tag:blogger.com,1999:blog-80036760569954141002024-03-14T07:50:15.359+05:30इन्द्रधनुषबातें हर रंग कीमनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.comBlogger46125tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-4692770176370320382015-04-15T16:47:00.002+05:302015-04-15T16:51:12.663+05:30वो लिखते भी हैं और लड़ते भी <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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(दैनिक भास्कर रस-रंग में प्रकाशित ,<br />
यहाँ असंपादित )<br />
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साहित्य किसी भी समाज और संस्कृति का आईना होता है, हमारी असली कहानियां इनमें ही होती है। मुख्यधारा का समाज और राजनीति हमेशा बर्चस्ववादी होती है और साहित्य हाशिए के समाज, हाशिए के लोगों की आवाज होता है। जो लिखा गया है या लिखा जा रहा है भले उसे मिटाया जा सकता है, नष्ट किया जा सकता है लेकिन उसे अनलिखा कभी नहीं किया जा सकता, कहीं न कहीं वो किसी रूप में मौजूद रहेगा ही। इसलिए व्यवस्था को अगर समाज का सच लिखनेवालों से खौफ रहता है तो वही लेखक उनलोगों का नायक होता है जिनकी तकलीफों, पीड़ाओं और सरोकारों को वो शब्द देता है। एक लेखक, साहित्यकार की हैसियत अपने समय के समाज की सामूहिक चेतना के तौर पर होती है और ये तभी होता है जब उसकी जड़ें अपने लोकजीवन और अपनी मिट्टी में बहुत गहरी हो।<br />
लेकिन दूसरी ओर किसी समाज की परिपक्वता, सहिष्णुता और बौद्धिकता का एक पैमाना ये भी होता है कि वो अपने लेखकों और साहित्यकारों का कितना सम्मान करता है। कह सकते हैं, एक लेखक और समाज दोनों एक-दूसरे के प्रतिबिम्ब होते हैं। मसलन, पिछले कुछ सालों में हमारे परिवेश में असहिष्णुता किस कदर बढ़ी है, इसका अंदाजा लेखकों, साहित्यकारों पर लगातार हो रहे हमलों से भी लगाया जा सकता है। अभिव्यक्ति की आजादी पर लगातार हमले हो रहे हैं खासतौर पर दक्षिण भारत या क्षेत्रीय भाषाओं के लेखको पर। हाल ही में तमिलनाडू में पेरूमल मुरूगन पर उनकी किताब ‘वन पार्ट वुमैन’ के कारण घातक हमले हुए, उनकी पत्नी पर भी हमला हुआ और दोनों को अस्पताल तक जाना पड़ा। ठीक इसके एक हफ्ते बाद फिर तमिलनाडू में ही एक और लेखक पुलियार मुरूगेषन अपने कहानी संग्रह ‘ आई हेव अनदर नेम बालाचंद्रन’ के कारण निशाना बनें। सूची यहीं खत्म नहीं होती, जनवरी में दलित लेखक दुरई गुना और उनके पिता पर हमले हुए उनकी किताब ‘उरार वराईन्थिा ओवियम’ के विरोध में। 2002 में एच जी रसूल को अपने कविता संग्रह मायीलांजी के कारण माफी मांगने को बाध्य होना पड़ा, के सेंन्थिल मल्लार की किताब की को 2013 में तमिलनाडू सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया । और 2012 में लेखक मा मू कन्नन के घर को जला दिया गया। <br />
कर्नाटक में पिछले साल यू आर अनंतमूर्ति को उनके मोदी विरोधी बयान पाकिस्तान चले जाने की नसीहत दी गयी और खतरे के कारण उन्हें अपने ही घर में पुलिस की सुरक्षा में रहना पड़ा जबकि अपने जीवनकाल में कर्नाटक और बंगलूरू के सार्वजनिक मंचों पर वो सबसे मुखर आवाज रहे थे, बंगलूरू के लोगों ने भी उन्हें उतना ही सम्मान भी दिया था। पिछले ही साल कन्नड़ लेखक कालबुर्गी को भी अपनी एक टिप्पणी के कारण विरोध का सामना करना पड़ा था। और 2014 अप्रैल में मैंगलोर के सामाजिक कार्यकर्ता और सामाजिक सौहार्द पर लिखने वाले सुरेश भाट बकराबैल बजरंग दल के कार्यकर्ताओं के हमले के शिकार हुए थे। ताजातरीन मामला 81 वर्षीय कन्नड़ लेखक इतिहासकार एम चिदानंद मुर्ति का है जिन्हें बंगलूरू में मुख्यमंत्री सिद्धारम्मैया की मौजूदगी में एक समारोह से सरकारी फैसले के विरोध के कारण हाथापायी करके निकाल दिया गया। और केरल की अरूंधती राॅय तो हमेशा पूरे देश में ऐसे हमलों के केन्द्र में रहती आयी हैं, मराठी विचारक और लेखक गोविंद पानसरे की हत्या को भी अभी ज्यादा समय नहीं बीता है।<br />
अब सवाल ये है कि आखिर क्यों अभिव्यक्ति की आजादी इतने खतरे में है खासतौर पर क्षेत्रीय भाषा का साहित्य और उसके लेखक। उसका एक जवाब ये है कि क्षेत्रीय भाषाओं खासकर दक्षिण के साहित्यकारों का अपने समाज पर गहरा असर रहा है, इसलिए जब वो किसी की आवाज बनकर लिखते हैं तो दूसरा समूह उनके विरोध में उतर आता है। उपर जितने वाकयों का जिक्र है, उन सबमें एक ओर अगर इनका विरोध हुआ है तो दूसरी ओर बड़ी संख्या में लोग इनके साथ भी खड़े हुए हैं। पेरूमल मुरूगन की ही बात करें, उन्होंने विरोध के बाद ये घोषणा की कि, लेखक मुरूगन की मौत हो चुकी है, जो जीवित है वो केवल शिक्षक पेरूगल मुरूगन है, इस पर हजारों लोगों उनसे उसी किताब का दूसरा भाग लिखने का भी अनुरोध किया।<br />
लेकिन हिंदी में ऐसा बिल्कुल नहीं है, हाल फिलहाल में आपको ऐसी कोई किताब नहीं याद आएगी जिसका इस कदर विरोध हुआ हो या ऐसा कोई लेखक, साहित्याकार का नाम याद नहीं आएगा जिसकी लोगों में इतनी स्वीकार्यता हो कि एक साथ बड़े स्तर पर लोग विरोध और समर्थन में उठ खड़े हों, ऐसा क्यों है? हिंदी के सम्मानित और बड़े कवि मंगलेश डबराल कहते हैं, हमारे क्षेत्रीय भाषा के लेखक अपने परिवेश और लोगों से गहरे जुड़े हुए हैं, उनमें एक किस्म का ‘सेंस आफॅ बिलाॅगिंगनेस’ है। जबकि हिंदी लेखकों का दुर्भाग्य है कि उनका कोई समाज नहीं है, ये नागर भाषा है और नगरीकरण बहुत हालिया प्रक्रिया है । हिंदी बहुत बड़ी भाषा तो है लेकिन ये किसी की मातृभाषा नहीं है, हम सब की अपनी कोई अलग मातृभाषा है जैसे मेरी ही गढ़वाली है, ये बहुत बड़ी बिडंबना है। मराठी, बंगला, मलयालम, कन्नड़, तमिल के लेखक अपनी जड़ों से अपनी पूरी परंपरा और विरासत के साथ जुड़े हैं इसलिए उनका लोगों में सम्मान है। इन सभी के लिए भाषा ही उनका घर है जबकि भाषा में घर होने की कल्पना हिंदी में नहीं है।<br />
लेखक, कवि और वरिष्ठ पत्रकार प्रियदर्शन भी मानते हैं कि वाकई हिंदी में विद्रोही लेखन नहीं है, हाल में ऐसा कुछ नहीं लिखा गया जो समाज को झकझोर दें और जिसका विरोध हो, वो मानते हैं कि हिंदी के लेखकों का अपने समाज से कटाव लगातार बढ़ा है लेकिन इसका ये मतलब भी नहीं है कि हिंदी लेखन कमजोर है। वो कहते हैं, हिंदी में बहुत अच्छी कविताएं लिखी जा रही हैं जिनमें मौजूदा समय बहुत संवेदनशीलता के साथ दर्ज हो रहा है, लेकिन इन्हें कोई पढ़ता नहीं है। हिंदी का लेखक अपने समाज को समझता तो है लेकिन दूर से किसी सैटेलाईट की तरह। लेकिन कुछ दोष हिंदी के पाठकों का भी है, हिंदी का मध्यवर्ग बहुत सयाना हो गया है उसे कैरियर के आगे सामाजिक आंदोलनों से ज्यादा सरोकार नहीं है, मनोरंजन के लिए किताबें नहीं फिल्में हैं उनके घरों में हिंदी की मौजूदगी बगैर साहित्यक संस्कार के है और स्कूलों में सिर्फ अंग्रेजी है। जाहिर है ऐसे में अपनी भाषा का साहित्य उनके चेतन अवचेतन दोनों में एक सिरे से अनुपस्थित रहेगा ही। </div>
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मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-39032251475943620782014-06-12T02:17:00.001+05:302014-06-12T02:20:52.588+05:30कुदुंबश्री, विकास का केरल मॉडल ! <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
तरक्की और विकास की पहली शर्त है लोगों का जागरूक और शिक्षित होना, केरल की साक्षरता दर भारत के सभी राज्यों में सबसे अधिक रही है और यही वजह है कि यह भारत के सबसे विकसित राज्यों में से रहा है। देश का सबसे शहरीकृत राज्य होने के साथ साथ केरल ही ऐसा राज्य है जहां शहर और ग्रामीण जीवनशैली में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है और राज्य के सभी जिलों के हर पंचायत में कम से कम एक शैक्षणिक संस्थान और स्वास्थ्य केन्द्र जरूर होता है। लेकिन बेरोजगारी केरल की सबसे बड़ी समस्या रही है 17वीं शताब्दी से ही यहां से रोजगार की तलाश में प्रवास शुरू हो चुका था। लेकिन पिछले पंद्रह सालों में केरल में गरीबी हटाने और महिलाओं को सशक्त बनाने का काम जमीनी स्तर पर हुआ है जिसका असर अब दिखने लगा है। कुदुम्बश्री के मार्फत केरल में न सिर्फ केन्द्र और राज्य सरकार की योजनाओं का अव्वल तरीके से क्रियान्वयन हुआ है बल्कि पंचायती राज की अवधारणा की जड़ें भी मजबूत हुई है। धान की खेती पर निर्भर यहां के गरीब और भूमिहीन किसानों को वैकल्पिक रोजगार मुहैया कराने के लिए अस्सी के दशक में उन्हें स्व सहायता समूह के बारे में बताया गया और माईक्रोफाईनांस योजनाओं को लागू करने की शुरूआत की गई। और अगले कुछ सालों में गरीबी को समझने के साथ गरीबी उन्मूलन के लिए भी एक व्यापक दृष्टिकोण विकसित किया गया। 1994 में इन्हीं अनुभवों के आधार पर पहली बार केरल में सरकारी योजनाओं को लागू करने के लिए महिला आधारित सामुदायिक संरचना विकसित की गयी। 73वें और 74वें संविधान संशोधन के बाद सत्ता के विकेन्द्रीकरण की शुरूआत हुई व पंचायत और नगरनिगम जैसे स्थानीय स्वशासन निकाय मजबूत हुए। इसी दौरान 1998 में गरीबी उन्मूलन और महिला सशक्तिकरण के लिए सामुदायिक नेटवर्क के तौर पर कुदुंबश्री की शुरूआत हुई, जिसका लक्ष्य स्थानीय स्वशासी निकायों के साथ मिलकर गरीबी उल्मूलन और महिला सशक्तिकरण के लिए काम करना था। 1998 से अब तक कुदुंबश्री की लगातार कई उपलब्धियां रही हैं संयुक्त राष्ट्रसंघ समेत कई अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय अवार्ड इसे हासिल हुआ है। साथ ही इसे एशिया का सबसे बडा महिला आंदोलन भी कहा जाता है।<br />
दरअसल, कुदुंबश्री की खासियत रही है गरीबी हटाने की प्रक्रिया पर काम करना ना कि परियोजना पर। इसलिए 40 लाख महिलाएं इसकी सदस्य हैं, हर जिले की सभी पंचायतों के सभी वार्ड में इसकी पहुंच है। इसके तहत 1.87 लाख पड़ोस समूह हैं, सत्तरह हजार क्षेत्र विकास समाज या एडीसी हैं और 1,058 समुदाय विकास समाज या सीडीएस ग्रामीण व शहरी हैं। कुदुंबश्री के मार्फत पड़ोस समूह के सदस्यों में अब तक 2,818 करोड़ की राशि बतौर ऋण बांटी जा चुकी है। इसी का नतीजा है कि केरल में जमीन कम होने के बावजूद 47 हजार महिला किसान हैं जो लीज पर खेत लेकर धान की खेती करती हैं। पहले दस रूपए भी जिनके पास नहीं हुआ करते थे उनके अब खुद के पक्के मकान हैं। कुल सवा तीन लाख किसान इसके दायरे में हैं और लीज पर 65 हजार एकड़ से ज्यादा जमीन पर खेती की जा रही है, इसके कारण पलायन भी रूका है। कुदुंबश्री माॅडल की एक सफलता ये भी है कि सदस्य ऋृृण वापसी के मामले में नियमित और अनुशासित हैं इसलिए निरंतरता बनी रही है अतंतः जिसका फायदा सदस्यों को ही हो रहा है। <br />
कुदुंबश्री के द्वारा केवल महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए ही काम नहीं किया गया है बल्कि युवाश्री जैसे विशेष रोजगार कार्यक्रम के जरिए साढ़े तीन सौ से ज्यादा सामुहिक और सवा तीन सौ के करीब निजी उद्यमों को शुरू किया गया। बेसहारा लोगों के लिए आश्रय कार्यक्रम को 745 स्थानीय निकायों में लागू किया गया और करीब साठ हजार बेघर बेसहारा लोगों का पुर्नवास किया गया। इसके अलावा भावनाश्री गृृह लोन योजना के तहत पैंतालीस हजार से ज्यादा गरीब लोगों को घर बनाने के लिए ऋृृण मुहैया कराया गया। कुदुंबश्री के मार्फत केरल में केन्द्र और राज्य सरकार की योजनाओं के बेहतरीन क्रियान्वयन के कारण दो साल पहले ही राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार मिशन ने इस माॅडल को पूरे देश में लागू किए जाने की सिफारिश की थी। फिलहाल पांच राज्यों में कुदुंबश्री माॅडल लागू किए जाने पर सहमति भी बनी है।<br />
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कुदुंबश्री की कार्यकारी निदेशक के बी वल्सला कुमारी से बातचीत<br />
कुदुंबश्री के मार्फत केरल में काफी पहले से केरल में गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चलाया जा रहा है। हाल के दिनों में और कौन कौन सी शुरूआत की गयी है?<br />
- पिछले पंद्रह सालों में कुदुंबश्री के मार्फत केरल में बड़े पैमाने पर महिलाओं को रोजगार देकर और आत्मनिर्भर बनने के मौके मुहैया कराकर उनका सशक्तिकरण किया गया है। करीब 40 लाख महिलाएं इसकी सदस्य हैं, जो चालीस लाख परिवारों को सशक्त बना रही हैं और साबुन निर्माण व खेती से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी तक करीब पचास हजार लघु उद्यमों के मार्फत आर्थिक समृृद्धि की कहानी लिख रही हैं।कुदुंबश्री के खाद्य उद्योग को इसी साल दिल्ली के अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेला में स्वर्णपदक हासिल हुआ है। हाल ही में कुदुंबश्री की ओर से पूरी तरह से महिलाओं द्वारा संचालित टैक्सी सेवा शुरू की गई है,इससे पहले पूरी तरह से महिलाओं द्वारा संचालित कुदुंबश्री कैफे भी बहुत सफल रहा है, इसलिए कुदुंबश्री कैफे का और विस्तार किये जाने की घोषणा हुई है। इसके अलावा हमने केरल वेटेरनरी एंड एनीमल साईंस यूनीवर्सिटी के साथ भी समझौता किया है जिसके तहत किसी कारण से पेशेवर उच्च शिक्षा नहीं हासिल का पायी महिलाएं पशुपालन या इससे संबंधित विषयों में डिप्लोमा हासिल कर खुद अपना व्यवसाय कर सकें। दरअसल, कुदुंबश्री की दस्तक खेती से लेकर सूचना प्रौद्योगिकी तक है और हर क्षेत्र में महिलाओं के सशक्तिकरण में यह बेहद कारगर साबित हो रही है। पिछले डेढ़ साल से मै इससे जुड़ी हंू और मेरे लिए ये गर्व की बात है। <br />
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इस माॅडल की संरचना किस तरह की है?<br />
-बिल्कुल जमीनी स्तर से हमारी पकड़ है, केरल की 62 फीसद से ज्यादा आबादी इसके दायरे में हैं। सबसे पहले समुदाय के स्तर पर ग्रामीण या शहरी इलाकों में 10 से 20 महिलाएं जुड़कर आपस में समुदाय बनाती हैं, जिसे पड़ोस समूह कहा जाता है, इस समूह के द्वारा स्वबचत की शुरूआत होती है,ं फिर बैंकों से इन्हें जोड़ा जाता है और बैंक इन्हें इनके काम के लिए लोन देना शुरू करता है। एक पंचायत या नगरपालिका में कई पड़ोस समूह होते हैं जिसे एरिया डेवलपमेंट सोसाईटी या एडीएस कहते हैं, एडीएस के उपर सीडीएस होता है। सीडीएस दातव्य न्यास के तहत रजिस्टर्ड संस्था होती है और सामाजिक न्याय व पंचायत मंत्रायल के अधीन हैं।<br />
गरीबी उन्मूलन के लिए केन्द्र और राज्य सरकार की ओर से कई योजनाएं चलायी जा रही हैं, कुदुंबश्री उसी का विस्तार है?<br />
-पूरी तरह से ऐसा नहीं है, केन्द्र और राज्य सरकार दोनों की ओर से इसे फंड मिलता है पर ये एक अलग माॅडल है, केन्द्र सरकार की नारेगा और मनरेगा जैसी योजना लागू करने में केरल पूरे देश में अव्वल रहा हैं तो उसकी वजह कुदुंबश्री है, हम पंचायत स्तर पर लोगों को केन्द्र और राज्य सरकार की सभी योजनाओं की जानकारी देते हैं और उसे कैसे लागू कराना है इसमें मदद करते हैं। हालांकि आन्ध्र प्रदेश का गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम भी बहुत सफल हो रहा है पर वो दस हजार करोड़ की ऋृण राशि के साथ एक वित्तीय माॅडल है और कुदुंबश्री 7 सौ करोड़ ऋृण राशि के साथ एक सामाजिक माॅडल। इसके तहत केवल महिला सशक्तिकरण ही नहीं बच्चों, बुढ़ों, असहायों, बेघर बेसहारा सभी के लिए योजनांए हैं और उन्हें लागू भी किया गया है। पूरे राज्य के सभी जिलों के सभी पंचायतों में इसकी मौजूदगी है फिलहाल केवल दो प्रतिशत जनसंख्या ही इसके दायरे से बाहर है। <br />
कुदुंबश्री को इसी हफ्ते साल 2013-14 के हडको राष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित किया गया ये एक और उपलब्धि है?<br />
-बिल्कुल, यह सम्मान कुदुंबश्री को महिलाओं की आर्थिक दशा सुधारने की दिशा में उल्लेखनीय काम करने के लिए मिला है। कुदुंबश्री ने आमदनी सुनिश्चित करने वाली सर्वोत्तम परियोजनाएं लागू करके यह लक्ष्य हासिल किया है। हमने निर्माण क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं के हुनर को तराशने और उनके लिए बेहतर संभावनाएं बनाने के लिए एरनाकूलम में कुदुंबश्री वुमैंस कंस्ट्रक्शन ग्रुप परियोजना लागू किया, जिसे एक नयी शुरूआत कहा जा सकता है, इसके तहत निर्माण क्षेत्र में काम कर रही इंजीनियर, सुपरवाईजर और राजमिस्त्री का काम करने वाली महिलाओं को इसी क्षेत्र के अनुभवी लोगों के द्वारा विषेशज्ञ प्रशिक्षण मुहैया कराया गया। जिसका फायदा भी हुआ। फिलहाल इस समूह के पास 87 गृह निर्माण परियोजना का अनुबंध है। </div>
मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-9845605715159107332014-04-14T21:20:00.000+05:302014-04-14T21:20:22.171+05:30<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">हमारे चरित्र का सबसे क्रूर,शोषक,निर्दयी और बेईमान पक्ष !</span><br />
<span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span>
<span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">बराबरी की किताबी बातें पढ़कर बड़े हुए हैं हम, नहीं तो हम उस समाज और संस्कृति से आते हैं जहाँ अपनी गंदगी साफ़ कराने के लिए हम अपने जैसे ही दूसरे इंसान को मजबूर करते आये हैं पहले वर्ण व्यवस्था के नाम पर और बाद में सरकारी नौकरियों में सफाई कर्मचारी के तौर पर इस तरह की नौकरियां किसी ख़ास जाति के लिए मुक़र्रर करके ! मेरे पापा इंडियन ऑइल में काम करते थे और हम उसी के टाउनशिप में रहते थे, छोटा सा सुन्दर सा </span><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #37404e; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">टाउनशिप पर वहां के लोग अपने टॉयलेट खुद साफ़ नहीं करते थे, हफ्ते में दो दिन इंडियन ऑइल का सफाई कर्मचारी आकर टॉयलेट क्लीन करता था तो लोगों के टॉयलेट साफ़ होते थे, उसके आने का रास्ता पीछे का दरवाज़ा होता और कुछ लोग कुछ और एक्स्ट्रा काम कराने के बाद पैसे देते तो कभी उनसे वापस छुट्टा नहीं लेते, मुझे हमेशा बहुत बुरा लगा ये,शायद अब भी वहां ऐसा ही हो रहा हो! मेरे पापा खुद से टॉयलेट क्लीन करते थे , माँ को ये बताने समझाने में वक़्त लगा पर जबसे मुझे सफाई का होश हुआ मैंने हमेशा अपना बाथरूम, टॉयलेट खुद साफ़ किया मेरे भाई बहन ने भी, वहां हमारा घर शायद सबसे साफ़ टॉयलेट वाला घर हुआ करता था, बहरहाल हमारे स्कूल की एक महिला सफाई कर्मचारी की बेटी जो बाद में उसी इंडियन ऑइल में इंजीनियर हो गयी, उसकी नौकरी और सफलता पर लोगों के जातिगत दुराग्रह और रिज़र्वेशन वाले कमेंट भी सुने पर किसी को भी सफाई के काम वाली नौकरी में आरक्षण नहीं चाहिए था, सफाई कर्मचारी के बच्चे सफाई कर्मचारी ही बनें उनकी बराबरी और न्याय का सिद्धांत यहीं तक था !<br />महानगरों की कितनी भी बुराई करें हम पर यही वो जगह है जहाँ हाशिये के सभी लोगों को अपना स्पेस मिलता है चाहे वो कस्बाई शहरों की लड़कियां हों या सवर्णों के द्वारा किनारे कर दिए गए अनुसूचित जाती के लोग, जब से महानगरों के इस फ़्लैट सिस्टम में रह रही हूँ ज्यादातर लोगों को अपना बाथरूम खुद साफ करते देख रही हूँ ! लेकिन अब भी मुझे समस्या है किसी काम को किसी जाति के साथ हमेशा के लिए नत्थी कर देने से ! मुझे वो दिन सबसे बराबरी का लगेगा जब अम्बानी जैसे लोगों को भी अपनी जगह, अपनी गन्दगी खुद से साफ़ करनी पड़े! हमें शुक्रगुज़ार होना चाहिए बाबा साहेब जैसे नायक का जिन्होंने हमें हमारे चरित्र का सबसे क्रूर,शोषक,निर्दयी और बेईमान पक्ष दिखाया !</span></div>
मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-26952736076167422462014-02-28T21:54:00.002+05:302014-03-01T20:39:25.136+05:30'हाईवे 'सदियों की घुटन के लिए सदियां लगेंगी ! <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कुछ फ़िल्में आपके भीतर पहले से ही होती हैं ये और बात है परदे पर उसे कोई और उतार देता है , इम्तियाज़ अली की हाईवे देखकर कुछ ऐसा ही लगा, ऐसी फ़िल्म जिसे आप हमेशा देखना चाहते रहे हों! धरती के किसी अनजाने कोने के खेत , कोई घर, कोई नदी, कोई नहर, कोई अकेला पेड़, क्षितिज के साथ खड़े पहाड़,जैसे दुनियां इसके आगे हो ही नहीं, या ये कहते मुझमें से झांककर दूसरी ओर देखो और बगैर कुछ सोचे, प्लान किये, कहीं नहीं प</span><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #37404e; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">हुँचने के लिए चलते दो लोग! कुछ कुछ ऐसा जैसे गहरी नींद में देखें जाने वाले अज़ीब से सपने जिनमें जाने आप कहाँ पहुचें होते हैं और जहाँ तमाम दृस्य बगैर किसी रेफरेन्स के तिलिस्म की तरह आते रहते हैं ! हम सबके भीतर वीरा होती है सोलह साल से अस्सी साल के होंगे तब भी ताज़ी हवा, स्पेस और अपना आज़ाद वक़्त की छटपटाहट वैसी ही होगी , सदियों की घुटन के लिए सदियां लगेंगी ! वैसे इस फ़िल्म ने मुझे भी अपने उन हाईवे की याद दिला दी जिनकी छवियाँ बचपन से मेरे साथ है , मेरा पहला प्यार एन एच 31, मन करता था इसके किनारे किनारे पूरब की ओर चलते रहे तो असम पहुँच जायेंगे और जब भी जीरो माइल पर खड़े होते थे तो 31 की जगह 28 पकड़ कर चले जाने का मन होता था ! और एन 17 अरब सागर के समानांतर हमेशा बस चलते ही जाने के लिए बुलाती सड़क ! आम और आवलां के घने पेड़ों के साये वाले प्रतापगढ़ , फैज़ाबाद की सड़क , मीलों पलाश के फूलों से सजा बरही का एन एच 2 ,और मुगलसराय से कर्मनाशा तक का लॉन्ग ड्राइव जिसके लिए अजय के पापा से बड़ी डाँट पड़ी थी , तब हम दोस्त थे और वो घर से अलीनगर के लिए निकलते समय मुझे साथ बुलाने की गलती कर बैठा, मोबाइल आने से पहले के उस समय में मुगलसराय से कर्मनाशा तक वो भी शाम पांच -छह बजे के बाद के समय में! दोस्ती सबसे अच्छी चीज़ होती है , कोई कुछ भी कर सकता है उसमें :)</span></div>
मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-47808715505416693952013-10-17T16:54:00.000+05:302013-10-17T16:54:25.941+05:30भूत-वूत होता है या नहीं ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #37404e; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">भूत-वूत होता है या नहीं मैं इसके बारे में कुछ नहीं जानती न कह सकती हूँ , बचपन के रहस्यमय अनुभवों में २ घटनाएं शामिल हैं और दोनों गावं की है , वहां शाम को इया की ओर से नहर की ओर जाने की मनाही होती थी, कहती थी -पानी में बुडुआ होले सन, जा पानीये में खींच लिह सन ' फिर भी हम गए पूल पर बैठ कर 'सनसेट' देखने के लिए, जैसे सूरज आसमान से गायब हुआ एक काला साया पानी पर चलता हम बच्चों की ओर आता महसूस हुआ , चे</span><span class="text_exposed_show" style="background-color: white; color: #37404e; display: inline; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">चरे-मचेरे मिलाकर हम आठ-दस बच्चे थे , कोई चिल्लाया और हम एक मिनट से भी कम समय में दुआर पर थे <i class="_4-k1 img sp_fuslt2 sx_88de95" style="background-image: url(https://fbstatic-a.akamaihd.net/rsrc.php/v2/yA/r/UCB4YRmLPJN.png); background-position: -17px -767px; background-repeat: no-repeat no-repeat; background-size: auto; display: inline-block; height: 16px; vertical-align: -3px; width: 16px;"></i> दूसरी घटना मेरे घर काम करने वाले चन्द्रिका की थी जिसे गावं वापस आने के दौरान रात हो जाने पर 'चुपचुपवा डीह' पर रुकना पड़ा वहीँ एक 'पुरनिया पाकड़' के पेड़ के नीचे खैनी बनाकर खाने से पहले उसने 'किसी ' को ऑफर नहीं किया, सुबह जब लौटा तब उसकी आवाज़ बदली हुई थी हर बड़े बुज़ुर्ग सभी को तू-तडाक करके बात कर रहा था और बेहिसाब हँसने लगा था , कोई बाबा आये और विधिवत तरीके से खैनी ऑफर किया गया ,फिर चन्द्रिका की अपनी आवाज़ लौट आयी ! खैर ये सब डर से ज्यादा मज़ेदार अनुभवों का हिस्सा है डर तब लगा जब दस साल पहले दिल्ली के अपने घर में मैंने अकेले 'साइलेंस ऑफ़ द लैम्ब' देख लिया फिर एक हफ्ते तक रात को सो नहीं सकी वो तो शुक्र था उन दिनों एम्स के डाक्टर्स कॉलोनी से उठाया गया 'शेरू 'मेरे साथ साए की तरह रहा करता था ! सालों बाद कल मैंने रोजमेरिज बेबी देखने की कोशिश की आधी फिल्म पर पहुँचने तक फ्रिज की आवाज़ डरावनी लगने लगी, फिर लगा दरवाज़ा खुद ही खुल गया (यहाँ तेज़ हवा के कारण ऐसा अक्सर होता है , पर कल की बात अलग थी ) और सबसे ज्यादा डर तब लगा जब मुझे लगने लगा की एक और कमरे की लाइट मैंने नहीं किसी और ने ऑन कर दी हैं, मेरे अवचेतन में यही था की मैंने सिर्फ अपने पास की छोड़कर सारी लाइट ऑफ कर दी है !अब ये बहुत ज्यादा हो गया था मैंने तुरंत लैपटॉप का फ्लैप बंद किया और एकदम मुहं ढँक कर सो गयी ! हालांकि' हिचकाक' की 'वर्टिगो' भी मैंने देखी है पर उसे देखना मेरे गावं वाले अनुभवों जैसा रहा, पर जो भी हो मूवीज तो मुझे अकेले ही देखना पसंद है पर अगली सायको थ्रिलर अगले दस साल बाद! <i class="_4-k1 img sp_fuslt2 sx_88de95" style="background-image: url(https://fbstatic-a.akamaihd.net/rsrc.php/v2/yA/r/UCB4YRmLPJN.png); background-position: -17px -767px; background-repeat: no-repeat no-repeat; background-size: auto; display: inline-block; height: 16px; vertical-align: -3px; width: 16px;"></i></span></div>
मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-34439672094264466812013-04-23T01:38:00.001+05:302013-04-24T12:18:59.487+05:30तुम हो, ये यकीन है मुझे ! <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<br />
1<br />
<br />
कहना होता है मुझे, छिपा लेता हूँ<br />
सोचता हूँ हर वक़्त पर, सामने झटक देता हूँ<br />
चाहता हूँ सब जिक्र करें तुम्हारा, कर दें कोई,<br />
तो बन जाता हूँ अनजाना,<br />
ये सब करते हुए जानता हूँ मैं<br />
कितना झूठा हूँ मैं<br />
सौ बार कहता हूँ तुमसे ज्यादा खुद से,<br />
कुछ नहीं हमारे बीच<br />
जबकि सारा दिन कुछ पलों<br />
की आग में तपता निकाल देता हूँ<br />
मैं डरता हूँ, खुद से ज्यादा तुम्हारे लिए ,<br />
करता हूँ सारे वो जतन ,जैसे तुम हो ही नहीं<br />
पर, लौटता हूँ जब रातों को पास अपने<br />
लौट आती हो तुम भी !<br />
<br />
<br />
2<br />
<br />
कितना त्रासद है<br />
जब हम चाहकर भी,<br />
अपनी कमजोरी<br />
छिपा न सकें,<br />
कमजोरी,<br />
खुद की तकलीफों से,<br />
बाहर नहीं आ पाने की<br />
दुर्बल होना<br />
कितना दयनीय,<br />
कितना दुखद है<br />
तब और भी,<br />
जब अपनी एक दुनिया<br />
सब से छिपाने के लिए ही<br />
बनायी होती है<br />
तुम मिलते हो वहां<br />
उसी पल में<br />
मैं मिलती हूँ वहां<br />
उसी मौसम में<br />
लौटते तो कई बार हैं<br />
पर, खिंच जाता है<br />
वो पल, वो मौसम<br />
हर बार वर्तमान में ! <br />
<br />
<br />
3<br />
<br />
तुम्हें सुनते हुए<br />
तुम्हें कहते हुए<br />
छलक जाती हैं<br />
आँखें,<br />
रह जाते हैं लगभग सारे<br />
जरूरी शब्द गले तक<br />
और,,,,,सारे बेमतलब<br />
बाहर !<br />
तुम्हे प्यार करते हुए<br />
आसमान की चाहत में<br />
हो जाती हूँ मैं धरती<br />
भूल जाती हूँ<br />
उन तमाम तकलीफों को<br />
जो लगा मुझे<br />
तुम जानकार भी नहीं जानते<br />
बावजूद इसके हर बार<br />
सौपना चाहती हूँ मैं तुम्हें<br />
अपनी सारी खुशबू , सारे रंग<br />
और सारे गीत<br />
बदले में तुमसे नहीं<br />
इश्वर से कहती हूँ<br />
तुम हो, ये यकीन है मुझे !<br />
<br />
<br /></div>
मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-80105887355245270892013-04-21T02:18:00.002+05:302013-04-21T02:26:07.002+05:30 नशा खत्म बस बाकी है हैंगओवर !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
मुझे याद है ये 2006 के आखिरी दिनों की बात है जब मैंने ऑरकुट के बारे में जाना , अजय का अकाउंट था और मुझे बहुत सुखद आश्चर्य हुआ कि इसके जरिये अपने भूले-बिसरे दोस्तों को खोजा जा सकता है, उसी अकाउंट से मैं कुछ मयूचुअल दोस्तों और करीबी रिश्तेदारों से कनेक्ट हुई ! बाद में अपना अकाउंट खोला और कुछ दोस्त मुझसे कनेक्ट हुए और कुछ से मैं! इसी बीच फेसबुक और ट्वीटर आ गए, वहां भी अपना खाता खोल दिया पर ज्यादा आवाजाही फेसबुक पर ही रही, ट्वीटर पर सिर्फ उन लोगों को कभी-कभार पढ़ लेने के लिए गयी जिन्हें फॉलो कर रही थी ! फेसबुक के शुरुआती दिन बड़े खुमारी वाले थे दस-दस, पंद्रह साल से जिनके बारे में कुछ सुना नहीं था उन दोस्तों, उनके दोस्तों बच्चों, मियां और बीवी के फ़ोटोज़ देखकर बहुत अच्छा लगता था ! अब जो यहाँ नहीं थे वो ही दूर हो रहे थे, पर साल दो साल होते होते ये सब बोरिंग हो गया ! यहाँ सब अच्छा था, सब लोग खुश, खाते-पीते, छुट्टियाँ मनाते, एन्जॉय करते दिख रहे थे! हिंदी स्कूल वालों की भी अंग्रेजी बहुत अच्छी हो गयी थी, उनके स्टेटस की अंग्रेजी बयां करने लगी थी कि उनका "क्लास " चेंज हो चूका है ! वैसे यहाँ सब कुछ था पर घंटों बिना कुछ बोले हुए भी एक दुसरे की उदासियों को पी लेने वाला बेमतलब का साथ नहीं था!</div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
<div style="text-align: justify;">
नेटवर्किंग साइट्स ने दोस्तों को बदल दिया है, हो सकता है ये मेरा ओब्ज़रवेशन हो पर कहीं कुछ तो बदला जरूर है ! जिन्हें आप बिलकूल नहीं जानते और सिर्फ जिन्हें पढने के लिए आप उनसे कनेक्ट होते हैं उन्हें छोड़ दें, पर असली दोस्त यहाँ ज्यादा सतही लगने लगे हैं, दोस्ती का मतलब एक-दूसरे की पोस्ट या फोटो को लाइक करना ही रह गया है, कमेंट वाले दिन भी अब बीती बात होने लगे हैं! जबकि ये कितना असहज भी होता है हम ऐसे घरों से आते हैं जहाँ किसी अपने की उनके मुहं पर शायद ही तारीफ़ की जाती है और इन साइट्स के आने से पहले भी हम दोस्तों की तारीफ़ से ज्यादा उन्हें लेकर क्रिटिकल हुआ करते थे , जी भर कर खिंचाई! स्टेटस लिखकर क्रांति करने या करवा लेने का भ्रम पैदा करने वालों का जादू भी लगभग टूट ही चूका है, असली सेलेब्रिटी कुछ दिन यहाँ आकर चले गए या जो नहीं गए वो जाने की सोच रहे हैं ! समय रहते उन्हें अक्ल आ रही है, ज्यादा आम रहे तो ख़ास नहीं रहोगे, अपने आगे -पीछे की इमेज मिस्ट्री बरक़रार रहनी चाहिए ! पर पिछले कुछ सालों में बेऔकात वाले कुछ लोगों ने इन नेटवर्किंग साईट'स पर आकर जरूर सेलेब्रिटी दर्ज़ा हासिल कर लिया इसमें मीडिया वालों की संख्या कुछ ज्यादा ही है, पांच-पांच हज़ार की फ्रेंड लिस्ट वाले ये लोग कुछ भी लिख दें कोई भी फोटो लगा दें कमेंट्स और लाइक्स की बरसात होने लगती पर ये स्थितप्रग भाव में ही नज़र आते महसूस होते हैं (लैपटॉप पर शायद मुस्कुराते हों पर वो दीखता तो उनको ही होगा ) और कुछ-एक को छोड़कर शायद ही कभी दूसरों की पोस्ट पर गौर फरमाते हो ! बहरहाल, ये एकतरफा कदरदानी भी कब तक चलेगी, इसलिए सौ -दो सौ और पांच सौ या हज़ार की फ्रेंड लिस्ट वाले भी अब अपने आप को कम नहीं समझ रहे हैं और इन लोगों का एकाधिकार तोड़ते हुए आपस में ही एक मुचुअल एडमिरेशन ग्रुप बनाने लग गए हैं, अब शायद इन्हें ज्यादा अच्छा महसूस होने लगा है!</div>
<div style="text-align: justify;">
लेकिन आत्मप्रचार और आत्ममुग्धता की भी एक हद होती है आखिर कितने दिनों और साल तक सिर्फ तारीफें लीं और दीं जा सकती हैं ! अब शायद मोहभंग का दौर आ गया है या आनेवाला है कोई कितना कहें और कोई कितना सुने या पढ़े ...कोई कह कह के खाली हो रहा है और कोई पढ़ पढ़ के सर से पैर तक पक रहा है ! शायद अब जो यहाँ नहीं हैं उन्हें याद करने, उनके पास लौटने के दिन आ रहे हैं, उन बेवकूफियों के पास जो अंतर्जाल में नहीं बल्कि असली रास्ते के किसी मोड़ पर इत्मीनान से बैठे हुए हैं ! हो सकता है उन्हें किसी का इंतज़ार नहीं हो पर कोई आकर हाथ थामने को मांगे तो पकड़ने की फुर्सत अब भी है उनके पास ! </div>
<div style="text-align: justify;">
<br /></div>
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मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-16475668460953833252013-03-25T14:47:00.001+05:302013-03-25T14:47:12.780+05:30सौ दुश्वारियां हैं तेरे ख्यालों की!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"> (1)</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">सुनो.....क्या तुम सुन सकते हो?</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">मैं चाहती हूँ तुम सुनो मुझे</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">पता नहीं कब-कब,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">क्या-क्या कहते रहे तुम</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">चलते रहे हम, बढ़ते रहे तुम </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">थम सी गयी मैं पर.... </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">बड़ी होती गयी मुझमें स्त्री</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">उफ़! पत्थर सा कठोर है सब आस-पास</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">फिर भी बचा ही लेती हूँ थोड़ी कोमल</span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">ता</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">तुम इतना भी नहीं कर सकते ?</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"> (2)</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">हिमालय सा ऊँचा हो</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">तो भी क्या </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">टूटना पत्थरों की नियति है!</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"> (3)</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कुछ अन्धेरें उजालों से ज्यादा रोशन होते हैं,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">ये वो अन्धेरें हैं, </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">जब पता होता है,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">एक-दुसरे को देख नहीं सकते</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">लेकिन यकीन बना रहता है,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">एक-दुसरे को देखते रहने का,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">उजालें तो सबके पास होते हैं,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">ऐसे अन्धेरें सब सहेजते नहीं !</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"> (4)</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">बैठी रही सारा दिन, वैसे ही,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">जबकि करने को बहुत कुछ था </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">यूँ ही हो गयी दोपहर, </span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">फिर हुई शाम,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">मैं गयी वहां, जहाँ जाने का कोई अर्थ न था</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">रही खड़ी वहां , जहाँ खड़ा रहना, </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">अक्सर व्यर्थ होता है</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">सुना लोगों की बातों को </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">जिनका कोई मतलब न था !</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"> (5)</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">शब्द छु जाते हैं, </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">चोट करते हैं,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">रुला देते हैं </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">फिर नरमी से,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">सहला देते है, </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">गुदगुदा देते हैं पर..</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">सबसे ताकतवर होते हैं,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">जब भरोसा देते हैं !</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"> (6)</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">महत्वकांक्षाएं मेरी सिकंदर सी,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">निस्पृहता मुझमें बुद्ध सी</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">या तो सबकुछ मुझे चाहिए</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">या फिर</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कुछ भी नहीं!</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"> (7)</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">दो मुझे सिर्फ अनुराग</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">ना तो अतृप्त कामना</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">और ना ही आवारा बैराग</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">मैं स्वीकारूं बिल्कुल 'अपने' की तरह</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">दो ऐसी पीड़ा</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">करो प्यार ऐसे, मिले दुःख मुझे!</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"> (8)</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">सौ दुश्वारियां हैं तेरे ख्यालों की ...</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">रहतें ढूंढती हूँ औरों के फसानों में !</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"> (9)</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">बहुत लिखा तुमने, </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">यहाँ की वहां की</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">बस नहीं लिखा तो....</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">सरगोशियाँ अपने करीब की !</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">(10)</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">पुराने कैलेंडर सहेज कर,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">रखने की बुरी आदत है मेरी,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">सहेज लिया तुम्हें भी,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">ओ पुराने वक़्त</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">जो गुज़रे हो अभी-अभी</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">(11)</span><br />
<br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">आना जाना लहरों का,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">किनारे न जाने मैं किस सोच में,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">तहों में कुछ दब सा रहा है</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कहीं....................</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">सहेज कर रखना किश्तों में,</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">मेरा, तुम्हें बार बार</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">जिन्दगी मतलब तुम्हारा</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">गीले गीले से एहसास</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">बार बार।</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span><span style="color: #333333; font-family: lucida grande, tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: x-small;"><span style="line-height: 18px;">(12)</span></span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">अनुभवों के अनेकों संस्तरो के बीच </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कभी देखा हैं </span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">कहाँ हैं, कैसा हैं</span><br />
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;">हमारा असली मन ?</span><br />
<div>
<span style="background-color: white; color: #333333; font-family: 'lucida grande', tahoma, verdana, arial, sans-serif; font-size: 13px; line-height: 18px;"><br /></span></div>
</div>
मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-48954278381250567662013-03-21T13:30:00.002+05:302013-03-21T15:52:04.577+05:30दक्षिण भारत की अनदेखी होती है मुख्यधारा में!<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
प्रसिद्ध पार्श्वगायिका एस जानकी को भारत सरकार द्वारा हाल ही में पद्मभूषण सम्मान देने की घोषणा की गई। लेकिन 75 वर्षीय एस जानकी ने इसे बहुत देरी से मिला सम्मान बताते हुए स्वीकार करने से मना कर दिया। इसी मसले पर एस जानकी की ओर से उनके संगीतकार-अभिनेता बेटे मुरली कृष्णा से मनोरमा की बातचीत।<br />
<br />
1.एस जानकी ने पद्मभूषण सम्मान क्यों अस्वीकार कर दिया?<br />
-पचपन साल लंबे संगीत कैरियर में क्या वो इससे पहले किसी भी पद्म सम्मान के योग्य नहीं थी? वो 17 भाषाओं में लगभग 17 हजार से ज्यादा गाने गा चुकी हैं बावजूद इसके उन्हें इससे पहले पद्म सम्मान के योग्य नहीं समझा गया। और अब इन पुरस्कारों के मुकाबले उन्हें पसंद करने वालों का प्यार उनके लिए सबसे बड़ा सम्मान है।<br />
2. आपके विचार से उन्हें ये सम्मान कब मिल जाना चाहिए था?<br />
-अम्मा ने संगीत की कोई विधिवत शिक्षा नहीं ली , और ना ही शास्त्रीय संगीत का प्रशिक्षण है उनके पास, लेकिन अपने कैरियर के शुरुआत में ही उन्होंने नादस्वरम के साथ ताल मिलाते हुए सुब्बय्या रेड्डी के संगीत में श्रृंगार वेले का कठिनतम गीत गाया। हालांकि उन्हें सुर सिंगार सम्मान, साथ ही केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश जैसे राज्यों का राज्य सम्मान मिल चुका है। देर से भी भारत सरकार की ओर से उन्हें ये सम्मान कम से कम 10-15 साल पहले मिल जाना चाहिए था। इसके अलावा इस पुरस्कार की सूचना प्रोटोकाल के तहत दी जाती है पर अम्मा के साथ ऐसा नहीं किया गया।<br />
3.दक्षिण भारत की अनदेखी होती है मुख्यधारा में?<br />
-हिन्दी भाषा के अपने फायदे हैं, हिन्दी में किया गया काम पूरे देश में जाना जाता है। दक्षिण भारत की बात करें तो यहां केरल के कलाकारों के बारे में आन्ध्रप्रदेश के लोगों को नहीं पता होता और तमिलनाडू के बारे में कर्नाटक को। हिन्दी का बाजार और पहंुच दोनों विशाल हैं इसलिए पुरस्कारों के नजरिये से इसका पलड़ा भारी रहता है। पी लीलाम्मा का ही उदाहरण लें, वो एस जानकी से वरिष्ठ हैं और उन्होंने ही श्रृंगार वेले गीत के लिए उनका नाम सुझाया था, पर देश में कितने लोग उनके बारे में जानते हैं? ऐसे बहुत से बड़े नाम हैं जिनके काम के बारे में पूरे देश के लोगों को जानकारी नहीं है।<br />
4. सरकार ही नहीं देश की जनता को भी सभी राज्यों के कलाकारों और संस्कृति के बारे में ज्यादा मालूम नहीं होता?<br />
- हां देश के हर हिस्से के लागों को दूसरे हिस्से और वहां के लागों के बारे में जानकारी होनी चाहिए। ये अपनी साझी विरासत को अगली पीढ़ी तक ले जाने की भी बात है। दरअसल, यहां ज्यादा बड़ी जिम्मेदारी सरकार और उनके प्रतिनिधियों की है। उन्हें हर राज्य और वहां जो भी उल्लेखनीय काम कर रहा है उसपर फोकस करना चाहिए और सम्मान व पुरस्कारों के संदर्भ में राष्ट्रीय स्तर पर सभी के काम का मुल्यांकन होना चाहिए।<br />
5.दक्षिण भारत में संगीत के कुछ बड़े नामों की राय में एस जानकी को पच्चीस साल पहले ऐसे सम्मान मिल जाने चाहिए थे?<br />
-वो सही कह रहे हैं, 75 साल की उम्र बहुत बड़ी होती है। आप जब पूरी उर्जा से सक्रिय होते हैं तब आपके काम की सराहना होनी चाहिए। कोई व्ह्रीलचेयर पर आ जाएं तब उसे सम्मानित करना मुझे तर्कसंगत नहीं लगता। ये तब मिलना चाहिए जब आप उस ख़ुशी का जश्न मनाने लायक हों।<br />
6. और कौन-कौन हैं, जिनके काम की अब तक अनदेखी हुयी है?<br />
-उर्वशी शारदा, पी सुशीला, एम विश्वनाथन और राममूर्ति ये संगीत के बहुत उंचें नाम हैं। इन्हें बहुत से सम्मान मिले हैं पर राष्ट्रीय स्तर पर इनके नाम और काम को और सराहना मिलनी चाहिए। <br />
<br />
7. अब तक के अपने संगीत कैरियर से वो संतुष्ट हैं?<br />
-बिल्कुल! अम्मा 4-5 साल की उम्र से गा रही हैं, कीर्तन से शुरू होकर उनकी संगीत-यात्रा 17 भाषाओं में 17 हजार से ज्यादा गीतों तक पहुंच गयी हैं और अभी भी सक्रिय हैं, 1957 से उन्होंने पार्श्वगायन शुरू किया और तब से लगातार गा रही हैं अस्थमा की गंभीर बीमारी के बावजूद। इस साल भी एक तमिल गीत रिकार्ड हो चुका है। लोगों से बहुत प्यार मिला है जो सबसे बड़ी चीज है।<br />
8.हिन्दी फिल्मों के लिए गाना कैसा अनुभव रहा? वो अपने समकालीनों संपर्क में अब भी है?<br />
-हिन्दी फिल्मों के लिए गाना बहुत अच्छा अनुभव रहा, ओ पी नय्यर साहब ने उनकी आवाज सुनते ही कहा था तुम अब तक कहां थी? मोहम्मद रफी साहब के लिए अम्मा के मन में बहुत सम्मान है। लगभग चार-पांच सौ हिन्दी गाने गाए हैं अम्मा ने । और सबसे अच्छी बात रही बहुतों के बच्चों के साथ भी काम किया मसलन किशोर कुमार और अमित कुमार,येसुदास और फिर उनके बेटे के साथ। लेकिन हिन्दी फिल्मों के लिए 6-7 साल से गाने नहीं गा रही है। लेकिन पिछले 6-7 साल से हिन्दी फिल्मों के लिए गाने नहीं गा रही है। दरअसल, पहले पिता मां का सारा काम संभालते थे और रिकार्डिंग के लिए बार-बार मुंबई जाने से उन्हें काफी परेशानी होती थी, इसलिए वहां जाना ही बंद कर दिया। अभी हिन्दी फिल्म उद्योग के लोगों से उनका लगभग नहीं के बराबर संपर्क है। <br />
9.नयी पीढ़ी के गायक-गायिकाओं में कौन-कौन उन्हें पसंद आ रहे हैं<br />
-नयी पीढ़ी में सभी बहुत अच्छा कर रहे हैं सभी का काम उन्हें अच्छा लगता है इसलिए किसी रियलिटी शो में वो जज बनकर नहीं जाती ताकि अंक न देने पड़ें। वैसे चित्रा, सुजाता, मिनमिनी का गाना उन्हें बहुत पसंद है। शरण और विजय भी पसंद हैं और रहमान, इल्लैय्याराजा और सुब्बय्या रेड्डी का संगीत अच्छा लगता है।<br />
10. कौन सी भाषा में काम करना ज्यादा आसान रहा?<br />
-तेलगू छोड़कर बाकी सभी भाषा अम्मा के लिए अनजानी ही थीं लेकिन पार्श्वगायन के पहले ही दिन उन्होंने तेलगू, तमिल, मलयालम, सिंहली और कन्नड़ भाषा में गाने रिकार्ड किए। दरअसल, वो गीतकार के साथ बैठकर पहले उच्चारण सीख लेती थीं। इसलिए सभी भाषाओं में काम करने में एक सा मजा आया।<br />
11. भविष्य में भारत सरकार भारत रत्न दे ंतो उन्हें स्वीकार होगा?<br />
- इस बारे में अभी कोई टिप्पणी उचित नहीं हैं। वैसे भी वो सम्मान के खिलाफ नहीं हैं बस उन्हें इसके टाईमिंग से शिकायत है। पुरस्कार को लेकर उनके मन में कोई दुर्भावना नहीं है बस इतनी लंबी अनदेखी से उन्हें शिकायत है जिसे उन्होंने जता भी दिया है। </div>
मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-90096161648610593962013-03-08T01:16:00.000+05:302013-03-08T01:28:13.485+05:30 कितना बर्बर है किसी से उसकी शख्सियत की पहली पहचान छीन लेना, इस दर्द की कोई भी दवा बहुत कम है !<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
लड़कियों और महिलाओं पर तेजाबी हमले के मामले में कर्नाटक भी पीछे नहीं है। कार्तिका परमेश्वरन न,डा. महालक्ष्मी, श्रृति, हसीना हुसैन ये कुछ ऐसे नाम हैं जिनके वजूद को तेजाबी आग में झुलसा कर खत्म कर देने की कोशिश की गई, वो भी उनके किसी के जबरदस्ती के प्यार को स्वीकार नहीं करने के इंसानी और बुनियादी अधिकार के कारण। ज्यादातर मामलों में एकतरफा प्यार में ठुकराए पुरुष के अहम् ने -तुम मेरी नहीं हो सकती तो तुम्हें किसी और का भी नहीं होने दुंगा, मानसिकता ने इन जिंदगी से भरे पढ़ते-लिखते, अपना काम करते भविष्य के सपने बुनते खुबसूरत चेहरों में हमेशा के लिए अंधेरा भर दिया। बंगलूरू में एसिड हमले की शिकार हुई लड़कियों और महिलाओं के लिए काम करने वाली स्वयंसेवी संस्था कैंपेन एंड स्ट्रगल अगेन्स्ट एस्डि अटैक आॅन वुमैन (सीएसएएएडब्ल्यू ) के आंकड़ों के मुताबिक पिछले दस साल में केवल कर्नाटक में ही एसिड हमले 68 से ज्यादा मामले हुए हैं। कर्नाटक में सीएसएएएडब्ल्यू लगातार कई सालों से इनकी लड़ाई लड़ रहा है पर कोई खास नतीजा नहीं मिलने और सरकार की ओर से केवल आश्वासन, इस संस्था के साथ जुड़कर अपनी लड़ाई लड़ रही पीडि़तों के हौसलों को तोड़ रहा है। इस लड़ाई में उनकी सक्रियता और भागीदारी लगातार कम हो रही है। एसिड हमले की शिकार हसीना हुसैन से बात करने पर इसकी वजह का भी पता चल गया। उनके परिवार ने लगातार सात साल अदालत में उनकी लड़ाई लड़ी और कर्नाटक हाई कोर्ट ने आरोपी को आजीवन कारावास की सजा सुनाई साथ ही एसिड हमले की शिकार पीडि़तों के पुर्नवास के लिए कर्नाटक सरकार को निर्देष जारी किए, जिसके तहत प्लास्टिक सर्जरी का पूरा खर्च सरकार द्वारा वहन करना, पीडि़तो के संपूर्ण अदालती खर्च उठाना और पीडि़ता का पुर्नवास होने तक उनकी पूरी देखभाल। कर्नाटक हाई कोर्ट के इस निर्देष से हसीना और उनके परिवार को बहुत राहत मिली थी और इंसाफ की उम्मीद जगी थी पर हकीकत कुछ और है। हसीना कहती हैं-अब 14 साल हो गए पर कुछ हासिल नहीं हुआ। अब तक सरकार से 1 लाख 80 हजार रूपए मिले, जबकि मेरे ईलाज में 20 लाख खर्च हो चुके हैं, मुझे आंखों से दिखता नहीं है। मेरे पिता ने अपना घर बेचकर मेरा ईलाज कराया थोड़ी मदद आम लोगों ने कर दी। पुर्नवास होने तक पीडि़तों की पूरी देखभाल की बात करते हैं पर सरकार द्वारा हर पीडि़त को 1 लाख 80 हजार थमा कर सब ठीक है मान लिया जाता है। हसीना इतनी मायुस हैं कि कहती हैं प्लीज मेरी स्टोरी नहीं लिखिए, हमारी कहानी छपती है और अगले दिन रद्दी की खबर बन जाती है। मैं नहीं चाहती कोई मेरी तस्वीर छापें, हमाले लिए मुद्दा महत्वपूर्ण है। दरअसल, कुछ होना होता तो मेरे बारे में इतना लिखा गया कि अब तक सब कुछ हो जाना चाहिए था। लेकिन अभी भी सिर्फ मैं ही नहीं मेरा परिवार भी इस हादसे और इसकी वजह से मिले षारीरिक, मानसिक और आर्थिक चोट से बाहर नहीं आ पाया है। हसीना जितनी सषंकित सरकार की ओर से है उतना ही इन लोगों की लड़ाई लड़ने वाली संस्थाओ से भी। हालांकि सभी के बारे में उनकी एक राय नहीं है पर ये जरूर कहती हैं कि-हमारा दुरूपयोग हुआ है कुछ लोग हमारे नाम पर लाखों रूपए अनुदान में हासिल कर लेते हैं और पीडि़तों को कुछ हजार थमा देते हैं।<br />
हसीना, पढ़ लिख का नौकरी कर रही थी लेकिन अपने इंप्लायर से ही एसिड हमले की शिकार हो गई। 1999 में उनके पास ढ़रों सपने थे और आज उनका कोई फ्यूचर प्लान नहीं है। वो बस इतना चाहती हैं एसिड हमले को रोका जाना, आरोपी को सजा मिलना और पीडि़त का पुर्नवास इसी पर फोकस किया जाना चाहिए। उनके जैसी और पीडि़तों के बारे में उनसे जानकारी मांगने पर वो कहती हैं-सीसा ने दो साल से काम करना लगभग बंद कर दिया है, उसके मार्फत हम बहुत से पीडि़त आपस में संपर्क में थे और हमने खुद को इंसाफ दिलाने की आखिरी हद तक अधिकतम कोषिषें कर ली, पर इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता आप किसी से भी बात कर लें सब यहीं कहेंगी। पुरुषों की सोच में बदलाव ऐसे हमलों पर रोक और पीडि़तों के ईलाज व पुर्नवास के साथ उनकी शिक्षा और काबिलियत के मुताबिक काम, उन्हें यही चाहिए। </div>
मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-43617246945439398402012-08-03T14:08:00.000+05:302012-08-03T14:08:05.353+05:30कठोर जीवन और कला<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; text-align: justify;">कई मासूम जिंदगियों को बाल-मजदूरी, ग़रीबी और नशे के शिकंजे से निकाल कर बंगलुरू में खुली-ताजी हवा में सांस लेने का मौक़ा दे रहा है बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल। </span><b style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; margin: 0px; padding: 0px; text-align: justify; z-index: 0;">मनोरमा</b><span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; text-align: justify;"> की रिपोर्ट (Public Agenda)</span><br style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; margin: 0px; padding: 0px; text-align: justify; z-index: 0;" /><span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; text-align: justify;">कभी नारियल पानी बेचने में अपने पिता की मदद करने वाला सुब्रमण्या आज एक अच्छा-खासा अभिनेता है। अभिनय में जल्दी ही डिप्लोमा करने की उसकी ख्वाहिश है। साथ ही वह अच्छी फोटोग्राफी और क्ले मॉडलिंग भी करता है। कुछ ऐसा ही किस्सा लॉ फ्रीडा शांति का भी है, जिनका असली नाम तो लक्ष्मी था पर जॉन देवराज ने उसमें फ्रीडा काहलो को देखा और फ्रीडा नाम दे दिया। फ्रीडा जॉन देवराज के "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' की आज मजबूत स्तंभ है। एक कलाकार होने के साथ ही स्कूल और हॉस्टल की तमाम जिम्मेदारियां बखूबी निभाती है। चार साल की उम्र में वह पुणे से भागकर बंगलुरू आयी थी और घरेलू नौकर से लेकर फैक्ट्री तक में काम करके अपना पेट पालती रही। लेकिन 2005 में "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' के एक कैंप में शामिल होने के साथ उसकी जिंदगी बदल गयी। अब उसे मूर्तिकला, पेंटिंग, नृत्य-संगीत, फोटोग्राफी और क्लेमॉडलिंग में महारत हासिल है। उसकी बनायी कलाकृतियों और चित्रों की प्रदर्शनी लगती है। नन्हीं शिल्पा और मीना पहले ट्रैफिक सिग्नल पर गुलाब के फूल बेचा करती थीं, लेकिन अब वे दूसरी कक्षा में पढ़ाई कर रही हैं। फजल पहले एक ड्रग-एडिक्ट था, अब भी पूरी तरह से नशे की गिरफ्त से आजाद नहीं हुआ है। लेकिन, "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' ने उसे भविष्य के प्रति आशावान जरूर बना दिया है। अक्तूबर 2009 में 25 बिहारी बाल बंधुआ मजदूरों को मैजेस्टिक के बैग बनाने की फैक्ट्री से छुड़ाया गया। उन्हीं में एक गज भी था। पांच सौ रुपये में गज को बच्चों के स्कूल बैग बनाने वाली फैक्ट्री में काम करने के लिए बेचा गया था। वह जिमनास्टिक में कर्नाटक राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहा है।</span><br style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; margin: 0px; padding: 0px; text-align: justify; z-index: 0;" /><span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; text-align: justify;">वेंकटेश, मारप्पा, श्रीनिवास, रेशमा, संजना, एंथनी, प्रशांत, एलिजाबेथ, गौरी गंजेला, रंजीता, चन्ना बासव्वा, पीटर, अनीता, जयराम, रॉबिन बालू, किरण जेके, रवि, जलाली जैसे कई और नाम हैं, जिनकी जिंदगियां बाल-मजदूरी, गरीबी और नशे की लत के शिकंजे से निकल कर अब खुली-ताजी हवा में सांस ले रही हैं, खिलखिला रही हैं। इसका सारा श्रेय बंगलुरू के "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' और उसके संस्थापक जॉन देवराज को जाता है।</span><br style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; margin: 0px; padding: 0px; text-align: justify; z-index: 0;" /><span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; text-align: justify;">दरअसल, "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' अपने आप में एक अनोखी पहल है। यह सड़कों और फुटपाथों पर रहने वाले बच्चों और बाल-मजदूरी और बंधुआ मजदूरी करने वाले बच्चों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रहा है। वह भी गीत-संगीत, नृत्य, थियेटर, फोटोग्राफी, पेंटिंग, फिल्ममेकिंग, क्ले-मॉडलिंग और मूर्तिकला के जरिये। जॉन खुद जाने-माने कलाकार हैं। वे मूर्तिकला, पेंटिंग, संगीत, फोटोग्राफी, थियेटर और कला निर्देशन में पारंगत हैं। उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की, लेकिन मन लगा तो रंगों, रेखाओं और आकारों की दुनिया में। आखिरकार उन्होंने अपना जीवन उन बच्चों के नाम कर दिया, जो अपने बुनियादी हकों से वंचित हैं। जॉन को बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए एक दशक से भी ज्यादा हो गया। सड़कों और फुटपाथ पर रहने वाले अनाथ बाल-मजदूर बच्चों के लिए और हजारों बच्चों को बाल-मजदूरी से निकाल कर मुख्यधारा में वापस लाने की कोशिश के बारे में जॉन कहते हैं, "मैं आंध्र प्रदेश का हूं, जहां एक दशक पहले चक्रवातीय तूफान में लाखों लोग मारे गये थे। मेरे आसपास के भी सैकड़ों लोग मारे गये थे। इस घटना का मुझ पर बहुत असर हुआ। मैं स्वयंसेवक बनकर लोगों की मदद के साथ ही पेंटिंग भी करने लगा। मेरी कलात्मक अभिव्यक्तियों में उस घटना की गहरी छाप अब भी है। उस तबाही ने मुझे बेचैन किया। फिर कला ने ही मुझे थामा। मेरी समझ में तभी आ चुका था कि कला बहुत समृद्ध माध्यम है समाज को कुछ वापस लौटाने का। इसमें लोगों और समाज को बदलने की क्षमता है।' </span><br style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; margin: 0px; padding: 0px; text-align: justify; z-index: 0;" /><span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; text-align: justify;">जॉन ने 2006 में "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' की शुरुआत की। मकसद था सड़कों पर मारे-मारे फिरने वालों बच्चों और बाल-मजदूरी करने वाले बच्चों को कला की मार्फत शिक्षा देकर मुख्यधारा में लाना। जॉन कहते हैं, "देश के बजट का यानी हमारे संसाधनों का पचास फीसद हिस्सा हथियारों की खरीद में खर्च होता है। देश के भविष्य को दुरुस्त करने के लिए सरकारों के पास बजट नहीं होता। इसलिए मैंने बाल-मजदूरी से मुक्त कराये गये बच्चों के साथ मिलकर दुनिया का सबसे लंबा प्रेम-पत्र पाकिस्तान के बच्चों के नाम लिखा जिसमें युद्ध नहीं, बल्कि शिक्षा को दोनों देशों की प्राथमिकता बनाने की गुजारिश की गयी थी। उस पर दोनों देशों के लाखों बच्चों के हस्ताक्षर थे। आखिर दोनों देशों के साधनहीन गरीब तबके के बच्चों की हालात एक जैसी ही है।'</span><br style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; margin: 0px; padding: 0px; text-align: justify; z-index: 0;" /><span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; text-align: justify;">जॉन कहते हैं, "पूरी दुनिया में 21 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे बाल-मजदूरी कर रहे हैं। अकेले भारत में यह संख्या दस-बारह करोड़ से ऊपर है। यानी इसे खत्म करने के लिए बहुत बड़े स्तर पर काम करने की जरूरत है। लेकिन जॉन ने कला का माध्यम ही इन बच्चों को मुख्यधारा में लाने के लिए क्यों चुना? यह पूछने पर वे कहते हैं, "ऐसे बच्चे बहुत कठिन दुनिया में रहकर आते हैं। उनके अनुभव बहुत कड़वे होते हैं, ऐसे में कला मरहम का काम करती है। इन आहत बच्चों की आत्मा को "हील' करती है। सब स्वीकार करते हुए आगे बढ़ने और अपनी तकदीर खुद लिखने का हौसला देती है। ऐसा नहीं है कि हम केवल कलात्मक हुनर ही इन्हें सिखाते हैं, ये बच्चे स्कूलों में पढ़ते भी हैं।'</span><br style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; margin: 0px; padding: 0px; text-align: justify; z-index: 0;" /><span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20.78333282470703px; text-align: justify;">जॉन के लिए बगैर किसी किस्म की सरकारी सहायता या अनुदान के यह सब करना खासा मुश्किल काम रहा। लेकिन वे कहते हैं, "सबसे बड़ा सहयोग हमें वॉलंटियर्स से मिलता है, जो बगैर किसी चाहत के समाज को कुछ लौटाना चाहते हैं। फिलहाल हम यही चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा वॉलंटियर्स न सिर्फ बंगलुरू या कर्नाटक, बल्कि पूरे देश में हमसे जुड़ें और इसे आगे बढायें।'इसी साल फरवरी में ब्रिटेन की कलाकार सैडी ने एक महीने तक बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल के 20 बच्चों को चित्रकला और पेंटिंग सिखायी और बाद में इन बच्चों की पेंटिंग की प्रदर्शनी "फ्रीडम फ्रॉम टाइल-गुड लाइफ, बैड लाइफ' के नाम से लगी, जिसे स्थानीय लोगों के अलावा ऑस्ट्रेलिया, जापान, पोलैंड, इंग्लैंड, स्लोवाकिया जैसे देशों से आये लोगों ने भी देखा और सराहा। जॉन देवराज बच्चों के साथ मिलकर समय-समय पर कई आयोजन करते हैं, ताकि वे अपनी कला और रोजमर्रा के जीवन में उसकी प्रासंगिकता के बीच तालमेल बिठा सकें। इसी सिलसिले में हाल ही में जॉन ने बॉर्न फ्री बच्चों के साथ दुनिया का सबसे बड़ा मिट्टी का घड़ा लालबाग में बनाया इसे गिनीज बुक्स ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में शामिल भी किया गया है। पर्यावरण संरक्षण और पेड़ों की रक्षा के संदेश के साथ बना यह घड़ा 25 फीट ऊंचा है। इसका वजन दो हजार किलोग्राम है। </span>
</div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-74957640656701720682012-07-28T16:07:00.000+05:302012-07-28T16:07:04.004+05:30<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<div style="font-size: 13px; margin: 0px; padding: 0px; text-align: -webkit-auto; z-index: 0;">
<h3 class="plainHead" style="border-bottom-color: rgb(136, 136, 136); border-bottom-style: solid; border-bottom-width: 1px; font-family: 'Helvetica Neue', Arial, sans-serif; font-size: 1.6em; margin: 0px; padding: 0px; z-index: 0;">
ताक़त के तीन हिस्से</h3>
</div>
<div style="border-top-color: rgb(211, 211, 211); border-top-style: solid; border-top-width: 1px; font-size: 13px; margin: 3px 0px 5px; padding: 3px; text-align: justify; z-index: 0;">
<div style="color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 1.3em; line-height: 1.6em; margin-bottom: 0em; padding: 0px; z-index: 0;">
कलह और गुटबाज़ी से जूझ रही कर्नाटक भाजपा का राजनीतिक संकट फ़िल हाल टल गया है लेकिन येदियुरप्पा की महत्वाकांक्षाओं के शिकार हुए सदानंद गौड़ा का गुट फिर से राजनीतिक संकट खड़ा कर सकता है। <b style="margin: 0px; padding: 0px; z-index: 0;">मनोरमा</b> की रिपोर्ट(
<span style="background-color: #be1f24; font-family: 'Helvetica Neue', Arial, sans-serif; font-size: 13px; font-weight: bold; line-height: normal; text-align: -webkit-auto;">द पब्लिक एजेंडा</span><span style="background-color: #be1f24; font-family: 'Helvetica Neue', Arial, sans-serif; font-size: 13px; font-weight: bold; line-height: normal; text-align: -webkit-auto;"> </span><span style="background-color: white; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: small; line-height: 28px; text-align: -webkit-auto;">में प्रकाशित </span><span style="background-color: white; font-size: 1.3em; line-height: 1.6em;"> )</span></div>
<div style="color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 1.3em; line-height: 1.6em; margin-bottom: 0em; padding: 0px; z-index: 0;">
कर्नाटक में भाजपा का संकट अभी खत्म होता नहीं लगता। सरकार बचाने और चलाने की जद्दोजहद में ही अगला विधानसभा चुनाव का समय नजदीक आ जायेगा, जिसमें मात्र ग्यारह महीने ही बचे हैं। चार साल के अंतराल में राज्य में तीसरे मुख्यमंत्री शपथ लेने वाले हैं। दरअसल, कर्नाटक भाजपा इन दिनों व्यक्तिगत अहम, कलह और गुटबाजी की राजनीति से जूझ रही है। मौजूदा संकट और नेतृत्व परिवर्तन उसी की बानगी है। पार्टी से बड़ा व्यक्ति विशेष का अहम हो गया है और केंद्रीय नेतृत्व की मजबूरी है उसे तुष्ट करना। आखिरकार येदियुरप्पा ने साबित कर ही दिया कि कर्नाटक में फिलहाल भाजपा के सबसे कद्दावर नेता वही हैं, चाहे वे मुख्यमंत्री पद पर रहें या न रहें। भाजपा को राज्य में अपना अस्तित्व बनाये और बचाये रखना है तो येदियुरप्पा के आगे उसे झुकना ही होगा। इसलिए सदानंद गौड़ा को असमय मुख्यमंत्री पद की बलि देनी पड़ी और जगदीश शेट्टर के लिए रास्ता खाली करना पड़ा। <br style="margin: 0px; padding: 0px; z-index: 0;" />सदानंद गौड़ा साफ छवि के नेता हैं और उनकी सरकार पर कोई दाग भी नहीं लगा, बावजूद इसके वे अपना पद छोड़ने के लिए राजी हो गये तो इसकी वजह उनका राजनीतिक व्यक्तित्व और शैली ही है। उनकी जगह येदियुरप्पा होते तो ऐसा शायद नहीं कर पाते। गौड़ा शुरू से भाजपा के अनुशासित नेता रहे हैं और अब तक पार्टी के आदेशों के मुताबिक ही उन्होंने राजनीति की है। लेकिन मौजूदा घटनाक्रमों ने कर्नाटक भाजपा में उनका भी एक खेमा विकसित कर दिया है, जो हर आदेश को चुपचाप मानने को तैयार नहीं है। यह उस समय दिखा भी जब वे अपना इस्तीफा राजभवन में सौंपने जा रहे थे। उनके समर्थकों ने उन्हें रोकने की पूरी कोशिश की, लेकिन अंततः उन्होंने एक साल पूरा करने से पहले ही पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि, वोक्कालिगा समुदाय के लोगों का तीव्र विरोध जारी है और वेे किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर रहे हैं। <br style="margin: 0px; padding: 0px; z-index: 0;" />बहरहाल गौड़ा के प्रस्थान की इस पटकथा को पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने लिखा। जेल से वापस आने के साथ ही येदियुरप्पा ने केंद्रीय नेतृत्व पर खुद को मुख्यमंत्री बनाने या गौड़ा को बदलने के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया था, जिसे टालने की भरपूर कोशिशें की गयीं। लेकिन पिछले दिनों उनके खेमे के नौ मंत्रियों ने कैबिनेट से इस्तीफा देकर केंद्रीय नेतृत्व को गौड़ा को हटाने के लिए अंततः मजबूर कर ही दिया। इन मंत्रियों में जगदीश शेट्टर भी एक थे। ये वही येदियुरप्पा हैं जो अपने शासन काल के दौरान इसी तरह की परेशानियां रेड्डी बंधुओं के कारण झेलते रहे थे। हालांकि, सरकार भी उन्होंने उन्हीं रेड्डी बंधुओं के पैसों और सहयोग से ही बनायी थी। लेकिन अवैध खनन के मामले में लोकायुक्त की रिपोर्ट में नाम आने पर पिछले साल जुलाई में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था और अगस्त में सदानंद गौड़ा प्रदेश के नये मुख्यमंत्री बनाये गये थे। ऐसा राजनीति में ही हो सकता है कि जिस जगदीश शेट्टर को मात देकर येदियुरप्पा ने सदानंद गौड़ा को मुख्यमंत्री बनवाया था, आज पासा एकदम पलटा हुआ है। शेट्टर के लिए येदियुरप्पा ने गौड़ा को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिलवा दिया। वैसे कहा जाता है कि "दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है' लेकिन येदियुरप्पा शायद यह भूल रहे हैं कि सदानंद गौड़ा उनके खेमे के और उनके भरोसे के हुआ करते थे, जबकि जगदीश शेट्टर हमेशा उनके प्रतिद्वंद्वी रहे हैं। दोनों लिंगायत समुदाय के नेता हैं, इसलिए येदियुरप्पा कभी भी शेट्टर का कद बढ़ने देना नहीं चाहते थे। जब गौड़ा उनके लिए रबर स्टांप मुख्यमंत्री नहीं बने, तो क्या गारंटी है कि शेट्टर आने वाले समय में उन्हें किनारे नहीं करेंगे? <br style="margin: 0px; padding: 0px; z-index: 0;" />सबसे दुखद बात ये है कि इस पूरे प्रकरण ने कर्नाटक की जाति आधारित राजनीति का बदरंग चेहरा सामने रखा है, जहां भाजपा को अगली बार भी बहुमत में आने के लिए लिंगायतों को तुष्ट करना पड़ेगा। चूंकि येदियुरप्पा अदालत में चल रहे मामलों के कारण अभी मुख्यमंत्री नहीं बन सकते इसलिए एक और लिंगायत नेता जगदीश शेट्टर को पार्टी का चेहरा बनाया गया है। कहा ये भी जा रहा है कि मुख्यमंत्री पद के लिए येदियुरप्पा की पहली पसंद पिछली बार उनकी करीबी ऊर्जा मंत्री शोभा करंदलाजे ही थीं, लेकिन वे लिंगायत की बजाय वोक्कालिगा थीं, इसलिए मुख्यमंत्री नहीं बन सकीं। हालांकि, सदानंद गौड़ा भी वोक्कालिगा ही थे। दरअसल, कर्नाटक में सबसे ज्यादा सतरह फीसद वोट लिगंायतों के ही हैं और वोक्कालिगा 15 फीसद के साथ दूसरे नंबर पर आते हैं, लेकिन उनका वोट बंटा हुआ है। <br style="margin: 0px; padding: 0px; z-index: 0;" />फिलहाल जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) की वोक्कालिगा समुदाय पर अच्छी पकड़ है, जबकि भाजपा के लिए राज्य में लिंगायत ही सबसे बड़े वोट-आधार हैं। दूसरी ओर लिंगायत वोट धर्मगुरुओं और मठों के द्वारा बहुत हद तक निर्देशित होते हैं और भाजपा का इन मठों और धर्मगुरुओं पर खासा असर है। कांग्रेस की पकड़ पिछड़ों और दलितों के बीच ज्यादा है। <br style="margin: 0px; padding: 0px; z-index: 0;" />बहरहाल, जगदीश शेट्टर पहली लड़ाई तो जीत गये हैं, लेकिन क्या आगे का रास्ता तय करना उनके लिए आसान है? कर्नाटक में भाजपा सरकार के चार साल में तीसरे मुख्यमंत्री बने 56 वर्षीय जगदीश शेट्टर हुबली से चौथी बार विधायक हैं और लिंगायत होने के साथ उत्तरी कर्नाटक के प्रभावशाली नेता भी हैं, जहां भाजपा की मजबूत उपस्थिति है। एसएम कृष्णा के मुख्यमंत्री रहने के दौरान शेट्टर विपक्ष के नेता रह चुके हैं और सन् 2009 में ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री बनने से पहले येदियुरप्पा के मुख्यमंत्री रहने के दौरान विधानसभा अध्यक्ष भी रह चुके हैं। अपने कैरियर की शुरुआत में वे येदियुरप्पा के करीब भी रहे हैं। यहां तक कि येदियुरप्पा के "ऑपरेशन कमल' को अमली जामा पहनाने में भी शेट्टर की प्रमुख भूमिका रही। अब देखना यह है कि साफ-साफ दो खेमों में बंट चुके विधायकों के साथ वे कैसा मंत्रिमंडल बना पाते हैं और असंतुष्टों को साध कर कैसे सरकार चला पाते हैं। बड़ी चुनौती उन्हें गौड़ा समर्थक विधायकों से ही मिलेगी। साथ ही अंदरूनी कलह से बिगड़ी भाजपा की छवि सुधारने की बड़ी जिम्मेदारी भी उनपर है। लेकिन इसके लिए उनके पास ज्यादा समय नहीं है। मई 2013 में विधाानसभा चुनाव हो सकते हैं या फिर ये भी हो सकता है कि गुजरात विधानसभा चुनाव के साथ दिसंबर में ही कर्नाटक में चुनाव कराये जायें। बहरहाल, संकट का पहला पड़ाव तो पार कर लिया गया है। यानी मुख्यमंत्री पद का मसला, मंत्रीमंडल का गठन और हर खेमे को संतोषजनक प्रतिनिधित्व देना ये ज्यादा बड़ी समस्याएं नहीं हैं और केंद्रीय नेतृत्व को इसकी ज्यादा चिंता भी नहीं है। संकट शिखर के लोगों का और लोगों से है। दरअसल, येदियुरप्पा प्रदेश पार्टी अध्यक्ष का पद अपने लिए चाहते हैं। वे गौड़ा को किसी भी कीमत पर इस पद पर नहीं देखना चाहते, क्योंकि उनके नेतृत्व में अगर भाजपा राज्य में अगला चुनाव जीत जाती है, तो गौड़ा कर्नाटक में भाजपा के सबसे बड़े नेता बन कर उभर सकते हैं। दूसरी ओर, गौड़ा अपनी ताकत मुख्यमंत्री के बाद एक इसी पद से साबित कर सकते हैं। जाहिर है, केंद्रीय नेतृत्व का उन्हें राज्यसभा में भेजने का प्रस्ताव देना फिलवक्त राज्य की राजनीति से वनवास ले लेने के समान होगा। दूसरी ओर यह भी गौरतलब है कि येदियुरप्पा को कर्नाटक में जब बहुमत मिला तब गौड़ा ही प्रदेश अध्यक्ष थे। ऐसे में भाजपा के लिए "आगे कुंआ, पीछे खाई' सी स्थिति बन रही है। गौड़ा की उपेक्षा से वोक्कालिगा वोट प्रभावित हो सकते हैं। खबर ये भी है कि केंद्रीय नेतृत्व संतुलन बनाने के लिए प्रदेश पार्टी अध्यक्ष पद पर किसी दलित नेता को बिठा सकता है। क्योंकि येदियुरप्पा खेमा ईश्वरप्पा के बजाय गृहमंत्री आर अशोक को उपमुख्यमंत्री बनाना चाहता है और सदानंद गौड़ा खेमे की पसंद ईश्वरप्पा हैं। ऐसे में संभावना दो उपमुख्यमंत्री बनने की है। <br style="margin: 0px; padding: 0px; z-index: 0;" />अब देखना ये है कि गौड़ा को प्रदेश पार्टी अध्यक्ष पद मिलता है या नहीं, क्योंकि राज्यसभा जाने की पेशकश तो उन्होंने पहले ही ठुकरा दी है। ऐसे में केंद्रीय नेतृत्व उन्हें उनके खेमे के लोगों को बेहतर पोर्टफोलियो देने का आश्वासन ही दे सकता है। ये और बात है कि गौड़ा इस पर शायद ही मानें। उनके खेमे में पचास से ज्यादा विधायक हैं और शेट्टर कैबिनेट में 20 मंत्री पद उनकी मांग है। </div>
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</div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-81420651864572291482012-04-10T14:14:00.001+05:302012-04-10T14:22:17.916+05:30कितने दिन अमन-चैन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">(Published in Public Agenda)</span><br />
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">येदियुरप्पा गद्दी पाने को उतावले है। लेकिन अपने जिस चहेते सदानंद गौड़ा को उन्होंने कुर्सी पर बिठाया था वही आज उनकी राह का रोड़ा हैं। फ़िलहाल कर्नाटक भाजपा में तूफ़ान के आने से पहले की ख़ामोशी छायी है।</span><b style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: justify; z-index: 0;"> मनोरमा</b><span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;"> की रिपोर्ट</span><br />
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<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">कर्नाटक में जब येदियुरप्पा मुख्यमंत्री थे तो तीन बार कुछ ऐसा ही हाई वोल्टेज ड्रामा खेला गया जैसा पिछले दस दिनों से जारी है। तीनों बार वे अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे, हालांकि चौथी बार उन्हें कुर्सी छोड़नी ही पड़ी। उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। अवैध खनन और भूमि आवंटन में अनियमितता के आरोपों के कारण जब उन्हें गद्दी छोड़नी पड़ी थी तब भी उनके पास सत्तर से ऊपर विधायकों का समर्थन था, लेकिन चाहते हुए भी वे विद्रोही तेवर नहीं दिखा सके। कारण केंद्रीय नेतृत्व हर हाल में कर्नाटक में लगे दाग को साफ करना चाहता था। तब येदियुरप्पा के खास चहेते सदानंद गौड़ा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे।आज वही सदानंद गौड़ा येदियुरप्पा की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। उस समय जगदीश शेट्टर अनंत कुमार खेमे की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। तब गुप्त मतदान से मुख्यमंत्री चुना गया था। गौड़ा को 66 मत मिले थे और शेट्टर को 52 ही। लेकिन राजनीति में कब पासा पलट जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता। अब वही अनंत कुमार और येदियुरप्पा करीब आ गये हैं और उन 70 विधायकों के साथ-साथ जगदीश शेट्टर भी येदियुरप्पा के साथ खड़े हैं। यहां तक कि बजट सत्र से पहले खुद को मुख्यमंत्री नहीं बनाये जाने की सूरत में येदियुरप्पा चाहते थे कि शेट्टर को वित्त मंत्री बना दिया जाये ताकि बजट गौड़ा नहीं शेट्टर पेश कर सकें। बहरहाल, इस पूरे प्रकरण में भाजपा की अंदरूनी राजनीति और अनुशासन की कलई खुल गयी। राज्य में पार्टी को बड़ी चुनौती विपक्षी दलों से नहीं, बल्कि अपने ही खेमों से मिल रही है। चुनाव सन् 2013 में होने हैं पर ऐसे ही हालात रहे तो मौजूदा सरकार का अपना कार्यकाल पूरा कर पाना मुश्किल लगता है। संकट की शुरुआत इसी महीने के पहले हफ्ते से हो गयी थी जब कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अवैध खनन के मामले में येदियुरप्पा पर लोकायुक्त पुलिस द्वारा दायर एफआईआर रद्द कर दी। गौरतलब है कि लोकायुक्त विशेष अदालत के आदेश के खिलाफ येदियुरप्पा की ओर से कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील की गयी थी। चूंकि अवैध खनन पर जारी लोकायुक्त की रिपोर्ट में नाम आने पर ही पिछले साल जुलाई में येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा था, इसलिए उच्च न्यायालय द्वारा इस मामलें में क्लीन-चिट मिल जाने पर ही तार्किक रूप से मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी दावेदारी वापसी की बनती है।इसलिए येदियुरप्पा ने दवाब की राजनीति खेलनी शुरू की। पहले उन्होंने उडुपी-चिकमगलूर के उपचुनाव में प्रचार करने से इनकार कर दिया जबकि वे स्टार प्रचारक थे। पार्टी को यहां मिली हार बेशक उनके मन की मुराद थी। इससे वे यह संदेश देने में कामयाब रहे हैं कि राज्य में उनके कद का नेता कोई नहीं, बल्कि जिस लिंगायत मतदाता का समर्थन उनके साथ है, भाजपा उसकी अनदेखी नहीं कर सकती। इसके अलावा येदियुरप्पा ने अपने एक उम्मीदवार को राज्यसभा में पहुंचाकर अपनी दमदार वापसी का संकेत दे दिया है। फिर बजट सत्र से पहले मुख्यमंत्री बदलने का अल्टीमेटम उनकी दूसरी चाल थी। येदियुरप्पा अड़ गये कि बतौर मुख्यमंत्री वे ही बजट पेश करेंगे। उन्होंने यह धमकी 55 विधायकों के साथ दी जिनके बल पर वे बंगलुरू के एक रिसॉर्ट में डेरा डाले हुए थे। एक दिन बाद 10 और विधायक उनके साथ शामिल हो गये। फिलहाल उनका दावा है कि सत्तर से ऊपर विधायक उनके साथ हैं। वर्तमान में भाजपा के 117 विधायक हैं और सरकार बनाने के लिए 112 विधायकों का समर्थन जरूरी है। </span><br />
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">वैसे उच्च न्यायालय के इस फैसले को फिर सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है और उस पर फैसला आना बाकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने सेंट्रल एमपावर्ड कमेटी को यह निर्देश दिया है कि अवैध खनन के मामले में येदियुरप्पा और उनके परिवार की संलिप्तता की सीबीआई जांच आवश्यक है या नहीं, इस पर अपनी रिपोर्ट दे। जरूरी नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला भी येदियुरप्पा के हक में आये या उनपर सीबीआई जांच का मसला न बने। अतः अक्लमंदी यही थी कि फिलहाल राज्य के नेतृत्व में बदलाव नहीं किया जाये।दूसरी ओर, पिछले महीनों में सदानंद गौड़ा बगैर किसी विवाद के सरकार चलाते रहे हैं। उनकी छवि साफ और ईमानदार नेता की है। वे आरएसएस की पसंद भी हैं। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उनके द्वारा पेश किये गये बजट को सराहना मिली है हालांकि इस पूरे विवाद के कारण इस पर अपेक्षित चर्चा नहीं हो पायी। साथ ही वे राज्य के दूसरे सबसे बड़े समुदाय वोक्कालिगा से आते हैं और भाजपा की ओर से एचडी कुमारस्वामी का जवाब माने जाते हैं। लेकिन राज्य के जाति समीकरण में लिंगायत 20 फीसद से ऊपर हैं। इस समुदाय से येदियुरप्पा जैसा कोई और प्रभावशाली नेता भाजपा के पास नहीं है। भाजपा के गढ़ माने जाने वाले उडुपी-चिकमगलूर में पार्टी को पैंतालीस हजार मतों के अंतर से मिली हार चेतावनी है। कर्नाटक की जनता पिछले चार साल से भ्रष्टाचार के तमाम मामलों के साथ-साथ भाजपा का अंतर्कलह देख रही है जो अब अपने चरम पर है।आकलन के मुताबिक, इस उपचुनाव में करीब 24 हजार नये मतदाता जुड़े और पहली बार वोट दे रहे इन मतदाताओं का एक भी वोट भाजपा को नहीं मिला। यानी अगले चुनाव में मतदाता जाति के अलावा दूसरे गुंजाइश फैक्टर को नजरअंदाज नहीं करेगा। भाजपा के लिए चिंता की बात यह भी है कि लिंगायतों के दबदबे वाले राज्य के मठों का समर्थन अभी भी येदियुरप्पा के साथ ही है। ऐसे में येदियुरप्पा की ज्यादा दिनों तक अनदेखी नहीं की जा सकती। एक ओर येदियुरप्पा के बागी तेवर हैं तो दूसरी ओर सन् 2013 में चुनाव की नैया। बहरहाल, येदियुरप्पा की खामोशी तूफान से पहले की खामोशी भी हो सकती है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उन्हें बजट सत्र तक यथास्थिति बहाल रखने के एवज में अप्रैल में उनके हक में फैसला करने का आश्वासन दिया है। येदियुरप्पा यह दिखा चुके हैं कि 69 विधायकों का समर्थन उनके पास है और वे बजट सत्र में कभी भी सरकार गिरा सकने की स्थिति में थे। अब चालू सत्र तक उन्हें शांत कराकर भले ही गडकरी ने मामला सुलझा लिया हो, अप्रैल में पता चल जायेगा कि यह शांति कितने दिनों की थी।</span> <br />
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<div style="background-color: white; font-size: 13px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: -webkit-auto; z-index: 0;"><h3 class="plainHead" style="border-bottom-color: rgb(136, 136, 136); border-bottom-style: solid; border-bottom-width: 1px; font-family: 'Helvetica Neue', Arial, sans-serif; font-size: 1.6em; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">सभी विधायक साथ हैं</h3></div><div style="background-color: white; border-top-color: rgb(211, 211, 211); border-top-style: solid; border-top-width: 1px; margin-bottom: 5px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 3px; padding-bottom: 3px; padding-left: 3px; padding-right: 3px; padding-top: 3px; text-align: justify; z-index: 0;"><div style="color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; line-height: 1.6em; margin-bottom: 0em; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;"><br />
कर्नाटक भाजपा अध्यक्ष<b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;"> के एस ईश्वरप्पा</b> से <b style="line-height: 20px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;"> मनोरमा</b><span style="line-height: 20px;"> </span><span style="line-height: 1.6em;">की बातचीत</span></div><div style="color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; line-height: 1.6em; margin-bottom: 0em; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;"><br />
<b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">कर्नाटक में हालिया राजनीतिक घटनाक्रम पर आप क्या कहते हैं?</b><br />
राजनीति में ऐसा होता रहता है। यह पार्टी का अंदरूनी मसला था। पार्टी से बड़ा कोई नहीं है, अंततः सभी को उसी के अनुसार चलना है। लेकिन मुझे मीडिया के एक वर्ग से शिकायत है, जिसने सदानंद गौड़ा के इस्तीफा देने और येदियुरप्पा के कुर्सी संभालने की लगातार खबरें देकर भ्रम की स्थिति बनाये रखी। हमारी ओर से इस संबंध में कोई लिखित बयान जारी नहीं किया गया था।<br />
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<b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">यह भी कहा जा रहा है कि येदियुरप्पा 30 मार्च तक ही शांत हुए हैं। उसके बाद वे फिर धमाका कर सकते हैं?</b><br />
मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं। जहां तक मुझे पता है, इस बारे में पार्टी में एक राय है कि सदानंद गौड़ा मुख्यमंत्री बने रहेंगे। वैसे भी इस संदर्भ में पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व का ही फैसला अंतिम होगा। वैसे येदियुरप्पा इससे पहले भी कई बार ऐसी डेडलाइन दे चुके हैं। उसका नतीजा भी सबको मालूम ही है।<br />
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<b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">उनके पास 60-70 विधायकों का समर्थन है?</b><br />
मेरी जानकारी में सभी विधायक पार्टी के साथ हैं और सभी को केंद्रीय नेतृत्व का हर फैसला मंजूर है। हमारा ध्यान अब अगले चुनाव पर है और पार्टी जाति और पैसों के आधार पर नहीं, बल्कि उम्मीदवारों की योग्यता और प्रदर्शन के आधार पर टिकट देगी। भाजपा में ब्लैकमेलिंग की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है।<br />
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<b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी से क्या येदियुरप्पा को यह आश्वासन मिला है कि बजट सत्र खत्म होते ही उनके हक में फैसला होगा?</b><br />
केंद्रीय नेतृत्व जो भी फैसला करेगा, हम सब मानेगे।<br />
<br />
<b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">यह भी कहा जा रहा है कि येदियुरप्पा मुख्यमंत्री नहीं तो कर्नाटक में भाजपा के अध्यक्ष पद चाहते हैं?</b><br />
मुझे इस बारे में भी नहीं पता। दिल्ली में पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं से मेरा विचार-विमर्श हुआ। ऐसा कुछ तो नहीं कहा गया मुझसे। वैसे अगर हाईकमान कर्नाटक भाजपा अध्यक्ष येदियुरप्पा को बनाते हैं तो इसमें मैं क्या कर सकता हूं? केंद्रीय नेतृत्व का फैसला सभी को मान्य होगा।<br />
<br />
<b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">उडुपी-चिकमगलूर के उपचुनाव में मिली हार पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है? वह सीट पहले भाजपा के खाते में थी। येदियुरप्पा का प्रचार न करना पार्टी के लिए महंगा साबित हुआ?</b><br />
हमारा ज्यादा नुकसान पार्टी में जारी अंतर्कलह से हुआ। खास तौर पर उपचुनाव से पहले येदियुरप्पा जी के साथ विधायकों का रिसॉर्ट में डेरा जमाना और सरकार पर अस्थिरता की तलवार लटका देना। जाहिर है, मतदाताओं में इससे भाजपा के प्रति बहुत नकारात्मक संदेश गया।</div></div></div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-15729660785433780572012-02-23T18:39:00.001+05:302012-02-23T18:40:34.153+05:30मैं बेदाग़ निकलूंगा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span style="color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: x-small;"><span style="line-height: 20px;"><b>(published in Public Agenda)</b></span></span><br />
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व प्रमुख </span><b style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: justify; z-index: 0;">जी माधवन नायर</b><span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;"> से</span><b style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: justify; z-index: 0;"> मनोरमा</b><span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;"> की बातचीत</span><br />
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">एंट्रिक्स-देवास सौदे में हुई अनियमितता के मद्देनजर केंद्र सरकार ने हाल ही में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र, (इसरो) के पूर्व प्रमुख जी माधवन नायर को जिम्मेदार ठहराते हुए नायर समेत चार वैज्ञानिकों की किसी भी सरकारी पद पर नियुक्ति पर रोक लगा दी है। बंगलुरू में माधवन नायर से इस विषय पर बातचीत के मुख्य अंशः</span><br />
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<b style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: justify; z-index: 0;">देवास को ही सौदे के लिए क्यों चुना गया?</b><br />
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">यह कहा जा रहा है कि सौदे में पारदर्शिता नहीं बरती गयी।ऐसा बिल्कुल नहीं है। उस समय एक नयी तकनीक या प्रौद्योगिकी को देश में लाने का विचार था। सन् 2002 की सैटेलाइट नीति बनायी ही गयी थी सैटेलाइटों के निजी परिचालन को प्रोत्साहित करने के लिए। </span><br />
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">अगर कोई भी निजी ऑपरेटर इसरो से ट्रांसपोंडर उपलब्ध कराने को कहता तो इसरो उपलब्ध कराता और न होने की स्थिति में किराये पर लेकर उपलब्ध कराता है। साथ ही, किसी भी इसरो कर्मचारी को अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी से संबंधित उद्योग शुरू करने की अनुमति दी गयी और कहा कि उन्हें अपेक्षाकृत कम लागत पर अंतरिक्ष तकनीक मुहैया करायी जायेगी। देवास सौदे के पहले से ही इसरो एस बैंड संचार के लिए सैटेलाइट तकनीक विकसित कर रहा था और दिसंबर 2010 से पहले एस-बैंड स्पेक्ट्रम और परिक्रमा स्लॉट का इस्तेमाल करना भी अनिवार्य था।एक बार ऐसा सैटेलाइट विकसित हो जाने के बाद हमें सर्विस मुहैया कराने वाले चाहिए थे। 2002-2004 में ऐसा कोई नहीं था। सौदा सभी के लिए खुला था, लेकिन कोई नहीं आया। </span><br />
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">यह सौदा देवास को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। इसी दौरान डॉ शंकर के अधीन एक टीम बनी और तकनीकी टीम के प्रस्तावों के आधार पर एंट्रिक्स नाम से इसरो की व्यावसायिक शाखा बनी। यह सौदा एंट्रिक्स के मार्फत हुआ और इसके लिए पूरी प्रक्रिया का पालन हुआ, जिसमें अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग लोगों और विभागों की अपनी-अपनी भूमिका रही। इसके अलावा सौदे के लिए राशि तय करते समय इस बात का ध्यान रखा गया था कि सरकार को कोई नुकसान न हो। साथ ही पूरे निवेश पर सरकार को दस से पंद्रह फीसद लाभ हासिल हो। </span><br />
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<b style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: justify; z-index: 0;">क्या यह सौदा पूरी तरह से देवास के पक्ष में था?</b><br />
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">नहीं, बिल्कुल नहीं। उस समय यह तकनीक केवल जापान के पास थी। हमें सात सौ करोड़ का चेक ऑडिटर के मार्फत मिला था। देवास को चुनने का कारण यह था कि किसी और कंपनी की ओर से बोली नहीं लगायी गयी थी और देवास ने यह भरोसा दिया था कि वह यह तकनीक देश में लायेगी। दरअसल, जब हम सैटेलाइट आधारित संचार तकनीक लेकर आये थे, तब बाजार में उसका कोई खरीदार नहीं था, केवल दूरदर्शन और टाटा स्काई थे। हमने "पहले आओ, पहले पाओ' के तहत आनेवाली अकेली कंपनी देवास के साथ समझौता कर लिया जबकि इस अनुबंध के लिए कोई भी बोली लगा सकता था। </span><br />
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<b style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: justify; z-index: 0;">इस पूरे मसले में आपकी भूमिका क्या रही?</b><br />
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">मैं इस सौदे के दौरान इसरो का प्रमुख था और एंट्रिक्स का अध्यक्ष इसरो का प्रमुख ही होता है। लेकिन कोई भी प्रस्ताव पहले तकनीकी समीक्षा के लिए जाता है। फिर वित्त मंत्रालय के पास जाता है। इसके बाद सभी अपनी सिफारिशें इसरो प्रमुख के पास भेजते हैं। इसके अलावा अंतरिक्ष आयोग का अध्यक्ष इसरो का प्रमुख होता है। प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रमुख सचिव और मंत्रिमंडल सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, वित्त सदस्य और अंतरिक्ष विभाग के अतिरिक्त सचिव भी इसके बोर्ड में होते हैं। इसरो की व्यावसायिक शाखा एंट्रिक्स और देवास के बीच 2005 में हुए करार के तहत कंपनी को 70 मेगाहर्टज एस-बैंड स्पेक्ट्रम डिजीटल मल्टीमीडिया सेवाओं के लिए बीस साल के लिए दिया गया था। इस करार पर मुहर एंट्रिक्स के बोर्ड ने मिलकर लगायी थी। मेरी भूमिका यही थी। </span><br />
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<b style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: justify; z-index: 0;">राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी यह सौदा खतरा था?</b><br />
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">नहीं।240 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम पहले भी सेना और रक्षा संबंधी जरूरतों के लिए निर्धारित था और 70 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम को ही व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए रखा गया था। </span><br />
<br />
<b style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: justify; z-index: 0;">एक साल के बाद यह करार फिर से सुर्खियों में है। इसके पीछे क्या वजह है?</b><br />
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">मैंने इस मसले का ट्रैक रिकॉर्ड नहीं रखा। सन् 2010 में यह मसला बाहर आया। एक बात और बाहर आ रही है - 2010 में जब मैं अध्यक्ष नहीं था, यूरोप से एक कंपनी आयी। दरअसल 2010 में ही अंतरिक्ष विभाग ने अगर कोई स्पष्टीकरण दिया होता तो यह विवाद होता ही नहीं। चतुर्वेदी समिति ने भी कहा है कि उस समय कोई कार्रवाई नहीं की गयी। अब जाकर किसी ने उन बातों का नोटिस लिया लेकिन सारा दोष उन लोगों के माथे मढ़ दिया जिन्होंने इस प्रक्रिया की शुरुआत की थी। </span><br />
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<b style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: justify; z-index: 0;">इस विवाद पर आपका रुख क्या है?</b><br />
<span style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;">मेरा कोई निजी एजेंडा नहीं है। लेकिन जो भी कहा जा रहा है, उससे मेरा गंभीर विरोध है। केवल प्रक्रिया में बरती गयी खामियों पर बात की जा रही है। जो लोग इसमें शामिल रहे हैं और जिम्मेदार हैं, उनके बारे में बात नहीं की जा रही। मैंने प्रधानमंत्री के पास अपील की है और उनके जवाब का इंतजार कर रहा हूं। मेरे लिए यह अपनी साख को बहाल करने और अपने सम्मान को बरकार रखने का सवाल है। मैंने 42 साल इसरो के लिए काम किया है और मुझे इस बात का गर्व है। मुझे भरोसा है कि मैं इस विवाद से बेदाग बाहर निकलूंगा। </span></div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-25095316178002825902012-02-23T18:34:00.000+05:302013-07-19T13:07:04.346+05:30मंद होते बैंड के सुर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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(Published in Public Agenda)<br />
बंगलुरू जितना आईटी सिटी के तौर पर जाना जाता है उतना ही पब सिटी और देश के बीयर कैपिटल के रूप में भी। सबसे ज्यादा पब देश में यहीं पर हैं और इन पबों में कार्यक्रम पेश करने वाले लाईव बैंड बंगलूरू के युवाओं की जीवन-शैली का अहम हिस्सा रहे हैं। पश्चिमी संगीत खासतौर पर राॅक संगीत को लेकर यहां एक किस्म की दीवानगी रही है आश्चर्य नहीं कि मेटेलिका को सुनने यहां चालीस हजार से ज्यादा की भीड़ जमा हो गई थी और आज भी दुनिया के तमाम नामी बैंड भारत में बंगलूरू में जरूर गाना चाहते हैं। लेकिन दूसरी हकीकत ये है कि बंगलुरू के कई लाईव बैंड खत्म हो गए हैं या खुद को बचाए रखने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। वजह यहां बार और पबों में लाईव बैंड के कार्यक्रमों पर लगी पाबंदी है।<br />
दरअसल, बार और पबों में लाईव बैंड के साथ बारबालाओं के डांस को भी शामिल कर लिए जाने के बाद परेशानी की शुरूआत हुई। 2005 में मुंबई में बारबालाओं के काम करने पर पाबंदी लग जाने के बाद बड़ी संख्या में इनका पलायन बंगलुरू की ओर हुआ और अचानक यहां के पश्चिमी संगीत आधारित लाईव बैंड के मायने बदल गए। लाईव बैंड के मार्फत बारबलाओं के डांस सभी बार और पबों का हिस्सा बनने लगे। इसी को रोकने के लिए कर्नाटक पुलिस कानून 2005 के तहत यहां 2008 से बार और पबों में लाईव बैंड पर बिल्कुल रोक लगा दी गई पर इसका मकसद बारगर्ल की संस्कृति को खत्म करना था। शुरूआत महिलाओं के बार या पब में किसी भी तरह का काम करने पर मौखिक पाबंदी लगाकर की गई। जिसके खिलाफ डोमलुर के शेफ इन रीजेंसी बार एंड रेस्ट्रांट में काम करने वाली नाजिया और उनकी दो और सहकर्मियों ने कर्नाटक उच्च न्यायालय में अर्जी दायर कर दी। क्योंकि इस आदेश के बाद उन्हें रेस्तरां के प्रबंधन ने नौकरी से निकाल दिया था। अदालत ने अपने फैसले में बार में उनके काम करने के अधिकार को बरकरार रखा। दरअसल, 31 मई 2011 को बंगलुरू के पुलिस कमिश्नर ने अपने अफसरों को शहर के उन सभी बार और रेस्तरां को बंद करा देने का मौखिक आदेश दिया था जहां महिलाएं बारबाला के तौर पर काम करती हैं। जबकि देश की सर्वोच्च अदालत ने दिसंबर 2007 में ही ये कहा था कि महिलाओं को शराब परोसी जानेवाली जगहों पर भी काम करने का अधिकार है। कर्नाटक आबकारी अधिनियम 1965 के नियम 9 में सार्वजनिक स्थान पर किसी महिला के द्वारा शराब परोसे जाने को असंवैधानिक माना गया था पर 2008 में कर्नाटक उच्च अदालत ने कर्नाटक आबकारी अधिनियम 1965 के नियम 9 को खारिज कर दिया था। हांलाकि बंगलूरू पुलिस ने उसी समय कर्नाटक उच्च न्यायालय में ये हलफनामा पेश कर कहा कि उनके द्वारा महिलाओं को बार में बारटेंडर के तौर पर काम करने से नहीं रोका जाता बल्कि उन बारों और रेस्तरां पर छापे मारे जाते हैं जो गैरकानूनी रूप से चल रहे हैं और जहां कोई भी अवैध गतिविधि संचालित की जाती हो। लेकिन 2008 से यहां किसी भी सार्वजनिक जगह जहां शराब परोसी जाती हो वहां गीत-संगीत या लाईव बैंड के कार्यक्रम नहीं पेश किए जा सकते। अतिरिक्त पुलिस कमिश्नर कानून और व्यवस्था बंगलुरू सुनील कुमार के मुताबिक बंगलुरू में वैसी जगहों जहां शराब परोसी जाती है, किसी भी किस्म के गीत-संगीत और नृत्य के कार्यक्रम दिन और रात किसी भी समय नहीं पेश किए जा सकते हैं, लाईसेंस प्राप्त बार में रात साढ़े ग्यारह बजे तक शराब परोसी जा सकती हैं और महिलाएं वहां बारटेंडर के तार पर साढ़े ग्यारह बजे तक काम कर सकती हैं। लाईव बैंड शराब परोसने वाले बार को छोड़कर किसी भी सार्वजिक जगह पर कार्यक्रम पेश कर सकते हैं। बंगलूरू पुलिस के मुताबिक फिलहाल बंगलूरू में लगभग साठ बारों में महिलाएं काम कर रही हैं और इनपर उनकी नजर हमेशा रहती है।<br />
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बहरहाल, कानून और व्यवस्था के लिहाज से प्रशाषण के पास अपने तर्क हैं पर बंगलुरू जहां लाईव बैंड की अपनी एक अलग संस्कृति रही है और इनकी अच्छी-खासी संख्या भी है, कई बैंड पबों और बार में कार्यक्रम करके ही खुद को चला पा रहे थे। लेकिन इस पाबंदी के कारण कई छोटे लाईव बैंड बंद हो गए, इसके कलाकार बेरोजगार हो गए। कुछ ने शहर बदल लिया। अमूमन रॉक,पॉप और जैज संगीत पर आधारित इन लाईव बैंड समूहों के साथ ये दिक्कत रही है कि इनके श्रोता समूह अलग और युवा-पीढी के वे लोग हैं, जो पब और बार में जाते हैं।<br />
वैसे कहने को बार और पबों में लाईव बैंड पर पाबंदी है पर सच में ऐसा है नहीं। कोरमंगला, इंदिरानगर, एमजी रोड जैसे इलाकों में कई पब इस पाबंदी की धज्जिया उड़ाते मिल जाएंगे। खासतौर पर पश्चिमी और मध्य बंगलुरू के बार और पबों में। कायरा रेस्तरा बार के निदेशक नवनीत कहते हैं उनके यहां शुक्रवार, शनिवार और रविवार को रात साढ़े आठ बजे से लाईव बैंड का लुत्फ लिया जा सकता है। इस दौरान उनके यहां शराब भी परोसी जाती है। शराब परोसी जानेवाली सार्वजनिक जगहों पर लाईव बैंड के कार्यक्रम पर पाबंदी की बात करने पर वो कहते हैं मेरी जानकारी में ऐसा केवल महिलाओं के शमिल होने और कार्यक्रम शालीन नहीं होने पर है। जहां तक मैं जानता हूँ केवल कायरा ही नहीं बल्कि लीजेंड ऑफ़ रॉक, टेक फाईव, बी फ्लैट, फिलिंग स्टेशन,एक्सट्रीम स्पोर्टस बार, कासा डेल सोल जैसे और कई बार हैं जहां लाईव बैंड के कार्यक्रम होते हैं। इसके लिए कोई कोई विशेष अनुमति लेने की बात से भी इनकार किया उन्होनें। नवनीत ने तो यहां तक कहा कि उनके रेस्तरां में आयोजित मोहम्मद रफी नाईट में बंगलूरू के एसीपी मुरली ने भी अपना कार्यक्रम पेश किया था। और इनके यहां अच्छी खासी संख्या में लोग इनक कार्यक्रमों का लुत्फ उठाने आते हैं। सेंट मार्क रोड स्थित हार्ड रॉक कैफे बार में भी गुरूवार को लाईव बैंड का कार्यक्रम होता है। बार के मैनेजर ने बताया कि स्थानीय लाईव बैंड्स जिनमें लड़कियों का गाना और डांस होता है उनपर रोक है पर हमारे बार में फोकस केवल संगीत हैं और दिल्ली, उत्तर-पूर्व भारत के बैंड यहां हर सप्ताह अपने कार्यक्रम पश करते हैं बंगलुरू में सिर्फ हार्ड रॉक ही नहीं कई और बार हैं जहां लाईव म्यूजिक बैंड्स कार्यक्रम पेश करते हैं। ओर इसके लिए बंगलुरू पुलिस से विशेष अनुमति हासिल करने की बात भी कहते हैं यही बात ला रॉक कैफे के मैनेजर भी दोहराते हैं जहां हर रविवार को लाईव बैंड संगीत कार्यक्रम पेश करता है। फिलहाल यहां 150 से ज्यादा बार हैं जिनमें लाईव बैंड्स की परंपरा रही है, एम जी रोड स्थित आईस बार, कोकुन, रेस्टो बार, नेवादा पब, ब्लू तंत्रा, ओन द रॉक्स और अनलॉक बार जैसे तमाम बार हैं जहां अभी भी लाईव बैंड सक्रिय है।<br />
तस्वीर का दूसरा पहलू लाईव बैंड पर पाबंदी से बेरोजगार हुईं बारबालाओं की जिंदगी है। एक अनुमान के मुताबिक इस पाबंदी के बाद बार में काम करने वाली लगभग पैंतालीस हजार महिलाओं को जीविका के लिए देह-व्यापार अपनाना पड़ा है। महिलाओं के अधिकार और उनके खिलाफ हिंसा के लिए लड़ने वाली स्वयंसेवी संस्था विमोचना की शकुन कहती हैं लाईव बैंड पर रोक का सबसे बड़ा असर यही हुआ है कि सेक्स-वर्करों की संख्या में और इजाफा हो गया है। मुंबई में बार में महिलाओं के काम करने पर रोक लगने का तुरंत असर बंगलुरू पर हुआ था, मुंबई से बड़ी संख्या में बारबालाएं यहां काम करने आयीं पर यहां भी रोक लग गयी। हमने उन महिलाओं के पुर्नवास की कोशिश की जो हमारे पास मदद के लिए आयीं। इनमें ज्यादा संख्या नेपाल, बांग्लादेश और उत्तर-पूर्व की लड़कियों की हैं,जिन्हें बारटेंडर की नौकरी मिली वो काम कर रही हैं। स्थानीय लड़कियां कर्नाटक के ही छोटे-छोटे शहरों में देह-व्यापार कर अपना गुजारा कर रही हैं। गौर करने वाली बात है कि बार और पबों में लाईव बैंड्स पर पाबंदी लग जाने के बाद ई-ब्रोथल और मसाज पार्लरों की संख्या यकायक काफी बढ़ गई। ज्यादातर बारबाला, बारटेंडर के ही रूप में काम करना चाहती हैं क्योंकि एक नई बारटेंडर को बीस से पैंतीस हजार तक तनख्वाह मिल जाती है, सेलीब्रिटी बारटेंडर की आय पचास हजार से उपर होती है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि बंगलरू के पीपुल्स एजुकेशन सोसाईटी, इंस्टीट्यूट ऑफ़ होटल मैनेजमेंट और क्राईस्ट कालेज में बारटेंडिंग एक कोर्स के तौर पर पढ़ाया जाता है। और काफी संख्या में लड़कियां इस कोर्स के तहत प्रशिक्षण भी ले रही हैं। अनुमानतः राज्य में साठ -सत्तर हजार से भी ज्यादा बार हैं, जाहिर है लड़कियों के लिए ये बड़ी संख्या में रोजगार का जरिया हो सकते हैं। मुंबई की ही तरह जहां अस्सी के दशक से बार और पबों में महिलाएं डांसर और बारटेंडर के तौर पर काम कर रही हैं बंगलूरू में भी महिलाएं अस्सी के दशक से ही बार और पबों में काम कर रही हैं। अस्सी के दौरान कैबरे का चलन था और नब्बे के दशक में लाईव बैंड्स मशहूर हुए। ये भी गौर करने वाली बात है कि इन डांस बार में काम करने वाली लड़कियों को अपने काम को लेकर कोई परेशानी नहीं है, बारमालिक उन्हें आईटी और बीपीओ क्षेत्र में काम करने वाली लड़कियों की तरह ही पूरी सुरक्षा मुहैया कराते हैं। और सबसे बड़ी बात डांस के कारण वो खुद को देह-व्यापार से बचा लेती हैं। लेकिन प्रशाशन का रवैया जरूर उन्हें खलता है। जबकि चाहने पर भी उनके पास कोई विकल्प नहीं है। इसमें कुछ दोष सामाजिक सोच का भी है। एमजी रोड के बार में काम करने वाली एक बारबाला बताती है, हमलोगों ने कुछ दूकानों में सेल्सगर्ल की नौकरी मांगी पर हमें अपमानित कर भगा दिया गया। यही शिकायत कर्नाटक बार और रेस्तरां कामगार महिला कल्याण संघ की ओर से भी है कि बार में महिलाओं के काम करने पर रोक हट जाने के बावजूद पुलिस उन्हें काम नहीं करने देती केवल बड़े रेस्तराओं के डिस्कोथिक में ही महिलाओं को बतौर बारटेंडर आसानी से काम करने देती है। ये सीधे तौर पर बराबरी से काम करने के संवैधनिक अधिकारों की अवहेलना है।<br />
दरअसल, कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनने के साथ ही वेलेन्टाईन डे विरोध, बार और पबों में महिलाओं के काम करने पर रोक या पबों में जाने वाली महिलाओं पर मंगलोर में श्री राम सेने के कार्यकर्ताओं द्वारा हमला किए जाने जैसी घटनाओं को कुछ लोग भाजपा के सांस्कृतिक शुद्धिकरण के जबरन प्रयासों के तौर पर भी देखते हैं। प्रसिद्ध थर्मल एंड ए क्वाटर लाईव बैंड के जाने-माने सदस्य ब्रुस ली मनी तो इसे सांस्कृतिक अपराध का नाम देना ज्यादा पसंद करते हैं। इसकी अगली कड़ी शराब पर पूणतया रोक लगाने की मांग हैं लेकिन दस हजार करोड़ से ज्यादा राजस्व देने वाली शराब पर सचमुच पाबंदी लगाना और बात है। यही नहीं 2010 जुलाई में बंगलुरू सिटी पुलिस ने बारों और पबों के लिए आचार-संहिता जैसी एक निर्देशिका भी बनायी, जिसका पालन करना सभी बारमालिकों के लिए अनिवार्य है। आचार-संहिता के तहत महिलाओं के लिए शालीन कपड़े व एक जैसी वर्दी पहनना अनिवार्य है। बार मालिकों को महिला कर्मचारियों को नौकरी पर रखने के बाद पुलिस को उनकी तस्वीर के साथ पूरा विवरण भी देना होगा। किसी नयी महिला कर्मचारी को रखने या उसके नौकरी छोड़ने पर भी पुलिस को सूचना देनी होगी। साथ ही महिलाओं की संख्या बार की कुल सीट-संख्या की एक चैथाई ही होनी चाहिए। इस निर्देशिका में अच्छी बात ये भी है कि बारमालिकों के लिए श्रम कानून का पालन भी अनिवार्य है मसलन, उन्हें महिलाओं को न्यूनतम मजदूरी, स्वास्थ्य सुविधा और प्रोविडेंट फंड सभी कुछ देना होगा। इसलिए ड्रेस कोड पर लगभग सभी की सहमति है। कर्नाटक महिला कामगार संघ ने भी इसका विरोध नहीं किया।<br />
कानूनन लाईव बैंड पुलिस के द्वारा वैध लाईसेंस जारी किए बिना नहीं चलने चाहिए पर बावजूद इसके, हकीकत में लगभग सौ बार ऐसे हैं जहां अभी भी गैरकानूनी तौर-तरीके से लड़कियों से बारबाला के अतिरिक्त मेहमानों का मनोरंजन करने का भी काम लिया जा रहा है। ड्रेस कोड का पालन नहीं किया जाता और सीसीटीवी भी पुलिस के कहने के बावजूद नहीं लगाया गया है। जिसके लिए पुलिस अफसरों को मोटी रिश्वत खिलायी जाती है। डिस्कोथिक के नाम पर भी बारबालाओं से डांस कराया जा रहा है। यानी अगर पाबंदिया हैं तो उसका तोड़ भी हैं पर इसके बीच सचमुच संगीत से प्यार करनेवालों और उसी से अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले लाईव बैंड नाहक मारा जा रहा है।<br />
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मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-76656132877664643192012-01-27T01:51:00.000+05:302012-01-27T01:51:13.850+05:30कोई किसी से कम नहीं<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="text-align: left;">( पब्लिक एजेंडा में प्रकाशित )</div>इसी साल जुलाई के आखिर में लोकायुक्त के अवैध खनन रिपोर्ट में नाम आने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा को ना चाहते हुए भी इस्तीफा देना पड़ा था। कांग्रेस और जेडीएस के लिए ये एक बड़े जष्न का मौका था, क्योंकि कर्नाटक में भाजपा के पैर जमाने में येदुरप्पा की बहुत अहम भूमिका रही है। ऐसे नेता और मुख्यमंत्री का भ्रश्टचारी होने के दाग के साथ विदा होना राज्य के विपक्षी दलो के लिए मंुहमांगी मुराद थी। इसी रिपोर्ट के कारण जनार्दन रेड्डी को भी पर्यटन मंत्रालय और करूणाकर रेड्डी को राजस्व मंत्रालय छोड़ना पड़ा। और इनके करीबी श्रीरामलू भी कैबिनेट से बाहर हुए। पर राजनीति में पासा पलटते देर नहीं लगता, चार महीने बाद ही ये बात कांग्रेस और जेडीएस को समझ में आ गई है। दरअसल, हाल ही में कर्नाटक लोकायुक्त पुलिस ने राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों के खिलाफ अवैध खनन मामलें में एफआईआर दर्ज की है जिसमें दो मुख्यमंत्री कांग्रेसी रहे हैं, मौजूदा विदेष मंत्री एस एम कृश्णा और धरम सिंह इसके अलावा जेडीएस के एचडी कुमारस्वामी। इन तीनों पर अपने कार्यकाल में अवैध खनन को आसान बनाने के लिए नियम-कानून को ढ़ीला बनाने के आरोप हैं। इसके अलावा एफआईआर में 11 अफसरों के भी नाम हैं। एफआईआर बंगलूरू के सामाजिक कार्यकर्ता अब्राहम टी जोसेफ की षिकायत पर दर्ज की गई है, जिसमें उन्होंने कहा है कि राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों ने राज्य के खजाने को भारी नुकसान पहंुचाया है। खासतौर पर एस एम कृश्णा ने लौह खदानों को लीज पर देने की मंजूरी देने के साथ-साथ वन और पर्यावरण विभाग के कड़े एतराज के बावजूद अवैध खनन के लिए रास्ता साफ करने हेतु वन विभाग की जमीन को गैर-संरक्षित घोशित कर दिया। टी अब्राहम की इस षिकायत पर लोकायुक्त अदालत ने पुलिस को जांच का आदेष दिया है और 6 जनवरी से पहले अपनी रिपोर्ट पेष करने को कहा है।<br />
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देखा जाए तो ये कोई नई बात नहीं है जिस रिपोर्ट के कारण येदुरप्पा और रेड्डी बंधुओं की कुर्सी गई और उन्हें सलाखों के पीछे जाना पड़ा उसी रिपोर्ट में येदुरप्पा से पहले के समय के मामलों की भी जांच को समेटा गया है। लोकायुक्त ने साल 2000 तक के मामलों की जांच की है और अक्टूबर 1999 से 2004 मई तक एस एम कृश्णा कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे, फिर धरम सिंह और उसके बाद एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने। रिपोर्ट के मुताबिक कर्नाटक में लोहे का बहुत समृद्ध भंडार है पर पिछले दस वर्शो में इसे लूटने की होड़ मची हुई है। सिर्फ मौजूदा भाजपा सरकार ही नहीं बल्कि पहले की एचडी कुमारस्वामी और धरम सिंह की सरकारों की भी इस लूट में हिस्सेदारी रही है। वर्श 2006 से 2009 के दौरान कुल 80 खदानों में से प्रतिदिन बीस हजार टन लौह-अयस्क की अवैध निकासी की गई है और इस निकासी के लिए रिस्क फी के तौर पर प्रतिदिन 50 लाख से ज्यादा राषि वसूली गई है। यानी करीब तीन हजार से पांच हजार करोड़ तक की वसूली की गई है। एस एम कृश्णा की ही बात करें तो अपने मुख्यमंत्रीकाल में उन्होंने 39 लाईसेंस मंजूर किए। उनके दामाद वी सिद्धार्थ के काॅफी चेन कैफे काॅफी डे की सफलता में उनका उस दौरान कर्नाटक का मुख्यमंत्री होना ही सबसे ज्यादा काम आया था। जबकि धरम सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में 43 खनन लाईसेंस का अनुमोदन किया था जिसमें 33 को मंजूरी केन्द्र की यूपीए सरकार से ही मिली थी। एच डी कुमारस्वामी ने 47 खनन लाईसेंस का अनुमोदन किया था जिसमें 22 को यूपीए सरकार ने मंजूर कर दिया था। यूपीए सरकार ने कर्नाटक में राश्ट्पति षासनकाल के ही दौरान 14 खनन लाईसेंस मंजूर किया जबकि येदुरप्पा ने तो केवल 22 लाईसेंस को अनुमोदित किया था जिसमें से केन्द्र सरकार ने 2 को ही मंजूर किया। जमीन की लूट में ही केवल येदुरप्पा ही नहीं, एस एम कृश्णा, देवगौड़ा और एच डी कुमारस्वामी भी पीछे नहीं रहे हैं। एस एम कृश्णा ने ही 11 हजार वनभूमि को खनन के लिए डिनोटिफाई किया था। लोकायुक्त रिपोर्ट में एचडीकुमार स्वामी का नाम दो मामलों में है, उन्होंने जंतकाल इंटरप््रााईजेज और साई व्येंकटेष्वरा मिनरल कंपनी के लाईसेंस को नियम-कानून की अनदेखी करते हुए व्यक्तिगत तौर पर मंजूरी दी। उनके मुख्यमंत्रित्व काल में उनके परिवार के सदस्यों को 146 प्लाट अवैध रूप से आवंटित किए गए। उन्होने मुख्यमंत्री के तौर पर 550 करोड़ के ठेके को 1032 करोड़ में मंजूर कर दिया और राज्य के स्वामित्व वाली सिंचाई निगम कर्नाटक नीरवरि निगम के बैठक की अध्यक्षता करने के बाद ठेका हासिल करने वाली कंपनी को 103 करोड़ अग्रिम भुगतान करने की भी मंजूरी दे दी। साथ ही उनके परिवार द्वारा संचालित ट्रस्ट को खनन सेक्टर से ढ़ाई सौ करोड़ की रकम दान में और 168 करोड़ की राषि रिष्वत के तौर मिले। यानी कोई भी येदुरप्पा से पीछे नहीं रहा है। येदुरप्पा के मुख्यमंत्री बनने के बाद लोहे का अवैध खनन अपने चरम पर पहुंच गया और इसे करने वाले राज्य के राजस्व और पर्यटन मंत्री बन गए। रिपोर्ट के मुताबिक 2009 मार्च से से 2010 मई के बीच 14 महीने में अवैध खनन से राज्य को 18 सौ करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ है। 600 से ज्यादा सरकारी अधिकारियों पर लोहे के अवैध खनन के भ्रश्टाचार में संलग्न होने के आरोप हैं। कुल मिलाकर अवैध खनन की बुनियाद काफी पहले ही रखी और मजबूत की जा चुकी थी। इसलिए जुलाई में अपना इस्तीफा देते समय येदुरप्पा को भी लगा होगा कि उनके ग्रह-नक्षत्र वाकई सही नहीं है, एक ही किस्म के आरोप पर उन्हें कुर्सी गंवानी पड़ी और जेल जाना पड़ा, बाकी लोगों की ओर किसी का ध्यान भी नहीं गया। बहरहाल, अब येदुरप्पा को भी कुछ राहत महसूस हो रही होगी। साथ ही उनकी पार्टी भाजपा को भी, क्योकि नैतिकता के सवाल पर अब कांग्रेस से जवाब तलब करने की बारी उनकी है। जो पहले ही अपने एक और मंत्री पी चिदंबरम के 2जी मामले में फंसे होने के आरोपों के बचाव में लगी है। <br />
</div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-60465708887117897452011-12-09T16:04:00.000+05:302011-12-09T16:04:53.217+05:30किसे चाहिए लोकायुक्त<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div style="background-color: white; font-size: 10px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: -webkit-auto; z-index: 0;"><h3 class="plainHead" style="border-bottom-color: rgb(136, 136, 136); border-bottom-style: solid; border-bottom-width: 1px; font: normal normal bold 1.6em/normal 'Helvetica Neue', Arial, sans-serif; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">किसे चाहिए लोकायुक्त</h3></div><div style="background-color: white; border-top-color: rgb(211, 211, 211); border-top-style: solid; border-top-width: 1px; font-size: 10px; margin-bottom: 5px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 3px; padding-bottom: 3px; padding-left: 3px; padding-right: 3px; padding-top: 3px; text-align: justify; z-index: 0;"><div style="color: #231f20; font: normal normal normal 1.3em/1.6em Georgia, 'Times New Roman', serif; margin-bottom: 0em; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर राज्य सरकार और राज्यपाल के बीच ठनी हुई है। इससे राज्य में इस संस्थान के अस्तित्व पर ही संकट उत्पन्न हो गया है। <b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">मनोरमा</b> की रिपोर्ट<br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />राजधानी दिल्ली में जोर-शोर से लोकपाल के समर्थन और भ्रष्टाचार के खिलाफ मोर्चा खोलकर बैठी भाजपा मे अपने ही एक राज्य में लोकायुक्त पद के लिए एक बेदाग नाम प्रस्तावित नहीं कर पा रही है। नतीजा, पिछले दो महीने से ज्यादा समय से कर्नाटक लोकायुक्त का पद खाली है। कर्नाटक सन् 1986 में लोकायुक्त नियुक्त करने वाला देश का पहला राज्य है। लेकिन फिलहाल नये लोकायुक्त की नियुक्ति के मसले पर राज्यपाल और राज्य सरकार में ठनी हुई है। राज्यपाल एचआर भारद्वाज सरकार की ओर से भेजे गये जस्टिस एसआर बन्नुरमठ के नाम को मंजूर नहीं कर रहे हैं तो राज्य सरकार कोई और नाम सुझा नहीं रही है। सरकार के इस रवैये ने ये सवाल पैदा कर दिया है कि कहीं वह लोकायुक्त दफ्तर पर ही ताला तो नहीं लगाना चाहती? और यह संदेश सीधे ना देकर विवाद के जरिये दे रही है? जो भी हो, जस्टिस संतोष हेगड़े के कार्यकाल के दौरान मिले जख्मों के कारण केवल मौजूदा सदानंद गौड़ा सरकार ही नहीं बल्कि राज्य की पूरी भाजपा इकाई छाछ भी फूंक-फूंक कर पीना चाहती है। आखिर पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े की अवैध खनन रिपोर्ट के कारण पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को न सिर्फ कुर्सी छोड़नी पड़ी बल्कि जेल भी जाना पड़ा। मौजूदा सरकार के कई मंत्रियों के सिर पर भ्रष्टाचार की तलवार अब भी लटकी हुई है। जाहिर है ऐसे में राज्य में मजबूत लोकायुक्त संस्थान सरकार की सेहत के लिए तो अच्छा नहीं होगा। दरअसल विवाद की शुरुआत शिवराज पाटिल के लोकायुक्त पद से इस्तीफा दे देने के बाद सरकार की ओर से इस पद के लिए केरल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एसआर बन्नुरमठ का नाम प्रस्तावित किये जाने के बाद से हुई। गौरतलब है कि संतोष हेगड़े का कार्यकाल खत्म होने के बाद जस्टिस शिवराज पाटिल नये लोकायुक्त बने पर सहकारी आवासीय सोसायटी में सहकारी सोसायटी के नियमों का उल्लंघन कर जमीन हासिल करने के कारण सितंबर में नियुक्ति के छह सप्ताह के बाद ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। इसके बाद नये लोकायुक्त के तौर पर जस्टिस बन्नुरमठ का नाम सरकार ने प्रस्तावित किया जिसे राज्यपाल मंजूरी नहीं दे रहे हैं। बन्नुरमठ पर भी कानून का उल्लंघन कर जमीन हासिल करने का आरोप है। लेकिन सरकार इन आरोपों को बाद की बात कहकर खारिज कर देती है। संवैधानिक तौर पर राज्यपाल की लोकायुक्त की नियुक्ति में कोई भूमिका नहीं होती। मुख्यमंत्री, उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, दोनों सदनों के सभापति और दोनों सदनों के नेता विपक्ष से सलाह-मशविरा करने के बाद राज्यपाल के पास प्रस्तावित नाम अनुमोदन के लिए भेज देता है। उनका कार्यकाल पांच साल का होता है और केवल सर्वोच्च और उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों के ही नाम प्रस्तावित किये जा सकते है। बहरहाल, बन्नुरमठ के नाम को तीसरी बार राज्यपाल खारिज नहीं कर सकते। अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो सरकार और राज्यपाल के बीच संवैधानिक विवाद की स्थिति पैदा होगी।हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब राज्यपाल और कर्नाटक सरकार के बीच ऐसी स्थिति बनी हो। इससे पहले जुलाई 2010 में रेड्डी बंधुओं को तत्कालीन सरकार के मंत्रिमंडल से निकालने की मांग पर, जनवरी 2011 में जमीन घोटाले के संदर्भ में तत्कालीन मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा पर मुकदमा चलाने को मंजूरी देने पर और मई 2011 में राज्य में राष्ट्पति शासन की सिफारिश करने पर, जिसे केंद्र ने खारिज कर दिया, भी संवैधानिक विवाद के हालात पैदा हुए थे, जो बाद में सुलझ गये। फिलहाल सदानंद गौड़ा सरकार जस्टिस एसआर बन्नुरमठ के अलावा कोई और नया नाम भी नहीं सुझाना चाहती। उसका कहना है कि अगर राज्यपाल नहीं मानते तो हम इस मसले पर एडवोकेट जनरल से राय लेंगे। उसके बाद ही अगला कदम तय होगा। इसके अलावा राज्य सरकार ने एचआर भारद्वाज के खिलाफ राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के पास अपना प्रतिनिधिमंडल भेजने का फैसला किया है। इधर भारद्वाज कह रहे हैं, "मैं गलत व्यक्ति की नियुक्ति को मंजूरी नहीं दूंगा। अगर राज्य सरकार संतोष हेगड़े का नाम दोबारा प्रस्तावित करती है तो मैं तत्काल मंजूरी दे दूंगा।' जबकि भारद्वाज कानून के जानकार हैं और उन्हें मालूम होगा कि एक व्यक्ति दोबारा लोकायुक्त नहीं बन सकता।सच तो यह है कि जस्टिस संतोष हेगड़े के जाने के बाद राज्य में लोकायुक्त संस्था की विश्वसनीयता और इसपर लोगों का भरोसा पहले से कम हुआ है। आंकड़े तो यही कहते हैं। संतोष हेगड़े के पास रोजाना बीस से पच्चीस शिकायतें आ रही थीं, लेकिन शिवराज पाटिल के कार्यकाल में रोजाना केवल 5-10 शिकायतें ही मिलीं।दरअसल लोकायुक्त पद को सन् 2001 में जस्टिस एन व्येंकटचेलैया ने जो ताकत और गरिमा प्रदान की थी उसे जस्टिस संतोष हेगड़े ने और बताया और प्रासंगिक बनाया। इसलिए गौड़ा-सरकार ऊपरी तौर पर चाहे जो कहे पर मजबूत लोकायुक्त नहीं चाहती। हालात यह है कि एक ओर येदियुरप्पा जेल से बाहर आने के बाद पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े पर वार कर रहे हैं तो भाजपा के के ईश्वरप्पा और जेडीएस के एचडी कुमारस्वामी जैसे नेता लोकायुक्त संस्था की जरूरत पर ही सवालिया निशान लगा रहे हैं। दूसरी ओर, केवल राज्यपाल ही नहीं बल्कि राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा कानून मंत्री वीरप्पा मोईली भी बन्नुरमठ के चयन को सही नहीं मानते। लेकिन लोकायुक्त की नियुक्ति या लोकायुक्त संस्था को खत्म करना राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आता है। डर इस बात का है कि कहीं हरियाणा सरकार की तरह यहां भी कानून बनाकर लोकायुक्त कार्यालय ही न भंग कर दिया जाये। कुल मिलाकर, भ्रष्टाचार के मसले पर केंद्र में राजनीति कर रही भाजपा के लिए कर्नाटक में भ्रष्टाचार पर नजर रखने वाले लोकायुक्त संस्था की अनदेखी करना आसान नहीं होगा। लेकिन ताकतवर लोकायुक्त से राज्य सरकार को डर भी कम नहीं हैं, क्योेंकि वहां राज्य सरकार और इसके मंत्रियों के खिलाफ कई मामले पहले से ही चल रहे हैं। लेकिन कमजोर लोकायुक्त या बगैर लोकायुक्त के रहने से सरकार की अपनी साख ही दांव पर लग जायेगी। <br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">सरकार बहाना तलाश रही है</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त न्यायमूर्ति <b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">संतोष हेगड़े</b> से<b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;"> द पब्लिक एजेंडा</b> की बातचीत<br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">लोकायुक्त की नियुक्ति में देरी की वजह?</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />यह सरकार नहीं चाहती कि लोकायुक्त नियुक्त हो। दरअसल सरकार की मंशा तो लोकायुक्त संस्था को ही खत्म कर देने की लग रही है, लेकिन यह अच्छा नहीं है। ज्यादा दिनों तक यह स्थिति घातक है। कुछ और नहीं हो सकता तो नियुक्ति में देरी करके ही सरकार बचने के रास्ते तलाश रही है।<br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">राज्यपाल ने कहा कि अगर जस्टिस संतोष हेगड़े का नाम फिर से सरकार लोकायुक्त पद के लिए भेजती है तो मैं एक मिनट में उसे मंजूर कर दूंगा।</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />मैं किसी भी सूरत में दोबारा यह पद स्वीकार नहीं करूंगा। किसी भी राजनीतिक दल से मेरे अच्छे संबंध नहीं हैं। मैं अब उनके लिए ब्लैकलिस्टेड हूं। जब मैं लोकायुक्त बना था तब तो मुझे सब बेदाग मान रहे थे, लेकिन अब अलग-अलग दलों के लोग मुझ पर आरोप लगा रहे हैं। <br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">आपकी राय में कौन इस पद के लिए उपयुक्त हैं?</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />यह दुःखद और त्रासद है कि सदानंद गौड़ा जी की सरकार को राज्य में इस पद के लिए एक भी बेदाग न्यायाधीश नहीं मिल रहा है। दरअसल, इस संस्था को ही खत्म करने का यह बहाना है। अगर राज्य में योग्य उम्मीदवार नहीं मिल रहे तो दूसरे राज्यों या भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों में से किसी का नाम प्रस्तावित किया जा सकता है। पहले भी दो लोकायुक्त कर्नाटक से बाहर के रहे हैं। <br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">राज्यपाल बान्नुरमठ के नाम को खारिज कर रहे हैं । क्या यह सही है?</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />राज्यपाल एक सीमा तक ही ऐसा कर सकते हैं। सदन में चर्चा कराने के बाद अगर तीसरी बार भी सरकार की ओर से वही नाम भेजा गया तो राज्यपाल को मंजूरी देनी पड़ेगी। <br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">लोकायुक्त को लेकर राज्यपाल और सरकार के बीच चल रही खींचतान पर आपका क्या कहना है?</b> <br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />मेरा कुछ कहना ठीक नहीं होगा। आखिरकार दोनों अपने संवैधानिक दायरों में ही रहकर फैसला करेंगे। मुझे यह जरूर लगता है कि मेरा कार्यकाल खत्म होने के बाद सरकार की ओर से इस संस्थान को कमजोर करने की ही कोशिशें हुई हैं वरना सरकार दागी मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई करने की बजाय लोकायुक्त संस्थान को ही अपना निशाना नहीं बनाती। <br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">सरकार का इरादा क्या लोकायुक्त दफ्तर पर ताला लगाने का है?</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />दरअसल, समस्या यही है। राज्य सरकार को लोकायुक्त दफ्तर बंद करने का अधिकार है। कितने दिनों तक यह पद खाली रह सकता है या कितने दिन के भीतर नियुक्ति हो जानी चाहिए, इस बारे में भी कोई साफ निर्देश नहीं है। हां, केवल उच्च न्यायालय से लोकपाल नियुक्त करने के संदर्भ में निर्देश लिये जा सकते हैं। मैं यह नहीं कह सकता कि सरकार लोकायुक्त दफ्तर बंद करेगी या उसे चलने देगी। </div></div></div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-65495283804981309732011-11-23T09:49:00.000+05:302011-11-23T09:49:53.976+05:30नाम बड़े और दर्शन छोटे<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span class="Apple-style-span" style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px;">कन्नड़ फ़िल्मों के दो अभिनेताओं पर घरेलू उत्पीड़न के आरोप हैं लेकिन इससे उनकी फ़िल्मों की सफलता प्रभावित नहीं हुई। हिंसा की शिकार पत्नियां भी उन्हें माफ़ करती आयी हैं। </span><b style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; text-align: justify; z-index: 0;">मनोरमा</b><span class="Apple-style-span" style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;"> की रिपोर्ट (Public Agenda)</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px; text-align: justify;"><br />
</span><br />
<span class="Apple-style-span" style="background-color: white; color: #231f20; font-family: Georgia, 'Times New Roman', serif; font-size: 13px; line-height: 20px;">चाहे कोई स्थापित अभिनेत्री हो या किसी फिल्मी सितारे की पत्नी, औरतों का दर्जा दोयम ही होता है । कुछ ऐसा ही मानते हैं कन्नड़ फल्मों के स्टार अभिनेता। बीवियों की पिटाई करना इन दिनों उनका दूसरा शौक बन गया है। और बाद में उनकी पत्नियों और प्रशंसकों से उन्हें माफी भी मिल जाती है। इस सबके बावजूद उनकी फिल्में पहले की ही तरह सुपर हिट होती रहती हैं। ऐसे ही एक कन्नड़ नायक के खलनायक बनने का हाई वोल्टेज ड्रामा पिछले महीने बंगलुरू में देखने को मिला। कन्नड़ फिल्मों के सुपर स्टार टी दर्शन अपनी पत्नी की पिटाई के आरोप में जेल भेजे गये, फिर उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने पत्नी के साथ अपने प्रशंसको से माफी भी मांग ली। यही नहीं, उन्होंने फिर एक यात्रा का नाटक भी रचा। एक और कन्नड़ अभिनेता प्रशांत भी अपनी पत्नी शशिरेखा को मारने-पीटने और लगातार प्रताड़ित करने के आरोप में गिरफ्तार रहे। दोनों मामलों ने साबित किया कि कन्नड़ फिल्म उद्योग और वहां का समाज औरतों के लिए अभी भी नहीं बदला है। कन्नड़ फिल्मों के बड़े नायक टी दर्शन की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सोना उगलती रही हैं। लेकिन पर्दे का यह नायक घर में खलनायक बन गया। शादी के दस साल बाद उनकी पत्नी विजयलक्ष्मी को थाने में अपने ही पति के खिलाफ शिकायत दर्ज करानी पड़ी। अपनी शिकायत में उन्होंने कहा कि दर्शन ने उन्हें और उनके तीन साल के बेटे को न सिर्फ प्रताड़ित किया, बल्कि जान से मारने की कोशिश भी की। दर्शन ने सिगरेट से विजयलक्ष्मी के हाथों को जलाया और चप्पल से पटाई की। दर्शन को तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन जेल में उनकी तबीयत खराब हो गयी और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। बाद में विजयलक्ष्मी उनसे मिलने अस्पताल गयीं और फिर अपनी बात से पलट गयीं। चोट लगने का कारण बाथरूम में पैर फिसल जाना बताने लगीं। उन्होंने पति पर लगाये सारे आरोप भी वापस ले लिये, लेकिन इसके बावजूद बंगलुरू की दोनों निचली अदालतों ने दर्शन की जमानत याचिका खारिज कर दी। लेकिन आखिरकार कर्नाटक उच्च न्यायालय से उन्हें जमानत मिल गयी। विजयलक्ष्मी ने मीडिया के सामने स्वीकार किया कि घर के झगड़े को बाहर लाना उनकी नासमझी थी। दर्शन ने भी इस पूरे प्रकरण के लिए माफी मांगी और एक अच्छा पति और पिता बनने की कसमें खायीं। लोगों का मानना है कि दर्शन के "पश्चाताप' का कारण यह था कि अगले कुछ ही दिनों में उनकी फिल्म "सारथि' रिलीज होने वाली थी। सारथि के रिलीज होने से पहले दर्शन को अपनी छवि की चिंता सताने लगी थी इसलिए उन्होंने फिल्म के प्रचार के लिए "यात्रा' की और इस दौरान लोगों से माफी मांगी। हैरानी की बात यह रही कि बंगलुरू से लेकर मांड्या, मैसूर, चित्रदुर्गा तुमकूर और दावणगेरे सभी जगह लोगों ने दर्शन को हाथों-हाथ लिया, उसका घंटों इंतजार किया, यहां तक कि कई जगहों पर पुलिस को हल्का लाठी चार्ज भी करना पड़ा। बकौल दर्शन, "सारथि' की सफलता और यात्रा में मिले जन-समर्थन ने उन्हें लोगों का आभारी बना दिया है और जो हुआ, उसके लिए वे बेहद शर्मिंदा महसूस कर रहे हैं। दरअसल कई बार औरतों के मामले में मर्द संवेदनशीलता की हदें तोड़ते आये हैं। औरतें मर्दो की दुनिया में सिर्फ गैर-बराबरी ही नहीं, तमाम किस्म के हिंसक वार भी झेलती आयी हैं। मध्य या उच्च वर्ग में होने वाली ऐसी घटनाएं अक्सर घर की दीवारों के अंदर ही दब जाती हैं। बड़े स्टार जो परदे पर अक्सर आदर्शवादी नायक के रूप में अन्याय के खिलाफ खड़े दिखते हैं, वे भी यह भूल जाते हैं कि निजी जीवन से भी उन्हें ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। दर्शन भी कन्नड़ फिल्मों के ऐसे ही स्टार नायक रहे हैं, इसलिए पत्नी से मनमुटांव होने पर उनसे परिपक्व व्यवहार की उम्मीद थी, लेकिन उन्होंने परदे पर अपनी छवि के विपरीत आचरण किया। कन्नड़ फिल्म उद्योग के अंदर घटे ऐसे कई उदाहरणों से यह भी साफ हुआ कि सामाजिक संदेश केवल परदे पर ही दी जानेवाली चीज है। कहा जाता है कि यह मनमुटाव एक अभिनेत्री निकिता ठुकराल से उनकी निकटता और उनके साथ फिल्मों में काम करने को लेकर हुआ। कन्नड़ फिल्म उद्योग ने तीन साल के लिए निकिता ठुकराल पर प्रतिबंध लगा दिया लेकिन दर्शन को उनकी कारगुजारियों के बावजूद सहयोग और समर्थन ही मिला। इससे पता चलता है कि ग्लैमर की दुनिया में भी लोगों की सोच महिलाओं के संदर्भ में कितनी संकीर्ण है। फिल्मी नायकों को पसंद करने वाली जनता को भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका नायक असल जिंदगी में कैसा है। दर्शन को हिरासत में लिये जाने की खबर मिलते ही पूरा कन्नड़ फिल्म उद्योग विजयनगर पुलिस थाना दर्शन को छुड़़ाने पहुंच गया था। फिल्म उद्योग के बड़े-बड़े नामों ने दर्शन की पत्नी विजयलक्ष्मी पर ही समझौता करने का दबाव बनाया। यहां तक कि जनता ने, जिसमें महिलाएं भी बड़ी तादाद में शामिल थीं, दर्शन के समर्थन में प्रदर्शन किया। इसी दबाव में दर्शन पर लगे हत्या की कोशिशों के आरोप धारा 107 को, जिसके तहत जमानत मुश्किल होती है, धारा 324 में बदल दिया गया। बहरहाल, दर्शन और विजयलक्ष्मी प्रकरण ने फिर एक बार साबित किया कि औरतें अपने खिलाफ हो रही घरेलू हिंसा के मामलों में कितनी लचीली और समझौतावादी हैं। अपनी सामाजिक सुरक्षा का सवाल और बच्चों का भविष्य उन्हें अपने ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ कदम आगे बढ़ाने के बावजूद पीछे हटाने को मजबूर कर देता है। दरअसल, घरेलू हिंसा को पारिवारिक और सामाजिक दायरे में गंभीर अपराध नहीं माना जाता और ज्यादातर मामलों में तो पत्नी को भी ये एक सामान्य सी बात लगती है। दर्शन और विजयलक्ष्मी के मामले में दर्शन की आलोचना करने के बाद ज्यादातर लोगों की पहली प्रतिक्रिया यही रही कि ये आपस का मामला था, जिसे विजयलक्ष्मी को आपस में सुलझाना चाहिए था। "सारथि' की सफलता भी इस बात की तसदीक करती है कि समाज पत्नी के साथ की गयी मारपीट को कोई गंभीर अपराध नहीं मानता और इससे अभिनेता के कैरियर पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता। हैरानी की बात नहीं कि हाल ही में महिलाओं पर शोध करनेवाली अंतरराष्ट्रीय संस्था आईसीआरडब्ल्यू के सर्वेक्षण में 65 फीसद पुरुषों ने माना कि कभी-कभी महिलाओं को मारना जरूरी होता है। बंगलुरू में भी एक सर्वेक्षण में 35 फीसद लोगों को दर्शन का अपराध बड़ा नहीं लगा। अठारह फीसद लोगों की निगाह में यह बहुत आम बात है और 65 फीसद लोग तो मुद्दे को सार्वजनिक करने के कारण विजयलक्ष्मी को ही गलत मान रहे हैं। वैसे हाल ही के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में भी यह बात सामने आयी है कि देश में 40 फीसद शादी-शुदा महिलाएं अपने घरों में पतियों से शारीरिक और यौन हिंसा का शिकार होती हैं और 51 प्रतिशत भारतीय पुरुष और 54 प्रतिशत भारतीय महिलाओं को पत्नियों को मारा-पीटा जाना स्वीकार्य और वैध लगता है। दर्शन प्रकरण ने कन्नड़ फिल्म उद्योग के दोमुंहे चेहरे को भी उजागर किया है जो कमोबेश देश के पूरे शो बिजनेस का एक सच है। यहां बातें बड़ी-बड़ी होती हैं लेकिन हकीकत में औरतों और मर्दो में बराबरी नहीं है, चाहे वह पारिश्रमिक की बात हो या शादी के बाद काम करने की स्वीकार्यता की बात। हिंदी फिल्म उद्योग में भी जीनत अमान, नीतू सिंह, और ऐश्वर्या राय तक घरेलू हिंसा का शिकार हुई हैं। वैसे, घरेलू हिंसा कानून 2005 घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए एक कारगर सुरक्षा कवच है। मसलन इसके तहत घरेलू हिंसा की शिकार महिला के लिए हर तरह की कानूनी सहायता मुफ्त मिलती है और दर्ज शिकायत पर कार्रवाई करने के लिए अधिकतम तीन दिन का ही समय दिया गया है। कोई भी महिला सीधे मजिस्ट्रेट के पास शिकायत लेकर जा सकती है।</span></div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-72280342728958847172011-09-07T01:29:00.000+05:302011-09-07T01:29:07.020+05:30यह अभी शुरुआत है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><span class="Apple-style-span" style="background-color: white; font-size: 10px;"></span><br />
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;"><h3 class="plainHead" style="border-bottom-color: rgb(136, 136, 136); border-bottom-style: solid; border-bottom-width: 1px; font: normal normal bold 1.6em/normal 'Helvetica Neue', Arial, sans-serif; margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">Published in Public agenda</h3></div><div style="border-top-color: rgb(211, 211, 211); border-top-style: solid; border-top-width: 1px; margin-bottom: 5px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 3px; padding-bottom: 3px; padding-left: 3px; padding-right: 3px; padding-top: 3px; text-align: justify; z-index: 0;"><div style="color: #231f20; font: normal normal normal 1.3em/1.6em Georgia, 'Times New Roman', serif; margin-bottom: 0em; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त न्यायमूर्ति <b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">संतोष हेगड़े</b> से <b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">मनोरमा</b> की बातचीत<br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />कर्नाटक के लोकायुक्त पद से रिटायर हुए न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े कर्नाटक में अवैध खनन पर अपनी जांच-रिपोर्ट के कारण चर्चा में रहे। हेगड़े जन लोकपाल विधेयक बनाने वाली संयुक्त समिति के सदस्य और अण्णा टीम के भी एक महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। बातचीत के मुख्य अंश :<br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">आप अण्णा की टीम और सरकार के बीच बातचीत में अहम भूमिका निभा रहे थे?</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />नहीं, मैं कोई मध्यस्थता नहीं कर रहा था और न ही मेरे पास सरकार की ओर से ऐसा कोई प्रस्ताव आया। मैं अण्णा की टीम में हूं और हम एक टीम के तौर पर बातचीत के लिए हमेशा से तैयार रहे हैं।<br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">क्या अण्णा के अनशन में दुराग्रह नहीं था?</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />अण्णा बिल्कुल सही कर रहे थे। सरकार को लोकपाल विधेयक पर व्यापक बहस से गुरेज नहीं होना चाहिए। आखिरकार सर्वसम्मति का ही विधेयक संसद में पारित होगा। लेकिन लोगों को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है। संविधान ने सर्वोच्च सत्ता देश के नागरिकों को ही माना है और सरकार का यह कहना बेबुनियाद था कि हम लोग कानून बना रहे थे। हम सिर्फ सरकार को सुझाव दे रहे थे और संविधान ने ऐसा करने का हमें अधिकार दिया है। <br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">सरकार के रवैये पर आप क्या सोचते हैं?</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />जब यह आंदोलन शुरू हुआ था तो हमें उम्मीद नहीं थी कि लोगों का ऐसा साथ और समर्थन मिलेगा। जाहिर है, अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में आम आदमी भ्रष्टाचार से बेहद परेशान है। लोगों के पास अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के पैसे नहीं हैं, लेकिन जनता के ही करोड़ों-अरबों रुपये राजनेता घोटाले करके लूट रहे हैं। इस आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में लोगों की हिस्सेदारी को इसी रूप में देखा जाना चाहिए। <br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">आप कर्नाटक के लोकायुक्त रहे हैं। क्या लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक में कोई समानता है?</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />कर्नाटक का लोकपाल रहते हुए मैंने सुओमोटो पावर के लिए काफी प्रयास किये। भाजपा सरकार से आश्वासन मिलने के बावजूद लोकायुक्त को मुख्यमंत्री या कैबिनेट के मंत्रियों के खिलाफ सुओमोटो पावर नहीं मिली। हां, उप-लोकायुक्त पहली श्रेणी के अधिकारियों और उससे नीचे चपरासी तक के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत होने पर संज्ञान ले सकते हैं। इसके बावजूद मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत विशेष लोकायुक्त अदालत में दर्ज होने के कारण उनके खिलाफ मामला बना। <br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">अण्णा की टीम अपने विधेयक पर इतनी क्यों अड़ी रही?</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />हम बहस और बातचीत के लिए हमेशा तैयार थे। हमारा तर्क था कि सरकार को अण्णा टीम द्वारा सौंपे गये लोकपाल विधेयक के आठ मुद्दों पर एतराज है तो ठीक है, उन्हें छह मुद्दों पर राजी होने दीजिए और संसद में लेकर आने दीजिए। वैसे भी हम यह नहीं कह रहे कि जन-लोकपाल विधेयक हमने जैसा दिया है, वही पारित हो। हम चाहते हैं कि संसद में इस पर बहस हो, सरकार हमारी मांग और जनभावनाओं को जाने-समझे।<br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">लोकपाल विधेयक भ्रष्टाचार रोकने में कितना कारगर होगा?</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />यह सच है कि केवल इस विधेयक से देश और समाज से भ्रष्टाचार पूरी तरह से खत्म नहीं होगा, लेकिन कुछ तो फर्क पड़ेगा ही । <br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" /><b style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;">इस आंदोलन के बाद आप लोगों की रणनीति क्या होगी?</b><br style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px; padding-bottom: 0px; padding-left: 0px; padding-right: 0px; padding-top: 0px; z-index: 0;" />हम चुनाव सुधार और सांसदों और विधायकों को वापस बुलाने या राइट टु रिकॉल के लिए मुहिम चलाने वाले हैं। अब हम रुकने वाले नहीं हैं। जनहित के अलग-अलग मुद्दों पर हम जनता को जागरूक करने उसके साथ मिलकर मुहिम चलाने का काम करते रहेंगे।</div></div></div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-67313266220502604632011-06-24T13:47:00.000+05:302011-06-24T13:47:50.154+05:30एक छोटी-सी जीत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
एक छोटी-सी जीत<br />
[For Public Agenda]<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-zojAG9qhcAI/TgRFf0S5_LI/AAAAAAAAAc4/ZSWP6PMXKV8/s1600/Picture+012.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" height="150" src="http://2.bp.blogspot.com/-zojAG9qhcAI/TgRFf0S5_LI/AAAAAAAAAc4/ZSWP6PMXKV8/s200/Picture+012.jpg" width="200" /></a></div>ऐसा रोज-रोज नहीं होता जब समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोग अपने हक के लिए लड़ पाते हों और फिर जीत भी जाते हों। पर बंगलूरू की घरेलू कामगार पापम्मा की कहानी असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे लाखों लोगों के लिए मील का पत्थर है। नौकरी से अचानक निकाल दिए जाने पर अदालत का दरवाजा खटखटाने वाली पापम्मा से मिलने जब हम बंगलूरू के लिंगराजपूरम इलाके की झुग्गी-बस्ती में गए तो ईंटों के मलबे से भरे प्लाट पर प्लास्टिक शीट से बनी छोटी सी एक झोपड़ी के आगे पतली-दुबली सावंले रंग की 65 साल की महिला बैठी मिली। उसकी ओर इशारा करके उसके बेटे नागराज ने कहा- मैडम, शी इज पापम्मा, माई मदर! बगल में ही चोट लग जाने की वजह से 25 साल से बेरोजगार, पापम्मा के पति भी बैठे थे। पापम्मा की टूटी हिन्दी को उसका बेटा नागराज हमें अंग्रेजी में समझा दे रहा था। बात बेटे से ही शुरू हुई, पापम्मा कहने लगी- 12वीं तक पढ़ा है, हम दलित हिन्दु हैं पर छोटे बेटे ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है और यहीं किसी रियल इस्टेट ऑफिस में काम करता है, इसे साढ़े पांच हजार रूपए मिलते हैं। पांच बच्चों में दो बेटे और दो बेटी अपने-अपने परिवार के साथ रहते हैं जिन्हें किसी तरह पाल-पोष दिया था उसने। 22 साल तक 8 घंटे काम करने के एवज में महज 60 रूपए महीने की आमदनी पर सात लोगों का गुजारा, सोचने वाली बात है। इसलिए बच्चें छोटी उम्र से ही कुली का काम करने लगे और सबको बस रोटी मिलती रही। 2003 से पापम्मा को 500 रूपए मिलने षुरू हुए जबकि एक साल बाद 2004 में कर्नाटक सरकार ने घरेलू कामगारों के लिए 8 घंटे की न्यूनतम मजदूरी 2,279 तय कर दी। और 2007 में काम से निकाले जाने के छः महीने पहले, बार-बार कहने पर उसे 15 सौ मिलने शुरू हुए थे पर ये भी 2008 के सरकार के न्यूनतम मजदूरी के मानक से कम ही था। बहरहाल, ऐसा ही चलता रहता अगर वो बीमार न पड़ती और 8 दिन काम पर ना जाती। नौंवे दिन जब वो काम करने गयी तो उसे गेटआउट कह दिया गया, बगैर कारण बताए। यहीं नहीं उन्होंने उसे पैसे देने से भी इनकार कर दिया, जबकि पापम्मा जब 60 रूपए पर काम करती थी, तो उसके मालिक उसे ये कहकर चुप करा देते थे कि जरूरत पर हम दे देंगे। 31 साल काम करने के बाद भी मिले इस अपमान और तिरस्कार ने उसे गहरी चोट दी।<br />
अंततः पापम्मा अपने मामले को बंगलूरू के घरेलू मजदूर युनियन के पास ले गई। युनियन पापम्मा के मामले को अदालत ले गई जहां आखिर में फैसला पापम्मा के हक में हुआ। हालांकि पापम्मा को सेटलमेंट में 60 हजार रूपए ही मिले जबकि उसे 1 लाख 45 हजार मिलने चाहिए थे, पर ये भी अपनेआप में उल्लेखनीय है।<br />
दरअसल, पापम्मा का मामला घरेलू काम करने वालों के हालात पर रोशनी डालता है। जहां सिर्फ मुंह से बोलकर सब तय होता है, कोई लिखित एग्रीमेंट नहीं होता और नौकरी पर होने का कोई रिकार्ड नहीं होता, ऐसे में शोषण होने पर कभी भी कुछ साबित ही नहीं किया जा सकता। देश के तमाम घरेलू कामगार इसी तरह से काम करते हैं जबकि इस क्षेत्र में काम करने वालों की तादाद लगभग 45 लाख है। पर अभी तक सरकार के पास इनके लिए स्पष्ट कानून नहीं है, इन्हें किसी किस्म का सरकारी संरक्षण और आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है। पापम्मा कानूनी सहायता ले पायी तो उसकी वजह बंगलूरू में घरेलू कामगारों के मजबूत यूनियन का होना और इसी के मार्फत आल्टरनेटिव लाॅ फोरम जैसे संगठनों से मिली कानूनी मदद है। जबकि अक्सर ऐसे मामले रजिस्टर ही नहीं हो पाते, इसलिए यह जीत अपने-आप में एक मिसाल तो है ही। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये है कि बावजूद इसके पापम्मा के हालात अब भी नहीं बदले हैं। सब जानते हुए भी वो फिर से 800 रूपए महीना पर चार घंटे रोजाना काम कर रही है। छः महीने पहले स्थानीय कारपोरेटर लावण्या गणेश रेड्डी के आश्वाशन पर उसने अपना अस्थायी कच्चा घर तोड़ दिया था पर मकान बनाने के लिए कॉर्पोरटर फंड से पैसा नहीं मिला है। अब वो डेढ़ हजार के किराये के एक कमरे में रहती है और बेटे के दिए दो हजार और अपने 8 सौ में से किराया देने के बाद 1300 रूपए में पति के साथ गुजारा करती है। ऐसा क्यों?े यह पूछने पर वह कहती हैं-इससे ज्यादा इस इलाके में कोई देने का तैयार नहीं होता, या तो मुझे इतने पर ही काम करना होगा या फिर घर बैठना होगा। घर बैठने से काम नहीं चलेगा और ज्यादा दूर काम करने मैं जा नहीं सकती। आल्टरनेटिव लाॅ फोरम की ओर से पापम्मा को कानूनी मदद देने वाली मैत्रेयी कृष्णन कहती हैं दरअसल, ये बहुत ही जटिल मसला है और बगैर किसी स्पष्ट कानून के किसी को न्याय दिलाना मुश्किल है। सबसे बड़ी दिक्कत तो घरेलू कामगार की पहचान की है। ऐसे में कोई भी पलट सकता है कि अमुक उसके यहां नौकरी नहीं करती है। दूसरी ओर सरकार ने 8 घंटे काम के एवज में लगभग 3 हजार न्यूनतम मजदूरी इनके लिए तय की है जबकि सरकार का ही मानना है कि बंगलूरू में गुजारे के लिए कम से कम 6 हजार रूपए मासिक जरूरी है। न्यूनतम मजदूरी के मानक का पालन अभी भी नहीं हो रहा। और इससे भी बड़ा सवाल उनके सम्मान का है जो कोई कोर्ट नहीं उनसे काम लेने वालें ही दे सकते हैं। इसके लिए इनके प्रति नजरिए में बदलाव की जरूरत होगी। मैत्रेयी कहती हैं हालांकि कर्नाटक में घरेलू कामगारों का यूनियन काफी मजबूत है और यहां जागरूकता भी है, इसलिए हफ्ते में एक दिन की छुट्टी इन्हें यहां मिल जाती है पर अभी भी काफी कुछ किया जाना बाकी है।<br />
कर्नाटक घरेलू कामगार अधिकार यूनियन की गीता मेनन भी यही मानती हैं कि सुधार सोच में बदलाव से ही संभव है और उस ओर पहला कदम यही होगा कि इन्हें नौकर नहीं बल्कि कामगार या श्रमिक समझा जाए। अपनी बेहतरी के लिए इनका संगठित होना बेहद जरूरी है तभी ये अपने हक के लिए लड़ पाएंगे। <br />
वैसे, कर्नाटक घरेलू कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी मानक लागू करने वाला पहला राज्य है। लेकिन छः साल में न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलने का कोई भी मामला दर्ज नहीं हुआ है, इससे हकीकत समझा जा सकता है। दूसरी ओर केन्द्रीय श्रम मंत्री एम मल्लिकार्जून खाड़गे सबसे गरीब तबके के मजदूरों के लिए बनायी गई राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना जो कर्नाटक को छोड़कर 24 राज्यों में लागू है के तहत घरेलू कामगारों को भी लाने की बात कर रहे हैं। पर कर्नाटक में तो अभी मनरेगा के मजदूर ही इससे बाहर हैं।<br />
बहरहाल, इसी साल अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में पूरे विश्व के घरेलू कामगारों के लिए सम्मानजनक कार्यदशा मुहैया कराने के लिए नया अंतरराष्ट्रीय कानून लाए जाने की चर्चा है। जबकि भारत में अभी भी ठोस कानून नहीं है। राष्ट्रीय सलाहकार समिति की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने हाल ही में प्रधानमंत्री को प्रस्तावित राष्ट्रीय घरेलू कामगार नीति के तहत घरेलू कामगारों को व्यापक श्रम अधिकारों के ढ़ाचें में लाए जाने का सुझाव दिया है जिसके तहत बराबर भुगतान, काम करने की जगह पर यौन-शोषण और अन्य शोषण के खिलाफ संरक्षण ,हफ्ते में एक और साल में 15 अवकाश देने का भी सुझाव दिया है। प्रस्तावित नीति की घोषणा के बाद हालात, हो सकता है थोड़ा बदलें। <br />
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</div><div><div>बंगलूरू में घरेलू कामगारों को सबसे पहले संगठित करने वाली और उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली सामाजिक कार्यकर्ता और बंगलूरू गृह कार्मिक संघ की संस्थापिका रूथ मनोरमा से बातचीत</div><div>-कर्नाटक में घरेलू कामगारों की स्थिति क्या है?</div><div><a href="http://www.rightlivelihood.org/typo3temp/pics/4c00a698a1.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="http://www.rightlivelihood.org/typo3temp/pics/4c00a698a1.jpg" width="133" /></a>बंगलूरू में घरेलू कामगारों की संख्या 3 लाख के करीब है, जिनमें से ज्यादातर किसी यूनियन से रजिस्टर्ड नहीं हैं। पर फिर भी यहां घरेलू कामगारों के युनियनों की मजबूत मौजूदगी है और इनके हक की लड़ाई में इनका सार्थक हस्तक्षेप है। कर्नाटक सरकार द्वारा न्यूनतम मजदूरी तय किये जाने को हम अपनी इस लड़ाई में एक महत्वपूर्ण कदम मानते हैं। यहां जागरूकता और हमारे काम से थोड़ा फर्क तो आया है और हालात बाकी जगह से कुछ बेहतर हैं।</div><div><br />
</div><div>-बंगलूरू गृह कार्मिक संघ की इसमें क्या भूमिका रही?</div><div>-1987 में हमने इसकी नींव रखी और तबसे हमारी लड़ाई जारी है। इससे पहले 1986 में पुलिस में घरेलू कामगारों का रिकार्ड और फोटो दिए जाने का आदेश हुआ था। हमने वीमेन व्वाईस के जरिए इसका विरोध किया, क्योंकि ये इन कामगारों के सम्मान के खिलाफ था इसके बदले लेबर ऑफिस में इन्हें रजिस्टर्ड किया जाना चाहिए। खैर, वो आदेश वापस ले लिया गया। न्यूनतम मजदूरी तय होना बंगलूरू गृह कार्मिक संघ की जीत रही है।</div><div>-न्यूनतम मजदूरी के बाद अगली मांग क्या है?</div><div>हम घरेलू कामगारों को असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सूची में लाना चाहते हैं। राष्ट्रीय घरेलू कामगार अधिनियम पर हमारी नजर है। और राज्य सरकार की पहल पर भी। हमारी मांग इन्हें सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाए जाने की है। निर्माण क्षेत्र के मजदूरों को लेबर ऑफिस से मिलने वाले पहचान पत्र की तरह ही इन्हें भी आईडेंटिफिकेशन कार्ड मिलना चाहिए। इससे इन्हें 17 फायदें मिलेंगे। साथ ही प्रवासी कामकारों को सरकार की ओर से पूर्ण संरक्षण मिलना चाहिए</div><div>- बंगलूरू गृह कार्मिक संघ कामगारों को आर्थिक मदद भी मुहैया कराता है?</div><div>हम सदस्यों की आर्थिक मदद भी करते हैं, पर हमारे पास लाए गए मामलों में हम कानूनी मदद करते हैं। इनके सामाजिक, पारिवारिक मसलों में भी हस्तक्षेप करते हैं। लेकिन सरकार के पास इनकी मदद के लिए कोई फंड नहीं है। हम चाहते हैं कि सरकार मामूली सेस लगाकर इनके लिए कोई फंड बनाए और जरूरत पड़ने पर इनकी आर्थिक मदद करें। </div></div></div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-26993637340362602192011-06-23T13:27:00.001+05:302011-06-23T13:27:58.467+05:30चंदन के तस्कर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
(Published in Public agenda)<br />
<a href="http://www.ausslab.com/new_images/sandalwood-tree.gif" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://www.ausslab.com/new_images/sandalwood-tree.gif" /></a>कभी दक्षिण-भारत के जंगलों में आतंक का पर्याय रहे और जंगल का राजा कहे जाने वाले वीरप्पन को मरे हुए 7 साल हो चुके हैं। अपने जीवनकाल में दस हजार टन से भी ज्यादा चंदन की लकड़ी की तस्करी करने वाले वीरप्पन ने कर्नाटक, तमिलनाडू और केरल के जंगलों से चंदन के पेड़ों की सफाई करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी, पर उसके जाने के बाद भी यहां एक नहीं बल्कि कई वीरप्पन सक्रिय हैं, जो रातों-रात बंगलूरू जैसे शहर में विधानसभा से सटे वीवीआईपी इलाके से भी चंदन के पेड़ काट ले जाते हैं और उनका कोई कुछ नहीं कर पाता। हाल ही में तस्करों ने यहाँ चंदन के 3 पेड़ रातों रात काट डाले। जिसमें से एक तो विधानसभा और हाई कोर्ट के सामने कब्बन पार्क जैसे इलाके में था। सार्वजनिक जगह पर साबुत बचा यह शहर का इकलौता चंदन का पेड़ था और जिसकी सुरक्षा में हमेशा एक सशस्त्र सुरक्षाकर्मी भी तैनात रहता था। और 2 पेड़ सीवी रमण नगर इलाके के एक घर के अहाते से बंदुक की नोक पर काट लिया गया। एक पेशेवर तस्कर केवल 3 मिनट में परिपक्व चंदन का पेड़ को काट डालता है। आईआईएम बंगलूरू के कैंपस से भी चंदन के पेड़ काट लिए जाते हैं । यहां तक कि इन्सटीट्यूट ऑफ वुड साईंस एंड टेकनॉलजी से भी पांच परिपक्व चंदन के पेड़ों को काटने की कोशिश की गई। सरकार द्वारा अभी भी तमाम सरकारी जमीन और भवनों के अहाते में चंदन के पेड़ लगाए गए हैं पर इन्हें तस्करी से बचाना बड़ा काम है। अभी भी तुराहल्ली के जंगल, बंगलूरू विश्वविद्यालय परिसर, जीकेवीके कैपस, इन्सटीट्यूट ऑफ वुड साईंस एंड टेकनॉलजी और इबलुर में चंदन के पेड़ों की ठीक-ठाक संख्या है जो कुछ सालों में परिपक्व हो जाएंगे पर ये तस्करों से बच पाएंगे या नहीं ये बड़ा सवाल है। अभी के हालात देखकर तो यही लगता है कि तस्करों के हौसले सरकार से ज्यादा बुलंद हैं। कर्नाटक फारेस्ट सेल के रिकार्ड के मुताबिक 2007 में राज्य में चंदन की लकड़ी की तस्करी के 88 मामले सामने आए थे जो 2008 में 191 हो गए लेकिन 2009 में 102 मामले ही दर्ज हुए। लेकिन मामलों में कमी इसलिए नहीं आयी कि पुलिस-प्रशासन ज्यादा मुस्तैद हो गया बल्कि इसलिए कि दिनों दिन चंदन के पेड़ घटते जा रहे है। असलियत ये है कि राज्य के जंगलों में संभवतः गिने-चुने ही प्राकृतिक रूप से उगे चंदन के पेड़ बचे हों या शायद वो भी नहीं। जबकि कर्नाटक के उत्तरी इलाके में कभी हजारों किलोमीटर तक चंदन के जंगल हुआ करते थे। <br />
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अभी एक दशक पहले तक ही बंगलूरू में 97 बड़़े और पुराने चंदन के पेड़ हुआ करते थे जिसमें 21 कब्बन पार्क में थे। लेकिन जल्दी ही इनकी संख्या 21 से 6 रह गई, धीरे-धीरे सब माफियाओं की भेंट चढ़ते गए। और आखिरकार इकलौता पेड़ भी उनकी नजर हो गया। हांलाकि कब्बन पार्क और लाल बाग जैसी जगहों में चंदन के और पेड़़ है पर उन्हें लगाए कुछ ही साल हुए है और वो अभी परिपक्व नहीं हुए हैं। <br />
चंदन, कर्नाटक की पहचान और संस्कृति का हिस्सा रहा है। सिल्क के साथ-साथ कर्नाटक अपने मैसूर सैंडल सोप और चंदन की लकड़ी से बनी खूबसूरत कलाकृतियां के लिए भी उतना ही जाना जाता है। यहां लाखों लोगों की रोजी रोटी, चंदन और इससे जुड़े कारोबार से चलती है मसलन, अगरबत्ती से लेकर साबुन, टेल्कम पाउडर, परफ्यूम और ऐसे ही अनगिनत सौन्दर्य उत्पाद यहां बनते हैं। इसके अलावा चंदन की लकड़ी पर नक्काषी या इससे कलाकृतियां बनाने का काम भी यहां बड़े पैमाने पर होता है, दवाईयों में भी चंदन के तेल का इस्तेमाल होता है। यह कर्नाटक का राजकीय वृ़क्ष भी है। और मैसूर तो कर्नाटक का चंदन का षहर ही कहलाता है। देष का 70 प्रतिशत चंदन कर्नाटक ही मुहैया कराता रहा है। जो हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि दुनियां में सबसे बेहतरीन माना जाता है। पर दिनों दिन बढती मांग और घटती आपूर्ति ने आज इस पेड़ के आस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है।<br />
वैसे चंदन के पेड़़ भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं भी लगाए जा सकते हैं, केवल सही किस्म का चयन करना होता है। फिलहाल देश में 27 किस्म के चंदन के पेड़ पाएं जातें है। मध्यम उर्वर मिट्टी, और थोड़ी ढाल वाली जमीन ताकि जड़ों में पानी नहीं रूके इसके लिए उत्तम है। लेकिन शुष्क जलवायु दशाओं में पेड़ में बनने वाले हार्टवुड और तेल की गुणवत्ता जरूर बहुत उम्दा हो जाती है। कर्नाटक की आबो हवा और प्राकृतिक दशाएं चंदन के पेड़ों के लिए एकदम सटीक है। सदाबहार जंगल का यह पेड़ 40 से 50 फीट तक उंचा और 3 से 8 फीट मोटा होता है। थोड़ा बैंगनीपन लिए हुए इसके भूरे रंग के फूल सुंगधहीन होते हैं। प्राकृतिक चंदन के पेड़ कम से कम 30 साल में परिपक्व होते है। जबकि प्लानटेशन के तहत उगाए गए चंदन के पेडों में़ दस से पन्द्रह साल के भीतर ही 25 किलो तक संुगधित हार्टवुड का निर्माण हो जाता है। लेकिन अब चंदन के पेड़ों की ऐसी किस्में भी विकसित कर ली गई हैं जो 12 साल में तैयार हो जाती है। चंदन की लकड़ी की बिक्री हार्टवुड, ब्रांचवुड, चिप्स और पाउडर के रूप में होती है। हार्टवुड से ही चंदन की कलाकृतियां और गहने बनाए जाते हैं जबकि छाल को पीसकर उससे अगरबत्ती बनती है। जड़ों से तेल निकाला जाता है। और पेड़ को खरोंच-खरोंच कर पाउडर जमा किया जाता है।<br />
दरअसल, चंदन मतलब पैसा! एक ऐसा पेड़, जो आकार नहीं बल्कि वजन के हिसाब से बेचा जाता है। आज एक टन भारतीय चंदन की लकड़ी की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लगभग 45 लाख से भी ज्यादा है। पिछले 18 साल से सालाना लगभग 18 प्रतिशत की दर से इसमें इजाफा हो रहा है। जबकि 1 लीटर चंदन के तेल की कीमत सवा लाख से उपर है। दो साल पहले तक प्रति टन चंदन की लकड़ी की कीमत 20 लाख रूपए थी। मोटे तौर पर एक एकड़ में चंदन लगाने पर 12 से 15 साल में 22 से 25 लाख तक खर्च आता है और मुनाफा ढ़ाई करोड़ से उपर। यही वजह है कि निजी क्षेत्र की कई कंपनियां चंदन के प्लानटेशन में उतर चुकी हैं। सूर्या विनायक इंडस्ट्रीज, डी एस समूह और नामधारी सीड्स लिमिटेड कर्नाटक के अलावा देश के अन्य राज्यों में बड़े पैमाने पर चंदन की खेती कर रही हैं। श्री श्री एग्री ग्रुप जैसी कंपनी तो बिहार में भी चंदन की खेती की योजना बना रही है। इसके अलावा भारत को चंदन के उत्पादन में सबसे बड़ी चुनौती आस्ट्रेलिया से मिलने वाली है। जहां बड़े पैमाने पर भारतीय चंदन की प्लानटेषन की गई है और 2012 से वहां के चंदन की पहली खेप बाजार में आनी शुरू हो जाएगी।<br />
कर्नाटक के कुल 20 फीसदी हिस्से में जंगल हैं और कुल वन-क्षेत्र के 10 फीसदी में कभी चंदन हुआ करते थे जो अब घटकर महज 5 फीसदी या उससे भी कम रह गया है। यानी चंदन के प्राकृतिक वन-क्षेत्र विलुप्त होने के कगार पर हैं। तस्करी का आलम जब बंगलूरू में ऐसा है तो सहज समझा जा सकता है राज्य के जंगल कितने सुरक्षित हैं। चंदन उत्पादन में अग्रणी रहे कर्नाटक में पिछले तीन साल से लकड़ी की नीलामी ही नहीं हुई है। जाहिर है दूसरे राज्यों और आयात करके काम चलाया जा रहा है पर लंबे समय तक कच्चे माल की आपूर्ति नहीं होने की सूरत में लाखों लोगों की रोजी-रोटी पर इसका सीधा असर होगा। इसलिए चंदन उत्पादन को लेकर सरकार गंभीर हो गई है। और चंदन की खेती का रकबा डेढ़ हजार एकड़ से बढ़ा कर दो हजार एकड़ करने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही सरकार ने चंदन की लकड़ी के उत्पादों से होने वाले मुनाफे पर लगाए जाने वाले 50 फीसदी कर में भी रियायत दे दी है। और उत्पादक राज्य सरकार के अलावा अन्य एजेंसियों को भी चंदन की लकड़ी बेच सकता है। यहां तक कि विभिन्न सरकारी संस्थान भी अगर अपने परिसर में लगे चंदन के पेड़ों को हटाते हैं तो राज्य का वन विभाग उन्हें इसका भुगतान करेगा। इसके अलावा नेशनल मेडीसिनल प्लांट बोर्ड भारत सरकार की ओर से भी चंदन की खेती पर सबसिडी दी जाती है साथ ही सभी र्राष्ट्रीय बैंक चंदन के पेड़ लगाने की परियोजनाओं के लिए कर्ज भी मुहैया कराते हैं।<br />
हालात को देखते हुए ही राज्य सरकार विधानसभा के अगले सत्र में कर्नाटक राज्य वृक्ष संरक्षण कानून में संशोधन करने जा रही है। राज्य के वन मंत्री सी एच विजयशंकर ने इस संबंध में बताया कि कानून के पारित हो जाने के बाद चंदन के पेड़ के मालिक अंतर्राष्ट्रीय कीमत के अनुसार अपने पेड़ की लकड़ी भी बेच सकेंगे। गौरतलब है कि कर्नाटक में 2001 में वृक्ष संरक्षण कानून में संशोधन कर अपनी जमीन पर लगाए गए चंदन के पेड़ का मालिकाना हक भूस्वामी को दे दिया गया था पर उसकी बिक्री पर सरकार का नियंत्रण है। इसके इस्तेमाल के लिए सरकारी मंजूरी जरूरी है। यही नहीं बगैर सरकारी मंजूरी के चंदन की लकड़ी अपने पास रखना या इसे कहीं ले जाना भी गैरकानूनी है। जाहिर है ऐसे में पेड़ को बेचना और फिर सरकार की ओर से पैसे का भुगतान बड़ी समस्या थी। इसलिए किसान चंदन की खेती से दूर रह रहे थे। है। किसानों को इससे जोड़ने के लिए कानून में संशोधन समय की मांग है।<br />
कुल मिलाकर चंदन की लकड़ी उगाने वालों के लिए आने वाला समय सबसे मुफीद साबित होने वाला है। बशर्ते अगर उनके पेड़ वीरप्पनों से बच जाएं। <br />
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</div></div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-57078531000922656422011-05-20T00:40:00.000+05:302011-05-20T00:40:51.357+05:30एक कदम तो उठाओ यारों...........<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"> एक चीनी कहावत है-अंधेरे को कोसने से बेहतर है मोमबत्ती जलाओ। यानी कोसने से बेहतर करना है। हमेशा सरकार और सिस्टम को कोसने से कुछ नहीं होने वाला, करप्नश का रोना रोने से भी कोई फायदा नहीं। अगर कुछ हो सकता है तो हमारे लिए बनायी गई योजनाओं, उसके लिए निर्धारित की गई रकम और उसे अपने विकास पर खर्च करने के तौर-तरीके जानने और उसके लिए माहौल बनाने से। कम से कम कर्नाटक के बेलगांव जिले के सिरागुप्पी गांव की पंचायत और वहां के लोग तो यही कहते हैं। हाल ही में इस गांव को न सिर्फ केन्द्र सरकार से माॅडल गांव अवार्ड मिला है, बल्कि इसने गुगल अवार्ड भी हासिल किया है। ये अवार्ड सरकार की सभी योजनाओं को सफलतापूर्वक लागू करने और सभी बुनियादी सुविधाओं का लक्ष्य हासिल कर लेने वाले गांव को दिया जाता है।<br />
दरअसल, विकास की सैकड़ों योजनाएं सरकार के पास है, हर साल बजट में इन योजनाओं के लिए रकम भी एलोकेट होती है पर ये भी सच है कि ये पैसा उन तक नहीं पहुंचता जिनके लिए ये योजनाएं बनती हैं, या फिर पहंुचता भी है तो नाममात्र को। यानी इन्हें इंप्लीमेंट करने वाला सिस्टम भ्रश्ट है। जबकि देश की 72 फीसदी आबादी आज भी लगभग 6 लाख गांवों में रहती है। लेकिन फिर भी बुनियादी सुविधाओं तक उनकी पहंुच शहरों में रहने वाली आबादी जैसी नहीं है। लेकिन फिर भी विकास की भूख हो, जमाने के साथ कदम मिला कर चलने की ललक हो, साथ ही अपनी जड़ अपनी मिट्टी से भी उतना ही प्यार हो, तो सब संभव है। अब सिरागुप्पी गांव की ही बात करें तो, ये उसी कर्नाटक का हिस्सा है जिसे फिलहाल देश के भ्रष्टतम राज्यों में से एक समझा जाता है। लेकिन इसे भ्रष्ट कहने वाली पार्टी, जिसकी केन्द्र में सरकार है उसी ने इस गांव को सम्मानित भी किया है। यही नहीं कर्नाटक को पंचायती व्यवस्था को बेहतर ढंग से लागू करने वाला दूसरा राज्य होने का सम्मान भी दिया गया, जबकि पिछले साल कर्नाटक पहले स्थान पर था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भ्रष्ट तंत्र होने के बावजूद भी विकास के प्रति लोगों की चाहत को यहां नजरअंदाज करना इतना आसान नहीं। तभी तो स्वच्छता, पीने के पानी की सप्लाई, प्राइमरी एजुकेशन, रोड, महिलाओं और समाज के कमजोर तबके में साक्षरता का अनुपात जैसे मानकों पर यह गांव देश भर में खरा उतर पाया और माॅडल गांव होने का रूतबा हासिल कर पाया। और यहीं से इस गांव की सक्सेस स्टोरी भी देश के बाकी गांवों के लिए भी एक उदाहरण बन जाती है। क्योंकि विकास के लिए गांव की पंचायत ही नहीं बल्कि पूरे गांव ने एक होकर काम किया, पंचायत में कोई किसी दल का नहीं था और न गांव में कोई किसी समूह का। बस सबकी लाईन एक ही रही-सिरागुप्पी के तरक्की की लाईन। इस गांव की पंचायत और लोगों ने साबित किया कि सब अगर मिलकर एक लक्ष्य के लिए काम करें तो बदलाव जरूर ला सकते हैं। पिछले पांच साल में इस गांव ने 8 करोड़ अपने विकास पर खर्च किए।<br />
सच तो ये है कि माॅडल गांव जैसा कोई अवार्ड होना ही नहीं चाहिए था, विकास के जिन मानकों पर ये अवार्ड दिया जाता है, हर गांव का ये बुनियादी हक है, पर ऐसा है नहीं। आज भी देष के लाखों गांव बिजली, सड़क, स्कुल, अस्पताल, और पीने के पानी की सप्लाई जैसे बुनियादी सुविधाओं से महरूम है। ऐसे में किसी गांव में घर-घर में नल होना, प््रााॅपर अंडरग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम होना,घर-घर में टाॅयलेट होना, कचरे का सिस्टेमेटिक ढंग से निपटान होना और अच्छी सड़के होना, निष्चिततौर पर देष के दूसरे गांवों के लिए सपने सरीखा ही है। लेकिन ये सब तभी संभव हो पाया जब पंचायत ने सरकार की सारी योजनाओं को पूरी पारदर्षिता के साथ लागू किया। और लोगों ने भी योजनाओं का किसी भी रूप में दुरूपयोग नहीं किया। सरकारी फंड के साथ-साथ इस गांव ने अपने एमपी और एमएलए फंड का भी बखूबी इस्तेमाल किया। फिर भी पैसा कम पड़ा तो अपने स्रोत से संसाधन जमा कर विकास के अपने लक्ष्यों को हासिल किया। यही नहीं केन्द्र सरकार की मनरेगा जैसी योजना को इस गांव ने 100 प््रातिषत क्षमता के साथ लागू किया है। गांव के प्राईमरी हेल्थ सेंटर में आपको एम्बूलेंस भी मिल जाएगा। 2290 घरों वाले इस गांव के 1335 घर में नल हैं। गांव की साक्षरता दर 96 फीसदी है। दस हजार की आबादी वाले इस गांव में 70 सेल्फ हेल्प ग्रुप हैं। पंचायत में प्री युनिवर्सिटी काॅलेज, तीन हाई स्कूल, छः प््रााईमरी स्कूल और नौ आंगनबाड़ी सेंटर हैं। यहां बैंकों की षाखाएं भी हैं और पंचायत पूरी तरह से कंप्यूटराईज्ड है। साथ ही पानी पर चार्ज से पंचायत ने 7 लाख रूपए अर्जित किए।<br />
षिरागुप्पी गांव ने अपनी सूरत, अपने लिए बनायी गई योजनाओं और उनके लिए आवंटित रकम का इस्तेमाल करके बदली है, देष के बाकी गांवों को यही याद रखने की जरूरत है।<br />
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</div></div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-42928401189735479472011-04-22T02:00:00.000+05:302011-04-22T02:00:12.495+05:30तेरी याद में एक पेड़<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
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Published in Inext<br />
चाह हो तो राह मिल ही जाती है ये बात बंगलूरू की जैनेट एग्नेश्वरण पर पूरी तरह से लागू होती है। पेशे से लैंडस्केप कलाकार जैनेट स्वभाव से ही प्रकृति प्रेमीरही हैं। बंगलूरू के अपेक्षाकृत ज्यादा हरे.भरे इलाके कोरमंगला में रहनेवाली जैनेट इस गार्डन सिटी को तेजी से ग्रे सिटी में बदलते देख अपनी ओर से कुछ पहल करने की सोच रही थीं। शहरीकरण और विकास के नाम पर बुनियादी ढ़ांचा खड़ा करने के लिए बेहिसाब पेड़ों की कटाई इन दिनों यहां आम है। अपने आस.पास की हरियाली से प्यार करने वाले हर शख्स को यह बात खलती भी है पर पहल कुछ ही लोग कर पाते हैंए जैनेट भी ऐसे ही कुछ लोगों में से हैं जिन्होंने पेड़ों के कटने पर सवाल करने के बजाए पेड़ लगाने को तव्वजों दिया। नतीजा 2005 से अब तक वो बंगलूरू और इसके आस.पास 23 हजार 300 से ज्यादा पेड़ लगा चुकी हैं। दरअसल 2003 में अपने पति की मौत के बाद उनकी याद में उन्होंने पेड़ लगाने की शुरूआत की। फिर नवंबर 2005 में राजानेट एग्नेश्वरण चैरिटेबल ट्रस्ट बनाया और ट्री फॉर फ्री नाम से एक संगठन की नींव रखी। आज इस संगठन के साथ बंगलूरू की ग्रीन ग्रुप्स की कंपनियां जुड़ चुकी हैं और आईटी क्षेत्र में काम करने वाले कई युवा भी वालेन्टियर बन कर पेड़ लगाने की इस मुहिम में निजी तौर पर शामिल हो रहे हैं। जाहिर है परिदृष्य कुछ तो बदल रहा है और भविष्य के प्रति भी कुछ उम्मीद जग रही है। शायद हरियाली बची रहेगी।<br />
जैनेट के लिए शुरूआत इतनी आसान भी नहीं रही। लोगों के पास जाना उन्हें अपने घर के सामने मुफ्त में पेड़ लगाने के लिए जगह देने के लिए राजी करना और फिर ये कहना कि पेड़ लगा देने के बाद क्या वो उसकी देखभाल करेंगे, सब मुश्किल था लेकिन कुछ लोग तैयार हुए और पहले साल वो 250 पेड़ लगाने में कामयाब हुईं। लेकिन अब सब उन्हें और उनके काम को जान गए हैंए खुद उन्हें फोन करके पेड़ लगाने के लिए बुलाते हैं। यहां तक कि किसान भी। जैनेट से जिस दिन बात हुई वो बंगलूरू की बाहरी सीमा पर होस्कोटे में पेड़ लगा कर लौटी थीं। और खुश होकर बताया अब हम फलों के पेड़ भी लगा रहे हैं। किसानों के खेत में जाकर मुफ्त में कलमी आम के पौधें लगा रहे हैं इसलिए अब उनसे भी हमें बुलावा आ रहा है। बंगलूरू के हाउसिंग कॉम्पलेक्स में रहने वाले भी खुद उन्हें फोन कर पेड़ लगाने का आमंत्रण देने लगे हैं। हाल ही में इन्होंने ऐसे कई आवासीय परिसरों में पेड़ लगाएं जहां पहले एक भी पेड़ नहीं थें। लेकिन उन्हें पेड़ लगाने का बुलावा ज्यादातर बनरगटा और कनकपूरा से आता है जो अभी भी ज्यादा हरे.भरे हैं। जैनेट चाहती हैं कि उन इलाकों के लोग उन्हें बुलाएं जहां अब सचमुच हरियाली कम हो गई है। गौरतलब है कि जैनेट पौध नहीं बांटती हैं अगर आपके पास पेड़ के लिए जगह है तो वहां पेड़ लगाती हैं। उसके बाद देखभाल की जिम्मेदारी पेड़ लगाने के लिए बुलावा देने वाले पर होती है। <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="http://2.bp.blogspot.com/-ABunnK_jTds/TbCTYyBMDVI/AAAAAAAAAbE/jHh1vFVRCy8/s1600/Janet+pic.bmp" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="240" src="http://2.bp.blogspot.com/-ABunnK_jTds/TbCTYyBMDVI/AAAAAAAAAbE/jHh1vFVRCy8/s320/Janet+pic.bmp" width="320" /></a></div>ट्री फॉर फ्री के अब लोकप्रिय होने का कारण पुछने पर जैनेट कहती हैं हमारा मकसद लोगों को भावानात्मक तौर पेड़ों से जोड़ कर उनकी तादाद में इजाफा करना है। तभी लगाए जाने के बाद इन पेड़ों को संरक्षण मिलेगा जो उनके बचे रहने की गारंटी होगी। पेड़ों से प्यार बढ़ाने के लिए वो किसी की याद में पेड़ लगाने की सलाह देती हैंए तोहफे में पेड़ देने और लेने को प्रोत्साहित करती हैं। वो कहती हैं हम पेड़ लगाने के पैसे नहीं लेते, लोगों को अपने साथ लेकर पेड़ लगाते हैं शायद यही वजह है कि लोग अब ज्यादा संख्या में जुड़ रहे हैं। कुछ बदलाव लोगों में पर्यावरण के प्रति आयी जागरूकता के कारण भी है। इस संदर्भ में जैनेट खासतौर पर आईटी कंपनियों के युवाओं की तारीफ करती हैं जो काम के अलावा अपने आस.पास को लेकर खासे सजग हैं और काम के बाद फुरसत पाते ही कुछ सकारात्मक करने की ख्वाहिश रखते हैं। जैनेट के साथ साफ्टवेयर कंपनियों में काम करने वाले ऐसे 150 सदस्य हैं जो पेड़ लगाने में अपना सहयोग देते हैं। इसके अलावा याहू, जेपी मोर्गन, हार्ले डेविडसन और अब सेल जैसी कंपनियां भी पेड़ लगाने के इनके इस अभियान में सहयोग कर रही हैं। लेकिन सरकार से इन्हें किसी किस्म का सहयोग नहीं मिला है। जैनेट कहती हैं पिछले दो साल हमें सरकारी नर्सरी से बांस के पौध भी नहीं मिल रहे। यानी यह पूरा अभियान लोगों की अपनी प्रतिबद्धता और ग्रीन ग्रुप्स की कंपनियों के कॉरपोरेट सहयोग से चल रहा है। जैनेट की हरियाली की यह मुहिम धीरे.धीरे अपने पांव पसार रही है बंगलूरू के अलावा आस.पास के जिलों और तमिलनाडू में भी उन्होंने पेड़ लगाएं हैं चाहे तो आप भी उनकी इस मुहिम में http://www.treesforfree.org के मार्फत शामिल हो सकते हैं।<br />
</div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-2390813046471546312011-04-20T14:18:00.002+05:302011-04-20T14:23:46.451+05:30बूंद-बूंद सहेजने की टेक्नीक<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
<div class="MsoNormal" style="margin-bottom: .0001pt; margin-bottom: 0in; mso-line-height-alt: 16.2pt;"><span class="apple-converted-space"><span style="color: black;"><span class="Apple-style-span" style="font-family: Mangal;"><b>Published in Inext</b></span></span><span style="color: black; font-size: 13.5pt;"> </span></span><span style="font-family: 'Times New Roman', serif; font-size: 12pt;"><o:p></o:p></span></div><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">सूरज तप रहा है</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">धरती जल रही है और सारी दुनिया में वाटर क्राइसिस का शोर हो</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">ऐसे में कोई ये कहे कि पानी के लिए रोते क्यों हो</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">तुम्हारे पास पानी की कोई कमी नहीं है</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">तो किसी को यकीन नहीं होगा. बंगलुरू के अयप्पा महादेवप्पा मसागी यही कहते हैं. पानी की बूंद-बूंद को हर कदम पर सहेजने और बर्बादी से बचाने वाले अयप्पा को इसलिए वाटर गांधी कहा जाता है. जबकि देश के ज्यादातर हिस्सों में भंयकर गर्मी वाले दिनों की छोड़ें अब तो सर्दियों में भी पानी के लिए मुश्किल होती है.</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;"> </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;"><br />
</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">महानगरों में तो पूरे साल ही पर्याप्त वाटर-सप्लाई का टोटा रहता है. बंगलुरू भी इससे अछूता नहीं है पर अयप्पा जैसे लोगों ने एक सार्थक और जरूरी कदम इस दिशा में बढ़ाया है</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">जिसके नतीजे काफी उत्साहजनक और सभी के अमल में लाने योग्य हैं. दरअसल</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">बढ़ती आबादी और घटते जल-स्त्रोत के कारण पूरी आबादी को पानी की पर्याप्त आपूर्ति बहुत विकट समस्या बनती जा रही है. गौर करने वाली बात यह भी है कि पानी की कमी का रोना रोने के बावजूद वाटर डिस्ट्रीब्यूशन के दौरान पानी की बेशुमार बर्बादी की जाती है. बहरहाल</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">हम सब ये फैक्ट अच्छी तरह से जानते हैं</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">पर इस दिशा में कोई पहल नहीं कर पाते. बंगलुरू के अयप्पा महादेवप्पा मसागी ने ऐसा नहीं किया. नतीजा पानी सहेजने की इनकी छोटी-छोटी कोशिशों ने बहुत बड़ा फर्क पैदा किया अब इन्हें दुनिया वाटर गांधी के नाम से जानती है. पानी बचाने के लिए इन्होंने खुद ही बहुत इफेक्टिव और सस्ती तकनीक ईजाद की है</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">जबकि न तो ये टेक्निकली ट्रेंड हैं और ना ही इनके पास कोई बड़ी डिग्री है.</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;"> </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;"><br />
</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">वाटर क्राइसिस शब्द इस </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">54 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">वर्षीय शख्स के सामने कोई मायने नहीं रखता. पानी बचाने के लिए ये अब तक सौ से भी ज्यादा तकनीक का सफल प्रयोग कर चुके हैं. कर्नाटक के गदग जिले के गांव से ताल्लुक रखने वाले मसागी को बचपन की वो बात जरूर याद है</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">जब उन्हें सुबह-सवेरे </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">3 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">बजे ही </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">2 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">किलोमीटर चलकर पड़ोस के गांव से पानी लाना पड़ता था. हालांकि शुरुआत में संसाधनों की कमी के कारण वो पानी बचाने की दिशा में शौक के बावजूद कुछ नहीं कर पाए पर बाद में हालात बेहतर होने पर इन्होंने जिन टेक्नीक्स का ईजाद किया</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">उसे हाउसिंग सेक्टर के साथ-साथ इंडस्ट्रीज भी अपना रही हैं और पानी के खर्च के साथ-साथ पानी को सहेजने और बचाने पर भी उतना ही ध्यान दे रही हैं. मसलन</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">मसागी ने रिचार्ज सॉफ्ट टेक्नीक ईजाद की जो बेहद कारगर साबित हो रही है</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">जिसके तहत बोरवेल के पास ही सबसॉईल रिचार्जिग सिस्टम बनाया जाता है.</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;"> </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;"><br />
</span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">यह प्रणाली रेनवाटर हारवेस्ंिटग सिस्टम और फिल्टर्ड ग्रे-वाटर से भी कनेक्टेड होती है. इनका मोटो एकदम सरल है और वो ये कि पानी की एक बूंद भी बेकार ना होने पाए</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">चाहे वो बारिश का पानी हो या फिर सोर्स से घरों के नलों तक पहुंचने वाला पानी. यहां तक कि बाथरूम और किचन में इस्तेमाल हो चुके ग्रे-वाटर का भी इस्तेमाल ये सुनिश्चित करा देते हैं. इनकी सक्सेस स्टोरी ये है कि अब तक </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">200 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">अपार्टमेंट</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">हजार से ज्यादा निजी मकान और </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">41 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">इंडस्ट्री ने इनकी तकनीक की मदद से पानी की किल्लत खत्म की है. जबकि </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">17 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">और प्रोजेक्ट पर काम जारी है. अगर उनकी बात मानें तो बंगलुरू में ही निर्माणाधीन मेट्रो प्रोजेक्ट के ट्रैक के प्रति किलोमीटर पर ये </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">3 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">करोड़ लीटर पानी सालाना बचा सकते हैं. इसके लिए केवल एक बार बीस लाख खर्च करना पड़ेगा. </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">1 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">स्क्वॉयर मीटर छत वाले घर में केवल एक बार दस हजार रुपए लगाने के बाद सालाना </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">1.2 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">लाख लीटर पानी बचाया जा सकता है. इनके काम को देखते हुए </span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">2009 </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">में इन्हें रूरल डेवलपमेंट में साइंस और टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के लिए नेशनल अवॉर्ड दिया गया. साथ ही दक्षिण अफ्रीका जैसे देश ने भी इन्हें अपने यहां जल-सरंक्षण तकनीक सिखाने के लिए बुलाया है. जाहिर है दुनिया को आज ऐसे कई वाटर गांधी की जरूरत है</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;">, </span><span lang="HI" style="font-family: Mangal; line-height: 115%;">ताकि पानी के लिए तीसरे विश्व-युद्ध की नौबत ना आने पाएं.</span><span style="font-family: jagran, serif; line-height: 115%;"><br />
<br style="mso-special-character: line-break;" /> </span></div>मनोरमाhttp://www.blogger.com/profile/16151488354697995623noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-8003676056995414100.post-8590025253434777482011-04-19T12:05:00.000+05:302011-04-19T12:05:37.581+05:30सुरों से सवंरता बचपन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">Published in Inext<br />
हममें से बहुत से लोग सफल होते हैं शोहरत और दौलत सब कमा लेते हैं पर जिस मिट्टी, जिस गांव, जिस देश , से हम आते हैं उसे उसका बकाया वापस लौटाने लिए बहुत कम ही लोग वापस मुड़ते हैं। अमेरिका के बे-एरिया में रहने वाले कर्नाटक के वादिराजा भट्ट और उनके दो दोस्त एच सी श्रीनिवास और अशोक कुमार ऐसे ही लोगों में से हैं। कुछ साल पहले अपनी मिट्टी का कर्ज चुकाने की जो छोटी सी मुहिम उन्होंने चलायी, अब उसका असर दिखने लगा है। और कर्नाटक और तमिलनाड् के दूर-दराज के गांवों के उन स्कूलों की सूरत बदलने लगी हैं जहां बच्चों को एक ही कमरे के टूटे-फृटे स्कूलों में पढ़ना होता था वो भी बगैर पानी, बिजली और टाॅयलेट जैसी बुनियादी सुविधाओं के। अब यही स्कूल पक्की इमारत में चल रहे हैं वो भी सभी बुनियादी सुविधाओं के साथ। इनकी इस मुहिम का नाम है ‘वन स्कूल एट ए टाईम’ या ‘ओसाट’। <br />
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दरअसल, कुछ करने की ख्वाहिश हो तो रास्ते निकल ही आते हैं। ऐसी हर सक्सेस स्टोरी के बारे में जानने-पढ़ने के बाद यही समझ आता है। इन तीन दोस्तों के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ, कुछ साल पहले जब ये कर्नाटक आएं तो भट्ट राज्य के दक्षिण कन्नडा जिले में स्थित अपने गांव बाजेगोली भी गए। लेकिन वहां के स्कूल की हालात देखकर उन्हें खासी परेशानी हुई। गांव के सारे बच्चों के लिए वहां एक ही स्कूल था, जो एक कमरे में चलता था अब वो कमरा भी एकदम खस्ताहालत में था। पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं तो बहुत दूर की बात थी। वापस अमेरिका आने पर उन्होंने संगीत के जरिए इस स्कूल के लिए फंड जमा करने की सोचा। और रागा नाम से एक संगीत मंडली बनायी। इसी तरह काटे नाम से थियेटर ग्रुप भी बनाया। संगीत और कल्चरल प्रोग्राम के जरिए उनकी फंड जमा करने की स्कीम रंग लायी जब अमेरिका में आयोजित रागा म्यूजिक कंसर्ट सुपरहिट रहा। बाजेगोली के खस्ताहाल स्कूल की हालात सुधरी तो बच्चों और उनके माता-पिता के चेहरे की मुस्कुराहट ने उन्हें अब इस काम को मिशन बनाने की प्रेरणा दी। अब तक ये ग्रूप पांच स्कूल की सूरत पूरी तरह से बदल चुका है। और दो स्कूल में इनका काम चल रहा है। <br />
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उनके काम करने का तरीका बहुत आसान है, तीनों पहले उस स्कूल का चयन करते हैं जिसका रिनोवेशन किया जाना है, फिर ऑथोरिटी बात करते हैं, स्थानीय लोगों और सुपरवाईजरों को इस काम से जोड़ते हैं और फिर स्थानीय रोटरी क्लब को इन्वाल्व कर उनकी मदद से काम पूरा करते हैं। इस प्रोग्राम की खासियत ये है कि कोई भी स्कूल का नाम रिनोवेशन के लिए सुझा सकता है। शर्त केवल यही है कि उस स्कूल से गरीब बच्चों को फायदा होना चाहिए और उस स्कूल के टीचर्स में बच्चों को बेहतर पढ़ाने और बेहतर शैक्षिणक माहौल देने की ललक होनी चाहिए। बहरहाल आने वाले समय में इनका लक्ष्य साल में पच्चीस स्कूलों के रिनोवेशन के सभी हिस्से में काम करने का है। <br />
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