(published in Public Agenda)
अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व प्रमुख जी माधवन नायर से मनोरमा की बातचीत
एंट्रिक्स-देवास सौदे में हुई अनियमितता के मद्देनजर केंद्र सरकार ने हाल ही में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र, (इसरो) के पूर्व प्रमुख जी माधवन नायर को जिम्मेदार ठहराते हुए नायर समेत चार वैज्ञानिकों की किसी भी सरकारी पद पर नियुक्ति पर रोक लगा दी है। बंगलुरू में माधवन नायर से इस विषय पर बातचीत के मुख्य अंशः
देवास को ही सौदे के लिए क्यों चुना गया?
यह कहा जा रहा है कि सौदे में पारदर्शिता नहीं बरती गयी।ऐसा बिल्कुल नहीं है। उस समय एक नयी तकनीक या प्रौद्योगिकी को देश में लाने का विचार था। सन् 2002 की सैटेलाइट नीति बनायी ही गयी थी सैटेलाइटों के निजी परिचालन को प्रोत्साहित करने के लिए।
अगर कोई भी निजी ऑपरेटर इसरो से ट्रांसपोंडर उपलब्ध कराने को कहता तो इसरो उपलब्ध कराता और न होने की स्थिति में किराये पर लेकर उपलब्ध कराता है। साथ ही, किसी भी इसरो कर्मचारी को अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी से संबंधित उद्योग शुरू करने की अनुमति दी गयी और कहा कि उन्हें अपेक्षाकृत कम लागत पर अंतरिक्ष तकनीक मुहैया करायी जायेगी। देवास सौदे के पहले से ही इसरो एस बैंड संचार के लिए सैटेलाइट तकनीक विकसित कर रहा था और दिसंबर 2010 से पहले एस-बैंड स्पेक्ट्रम और परिक्रमा स्लॉट का इस्तेमाल करना भी अनिवार्य था।एक बार ऐसा सैटेलाइट विकसित हो जाने के बाद हमें सर्विस मुहैया कराने वाले चाहिए थे। 2002-2004 में ऐसा कोई नहीं था। सौदा सभी के लिए खुला था, लेकिन कोई नहीं आया।
यह सौदा देवास को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। इसी दौरान डॉ शंकर के अधीन एक टीम बनी और तकनीकी टीम के प्रस्तावों के आधार पर एंट्रिक्स नाम से इसरो की व्यावसायिक शाखा बनी। यह सौदा एंट्रिक्स के मार्फत हुआ और इसके लिए पूरी प्रक्रिया का पालन हुआ, जिसमें अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग लोगों और विभागों की अपनी-अपनी भूमिका रही। इसके अलावा सौदे के लिए राशि तय करते समय इस बात का ध्यान रखा गया था कि सरकार को कोई नुकसान न हो। साथ ही पूरे निवेश पर सरकार को दस से पंद्रह फीसद लाभ हासिल हो।
क्या यह सौदा पूरी तरह से देवास के पक्ष में था?
नहीं, बिल्कुल नहीं। उस समय यह तकनीक केवल जापान के पास थी। हमें सात सौ करोड़ का चेक ऑडिटर के मार्फत मिला था। देवास को चुनने का कारण यह था कि किसी और कंपनी की ओर से बोली नहीं लगायी गयी थी और देवास ने यह भरोसा दिया था कि वह यह तकनीक देश में लायेगी। दरअसल, जब हम सैटेलाइट आधारित संचार तकनीक लेकर आये थे, तब बाजार में उसका कोई खरीदार नहीं था, केवल दूरदर्शन और टाटा स्काई थे। हमने "पहले आओ, पहले पाओ' के तहत आनेवाली अकेली कंपनी देवास के साथ समझौता कर लिया जबकि इस अनुबंध के लिए कोई भी बोली लगा सकता था।
इस पूरे मसले में आपकी भूमिका क्या रही?
मैं इस सौदे के दौरान इसरो का प्रमुख था और एंट्रिक्स का अध्यक्ष इसरो का प्रमुख ही होता है। लेकिन कोई भी प्रस्ताव पहले तकनीकी समीक्षा के लिए जाता है। फिर वित्त मंत्रालय के पास जाता है। इसके बाद सभी अपनी सिफारिशें इसरो प्रमुख के पास भेजते हैं। इसके अलावा अंतरिक्ष आयोग का अध्यक्ष इसरो का प्रमुख होता है। प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रमुख सचिव और मंत्रिमंडल सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, वित्त सदस्य और अंतरिक्ष विभाग के अतिरिक्त सचिव भी इसके बोर्ड में होते हैं। इसरो की व्यावसायिक शाखा एंट्रिक्स और देवास के बीच 2005 में हुए करार के तहत कंपनी को 70 मेगाहर्टज एस-बैंड स्पेक्ट्रम डिजीटल मल्टीमीडिया सेवाओं के लिए बीस साल के लिए दिया गया था। इस करार पर मुहर एंट्रिक्स के बोर्ड ने मिलकर लगायी थी। मेरी भूमिका यही थी।
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी यह सौदा खतरा था?
नहीं।240 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम पहले भी सेना और रक्षा संबंधी जरूरतों के लिए निर्धारित था और 70 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम को ही व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए रखा गया था।
एक साल के बाद यह करार फिर से सुर्खियों में है। इसके पीछे क्या वजह है?
मैंने इस मसले का ट्रैक रिकॉर्ड नहीं रखा। सन् 2010 में यह मसला बाहर आया। एक बात और बाहर आ रही है - 2010 में जब मैं अध्यक्ष नहीं था, यूरोप से एक कंपनी आयी। दरअसल 2010 में ही अंतरिक्ष विभाग ने अगर कोई स्पष्टीकरण दिया होता तो यह विवाद होता ही नहीं। चतुर्वेदी समिति ने भी कहा है कि उस समय कोई कार्रवाई नहीं की गयी। अब जाकर किसी ने उन बातों का नोटिस लिया लेकिन सारा दोष उन लोगों के माथे मढ़ दिया जिन्होंने इस प्रक्रिया की शुरुआत की थी।
इस विवाद पर आपका रुख क्या है?
मेरा कोई निजी एजेंडा नहीं है। लेकिन जो भी कहा जा रहा है, उससे मेरा गंभीर विरोध है। केवल प्रक्रिया में बरती गयी खामियों पर बात की जा रही है। जो लोग इसमें शामिल रहे हैं और जिम्मेदार हैं, उनके बारे में बात नहीं की जा रही। मैंने प्रधानमंत्री के पास अपील की है और उनके जवाब का इंतजार कर रहा हूं। मेरे लिए यह अपनी साख को बहाल करने और अपने सम्मान को बरकार रखने का सवाल है। मैंने 42 साल इसरो के लिए काम किया है और मुझे इस बात का गर्व है। मुझे भरोसा है कि मैं इस विवाद से बेदाग बाहर निकलूंगा।
अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व प्रमुख जी माधवन नायर से मनोरमा की बातचीत
एंट्रिक्स-देवास सौदे में हुई अनियमितता के मद्देनजर केंद्र सरकार ने हाल ही में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र, (इसरो) के पूर्व प्रमुख जी माधवन नायर को जिम्मेदार ठहराते हुए नायर समेत चार वैज्ञानिकों की किसी भी सरकारी पद पर नियुक्ति पर रोक लगा दी है। बंगलुरू में माधवन नायर से इस विषय पर बातचीत के मुख्य अंशः
देवास को ही सौदे के लिए क्यों चुना गया?
यह कहा जा रहा है कि सौदे में पारदर्शिता नहीं बरती गयी।ऐसा बिल्कुल नहीं है। उस समय एक नयी तकनीक या प्रौद्योगिकी को देश में लाने का विचार था। सन् 2002 की सैटेलाइट नीति बनायी ही गयी थी सैटेलाइटों के निजी परिचालन को प्रोत्साहित करने के लिए।
अगर कोई भी निजी ऑपरेटर इसरो से ट्रांसपोंडर उपलब्ध कराने को कहता तो इसरो उपलब्ध कराता और न होने की स्थिति में किराये पर लेकर उपलब्ध कराता है। साथ ही, किसी भी इसरो कर्मचारी को अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी से संबंधित उद्योग शुरू करने की अनुमति दी गयी और कहा कि उन्हें अपेक्षाकृत कम लागत पर अंतरिक्ष तकनीक मुहैया करायी जायेगी। देवास सौदे के पहले से ही इसरो एस बैंड संचार के लिए सैटेलाइट तकनीक विकसित कर रहा था और दिसंबर 2010 से पहले एस-बैंड स्पेक्ट्रम और परिक्रमा स्लॉट का इस्तेमाल करना भी अनिवार्य था।एक बार ऐसा सैटेलाइट विकसित हो जाने के बाद हमें सर्विस मुहैया कराने वाले चाहिए थे। 2002-2004 में ऐसा कोई नहीं था। सौदा सभी के लिए खुला था, लेकिन कोई नहीं आया।
यह सौदा देवास को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। इसी दौरान डॉ शंकर के अधीन एक टीम बनी और तकनीकी टीम के प्रस्तावों के आधार पर एंट्रिक्स नाम से इसरो की व्यावसायिक शाखा बनी। यह सौदा एंट्रिक्स के मार्फत हुआ और इसके लिए पूरी प्रक्रिया का पालन हुआ, जिसमें अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग लोगों और विभागों की अपनी-अपनी भूमिका रही। इसके अलावा सौदे के लिए राशि तय करते समय इस बात का ध्यान रखा गया था कि सरकार को कोई नुकसान न हो। साथ ही पूरे निवेश पर सरकार को दस से पंद्रह फीसद लाभ हासिल हो।
क्या यह सौदा पूरी तरह से देवास के पक्ष में था?
नहीं, बिल्कुल नहीं। उस समय यह तकनीक केवल जापान के पास थी। हमें सात सौ करोड़ का चेक ऑडिटर के मार्फत मिला था। देवास को चुनने का कारण यह था कि किसी और कंपनी की ओर से बोली नहीं लगायी गयी थी और देवास ने यह भरोसा दिया था कि वह यह तकनीक देश में लायेगी। दरअसल, जब हम सैटेलाइट आधारित संचार तकनीक लेकर आये थे, तब बाजार में उसका कोई खरीदार नहीं था, केवल दूरदर्शन और टाटा स्काई थे। हमने "पहले आओ, पहले पाओ' के तहत आनेवाली अकेली कंपनी देवास के साथ समझौता कर लिया जबकि इस अनुबंध के लिए कोई भी बोली लगा सकता था।
इस पूरे मसले में आपकी भूमिका क्या रही?
मैं इस सौदे के दौरान इसरो का प्रमुख था और एंट्रिक्स का अध्यक्ष इसरो का प्रमुख ही होता है। लेकिन कोई भी प्रस्ताव पहले तकनीकी समीक्षा के लिए जाता है। फिर वित्त मंत्रालय के पास जाता है। इसके बाद सभी अपनी सिफारिशें इसरो प्रमुख के पास भेजते हैं। इसके अलावा अंतरिक्ष आयोग का अध्यक्ष इसरो का प्रमुख होता है। प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रमुख सचिव और मंत्रिमंडल सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, वित्त सदस्य और अंतरिक्ष विभाग के अतिरिक्त सचिव भी इसके बोर्ड में होते हैं। इसरो की व्यावसायिक शाखा एंट्रिक्स और देवास के बीच 2005 में हुए करार के तहत कंपनी को 70 मेगाहर्टज एस-बैंड स्पेक्ट्रम डिजीटल मल्टीमीडिया सेवाओं के लिए बीस साल के लिए दिया गया था। इस करार पर मुहर एंट्रिक्स के बोर्ड ने मिलकर लगायी थी। मेरी भूमिका यही थी।
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी यह सौदा खतरा था?
नहीं।240 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम पहले भी सेना और रक्षा संबंधी जरूरतों के लिए निर्धारित था और 70 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम को ही व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए रखा गया था।
एक साल के बाद यह करार फिर से सुर्खियों में है। इसके पीछे क्या वजह है?
मैंने इस मसले का ट्रैक रिकॉर्ड नहीं रखा। सन् 2010 में यह मसला बाहर आया। एक बात और बाहर आ रही है - 2010 में जब मैं अध्यक्ष नहीं था, यूरोप से एक कंपनी आयी। दरअसल 2010 में ही अंतरिक्ष विभाग ने अगर कोई स्पष्टीकरण दिया होता तो यह विवाद होता ही नहीं। चतुर्वेदी समिति ने भी कहा है कि उस समय कोई कार्रवाई नहीं की गयी। अब जाकर किसी ने उन बातों का नोटिस लिया लेकिन सारा दोष उन लोगों के माथे मढ़ दिया जिन्होंने इस प्रक्रिया की शुरुआत की थी।
इस विवाद पर आपका रुख क्या है?
मेरा कोई निजी एजेंडा नहीं है। लेकिन जो भी कहा जा रहा है, उससे मेरा गंभीर विरोध है। केवल प्रक्रिया में बरती गयी खामियों पर बात की जा रही है। जो लोग इसमें शामिल रहे हैं और जिम्मेदार हैं, उनके बारे में बात नहीं की जा रही। मैंने प्रधानमंत्री के पास अपील की है और उनके जवाब का इंतजार कर रहा हूं। मेरे लिए यह अपनी साख को बहाल करने और अपने सम्मान को बरकार रखने का सवाल है। मैंने 42 साल इसरो के लिए काम किया है और मुझे इस बात का गर्व है। मुझे भरोसा है कि मैं इस विवाद से बेदाग बाहर निकलूंगा।
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जवाब देंहटाएंअच्छी रही बातचीत!!
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