सटीक है। सदाबहार जंगल का यह पेड़ 40 से 50 फीट तक उंचा और 3 से 8 फीट मोटा होता है। थोड़ा बैंगनीपन लिए हुए इसके भूरे रंग के फूल सुंगधहीन होते हैं। प्राकृतिक  चंदन के पेड़ कम से कम 30 साल में परिपक्व होते है। जबकि प्लानटेशन के तहत उगाए गए चंदन के पेडों में़ दस से पन्द्रह साल के भीतर ही  25 किलो तक संुगधित हार्टवुड का निर्माण हो जाता है। लेकिन अब चंदन के पेड़ों की ऐसी किस्में भी विकसित कर ली गई हैं जो 12 साल में तैयार हो जाती है। चंदन की लकड़ी की बिक्री हार्टवुड, ब्रांचवुड, चिप्स और पाउडर के रूप में होती है। हार्टवुड से ही चंदन की कलाकृतियां और गहने बनाए जाते हैं जबकि छाल को पीसकर उससे अगरबत्ती बनती है। जड़ों से तेल निकाला जाता है। और पेड़ को खरोंच-खरोंच कर पाउडर जमा किया जाता है।
दरअसल, चंदन मतलब पैसा! एक ऐसा पेड़, जो आकार नहीं बल्कि वजन के हिसाब से बेचा जाता है। आज एक टन भारतीय चंदन की लकड़ी की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लगभग 45 लाख से भी ज्यादा है। पिछले 18 साल से सालाना लगभग 18 प्रतिशत की दर से इसमें  इजाफा हो रहा है। जबकि 1 लीटर चंदन के तेल की कीमत सवा लाख से उपर है। दो साल पहले तक प्रति टन चंदन की लकड़ी की कीमत 20 लाख रूपए थी। मोटे तौर पर एक एकड़ में चंदन लगाने पर 12 से 15 साल में 22 से 25 लाख तक खर्च आता है और मुनाफा ढ़ाई करोड़ से उपर। यही वजह है कि निजी क्षेत्र की कई कंपनियां चंदन के प्लानटेशन में उतर चुकी हैं। सूर्या विनायक इंडस्ट्रीज, डी एस समूह और नामधारी सीड्स लिमिटेड कर्नाटक के अलावा देश के अन्य राज्यों में बड़े पैमाने पर चंदन की खेती कर रही हैं। श्री श्री एग्री ग्रुप जैसी कंपनी तो बिहार में भी चंदन की खेती की योजना बना रही है। इसके अलावा भारत को चंदन के उत्पादन में सबसे बड़ी चुनौती आस्ट्रेलिया से मिलने वाली है। जहां बड़े पैमाने पर भारतीय चंदन की प्लानटेषन की गई है और 2012 से वहां के चंदन की पहली खेप बाजार में आनी शुरू  हो जाएगी।
कर्नाटक के कुल 20 फीसदी हिस्से में जंगल हैं और कुल वन-क्षेत्र के 10 फीसदी में कभी चंदन हुआ करते थे जो अब घटकर महज 5 फीसदी या उससे भी कम रह गया है। यानी चंदन के प्राकृतिक वन-क्षेत्र विलुप्त होने के कगार पर हैं। तस्करी का आलम जब बंगलूरू में ऐसा है तो सहज समझा जा सकता है राज्य के जंगल कितने सुरक्षित हैं।  चंदन उत्पादन में अग्रणी रहे कर्नाटक में पिछले तीन साल से लकड़ी की नीलामी ही नहीं हुई है। जाहिर है  दूसरे राज्यों और आयात करके काम चलाया जा रहा है पर लंबे समय तक कच्चे माल की आपूर्ति नहीं होने की सूरत में लाखों लोगों की रोजी-रोटी पर इसका सीधा असर होगा। इसलिए  चंदन उत्पादन को लेकर सरकार गंभीर हो गई है। और चंदन की खेती का रकबा डेढ़ हजार एकड़ से बढ़ा कर दो हजार एकड़ करने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही सरकार ने चंदन की लकड़ी के उत्पादों से होने वाले मुनाफे पर लगाए जाने वाले 50 फीसदी कर में भी रियायत दे दी है। और उत्पादक राज्य सरकार के अलावा अन्य एजेंसियों को भी चंदन की लकड़ी बेच सकता है। यहां तक कि विभिन्न सरकारी संस्थान भी अगर अपने परिसर में लगे चंदन के पेड़ों को हटाते हैं तो  राज्य का वन विभाग उन्हें इसका भुगतान करेगा।  इसके अलावा नेशनल मेडीसिनल प्लांट बोर्ड भारत सरकार की ओर से भी चंदन की खेती पर सबसिडी दी जाती है साथ ही सभी र्राष्ट्रीय बैंक चंदन के पेड़ लगाने की परियोजनाओं के लिए कर्ज भी मुहैया कराते हैं।
हालात को देखते हुए ही राज्य सरकार विधानसभा के अगले सत्र में कर्नाटक राज्य वृक्ष संरक्षण कानून में संशोधन करने जा रही है। राज्य के वन मंत्री सी एच विजयशंकर ने इस संबंध में बताया कि कानून के पारित हो जाने के बाद चंदन के पेड़ के मालिक अंतर्राष्ट्रीय कीमत के अनुसार अपने पेड़ की लकड़ी भी बेच सकेंगे। गौरतलब है कि कर्नाटक में 2001 में वृक्ष संरक्षण कानून में संशोधन कर अपनी जमीन पर लगाए गए चंदन के पेड़ का मालिकाना हक भूस्वामी को दे दिया गया था पर उसकी बिक्री पर सरकार का नियंत्रण है। इसके इस्तेमाल के लिए सरकारी मंजूरी जरूरी है। यही नहीं बगैर सरकारी मंजूरी के चंदन की लकड़ी अपने पास रखना या इसे कहीं ले जाना भी गैरकानूनी है। जाहिर है ऐसे में पेड़ को बेचना और फिर सरकार की ओर से पैसे का भुगतान बड़ी समस्या थी। इसलिए किसान चंदन की खेती से दूर रह रहे थे।  है। किसानों को इससे जोड़ने के लिए कानून में संशोधन समय की मांग है।
कुल मिलाकर चंदन की लकड़ी उगाने वालों के लिए आने वाला समय सबसे मुफीद साबित होने वाला है। बशर्ते अगर उनके पेड़ वीरप्पनों से बच जाएं।


शुक्रवार, 20 मई 2011

एक कदम तो उठाओ यारों...........

 एक चीनी कहावत है-अंधेरे को कोसने से बेहतर है मोमबत्ती जलाओ। यानी कोसने से बेहतर करना है। हमेशा  सरकार और सिस्टम को कोसने से कुछ नहीं होने वाला, करप्नश  का रोना रोने से भी कोई फायदा नहीं। अगर कुछ हो सकता है तो हमारे लिए बनायी गई योजनाओं, उसके लिए निर्धारित की गई रकम और उसे अपने विकास पर खर्च करने के तौर-तरीके जानने और उसके लिए माहौल बनाने से। कम से कम कर्नाटक के बेलगांव जिले के सिरागुप्पी गांव की पंचायत और वहां के लोग तो यही कहते हैं। हाल ही में इस गांव को न सिर्फ केन्द्र सरकार से माॅडल गांव  अवार्ड मिला है, बल्कि इसने गुगल अवार्ड भी हासिल किया है। ये अवार्ड सरकार की सभी योजनाओं को सफलतापूर्वक लागू करने और सभी बुनियादी सुविधाओं का लक्ष्य हासिल कर लेने वाले गांव को दिया जाता है।
दरअसल, विकास की सैकड़ों योजनाएं सरकार के पास है, हर साल बजट में इन योजनाओं के लिए रकम भी एलोकेट होती है पर ये भी सच है कि ये पैसा उन तक नहीं पहुंचता जिनके लिए ये योजनाएं बनती हैं, या फिर पहंुचता भी है तो नाममात्र को। यानी इन्हें इंप्लीमेंट करने वाला सिस्टम भ्रश्ट है। जबकि देश  की 72 फीसदी आबादी आज भी लगभग 6 लाख गांवों में रहती है। लेकिन फिर भी बुनियादी सुविधाओं तक उनकी पहंुच शहरों में रहने वाली आबादी जैसी नहीं है। लेकिन फिर भी विकास की भूख हो, जमाने के साथ कदम मिला कर चलने की ललक हो, साथ ही अपनी जड़ अपनी मिट्टी से भी उतना ही प्यार हो, तो सब संभव है। अब सिरागुप्पी गांव की ही बात करें तो, ये उसी कर्नाटक का हिस्सा है जिसे फिलहाल देश के भ्रष्टतम राज्यों में से एक समझा जाता है। लेकिन इसे भ्रष्ट कहने वाली पार्टी, जिसकी केन्द्र में सरकार है उसी ने इस गांव को सम्मानित भी किया है। यही नहीं कर्नाटक को पंचायती व्यवस्था को बेहतर ढंग से लागू करने वाला दूसरा राज्य होने का सम्मान भी दिया गया, जबकि पिछले साल कर्नाटक पहले स्थान पर था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भ्रष्ट तंत्र होने के बावजूद भी विकास के प्रति लोगों की चाहत को यहां नजरअंदाज करना इतना आसान नहीं। तभी तो स्वच्छता, पीने के पानी की सप्लाई, प्राइमरी एजुकेशन, रोड, महिलाओं और समाज के कमजोर तबके में साक्षरता का अनुपात जैसे मानकों पर यह गांव देश  भर में खरा उतर पाया और माॅडल गांव होने का रूतबा हासिल कर पाया। और यहीं से इस गांव की सक्सेस स्टोरी भी देश  के बाकी गांवों के लिए भी एक उदाहरण बन जाती है। क्योंकि विकास के लिए गांव की पंचायत ही नहीं बल्कि पूरे गांव ने एक होकर काम किया, पंचायत में कोई किसी दल का नहीं था और न गांव में कोई किसी समूह का। बस सबकी लाईन एक ही रही-सिरागुप्पी के तरक्की की लाईन। इस गांव की पंचायत और लोगों ने साबित किया कि सब अगर मिलकर एक लक्ष्य के लिए काम करें तो बदलाव जरूर ला सकते हैं। पिछले पांच साल में इस गांव ने 8 करोड़ अपने विकास पर खर्च किए।
सच तो ये है कि माॅडल गांव जैसा कोई अवार्ड होना ही नहीं चाहिए था, विकास के जिन मानकों पर ये अवार्ड दिया जाता है, हर गांव का ये बुनियादी हक है, पर ऐसा है नहीं। आज भी देष के लाखों गांव बिजली, सड़क, स्कुल, अस्पताल, और पीने के पानी की सप्लाई जैसे बुनियादी सुविधाओं से महरूम है। ऐसे में किसी गांव में घर-घर में नल होना, प््रााॅपर अंडरग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम होना,घर-घर में टाॅयलेट होना, कचरे का सिस्टेमेटिक ढंग से निपटान होना और अच्छी सड़के होना, निष्चिततौर पर देष के दूसरे गांवों के लिए सपने सरीखा ही है। लेकिन ये सब तभी संभव हो पाया जब पंचायत ने सरकार की सारी योजनाओं को पूरी पारदर्षिता के साथ लागू किया। और लोगों ने भी योजनाओं का किसी भी रूप में दुरूपयोग नहीं किया। सरकारी फंड के साथ-साथ इस गांव ने अपने एमपी और एमएलए फंड का भी बखूबी इस्तेमाल किया। फिर भी पैसा कम पड़ा तो अपने स्रोत से संसाधन जमा कर विकास के अपने लक्ष्यों को हासिल किया। यही नहीं केन्द्र सरकार की मनरेगा जैसी योजना को इस गांव ने 100 प््रातिषत क्षमता के साथ लागू किया है। गांव के प्राईमरी हेल्थ सेंटर में आपको एम्बूलेंस भी मिल जाएगा। 2290 घरों वाले इस गांव के  1335 घर में  नल हैं। गांव की साक्षरता दर 96 फीसदी है। दस हजार की आबादी वाले इस गांव में 70 सेल्फ हेल्प ग्रुप हैं। पंचायत में प्री युनिवर्सिटी काॅलेज, तीन हाई स्कूल, छः प््रााईमरी स्कूल और नौ आंगनबाड़ी सेंटर हैं। यहां बैंकों  की षाखाएं भी हैं  और पंचायत पूरी तरह से कंप्यूटराईज्ड है। साथ ही पानी पर चार्ज से पंचायत ने 7 लाख रूपए अर्जित किए।
षिरागुप्पी गांव ने अपनी सूरत, अपने लिए बनायी गई योजनाओं और उनके लिए आवंटित रकम का इस्तेमाल करके बदली है, देष के बाकी गांवों को यही याद रखने की जरूरत है।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

तेरी याद में एक पेड़



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चाह हो तो राह मिल ही जाती है ये बात बंगलूरू की जैनेट एग्नेश्वरण पर पूरी तरह से लागू होती है। पेशे से लैंडस्केप कलाकार जैनेट स्वभाव से ही प्रकृति प्रेमीरही हैं। बंगलूरू के अपेक्षाकृत ज्यादा हरे.भरे इलाके कोरमंगला में रहनेवाली जैनेट इस गार्डन सिटी को तेजी से ग्रे सिटी में बदलते देख अपनी ओर से कुछ पहल करने की सोच रही थीं। शहरीकरण और विकास के नाम पर बुनियादी ढ़ांचा खड़ा करने के लिए बेहिसाब पेड़ों की कटाई इन दिनों यहां आम है। अपने आस.पास की हरियाली से प्यार करने वाले हर शख्स को यह बात खलती भी है पर पहल कुछ ही लोग कर पाते हैंए जैनेट भी ऐसे ही कुछ लोगों में से हैं जिन्होंने पेड़ों के कटने पर सवाल करने के बजाए पेड़ लगाने को तव्वजों दिया। नतीजा 2005 से अब तक वो बंगलूरू और इसके आस.पास 23 हजार 300 से ज्यादा पेड़ लगा चुकी हैं। दरअसल 2003 में अपने पति की मौत के बाद उनकी याद में उन्होंने पेड़ लगाने की शुरूआत की। फिर नवंबर 2005 में राजानेट एग्नेश्वरण  चैरिटेबल ट्रस्ट बनाया और ट्री फॉर फ्री नाम से एक संगठन की नींव रखी।  आज इस संगठन के साथ बंगलूरू की ग्रीन ग्रुप्स की कंपनियां जुड़ चुकी हैं और आईटी क्षेत्र में काम करने वाले कई युवा भी वालेन्टियर बन कर पेड़ लगाने की इस मुहिम में निजी तौर पर शामिल हो रहे हैं। जाहिर है परिदृष्य कुछ तो बदल रहा है और भविष्य के प्रति भी कुछ उम्मीद जग रही है। शायद हरियाली बची रहेगी।
जैनेट के लिए शुरूआत इतनी आसान भी नहीं रही। लोगों के पास जाना उन्हें अपने घर के सामने मुफ्त में पेड़ लगाने के लिए जगह देने के लिए राजी करना और फिर ये कहना कि पेड़ लगा देने के बाद क्या वो उसकी देखभाल करेंगे, सब मुश्किल था लेकिन कुछ लोग तैयार हुए और पहले साल वो 250 पेड़ लगाने में कामयाब हुईं। लेकिन अब सब उन्हें और उनके काम को जान गए हैंए खुद उन्हें फोन करके पेड़ लगाने के लिए बुलाते हैं। यहां तक कि किसान भी। जैनेट से जिस दिन बात हुई वो बंगलूरू की बाहरी सीमा पर होस्कोटे में पेड़ लगा कर लौटी थीं। और खुश  होकर बताया अब हम फलों के पेड़ भी लगा रहे हैं। किसानों के खेत में जाकर मुफ्त में कलमी आम के पौधें लगा रहे हैं इसलिए अब उनसे भी हमें बुलावा आ रहा है। बंगलूरू के हाउसिंग कॉम्पलेक्स में रहने वाले भी खुद उन्हें फोन कर पेड़ लगाने का आमंत्रण देने लगे हैं। हाल ही में इन्होंने ऐसे कई आवासीय परिसरों में पेड़ लगाएं जहां पहले एक भी पेड़ नहीं थें। लेकिन उन्हें पेड़ लगाने का बुलावा ज्यादातर बनरगटा और कनकपूरा से आता है जो अभी भी ज्यादा हरे.भरे हैं। जैनेट चाहती हैं कि उन इलाकों के लोग उन्हें बुलाएं जहां अब सचमुच हरियाली कम हो गई है। गौरतलब है कि जैनेट पौध नहीं बांटती हैं अगर आपके पास पेड़ के लिए जगह है तो वहां पेड़ लगाती हैं। उसके बाद देखभाल की जिम्मेदारी पेड़ लगाने के लिए बुलावा देने वाले पर होती है।  
ट्री फॉर फ्री  के अब लोकप्रिय होने का कारण पुछने पर जैनेट कहती हैं हमारा मकसद लोगों को भावानात्मक तौर पेड़ों से जोड़ कर उनकी तादाद में इजाफा करना है। तभी लगाए जाने के बाद इन पेड़ों को संरक्षण मिलेगा जो उनके बचे रहने की गारंटी होगी। पेड़ों से प्यार बढ़ाने के लिए वो किसी की याद में पेड़ लगाने की सलाह देती हैंए तोहफे में पेड़ देने और लेने को प्रोत्साहित करती हैं। वो कहती हैं हम पेड़ लगाने के पैसे नहीं लेते, लोगों को अपने साथ लेकर पेड़ लगाते हैं शायद यही वजह है कि लोग अब ज्यादा संख्या में जुड़ रहे हैं। कुछ बदलाव लोगों में पर्यावरण के प्रति आयी जागरूकता के कारण भी है। इस संदर्भ में जैनेट खासतौर पर आईटी कंपनियों के युवाओं की तारीफ करती हैं जो काम के अलावा अपने आस.पास को लेकर खासे सजग हैं और काम के बाद फुरसत पाते ही कुछ सकारात्मक करने की ख्वाहिश  रखते हैं। जैनेट के साथ साफ्टवेयर कंपनियों में काम करने वाले ऐसे 150 सदस्य हैं जो पेड़ लगाने में अपना सहयोग देते हैं। इसके अलावा याहू, जेपी मोर्गन, हार्ले डेविडसन और अब सेल जैसी कंपनियां भी पेड़ लगाने के इनके इस अभियान में सहयोग कर रही हैं। लेकिन सरकार से इन्हें किसी किस्म का सहयोग नहीं मिला है। जैनेट कहती हैं पिछले दो साल हमें सरकारी नर्सरी से बांस के पौध भी नहीं मिल रहे। यानी यह पूरा अभियान लोगों की अपनी प्रतिबद्धता और ग्रीन ग्रुप्स की कंपनियों के कॉरपोरेट सहयोग से चल रहा है। जैनेट की हरियाली की यह मुहिम धीरे.धीरे अपने पांव पसार रही है बंगलूरू के अलावा आस.पास के जिलों और तमिलनाडू में भी उन्होंने पेड़ लगाएं हैं चाहे तो आप भी उनकी इस मुहिम में http://www.treesforfree.org के मार्फत शामिल हो सकते हैं।

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

बूंद-बूंद सहेजने की टेक्नीक


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सूरज तप रहा है, धरती जल रही है और सारी दुनिया में वाटर क्राइसिस का शोर हो, ऐसे में कोई ये कहे कि पानी के लिए रोते क्यों हो, तुम्हारे पास पानी की कोई कमी नहीं है, तो किसी को यकीन नहीं होगा. बंगलुरू के अयप्पा महादेवप्पा मसागी यही कहते हैं. पानी की बूंद-बूंद को हर कदम पर सहेजने और बर्बादी से बचाने वाले अयप्पा को इसलिए वाटर गांधी कहा जाता है. जबकि देश के ज्यादातर हिस्सों में भंयकर गर्मी वाले दिनों की छोड़ें अब तो सर्दियों में भी पानी के लिए मुश्किल होती है. 
  
महानगरों में तो पूरे साल ही पर्याप्त वाटर-सप्लाई का टोटा रहता है. बंगलुरू भी इससे अछूता नहीं है पर अयप्पा जैसे लोगों ने एक सार्थक और जरूरी कदम इस दिशा में बढ़ाया है, जिसके नतीजे काफी उत्साहजनक और सभी के अमल में लाने योग्य हैं. दरअसल, बढ़ती आबादी और घटते जल-स्त्रोत के कारण पूरी आबादी को पानी की पर्याप्त आपूर्ति बहुत विकट समस्या बनती जा रही है. गौर करने वाली बात यह भी है कि पानी की कमी का रोना रोने के बावजूद वाटर डिस्ट्रीब्यूशन के दौरान पानी की बेशुमार बर्बादी की जाती है. बहरहाल, हम सब ये फैक्ट अच्छी तरह से जानते हैं, पर इस दिशा में कोई पहल नहीं कर पाते. बंगलुरू के अयप्पा महादेवप्पा मसागी ने ऐसा नहीं किया. नतीजा पानी सहेजने की इनकी छोटी-छोटी कोशिशों ने बहुत बड़ा फर्क पैदा किया अब इन्हें दुनिया वाटर गांधी के नाम से जानती है. पानी बचाने के लिए इन्होंने खुद ही बहुत इफेक्टिव और सस्ती तकनीक ईजाद की है, जबकि न तो ये टेक्निकली ट्रेंड हैं और ना ही इनके पास कोई बड़ी डिग्री है. 
  
वाटर क्राइसिस शब्द इस 54 वर्षीय शख्स के सामने कोई मायने नहीं रखता. पानी बचाने के लिए ये अब तक सौ से भी ज्यादा तकनीक का सफल प्रयोग कर चुके हैं. कर्नाटक के गदग जिले के गांव से ताल्लुक रखने वाले मसागी को बचपन की वो बात जरूर याद है, जब उन्हें सुबह-सवेरे 3 बजे ही 2 किलोमीटर चलकर पड़ोस के गांव से पानी लाना पड़ता था. हालांकि शुरुआत में संसाधनों की कमी के कारण वो पानी बचाने की दिशा में शौक के बावजूद कुछ नहीं कर पाए पर बाद में हालात बेहतर होने पर इन्होंने जिन टेक्नीक्स का ईजाद किया, उसे हाउसिंग सेक्टर के साथ-साथ इंडस्ट्रीज भी अपना रही हैं और पानी के खर्च के साथ-साथ पानी को सहेजने और बचाने पर भी उतना ही ध्यान दे रही हैं. मसलन, मसागी ने रिचार्ज सॉफ्ट टेक्नीक ईजाद की जो बेहद कारगर साबित हो रही है, जिसके तहत बोरवेल के पास ही सबसॉईल रिचार्जिग सिस्टम बनाया जाता है. 
  
यह प्रणाली रेनवाटर हारवेस्ंिटग सिस्टम और फिल्टर्ड ग्रे-वाटर से भी कनेक्टेड होती है. इनका मोटो एकदम सरल है और वो ये कि पानी की एक बूंद भी बेकार ना होने पाए, चाहे वो बारिश का पानी हो या फिर सोर्स से घरों के नलों तक पहुंचने वाला पानी. यहां तक कि बाथरूम और किचन में इस्तेमाल हो चुके ग्रे-वाटर का भी इस्तेमाल ये सुनिश्चित करा देते हैं. इनकी सक्सेस स्टोरी ये है कि अब तक 200 अपार्टमेंट, हजार से ज्यादा निजी मकान और 41 इंडस्ट्री ने इनकी तकनीक की मदद से पानी की किल्लत खत्म की है. जबकि 17 और प्रोजेक्ट पर काम जारी है. अगर उनकी बात मानें तो बंगलुरू में ही निर्माणाधीन मेट्रो प्रोजेक्ट के ट्रैक के प्रति किलोमीटर पर ये 3 करोड़ लीटर पानी सालाना बचा सकते हैं. इसके लिए केवल एक बार बीस लाख खर्च करना पड़ेगा. 1 स्क्वॉयर मीटर छत वाले घर में केवल एक बार दस हजार रुपए लगाने के बाद सालाना 1.2 लाख लीटर पानी बचाया जा सकता है. इनके काम को देखते हुए 2009 में इन्हें रूरल डेवलपमेंट में साइंस और टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के लिए नेशनल अवॉर्ड दिया गया. साथ ही दक्षिण अफ्रीका जैसे देश ने भी इन्हें अपने यहां जल-सरंक्षण तकनीक सिखाने के लिए बुलाया है. जाहिर है दुनिया को आज ऐसे कई वाटर गांधी की जरूरत है, ताकि पानी के लिए तीसरे विश्व-युद्ध की नौबत ना आने पाएं.

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

सुरों से सवंरता बचपन

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हममें से बहुत से लोग सफल होते हैं शोहरत और दौलत सब कमा लेते हैं पर जिस मिट्टी, जिस गांव, जिस देश , से हम आते हैं उसे उसका बकाया वापस लौटाने लिए बहुत कम ही लोग वापस मुड़ते हैं। अमेरिका के बे-एरिया में रहने वाले कर्नाटक के वादिराजा भट्ट और उनके दो दोस्त एच सी श्रीनिवास और अशोक कुमार ऐसे ही लोगों में से हैं। कुछ साल पहले अपनी मिट्टी का कर्ज चुकाने की जो छोटी सी मुहिम उन्होंने चलायी, अब उसका असर दिखने लगा है। और कर्नाटक और तमिलनाड् के दूर-दराज के गांवों के उन स्कूलों की सूरत बदलने लगी हैं जहां बच्चों को एक ही कमरे के टूटे-फृटे स्कूलों में पढ़ना होता था वो भी बगैर पानी, बिजली और टाॅयलेट जैसी बुनियादी सुविधाओं के। अब यही स्कूल पक्की इमारत में चल रहे हैं वो भी सभी बुनियादी सुविधाओं के साथ। इनकी इस मुहिम का नाम है ‘वन स्कूल एट ए टाईम’ या ‘ओसाट’।


दरअसल, कुछ करने की ख्वाहिश हो तो रास्ते निकल ही आते हैं। ऐसी हर सक्सेस स्टोरी के बारे में जानने-पढ़ने के बाद यही समझ आता है। इन तीन दोस्तों के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ, कुछ साल पहले जब ये कर्नाटक आएं तो भट्ट राज्य के दक्षिण कन्नडा जिले में स्थित अपने गांव बाजेगोली भी गए। लेकिन वहां के स्कूल की हालात देखकर उन्हें खासी परेशानी हुई। गांव के सारे बच्चों के लिए वहां एक ही स्कूल था, जो एक कमरे में चलता था अब वो कमरा भी एकदम खस्ताहालत में था। पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं तो बहुत दूर की बात थी। वापस अमेरिका आने पर उन्होंने संगीत के जरिए इस स्कूल के लिए फंड जमा करने की सोचा। और रागा नाम से एक संगीत मंडली बनायी। इसी तरह काटे नाम से थियेटर ग्रुप भी बनाया। संगीत और कल्चरल प्रोग्राम के जरिए उनकी फंड जमा करने की स्कीम रंग लायी जब अमेरिका में आयोजित रागा म्यूजिक कंसर्ट सुपरहिट रहा। बाजेगोली के खस्ताहाल स्कूल की हालात सुधरी तो बच्चों और उनके माता-पिता के चेहरे की मुस्कुराहट ने उन्हें अब इस काम को मिशन बनाने की प्रेरणा दी। अब तक ये ग्रूप पांच स्कूल की सूरत पूरी तरह से बदल चुका है। और दो स्कूल में इनका काम चल रहा है।

उनके काम करने का तरीका बहुत आसान है, तीनों पहले उस स्कूल का चयन करते हैं जिसका रिनोवेशन किया जाना है, फिर ऑथोरिटी बात करते हैं, स्थानीय लोगों और सुपरवाईजरों को इस काम से जोड़ते हैं और फिर स्थानीय रोटरी क्लब को इन्वाल्व कर उनकी मदद से काम पूरा करते हैं। इस प्रोग्राम की खासियत ये है कि कोई भी स्कूल का नाम रिनोवेशन के लिए सुझा सकता है। शर्त केवल यही है कि उस स्कूल से गरीब बच्चों को फायदा होना चाहिए और उस स्कूल के टीचर्स में बच्चों को बेहतर पढ़ाने और बेहतर शैक्षिणक माहौल देने की ललक होनी चाहिए। बहरहाल आने वाले समय में इनका लक्ष्य साल में पच्चीस स्कूलों के रिनोवेशन के सभी हिस्से में काम करने का है।