बुधवार, 20 अप्रैल 2011

बूंद-बूंद सहेजने की टेक्नीक


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सूरज तप रहा है, धरती जल रही है और सारी दुनिया में वाटर क्राइसिस का शोर हो, ऐसे में कोई ये कहे कि पानी के लिए रोते क्यों हो, तुम्हारे पास पानी की कोई कमी नहीं है, तो किसी को यकीन नहीं होगा. बंगलुरू के अयप्पा महादेवप्पा मसागी यही कहते हैं. पानी की बूंद-बूंद को हर कदम पर सहेजने और बर्बादी से बचाने वाले अयप्पा को इसलिए वाटर गांधी कहा जाता है. जबकि देश के ज्यादातर हिस्सों में भंयकर गर्मी वाले दिनों की छोड़ें अब तो सर्दियों में भी पानी के लिए मुश्किल होती है. 
  
महानगरों में तो पूरे साल ही पर्याप्त वाटर-सप्लाई का टोटा रहता है. बंगलुरू भी इससे अछूता नहीं है पर अयप्पा जैसे लोगों ने एक सार्थक और जरूरी कदम इस दिशा में बढ़ाया है, जिसके नतीजे काफी उत्साहजनक और सभी के अमल में लाने योग्य हैं. दरअसल, बढ़ती आबादी और घटते जल-स्त्रोत के कारण पूरी आबादी को पानी की पर्याप्त आपूर्ति बहुत विकट समस्या बनती जा रही है. गौर करने वाली बात यह भी है कि पानी की कमी का रोना रोने के बावजूद वाटर डिस्ट्रीब्यूशन के दौरान पानी की बेशुमार बर्बादी की जाती है. बहरहाल, हम सब ये फैक्ट अच्छी तरह से जानते हैं, पर इस दिशा में कोई पहल नहीं कर पाते. बंगलुरू के अयप्पा महादेवप्पा मसागी ने ऐसा नहीं किया. नतीजा पानी सहेजने की इनकी छोटी-छोटी कोशिशों ने बहुत बड़ा फर्क पैदा किया अब इन्हें दुनिया वाटर गांधी के नाम से जानती है. पानी बचाने के लिए इन्होंने खुद ही बहुत इफेक्टिव और सस्ती तकनीक ईजाद की है, जबकि न तो ये टेक्निकली ट्रेंड हैं और ना ही इनके पास कोई बड़ी डिग्री है. 
  
वाटर क्राइसिस शब्द इस 54 वर्षीय शख्स के सामने कोई मायने नहीं रखता. पानी बचाने के लिए ये अब तक सौ से भी ज्यादा तकनीक का सफल प्रयोग कर चुके हैं. कर्नाटक के गदग जिले के गांव से ताल्लुक रखने वाले मसागी को बचपन की वो बात जरूर याद है, जब उन्हें सुबह-सवेरे 3 बजे ही 2 किलोमीटर चलकर पड़ोस के गांव से पानी लाना पड़ता था. हालांकि शुरुआत में संसाधनों की कमी के कारण वो पानी बचाने की दिशा में शौक के बावजूद कुछ नहीं कर पाए पर बाद में हालात बेहतर होने पर इन्होंने जिन टेक्नीक्स का ईजाद किया, उसे हाउसिंग सेक्टर के साथ-साथ इंडस्ट्रीज भी अपना रही हैं और पानी के खर्च के साथ-साथ पानी को सहेजने और बचाने पर भी उतना ही ध्यान दे रही हैं. मसलन, मसागी ने रिचार्ज सॉफ्ट टेक्नीक ईजाद की जो बेहद कारगर साबित हो रही है, जिसके तहत बोरवेल के पास ही सबसॉईल रिचार्जिग सिस्टम बनाया जाता है. 
  
यह प्रणाली रेनवाटर हारवेस्ंिटग सिस्टम और फिल्टर्ड ग्रे-वाटर से भी कनेक्टेड होती है. इनका मोटो एकदम सरल है और वो ये कि पानी की एक बूंद भी बेकार ना होने पाए, चाहे वो बारिश का पानी हो या फिर सोर्स से घरों के नलों तक पहुंचने वाला पानी. यहां तक कि बाथरूम और किचन में इस्तेमाल हो चुके ग्रे-वाटर का भी इस्तेमाल ये सुनिश्चित करा देते हैं. इनकी सक्सेस स्टोरी ये है कि अब तक 200 अपार्टमेंट, हजार से ज्यादा निजी मकान और 41 इंडस्ट्री ने इनकी तकनीक की मदद से पानी की किल्लत खत्म की है. जबकि 17 और प्रोजेक्ट पर काम जारी है. अगर उनकी बात मानें तो बंगलुरू में ही निर्माणाधीन मेट्रो प्रोजेक्ट के ट्रैक के प्रति किलोमीटर पर ये 3 करोड़ लीटर पानी सालाना बचा सकते हैं. इसके लिए केवल एक बार बीस लाख खर्च करना पड़ेगा. 1 स्क्वॉयर मीटर छत वाले घर में केवल एक बार दस हजार रुपए लगाने के बाद सालाना 1.2 लाख लीटर पानी बचाया जा सकता है. इनके काम को देखते हुए 2009 में इन्हें रूरल डेवलपमेंट में साइंस और टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के लिए नेशनल अवॉर्ड दिया गया. साथ ही दक्षिण अफ्रीका जैसे देश ने भी इन्हें अपने यहां जल-सरंक्षण तकनीक सिखाने के लिए बुलाया है. जाहिर है दुनिया को आज ऐसे कई वाटर गांधी की जरूरत है, ताकि पानी के लिए तीसरे विश्व-युद्ध की नौबत ना आने पाएं.

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