कई मासूम जिंदगियों को बाल-मजदूरी, ग़रीबी और नशे के शिकंजे से निकाल कर बंगलुरू में खुली-ताजी हवा में सांस लेने का मौक़ा दे रहा है बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल। मनोरमा की रिपोर्ट (Public Agenda)
कभी नारियल पानी बेचने में अपने पिता की मदद करने वाला सुब्रमण्या आज एक अच्छा-खासा अभिनेता है। अभिनय में जल्दी ही डिप्लोमा करने की उसकी ख्वाहिश है। साथ ही वह अच्छी फोटोग्राफी और क्ले मॉडलिंग भी करता है। कुछ ऐसा ही किस्सा लॉ फ्रीडा शांति का भी है, जिनका असली नाम तो लक्ष्मी था पर जॉन देवराज ने उसमें फ्रीडा काहलो को देखा और फ्रीडा नाम दे दिया। फ्रीडा जॉन देवराज के "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' की आज मजबूत स्तंभ है। एक कलाकार होने के साथ ही स्कूल और हॉस्टल की तमाम जिम्मेदारियां बखूबी निभाती है। चार साल की उम्र में वह पुणे से भागकर बंगलुरू आयी थी और घरेलू नौकर से लेकर फैक्ट्री तक में काम करके अपना पेट पालती रही। लेकिन 2005 में "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' के एक कैंप में शामिल होने के साथ उसकी जिंदगी बदल गयी। अब उसे मूर्तिकला, पेंटिंग, नृत्य-संगीत, फोटोग्राफी और क्लेमॉडलिंग में महारत हासिल है। उसकी बनायी कलाकृतियों और चित्रों की प्रदर्शनी लगती है। नन्हीं शिल्पा और मीना पहले ट्रैफिक सिग्नल पर गुलाब के फूल बेचा करती थीं, लेकिन अब वे दूसरी कक्षा में पढ़ाई कर रही हैं। फजल पहले एक ड्रग-एडिक्ट था, अब भी पूरी तरह से नशे की गिरफ्त से आजाद नहीं हुआ है। लेकिन, "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' ने उसे भविष्य के प्रति आशावान जरूर बना दिया है। अक्तूबर 2009 में 25 बिहारी बाल बंधुआ मजदूरों को मैजेस्टिक के बैग बनाने की फैक्ट्री से छुड़ाया गया। उन्हीं में एक गज भी था। पांच सौ रुपये में गज को बच्चों के स्कूल बैग बनाने वाली फैक्ट्री में काम करने के लिए बेचा गया था। वह जिमनास्टिक में कर्नाटक राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहा है।
वेंकटेश, मारप्पा, श्रीनिवास, रेशमा, संजना, एंथनी, प्रशांत, एलिजाबेथ, गौरी गंजेला, रंजीता, चन्ना बासव्वा, पीटर, अनीता, जयराम, रॉबिन बालू, किरण जेके, रवि, जलाली जैसे कई और नाम हैं, जिनकी जिंदगियां बाल-मजदूरी, गरीबी और नशे की लत के शिकंजे से निकल कर अब खुली-ताजी हवा में सांस ले रही हैं, खिलखिला रही हैं। इसका सारा श्रेय बंगलुरू के "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' और उसके संस्थापक जॉन देवराज को जाता है।
दरअसल, "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' अपने आप में एक अनोखी पहल है। यह सड़कों और फुटपाथों पर रहने वाले बच्चों और बाल-मजदूरी और बंधुआ मजदूरी करने वाले बच्चों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रहा है। वह भी गीत-संगीत, नृत्य, थियेटर, फोटोग्राफी, पेंटिंग, फिल्ममेकिंग, क्ले-मॉडलिंग और मूर्तिकला के जरिये। जॉन खुद जाने-माने कलाकार हैं। वे मूर्तिकला, पेंटिंग, संगीत, फोटोग्राफी, थियेटर और कला निर्देशन में पारंगत हैं। उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की, लेकिन मन लगा तो रंगों, रेखाओं और आकारों की दुनिया में। आखिरकार उन्होंने अपना जीवन उन बच्चों के नाम कर दिया, जो अपने बुनियादी हकों से वंचित हैं। जॉन को बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए एक दशक से भी ज्यादा हो गया। सड़कों और फुटपाथ पर रहने वाले अनाथ बाल-मजदूर बच्चों के लिए और हजारों बच्चों को बाल-मजदूरी से निकाल कर मुख्यधारा में वापस लाने की कोशिश के बारे में जॉन कहते हैं, "मैं आंध्र प्रदेश का हूं, जहां एक दशक पहले चक्रवातीय तूफान में लाखों लोग मारे गये थे। मेरे आसपास के भी सैकड़ों लोग मारे गये थे। इस घटना का मुझ पर बहुत असर हुआ। मैं स्वयंसेवक बनकर लोगों की मदद के साथ ही पेंटिंग भी करने लगा। मेरी कलात्मक अभिव्यक्तियों में उस घटना की गहरी छाप अब भी है। उस तबाही ने मुझे बेचैन किया। फिर कला ने ही मुझे थामा। मेरी समझ में तभी आ चुका था कि कला बहुत समृद्ध माध्यम है समाज को कुछ वापस लौटाने का। इसमें लोगों और समाज को बदलने की क्षमता है।'
जॉन ने 2006 में "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' की शुरुआत की। मकसद था सड़कों पर मारे-मारे फिरने वालों बच्चों और बाल-मजदूरी करने वाले बच्चों को कला की मार्फत शिक्षा देकर मुख्यधारा में लाना। जॉन कहते हैं, "देश के बजट का यानी हमारे संसाधनों का पचास फीसद हिस्सा हथियारों की खरीद में खर्च होता है। देश के भविष्य को दुरुस्त करने के लिए सरकारों के पास बजट नहीं होता। इसलिए मैंने बाल-मजदूरी से मुक्त कराये गये बच्चों के साथ मिलकर दुनिया का सबसे लंबा प्रेम-पत्र पाकिस्तान के बच्चों के नाम लिखा जिसमें युद्ध नहीं, बल्कि शिक्षा को दोनों देशों की प्राथमिकता बनाने की गुजारिश की गयी थी। उस पर दोनों देशों के लाखों बच्चों के हस्ताक्षर थे। आखिर दोनों देशों के साधनहीन गरीब तबके के बच्चों की हालात एक जैसी ही है।'
जॉन कहते हैं, "पूरी दुनिया में 21 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे बाल-मजदूरी कर रहे हैं। अकेले भारत में यह संख्या दस-बारह करोड़ से ऊपर है। यानी इसे खत्म करने के लिए बहुत बड़े स्तर पर काम करने की जरूरत है। लेकिन जॉन ने कला का माध्यम ही इन बच्चों को मुख्यधारा में लाने के लिए क्यों चुना? यह पूछने पर वे कहते हैं, "ऐसे बच्चे बहुत कठिन दुनिया में रहकर आते हैं। उनके अनुभव बहुत कड़वे होते हैं, ऐसे में कला मरहम का काम करती है। इन आहत बच्चों की आत्मा को "हील' करती है। सब स्वीकार करते हुए आगे बढ़ने और अपनी तकदीर खुद लिखने का हौसला देती है। ऐसा नहीं है कि हम केवल कलात्मक हुनर ही इन्हें सिखाते हैं, ये बच्चे स्कूलों में पढ़ते भी हैं।'
जॉन के लिए बगैर किसी किस्म की सरकारी सहायता या अनुदान के यह सब करना खासा मुश्किल काम रहा। लेकिन वे कहते हैं, "सबसे बड़ा सहयोग हमें वॉलंटियर्स से मिलता है, जो बगैर किसी चाहत के समाज को कुछ लौटाना चाहते हैं। फिलहाल हम यही चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा वॉलंटियर्स न सिर्फ बंगलुरू या कर्नाटक, बल्कि पूरे देश में हमसे जुड़ें और इसे आगे बढायें।'इसी साल फरवरी में ब्रिटेन की कलाकार सैडी ने एक महीने तक बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल के 20 बच्चों को चित्रकला और पेंटिंग सिखायी और बाद में इन बच्चों की पेंटिंग की प्रदर्शनी "फ्रीडम फ्रॉम टाइल-गुड लाइफ, बैड लाइफ' के नाम से लगी, जिसे स्थानीय लोगों के अलावा ऑस्ट्रेलिया, जापान, पोलैंड, इंग्लैंड, स्लोवाकिया जैसे देशों से आये लोगों ने भी देखा और सराहा। जॉन देवराज बच्चों के साथ मिलकर समय-समय पर कई आयोजन करते हैं, ताकि वे अपनी कला और रोजमर्रा के जीवन में उसकी प्रासंगिकता के बीच तालमेल बिठा सकें। इसी सिलसिले में हाल ही में जॉन ने बॉर्न फ्री बच्चों के साथ दुनिया का सबसे बड़ा मिट्टी का घड़ा लालबाग में बनाया इसे गिनीज बुक्स ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में शामिल भी किया गया है। पर्यावरण संरक्षण और पेड़ों की रक्षा के संदेश के साथ बना यह घड़ा 25 फीट ऊंचा है। इसका वजन दो हजार किलोग्राम है।
कभी नारियल पानी बेचने में अपने पिता की मदद करने वाला सुब्रमण्या आज एक अच्छा-खासा अभिनेता है। अभिनय में जल्दी ही डिप्लोमा करने की उसकी ख्वाहिश है। साथ ही वह अच्छी फोटोग्राफी और क्ले मॉडलिंग भी करता है। कुछ ऐसा ही किस्सा लॉ फ्रीडा शांति का भी है, जिनका असली नाम तो लक्ष्मी था पर जॉन देवराज ने उसमें फ्रीडा काहलो को देखा और फ्रीडा नाम दे दिया। फ्रीडा जॉन देवराज के "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' की आज मजबूत स्तंभ है। एक कलाकार होने के साथ ही स्कूल और हॉस्टल की तमाम जिम्मेदारियां बखूबी निभाती है। चार साल की उम्र में वह पुणे से भागकर बंगलुरू आयी थी और घरेलू नौकर से लेकर फैक्ट्री तक में काम करके अपना पेट पालती रही। लेकिन 2005 में "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' के एक कैंप में शामिल होने के साथ उसकी जिंदगी बदल गयी। अब उसे मूर्तिकला, पेंटिंग, नृत्य-संगीत, फोटोग्राफी और क्लेमॉडलिंग में महारत हासिल है। उसकी बनायी कलाकृतियों और चित्रों की प्रदर्शनी लगती है। नन्हीं शिल्पा और मीना पहले ट्रैफिक सिग्नल पर गुलाब के फूल बेचा करती थीं, लेकिन अब वे दूसरी कक्षा में पढ़ाई कर रही हैं। फजल पहले एक ड्रग-एडिक्ट था, अब भी पूरी तरह से नशे की गिरफ्त से आजाद नहीं हुआ है। लेकिन, "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' ने उसे भविष्य के प्रति आशावान जरूर बना दिया है। अक्तूबर 2009 में 25 बिहारी बाल बंधुआ मजदूरों को मैजेस्टिक के बैग बनाने की फैक्ट्री से छुड़ाया गया। उन्हीं में एक गज भी था। पांच सौ रुपये में गज को बच्चों के स्कूल बैग बनाने वाली फैक्ट्री में काम करने के लिए बेचा गया था। वह जिमनास्टिक में कर्नाटक राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहा है।
वेंकटेश, मारप्पा, श्रीनिवास, रेशमा, संजना, एंथनी, प्रशांत, एलिजाबेथ, गौरी गंजेला, रंजीता, चन्ना बासव्वा, पीटर, अनीता, जयराम, रॉबिन बालू, किरण जेके, रवि, जलाली जैसे कई और नाम हैं, जिनकी जिंदगियां बाल-मजदूरी, गरीबी और नशे की लत के शिकंजे से निकल कर अब खुली-ताजी हवा में सांस ले रही हैं, खिलखिला रही हैं। इसका सारा श्रेय बंगलुरू के "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' और उसके संस्थापक जॉन देवराज को जाता है।
दरअसल, "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' अपने आप में एक अनोखी पहल है। यह सड़कों और फुटपाथों पर रहने वाले बच्चों और बाल-मजदूरी और बंधुआ मजदूरी करने वाले बच्चों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रहा है। वह भी गीत-संगीत, नृत्य, थियेटर, फोटोग्राफी, पेंटिंग, फिल्ममेकिंग, क्ले-मॉडलिंग और मूर्तिकला के जरिये। जॉन खुद जाने-माने कलाकार हैं। वे मूर्तिकला, पेंटिंग, संगीत, फोटोग्राफी, थियेटर और कला निर्देशन में पारंगत हैं। उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की, लेकिन मन लगा तो रंगों, रेखाओं और आकारों की दुनिया में। आखिरकार उन्होंने अपना जीवन उन बच्चों के नाम कर दिया, जो अपने बुनियादी हकों से वंचित हैं। जॉन को बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए एक दशक से भी ज्यादा हो गया। सड़कों और फुटपाथ पर रहने वाले अनाथ बाल-मजदूर बच्चों के लिए और हजारों बच्चों को बाल-मजदूरी से निकाल कर मुख्यधारा में वापस लाने की कोशिश के बारे में जॉन कहते हैं, "मैं आंध्र प्रदेश का हूं, जहां एक दशक पहले चक्रवातीय तूफान में लाखों लोग मारे गये थे। मेरे आसपास के भी सैकड़ों लोग मारे गये थे। इस घटना का मुझ पर बहुत असर हुआ। मैं स्वयंसेवक बनकर लोगों की मदद के साथ ही पेंटिंग भी करने लगा। मेरी कलात्मक अभिव्यक्तियों में उस घटना की गहरी छाप अब भी है। उस तबाही ने मुझे बेचैन किया। फिर कला ने ही मुझे थामा। मेरी समझ में तभी आ चुका था कि कला बहुत समृद्ध माध्यम है समाज को कुछ वापस लौटाने का। इसमें लोगों और समाज को बदलने की क्षमता है।'
जॉन ने 2006 में "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' की शुरुआत की। मकसद था सड़कों पर मारे-मारे फिरने वालों बच्चों और बाल-मजदूरी करने वाले बच्चों को कला की मार्फत शिक्षा देकर मुख्यधारा में लाना। जॉन कहते हैं, "देश के बजट का यानी हमारे संसाधनों का पचास फीसद हिस्सा हथियारों की खरीद में खर्च होता है। देश के भविष्य को दुरुस्त करने के लिए सरकारों के पास बजट नहीं होता। इसलिए मैंने बाल-मजदूरी से मुक्त कराये गये बच्चों के साथ मिलकर दुनिया का सबसे लंबा प्रेम-पत्र पाकिस्तान के बच्चों के नाम लिखा जिसमें युद्ध नहीं, बल्कि शिक्षा को दोनों देशों की प्राथमिकता बनाने की गुजारिश की गयी थी। उस पर दोनों देशों के लाखों बच्चों के हस्ताक्षर थे। आखिर दोनों देशों के साधनहीन गरीब तबके के बच्चों की हालात एक जैसी ही है।'
जॉन कहते हैं, "पूरी दुनिया में 21 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे बाल-मजदूरी कर रहे हैं। अकेले भारत में यह संख्या दस-बारह करोड़ से ऊपर है। यानी इसे खत्म करने के लिए बहुत बड़े स्तर पर काम करने की जरूरत है। लेकिन जॉन ने कला का माध्यम ही इन बच्चों को मुख्यधारा में लाने के लिए क्यों चुना? यह पूछने पर वे कहते हैं, "ऐसे बच्चे बहुत कठिन दुनिया में रहकर आते हैं। उनके अनुभव बहुत कड़वे होते हैं, ऐसे में कला मरहम का काम करती है। इन आहत बच्चों की आत्मा को "हील' करती है। सब स्वीकार करते हुए आगे बढ़ने और अपनी तकदीर खुद लिखने का हौसला देती है। ऐसा नहीं है कि हम केवल कलात्मक हुनर ही इन्हें सिखाते हैं, ये बच्चे स्कूलों में पढ़ते भी हैं।'
जॉन के लिए बगैर किसी किस्म की सरकारी सहायता या अनुदान के यह सब करना खासा मुश्किल काम रहा। लेकिन वे कहते हैं, "सबसे बड़ा सहयोग हमें वॉलंटियर्स से मिलता है, जो बगैर किसी चाहत के समाज को कुछ लौटाना चाहते हैं। फिलहाल हम यही चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा वॉलंटियर्स न सिर्फ बंगलुरू या कर्नाटक, बल्कि पूरे देश में हमसे जुड़ें और इसे आगे बढायें।'इसी साल फरवरी में ब्रिटेन की कलाकार सैडी ने एक महीने तक बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल के 20 बच्चों को चित्रकला और पेंटिंग सिखायी और बाद में इन बच्चों की पेंटिंग की प्रदर्शनी "फ्रीडम फ्रॉम टाइल-गुड लाइफ, बैड लाइफ' के नाम से लगी, जिसे स्थानीय लोगों के अलावा ऑस्ट्रेलिया, जापान, पोलैंड, इंग्लैंड, स्लोवाकिया जैसे देशों से आये लोगों ने भी देखा और सराहा। जॉन देवराज बच्चों के साथ मिलकर समय-समय पर कई आयोजन करते हैं, ताकि वे अपनी कला और रोजमर्रा के जीवन में उसकी प्रासंगिकता के बीच तालमेल बिठा सकें। इसी सिलसिले में हाल ही में जॉन ने बॉर्न फ्री बच्चों के साथ दुनिया का सबसे बड़ा मिट्टी का घड़ा लालबाग में बनाया इसे गिनीज बुक्स ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में शामिल भी किया गया है। पर्यावरण संरक्षण और पेड़ों की रक्षा के संदेश के साथ बना यह घड़ा 25 फीट ऊंचा है। इसका वजन दो हजार किलोग्राम है।
वाह, सार्थक पहल..
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