बुधवार, 15 अप्रैल 2015

वो लिखते भी हैं और लड़ते भी


(दैनिक भास्कर रस-रंग में प्रकाशित ,
यहाँ असंपादित )
साहित्य किसी भी समाज और संस्कृति का आईना होता है, हमारी असली कहानियां इनमें ही होती है। मुख्यधारा का समाज और राजनीति हमेशा  बर्चस्ववादी होती है और साहित्य हाशिए के समाज, हाशिए के लोगों की आवाज होता है। जो लिखा गया है या लिखा जा रहा है भले उसे मिटाया जा सकता है, नष्ट किया जा सकता है लेकिन उसे अनलिखा कभी नहीं किया जा सकता, कहीं न कहीं वो किसी रूप में मौजूद रहेगा ही। इसलिए व्यवस्था को अगर समाज का सच लिखनेवालों से खौफ रहता है तो वही लेखक उनलोगों का नायक होता है जिनकी तकलीफों, पीड़ाओं और सरोकारों को वो शब्द देता है। एक लेखक, साहित्यकार की हैसियत अपने समय के समाज की सामूहिक चेतना के तौर पर होती है और ये तभी होता है जब उसकी जड़ें अपने लोकजीवन और अपनी मिट्टी में बहुत गहरी हो।
लेकिन दूसरी ओर किसी समाज की परिपक्वता, सहिष्णुता और बौद्धिकता का एक पैमाना ये भी होता है कि वो अपने लेखकों और साहित्यकारों का कितना सम्मान करता है। कह सकते हैं, एक लेखक और समाज दोनों एक-दूसरे के प्रतिबिम्ब होते  हैं। मसलन, पिछले कुछ सालों में हमारे परिवेश में असहिष्णुता  किस कदर बढ़ी है, इसका अंदाजा लेखकों, साहित्यकारों पर लगातार हो रहे हमलों से भी लगाया जा सकता है। अभिव्यक्ति की आजादी पर लगातार हमले हो रहे हैं खासतौर पर दक्षिण भारत या क्षेत्रीय भाषाओं  के लेखको पर। हाल ही में तमिलनाडू में पेरूमल मुरूगन पर उनकी किताब  ‘वन पार्ट वुमैन’ के कारण घातक हमले हुए, उनकी पत्नी पर भी हमला हुआ और दोनों को अस्पताल तक जाना पड़ा। ठीक इसके एक हफ्ते बाद फिर तमिलनाडू में ही एक और लेखक पुलियार मुरूगेषन अपने कहानी संग्रह ‘ आई हेव अनदर नेम बालाचंद्रन’ के कारण निशाना बनें। सूची यहीं खत्म नहीं होती,  जनवरी में दलित लेखक दुरई गुना और उनके पिता पर हमले हुए उनकी किताब ‘उरार वराईन्थिा ओवियम’ के विरोध में। 2002 में एच जी रसूल को अपने कविता संग्रह मायीलांजी के कारण माफी मांगने को बाध्य होना पड़ा, के सेंन्थिल मल्लार की किताब की  को 2013 में तमिलनाडू सरकार ने  प्रतिबंधित कर दिया । और 2012 में लेखक मा मू कन्नन के घर को जला दिया गया।
कर्नाटक में पिछले साल यू आर अनंतमूर्ति को उनके मोदी विरोधी बयान पाकिस्तान चले जाने की नसीहत दी गयी और खतरे के कारण उन्हें अपने ही घर में पुलिस की सुरक्षा में रहना पड़ा जबकि अपने जीवनकाल में कर्नाटक और बंगलूरू के सार्वजनिक मंचों पर  वो सबसे मुखर आवाज रहे थे, बंगलूरू के लोगों ने भी उन्हें उतना ही सम्मान भी दिया था।  पिछले ही साल कन्नड़ लेखक कालबुर्गी को भी अपनी एक टिप्पणी के कारण विरोध का सामना करना पड़ा था। और 2014 अप्रैल में मैंगलोर के सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक सौहार्द पर लिखने वाले सुरेश  भाट बकराबैल बजरंग दल के कार्यकर्ताओं के हमले के शिकार हुए थे। ताजातरीन मामला   81 वर्षीय  कन्नड़ लेखक इतिहासकार एम चिदानंद मुर्ति का है जिन्हें बंगलूरू में मुख्यमंत्री सिद्धारम्मैया की मौजूदगी में एक समारोह से सरकारी फैसले के विरोध के कारण हाथापायी करके  निकाल दिया गया। और केरल की अरूंधती राॅय तो हमेशा  पूरे देश में ऐसे हमलों के केन्द्र में रहती आयी हैं, मराठी विचारक और लेखक गोविंद पानसरे की हत्या को भी अभी ज्यादा समय नहीं बीता है।
अब सवाल ये है कि आखिर क्यों अभिव्यक्ति की आजादी इतने खतरे में है खासतौर पर क्षेत्रीय भाषा का साहित्य और उसके लेखक। उसका एक जवाब ये है कि क्षेत्रीय भाषाओं खासकर दक्षिण के साहित्यकारों का अपने समाज पर गहरा असर रहा है, इसलिए जब वो किसी की आवाज बनकर लिखते हैं तो दूसरा समूह उनके विरोध में उतर आता है। उपर जितने वाकयों का जिक्र है, उन सबमें एक ओर अगर इनका विरोध हुआ है तो दूसरी ओर बड़ी संख्या में लोग इनके साथ भी खड़े हुए हैं। पेरूमल मुरूगन की ही बात करें, उन्होंने विरोध के बाद ये घोषणा  की कि, लेखक मुरूगन की मौत हो चुकी है, जो जीवित है वो केवल शिक्षक पेरूगल मुरूगन है, इस पर हजारों लोगों उनसे उसी किताब का दूसरा भाग लिखने का भी अनुरोध किया।
लेकिन  हिंदी में ऐसा बिल्कुल नहीं है, हाल फिलहाल में आपको ऐसी कोई किताब नहीं याद आएगी जिसका इस कदर विरोध हुआ हो या ऐसा कोई लेखक, साहित्याकार का नाम याद नहीं आएगा जिसकी लोगों में इतनी स्वीकार्यता हो कि एक साथ बड़े स्तर पर लोग विरोध और समर्थन में उठ खड़े हों, ऐसा क्यों है? हिंदी के सम्मानित और बड़े कवि मंगलेश  डबराल कहते हैं, हमारे क्षेत्रीय भाषा  के लेखक अपने परिवेश  और लोगों से गहरे जुड़े हुए हैं, उनमें एक किस्म का ‘सेंस आफॅ बिलाॅगिंगनेस’ है। जबकि हिंदी लेखकों का दुर्भाग्य है कि उनका कोई समाज नहीं है, ये नागर भाषा  है और नगरीकरण बहुत हालिया प्रक्रिया है । हिंदी बहुत बड़ी भाषा  तो है लेकिन ये किसी की मातृभाषा  नहीं है,  हम सब की अपनी कोई अलग मातृभाषा  है जैसे मेरी ही गढ़वाली है, ये बहुत बड़ी बिडंबना है। मराठी, बंगला, मलयालम, कन्नड़, तमिल के लेखक अपनी जड़ों से अपनी पूरी परंपरा और विरासत के साथ जुड़े हैं इसलिए उनका लोगों में सम्मान है। इन सभी के लिए भाषा  ही उनका घर है जबकि भाषा  में घर होने की कल्पना हिंदी में नहीं है।
लेखक, कवि और वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन  भी मानते हैं कि वाकई हिंदी में विद्रोही लेखन नहीं है, हाल में ऐसा कुछ नहीं लिखा गया जो समाज को झकझोर दें और जिसका विरोध हो, वो मानते हैं कि हिंदी के लेखकों का अपने समाज से कटाव लगातार बढ़ा है लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं है कि हिंदी लेखन कमजोर है। वो कहते हैं, हिंदी में बहुत अच्छी कविताएं लिखी जा रही हैं जिनमें मौजूदा समय बहुत संवेदनशीलता के साथ दर्ज हो रहा है, लेकिन इन्हें कोई पढ़ता नहीं है। हिंदी का लेखक अपने समाज को समझता तो है लेकिन दूर से किसी सैटेलाईट की तरह। लेकिन कुछ दोष  हिंदी के पाठकों का भी है, हिंदी का मध्यवर्ग बहुत सयाना हो गया है उसे कैरियर के आगे सामाजिक आंदोलनों से ज्यादा सरोकार नहीं है, मनोरंजन के लिए किताबें नहीं फिल्में हैं उनके घरों में हिंदी की मौजूदगी बगैर साहित्यक संस्कार के है और स्कूलों में सिर्फ अंग्रेजी है। जाहिर है ऐसे में अपनी भाषा का साहित्य उनके चेतन अवचेतन दोनों में एक सिरे से अनुपस्थित रहेगा ही।      

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