शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

'हाईवे 'सदियों की घुटन के लिए सदियां लगेंगी !

कुछ फ़िल्में आपके भीतर पहले से ही होती हैं ये और बात है परदे पर उसे कोई और उतार देता है , इम्तियाज़ अली की हाईवे देखकर कुछ ऐसा ही लगा, ऐसी फ़िल्म जिसे आप हमेशा देखना चाहते रहे हों! धरती के किसी अनजाने कोने के खेत , कोई घर, कोई नदी, कोई नहर, कोई अकेला पेड़, क्षितिज के साथ खड़े पहाड़,जैसे दुनियां इसके आगे हो ही नहीं, या ये कहते मुझमें से झांककर दूसरी ओर देखो और बगैर कुछ सोचे, प्लान किये, कहीं नहीं पहुँचने के लिए चलते दो लोग! कुछ कुछ ऐसा जैसे गहरी नींद में देखें जाने वाले अज़ीब से सपने जिनमें जाने आप कहाँ पहुचें होते हैं और जहाँ तमाम दृस्य बगैर किसी रेफरेन्स के तिलिस्म की तरह आते रहते हैं ! हम सबके भीतर वीरा होती है सोलह साल से अस्सी साल के होंगे तब भी ताज़ी हवा, स्पेस और अपना आज़ाद वक़्त की छटपटाहट वैसी ही होगी , सदियों की घुटन के लिए सदियां लगेंगी ! वैसे इस फ़िल्म ने मुझे भी अपने उन हाईवे की याद दिला दी जिनकी छवियाँ बचपन से मेरे साथ है , मेरा पहला प्यार एन एच 31, मन करता था इसके किनारे किनारे पूरब की ओर चलते रहे तो असम पहुँच जायेंगे और जब भी जीरो माइल पर खड़े होते थे तो 31 की जगह 28 पकड़ कर चले जाने का मन होता था ! और एन 17 अरब सागर के समानांतर हमेशा बस चलते ही जाने के लिए बुलाती सड़क ! आम और आवलां के घने पेड़ों के साये वाले प्रतापगढ़ , फैज़ाबाद की सड़क , मीलों पलाश के फूलों से सजा बरही का एन एच 2 ,और मुगलसराय से कर्मनाशा तक का लॉन्ग ड्राइव जिसके लिए अजय के पापा से बड़ी डाँट पड़ी थी , तब हम दोस्त थे और वो घर से अलीनगर के लिए निकलते समय मुझे साथ बुलाने की गलती कर बैठा, मोबाइल आने से पहले के उस समय में मुगलसराय से कर्मनाशा तक वो भी शाम पांच -छह बजे के बाद के समय में! दोस्ती सबसे अच्छी चीज़ होती है , कोई कुछ भी कर सकता है उसमें :)

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