बुधवार, 7 सितंबर 2011

यह अभी शुरुआत है


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कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े से मनोरमा की बातचीत
कर्नाटक के लोकायुक्त पद से रिटायर हुए न्यायमूर्ति संतोष हेगड़े कर्नाटक में अवैध खनन पर अपनी जांच-रिपोर्ट के कारण चर्चा में रहे। हेगड़े जन लोकपाल विधेयक बनाने वाली संयुक्त समिति के सदस्य और अण्णा टीम के भी एक महत्वपूर्ण स्तंभ हैं। बातचीत के मुख्य अंश :

आप अण्णा की टीम और सरकार के बीच बातचीत में अहम भूमिका निभा रहे थे?
नहीं, मैं कोई मध्यस्थता नहीं कर रहा था और न ही मेरे पास सरकार की ओर से ऐसा कोई प्रस्ताव आया। मैं अण्णा की टीम में हूं और हम एक टीम के तौर पर बातचीत के लिए हमेशा से तैयार रहे हैं।

क्या अण्णा के अनशन में दुराग्रह नहीं था?
अण्णा बिल्कुल सही कर रहे थे। सरकार को लोकपाल विधेयक पर व्यापक बहस से गुरेज नहीं होना चाहिए। आखिरकार सर्वसम्मति का ही विधेयक संसद में पारित होगा। लेकिन लोगों को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है। संविधान ने सर्वोच्च सत्ता देश के नागरिकों को ही माना है और सरकार का यह कहना बेबुनियाद था कि हम लोग कानून बना रहे थे। हम सिर्फ सरकार को सुझाव दे रहे थे और संविधान ने ऐसा करने का हमें अधिकार दिया है। 

सरकार के रवैये पर आप क्या सोचते हैं?
जब यह आंदोलन शुरू हुआ था तो हमें उम्मीद नहीं थी कि लोगों का ऐसा साथ और समर्थन मिलेगा। जाहिर है, अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में आम आदमी भ्रष्टाचार से बेहद परेशान है। लोगों के पास अपनी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के पैसे नहीं हैं, लेकिन जनता के ही करोड़ों-अरबों रुपये राजनेता घोटाले करके लूट रहे हैं। इस आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में लोगों की हिस्सेदारी को इसी रूप में देखा जाना चाहिए। 

आप कर्नाटक के लोकायुक्त रहे हैं। क्या लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक में कोई समानता है?
कर्नाटक का लोकपाल रहते हुए मैंने सुओमोटो पावर के लिए काफी प्रयास किये। भाजपा सरकार से आश्वासन मिलने के बावजूद लोकायुक्त को मुख्यमंत्री या कैबिनेट के मंत्रियों के खिलाफ सुओमोटो पावर नहीं मिली। हां, उप-लोकायुक्त पहली श्रेणी के अधिकारियों और उससे नीचे चपरासी तक के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत होने पर संज्ञान ले सकते हैं। इसके बावजूद मुख्यमंत्री के खिलाफ भ्रष्टाचार की शिकायत विशेष लोकायुक्त अदालत में दर्ज होने के कारण उनके खिलाफ मामला बना। 

अण्णा की टीम अपने विधेयक पर इतनी क्यों अड़ी रही?
हम बहस और बातचीत के लिए हमेशा तैयार थे। हमारा तर्क था कि सरकार को अण्णा टीम द्वारा सौंपे गये लोकपाल विधेयक के आठ मुद्दों पर एतराज है तो ठीक है, उन्हें छह मुद्दों पर राजी होने दीजिए और संसद में लेकर आने दीजिए। वैसे भी हम यह नहीं कह रहे कि जन-लोकपाल विधेयक हमने जैसा दिया है, वही पारित हो। हम चाहते हैं कि संसद में इस पर बहस हो, सरकार हमारी मांग और जनभावनाओं को जाने-समझे।

लोकपाल विधेयक भ्रष्टाचार रोकने में कितना कारगर होगा?
यह सच है कि केवल इस विधेयक से देश और समाज से भ्रष्टाचार पूरी तरह से खत्म नहीं होगा, लेकिन कुछ तो फर्क पड़ेगा ही । 

इस आंदोलन के बाद आप लोगों की रणनीति क्या होगी?
हम चुनाव सुधार और सांसदों और विधायकों को वापस बुलाने या राइट टु रिकॉल के लिए मुहिम चलाने वाले हैं। अब हम रुकने वाले नहीं हैं। जनहित के अलग-अलग मुद्दों पर हम जनता को जागरूक करने उसके साथ मिलकर मुहिम चलाने का काम करते रहेंगे।

शुक्रवार, 24 जून 2011

एक छोटी-सी जीत


एक छोटी-सी जीत
[For Public Agenda]
ऐसा रोज-रोज नहीं होता जब समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोग अपने हक के लिए लड़ पाते हों और फिर जीत भी जाते हों। पर बंगलूरू की घरेलू कामगार पापम्मा की कहानी असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे लाखों लोगों के लिए  मील का पत्थर है। नौकरी से अचानक निकाल दिए जाने पर अदालत का दरवाजा खटखटाने वाली पापम्मा से मिलने जब हम बंगलूरू के लिंगराजपूरम इलाके की झुग्गी-बस्ती में गए तो ईंटों के मलबे से भरे प्लाट पर प्लास्टिक शीट से बनी छोटी सी एक झोपड़ी के आगे पतली-दुबली सावंले रंग की 65 साल की महिला बैठी मिली। उसकी ओर इशारा करके उसके बेटे नागराज ने कहा- मैडम, शी इज पापम्मा, माई मदर!  बगल में ही चोट लग जाने की वजह से 25 साल से बेरोजगार, पापम्मा के पति भी बैठे थे। पापम्मा की टूटी हिन्दी को उसका बेटा नागराज हमें अंग्रेजी में समझा दे रहा था। बात बेटे से ही शुरू हुई, पापम्मा कहने लगी- 12वीं तक पढ़ा है, हम दलित हिन्दु हैं पर छोटे बेटे ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है और यहीं किसी रियल इस्टेट ऑफिस  में काम करता है, इसे साढ़े पांच हजार रूपए मिलते हैं। पांच बच्चों में दो बेटे और दो बेटी  अपने-अपने परिवार के साथ रहते हैं जिन्हें किसी तरह पाल-पोष दिया था उसने। 22 साल तक 8 घंटे काम करने के एवज में महज 60 रूपए महीने की आमदनी पर सात लोगों का गुजारा, सोचने वाली बात है। इसलिए बच्चें छोटी उम्र से ही कुली का काम करने लगे और सबको बस रोटी मिलती रही। 2003 से पापम्मा को 500 रूपए मिलने षुरू हुए जबकि एक साल बाद 2004 में कर्नाटक सरकार ने घरेलू कामगारों के लिए 8 घंटे की न्यूनतम मजदूरी 2,279 तय कर दी। और 2007 में काम से निकाले जाने के छः महीने पहले, बार-बार कहने पर उसे 15 सौ मिलने शुरू हुए थे पर ये भी 2008 के सरकार के न्यूनतम मजदूरी के मानक से कम ही था। बहरहाल, ऐसा ही चलता रहता  अगर वो बीमार न पड़ती और 8 दिन काम पर ना जाती। नौंवे दिन जब वो काम करने गयी तो उसे गेटआउट कह दिया गया, बगैर कारण बताए। यहीं नहीं उन्होंने उसे पैसे देने से भी इनकार कर दिया, जबकि पापम्मा जब 60 रूपए पर काम करती थी, तो उसके मालिक उसे ये कहकर चुप करा देते थे कि जरूरत पर हम दे देंगे। 31 साल काम करने के बाद भी मिले इस अपमान और तिरस्कार ने उसे गहरी चोट दी।
अंततः पापम्मा अपने मामले को बंगलूरू के घरेलू मजदूर युनियन के पास ले गई।  युनियन  पापम्मा के मामले को अदालत ले गई जहां आखिर में फैसला पापम्मा के हक में हुआ। हालांकि पापम्मा को सेटलमेंट में 60 हजार रूपए ही मिले जबकि उसे 1 लाख 45 हजार मिलने चाहिए थे, पर ये भी अपनेआप में उल्लेखनीय है।
दरअसल, पापम्मा का मामला घरेलू काम करने वालों के हालात पर रोशनी डालता है। जहां सिर्फ मुंह से बोलकर सब तय होता है, कोई लिखित एग्रीमेंट नहीं होता और नौकरी पर होने का कोई रिकार्ड नहीं होता, ऐसे में शोषण होने पर कभी भी कुछ साबित ही नहीं किया जा सकता। देश के तमाम घरेलू कामगार इसी तरह से काम करते हैं जबकि इस क्षेत्र में काम करने वालों की तादाद लगभग 45 लाख है।  पर अभी तक सरकार के पास इनके लिए स्पष्ट कानून नहीं है, इन्हें किसी किस्म का सरकारी संरक्षण और आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है। पापम्मा कानूनी सहायता ले पायी तो उसकी वजह बंगलूरू में घरेलू कामगारों के मजबूत यूनियन का होना और इसी के मार्फत आल्टरनेटिव लाॅ फोरम जैसे संगठनों से मिली कानूनी मदद है। जबकि अक्सर ऐसे मामले रजिस्टर ही नहीं हो पाते, इसलिए यह जीत अपने-आप में एक मिसाल तो है ही। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये है कि बावजूद इसके पापम्मा के हालात अब भी नहीं बदले हैं। सब जानते हुए भी वो फिर से 800 रूपए महीना पर चार घंटे रोजाना काम कर रही है। छः महीने पहले स्थानीय कारपोरेटर लावण्या गणेश  रेड्डी के आश्वाशन पर उसने अपना अस्थायी कच्चा घर तोड़ दिया था पर मकान बनाने के लिए कॉर्पोरटर फंड से पैसा नहीं मिला है।  अब वो डेढ़ हजार के किराये के एक कमरे में रहती है और बेटे के दिए दो हजार और अपने 8 सौ में से किराया देने के बाद 1300 रूपए में पति के साथ गुजारा करती है। ऐसा क्यों?े यह पूछने पर वह कहती हैं-इससे ज्यादा इस इलाके में कोई देने का तैयार नहीं होता, या तो मुझे इतने पर ही काम करना होगा या फिर घर बैठना होगा। घर बैठने से काम नहीं चलेगा और ज्यादा दूर काम करने मैं जा नहीं सकती। आल्टरनेटिव लाॅ फोरम की ओर से पापम्मा को कानूनी मदद देने वाली मैत्रेयी कृष्णन कहती हैं दरअसल, ये बहुत ही जटिल मसला है और बगैर किसी स्पष्ट कानून के किसी को न्याय दिलाना मुश्किल है। सबसे बड़ी दिक्कत तो घरेलू कामगार की पहचान की है। ऐसे में कोई भी पलट सकता है कि अमुक उसके यहां नौकरी नहीं करती है। दूसरी ओर सरकार ने 8 घंटे काम के एवज में लगभग 3 हजार न्यूनतम मजदूरी इनके लिए तय की है जबकि सरकार का ही मानना है कि बंगलूरू में गुजारे के लिए कम से कम 6 हजार रूपए मासिक जरूरी है। न्यूनतम मजदूरी के मानक का पालन अभी भी नहीं हो रहा। और इससे भी बड़ा सवाल उनके सम्मान का है जो कोई कोर्ट नहीं उनसे काम लेने वालें ही दे सकते हैं।  इसके लिए इनके प्रति नजरिए में बदलाव की जरूरत होगी।  मैत्रेयी कहती हैं हालांकि कर्नाटक में घरेलू कामगारों का यूनियन काफी मजबूत है और यहां जागरूकता भी है, इसलिए हफ्ते में एक दिन की छुट्टी इन्हें यहां मिल जाती है पर अभी भी काफी कुछ किया जाना बाकी है।
कर्नाटक घरेलू कामगार अधिकार यूनियन की गीता मेनन भी यही मानती हैं कि  सुधार सोच में बदलाव से ही संभव है और उस ओर पहला कदम यही होगा कि इन्हें नौकर नहीं बल्कि कामगार या श्रमिक समझा जाए। अपनी बेहतरी के लिए इनका संगठित होना बेहद जरूरी है तभी ये अपने हक के लिए लड़ पाएंगे।
वैसे, कर्नाटक घरेलू कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी मानक लागू करने वाला पहला राज्य है। लेकिन छः साल में न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलने का कोई भी मामला दर्ज नहीं हुआ है, इससे हकीकत समझा जा सकता है। दूसरी ओर केन्द्रीय श्रम मंत्री एम मल्लिकार्जून खाड़गे सबसे गरीब तबके के मजदूरों के लिए बनायी गई राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना जो कर्नाटक को छोड़कर 24 राज्यों में लागू है के तहत घरेलू कामगारों को भी लाने की बात कर रहे हैं। पर कर्नाटक में तो अभी मनरेगा के मजदूर ही इससे बाहर हैं।
बहरहाल, इसी साल अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में पूरे विश्व के घरेलू कामगारों के लिए सम्मानजनक कार्यदशा  मुहैया कराने के लिए नया अंतरराष्ट्रीय कानून लाए जाने की चर्चा है। जबकि भारत में अभी भी ठोस कानून नहीं है। राष्ट्रीय सलाहकार समिति की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने हाल ही में प्रधानमंत्री  को प्रस्तावित राष्ट्रीय घरेलू कामगार नीति के तहत घरेलू कामगारों को व्यापक श्रम अधिकारों के ढ़ाचें में लाए जाने का सुझाव दिया है जिसके तहत बराबर भुगतान, काम करने की जगह पर यौन-शोषण  और अन्य शोषण के खिलाफ संरक्षण ,हफ्ते में एक और साल में 15 अवकाश देने का भी सुझाव दिया है। प्रस्तावित नीति की घोषणा के बाद हालात,  हो सकता है थोड़ा बदलें।




बंगलूरू में घरेलू कामगारों को सबसे पहले संगठित करने वाली और उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली सामाजिक कार्यकर्ता और बंगलूरू गृह कार्मिक संघ की संस्थापिका रूथ मनोरमा से बातचीत
-कर्नाटक में घरेलू कामगारों की स्थिति क्या है?
बंगलूरू में घरेलू कामगारों की संख्या 3 लाख के करीब है, जिनमें से ज्यादातर किसी यूनियन से रजिस्टर्ड नहीं हैं। पर फिर भी यहां घरेलू कामगारों के युनियनों की मजबूत मौजूदगी है और इनके हक की लड़ाई में इनका सार्थक हस्तक्षेप है। कर्नाटक सरकार द्वारा न्यूनतम मजदूरी तय किये जाने को हम अपनी इस लड़ाई में एक महत्वपूर्ण कदम मानते हैं। यहां जागरूकता और हमारे काम से थोड़ा फर्क तो आया है और हालात बाकी जगह से कुछ बेहतर हैं।

-बंगलूरू गृह कार्मिक संघ की इसमें क्या भूमिका रही?
-1987 में हमने इसकी नींव रखी और तबसे हमारी लड़ाई जारी है। इससे पहले 1986 में पुलिस में घरेलू कामगारों का रिकार्ड और फोटो दिए जाने का आदेश  हुआ था। हमने वीमेन व्वाईस के जरिए इसका विरोध किया, क्योंकि ये इन कामगारों के सम्मान के खिलाफ था इसके बदले लेबर ऑफिस में इन्हें रजिस्टर्ड किया जाना चाहिए। खैर, वो आदेश  वापस ले लिया गया। न्यूनतम मजदूरी तय होना बंगलूरू गृह कार्मिक संघ की जीत रही है।
-न्यूनतम मजदूरी के बाद अगली मांग क्या है?
हम घरेलू कामगारों को असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सूची में लाना चाहते हैं। राष्ट्रीय घरेलू कामगार अधिनियम पर हमारी नजर है। और राज्य सरकार की पहल पर भी। हमारी मांग इन्हें सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाए जाने की है। निर्माण क्षेत्र के मजदूरों को लेबर ऑफिस से मिलने वाले पहचान पत्र की तरह ही इन्हें भी आईडेंटिफिकेशन कार्ड मिलना चाहिए। इससे इन्हें 17 फायदें मिलेंगे। साथ ही प्रवासी कामकारों को सरकार की ओर से पूर्ण संरक्षण मिलना चाहिए
- बंगलूरू गृह कार्मिक संघ कामगारों को आर्थिक मदद भी मुहैया कराता है?
हम सदस्यों की आर्थिक मदद भी करते हैं, पर हमारे पास लाए गए मामलों में हम कानूनी मदद करते हैं। इनके सामाजिक, पारिवारिक मसलों में भी हस्तक्षेप करते हैं। लेकिन सरकार के पास इनकी मदद के लिए कोई फंड नहीं है। हम चाहते हैं कि सरकार मामूली सेस लगाकर इनके लिए कोई फंड बनाए और जरूरत पड़ने पर इनकी आर्थिक मदद करें।  

गुरुवार, 23 जून 2011

चंदन के तस्कर


(Published in Public agenda)
कभी दक्षिण-भारत के जंगलों में आतंक का पर्याय रहे और जंगल का राजा कहे जाने वाले वीरप्पन को मरे हुए 7 साल हो चुके हैं। अपने जीवनकाल में दस हजार टन से भी ज्यादा चंदन की लकड़ी की तस्करी करने वाले वीरप्पन ने कर्नाटक, तमिलनाडू और केरल के जंगलों से चंदन के पेड़ों की सफाई करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी, पर उसके जाने के बाद भी यहां एक नहीं बल्कि कई वीरप्पन सक्रिय हैं, जो रातों-रात बंगलूरू जैसे  शहर में विधानसभा से सटे वीवीआईपी इलाके से भी चंदन के पेड़ काट ले जाते हैं और उनका कोई कुछ नहीं कर पाता। हाल ही में तस्करों ने यहाँ चंदन के 3 पेड़ रातों रात काट डाले। जिसमें से एक तो  विधानसभा और हाई कोर्ट के सामने कब्बन पार्क जैसे इलाके  में था।  सार्वजनिक जगह पर साबुत बचा यह शहर का इकलौता चंदन का पेड़ था और जिसकी सुरक्षा में हमेशा  एक सशस्त्र सुरक्षाकर्मी भी तैनात रहता था। और 2 पेड़ सीवी रमण नगर इलाके के एक घर के अहाते से बंदुक की नोक पर काट लिया गया। एक पेशेवर तस्कर  केवल 3 मिनट में परिपक्व चंदन का पेड़ को काट डालता है। आईआईएम बंगलूरू के कैंपस से भी चंदन के पेड़ काट लिए जाते हैं । यहां तक कि इन्सटीट्यूट ऑफ वुड साईंस एंड टेकनॉलजी से भी पांच परिपक्व चंदन के पेड़ों को काटने की कोशिश की गई। सरकार द्वारा अभी भी तमाम सरकारी जमीन और भवनों के अहाते में चंदन के पेड़ लगाए गए हैं पर इन्हें तस्करी से बचाना बड़ा काम है। अभी भी तुराहल्ली के जंगल, बंगलूरू विश्वविद्यालय परिसर, जीकेवीके कैपस, इन्सटीट्यूट ऑफ वुड साईंस एंड टेकनॉलजी और इबलुर में चंदन के पेड़ों की ठीक-ठाक संख्या है जो कुछ सालों में परिपक्व हो जाएंगे पर ये तस्करों से बच पाएंगे या नहीं ये बड़ा सवाल है। अभी के हालात देखकर तो यही लगता है कि तस्करों के हौसले सरकार से ज्यादा बुलंद हैं। कर्नाटक फारेस्ट सेल के रिकार्ड के मुताबिक 2007 में राज्य में चंदन की लकड़ी की तस्करी के 88 मामले सामने आए थे जो 2008 में 191 हो गए लेकिन 2009 में 102 मामले ही दर्ज हुए। लेकिन मामलों में कमी इसलिए नहीं आयी कि पुलिस-प्रशासन ज्यादा मुस्तैद हो गया बल्कि इसलिए कि दिनों दिन चंदन के पेड़ घटते जा रहे है। असलियत ये है कि राज्य के जंगलों में संभवतः गिने-चुने ही प्राकृतिक रूप से उगे चंदन के पेड़ बचे हों या शायद  वो भी नहीं। जबकि कर्नाटक के उत्तरी इलाके में कभी हजारों किलोमीटर तक चंदन के जंगल हुआ करते थे।

अभी एक दशक पहले तक ही बंगलूरू में 97 बड़़े और पुराने चंदन के पेड़ हुआ करते थे जिसमें 21 कब्बन पार्क में थे। लेकिन जल्दी ही इनकी संख्या 21 से 6 रह गई, धीरे-धीरे सब माफियाओं की भेंट चढ़ते गए। और आखिरकार इकलौता पेड़ भी उनकी नजर हो गया। हांलाकि कब्बन पार्क और लाल बाग जैसी जगहों में चंदन के और पेड़़ है पर उन्हें लगाए कुछ ही साल हुए है और वो अभी परिपक्व नहीं हुए हैं।
चंदन, कर्नाटक की पहचान और संस्कृति का हिस्सा रहा है। सिल्क के साथ-साथ कर्नाटक अपने मैसूर सैंडल सोप और चंदन की लकड़ी से बनी खूबसूरत कलाकृतियां के लिए भी उतना ही जाना जाता है। यहां लाखों लोगों की रोजी रोटी, चंदन और इससे जुड़े कारोबार से चलती है मसलन, अगरबत्ती से लेकर  साबुन, टेल्कम पाउडर, परफ्यूम और ऐसे ही अनगिनत सौन्दर्य उत्पाद यहां बनते हैं। इसके अलावा चंदन की लकड़ी पर नक्काषी या इससे कलाकृतियां बनाने का काम भी यहां बड़े पैमाने पर होता है, दवाईयों में भी चंदन के तेल का इस्तेमाल होता है। यह कर्नाटक का राजकीय वृ़क्ष भी है। और मैसूर तो कर्नाटक का चंदन का षहर ही कहलाता है। देष का 70 प्रतिशत चंदन कर्नाटक ही मुहैया कराता रहा है। जो हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि दुनियां में सबसे बेहतरीन माना जाता है।  पर दिनों दिन बढती मांग और घटती आपूर्ति ने आज इस पेड़ के आस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है।
वैसे चंदन के पेड़़ भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं भी लगाए जा सकते हैं, केवल सही किस्म का चयन करना होता है। फिलहाल देश में 27 किस्म के चंदन के पेड़ पाएं जातें है। मध्यम उर्वर मिट्टी, और थोड़ी ढाल वाली जमीन ताकि जड़ों में पानी नहीं रूके इसके लिए उत्तम है। लेकिन शुष्क जलवायु दशाओं में पेड़ में बनने वाले हार्टवुड और तेल की गुणवत्ता जरूर बहुत उम्दा हो जाती है। कर्नाटक की आबो हवा और प्राकृतिक दशाएं चंदन के पेड़ों के लिए एकदम सटीक है। सदाबहार जंगल का यह पेड़ 40 से 50 फीट तक उंचा और 3 से 8 फीट मोटा होता है। थोड़ा बैंगनीपन लिए हुए इसके भूरे रंग के फूल सुंगधहीन होते हैं। प्राकृतिक  चंदन के पेड़ कम से कम 30 साल में परिपक्व होते है। जबकि प्लानटेशन के तहत उगाए गए चंदन के पेडों में़ दस से पन्द्रह साल के भीतर ही  25 किलो तक संुगधित हार्टवुड का निर्माण हो जाता है। लेकिन अब चंदन के पेड़ों की ऐसी किस्में भी विकसित कर ली गई हैं जो 12 साल में तैयार हो जाती है। चंदन की लकड़ी की बिक्री हार्टवुड, ब्रांचवुड, चिप्स और पाउडर के रूप में होती है। हार्टवुड से ही चंदन की कलाकृतियां और गहने बनाए जाते हैं जबकि छाल को पीसकर उससे अगरबत्ती बनती है। जड़ों से तेल निकाला जाता है। और पेड़ को खरोंच-खरोंच कर पाउडर जमा किया जाता है।
दरअसल, चंदन मतलब पैसा! एक ऐसा पेड़, जो आकार नहीं बल्कि वजन के हिसाब से बेचा जाता है। आज एक टन भारतीय चंदन की लकड़ी की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लगभग 45 लाख से भी ज्यादा है। पिछले 18 साल से सालाना लगभग 18 प्रतिशत की दर से इसमें  इजाफा हो रहा है। जबकि 1 लीटर चंदन के तेल की कीमत सवा लाख से उपर है। दो साल पहले तक प्रति टन चंदन की लकड़ी की कीमत 20 लाख रूपए थी। मोटे तौर पर एक एकड़ में चंदन लगाने पर 12 से 15 साल में 22 से 25 लाख तक खर्च आता है और मुनाफा ढ़ाई करोड़ से उपर। यही वजह है कि निजी क्षेत्र की कई कंपनियां चंदन के प्लानटेशन में उतर चुकी हैं। सूर्या विनायक इंडस्ट्रीज, डी एस समूह और नामधारी सीड्स लिमिटेड कर्नाटक के अलावा देश के अन्य राज्यों में बड़े पैमाने पर चंदन की खेती कर रही हैं। श्री श्री एग्री ग्रुप जैसी कंपनी तो बिहार में भी चंदन की खेती की योजना बना रही है। इसके अलावा भारत को चंदन के उत्पादन में सबसे बड़ी चुनौती आस्ट्रेलिया से मिलने वाली है। जहां बड़े पैमाने पर भारतीय चंदन की प्लानटेषन की गई है और 2012 से वहां के चंदन की पहली खेप बाजार में आनी शुरू  हो जाएगी।
कर्नाटक के कुल 20 फीसदी हिस्से में जंगल हैं और कुल वन-क्षेत्र के 10 फीसदी में कभी चंदन हुआ करते थे जो अब घटकर महज 5 फीसदी या उससे भी कम रह गया है। यानी चंदन के प्राकृतिक वन-क्षेत्र विलुप्त होने के कगार पर हैं। तस्करी का आलम जब बंगलूरू में ऐसा है तो सहज समझा जा सकता है राज्य के जंगल कितने सुरक्षित हैं।  चंदन उत्पादन में अग्रणी रहे कर्नाटक में पिछले तीन साल से लकड़ी की नीलामी ही नहीं हुई है। जाहिर है  दूसरे राज्यों और आयात करके काम चलाया जा रहा है पर लंबे समय तक कच्चे माल की आपूर्ति नहीं होने की सूरत में लाखों लोगों की रोजी-रोटी पर इसका सीधा असर होगा। इसलिए  चंदन उत्पादन को लेकर सरकार गंभीर हो गई है। और चंदन की खेती का रकबा डेढ़ हजार एकड़ से बढ़ा कर दो हजार एकड़ करने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही सरकार ने चंदन की लकड़ी के उत्पादों से होने वाले मुनाफे पर लगाए जाने वाले 50 फीसदी कर में भी रियायत दे दी है। और उत्पादक राज्य सरकार के अलावा अन्य एजेंसियों को भी चंदन की लकड़ी बेच सकता है। यहां तक कि विभिन्न सरकारी संस्थान भी अगर अपने परिसर में लगे चंदन के पेड़ों को हटाते हैं तो  राज्य का वन विभाग उन्हें इसका भुगतान करेगा।  इसके अलावा नेशनल मेडीसिनल प्लांट बोर्ड भारत सरकार की ओर से भी चंदन की खेती पर सबसिडी दी जाती है साथ ही सभी र्राष्ट्रीय बैंक चंदन के पेड़ लगाने की परियोजनाओं के लिए कर्ज भी मुहैया कराते हैं।
हालात को देखते हुए ही राज्य सरकार विधानसभा के अगले सत्र में कर्नाटक राज्य वृक्ष संरक्षण कानून में संशोधन करने जा रही है। राज्य के वन मंत्री सी एच विजयशंकर ने इस संबंध में बताया कि कानून के पारित हो जाने के बाद चंदन के पेड़ के मालिक अंतर्राष्ट्रीय कीमत के अनुसार अपने पेड़ की लकड़ी भी बेच सकेंगे। गौरतलब है कि कर्नाटक में 2001 में वृक्ष संरक्षण कानून में संशोधन कर अपनी जमीन पर लगाए गए चंदन के पेड़ का मालिकाना हक भूस्वामी को दे दिया गया था पर उसकी बिक्री पर सरकार का नियंत्रण है। इसके इस्तेमाल के लिए सरकारी मंजूरी जरूरी है। यही नहीं बगैर सरकारी मंजूरी के चंदन की लकड़ी अपने पास रखना या इसे कहीं ले जाना भी गैरकानूनी है। जाहिर है ऐसे में पेड़ को बेचना और फिर सरकार की ओर से पैसे का भुगतान बड़ी समस्या थी। इसलिए किसान चंदन की खेती से दूर रह रहे थे।  है। किसानों को इससे जोड़ने के लिए कानून में संशोधन समय की मांग है।
कुल मिलाकर चंदन की लकड़ी उगाने वालों के लिए आने वाला समय सबसे मुफीद साबित होने वाला है। बशर्ते अगर उनके पेड़ वीरप्पनों से बच जाएं।


शुक्रवार, 20 मई 2011

एक कदम तो उठाओ यारों...........

 एक चीनी कहावत है-अंधेरे को कोसने से बेहतर है मोमबत्ती जलाओ। यानी कोसने से बेहतर करना है। हमेशा  सरकार और सिस्टम को कोसने से कुछ नहीं होने वाला, करप्नश  का रोना रोने से भी कोई फायदा नहीं। अगर कुछ हो सकता है तो हमारे लिए बनायी गई योजनाओं, उसके लिए निर्धारित की गई रकम और उसे अपने विकास पर खर्च करने के तौर-तरीके जानने और उसके लिए माहौल बनाने से। कम से कम कर्नाटक के बेलगांव जिले के सिरागुप्पी गांव की पंचायत और वहां के लोग तो यही कहते हैं। हाल ही में इस गांव को न सिर्फ केन्द्र सरकार से माॅडल गांव  अवार्ड मिला है, बल्कि इसने गुगल अवार्ड भी हासिल किया है। ये अवार्ड सरकार की सभी योजनाओं को सफलतापूर्वक लागू करने और सभी बुनियादी सुविधाओं का लक्ष्य हासिल कर लेने वाले गांव को दिया जाता है।
दरअसल, विकास की सैकड़ों योजनाएं सरकार के पास है, हर साल बजट में इन योजनाओं के लिए रकम भी एलोकेट होती है पर ये भी सच है कि ये पैसा उन तक नहीं पहुंचता जिनके लिए ये योजनाएं बनती हैं, या फिर पहंुचता भी है तो नाममात्र को। यानी इन्हें इंप्लीमेंट करने वाला सिस्टम भ्रश्ट है। जबकि देश  की 72 फीसदी आबादी आज भी लगभग 6 लाख गांवों में रहती है। लेकिन फिर भी बुनियादी सुविधाओं तक उनकी पहंुच शहरों में रहने वाली आबादी जैसी नहीं है। लेकिन फिर भी विकास की भूख हो, जमाने के साथ कदम मिला कर चलने की ललक हो, साथ ही अपनी जड़ अपनी मिट्टी से भी उतना ही प्यार हो, तो सब संभव है। अब सिरागुप्पी गांव की ही बात करें तो, ये उसी कर्नाटक का हिस्सा है जिसे फिलहाल देश के भ्रष्टतम राज्यों में से एक समझा जाता है। लेकिन इसे भ्रष्ट कहने वाली पार्टी, जिसकी केन्द्र में सरकार है उसी ने इस गांव को सम्मानित भी किया है। यही नहीं कर्नाटक को पंचायती व्यवस्था को बेहतर ढंग से लागू करने वाला दूसरा राज्य होने का सम्मान भी दिया गया, जबकि पिछले साल कर्नाटक पहले स्थान पर था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भ्रष्ट तंत्र होने के बावजूद भी विकास के प्रति लोगों की चाहत को यहां नजरअंदाज करना इतना आसान नहीं। तभी तो स्वच्छता, पीने के पानी की सप्लाई, प्राइमरी एजुकेशन, रोड, महिलाओं और समाज के कमजोर तबके में साक्षरता का अनुपात जैसे मानकों पर यह गांव देश  भर में खरा उतर पाया और माॅडल गांव होने का रूतबा हासिल कर पाया। और यहीं से इस गांव की सक्सेस स्टोरी भी देश  के बाकी गांवों के लिए भी एक उदाहरण बन जाती है। क्योंकि विकास के लिए गांव की पंचायत ही नहीं बल्कि पूरे गांव ने एक होकर काम किया, पंचायत में कोई किसी दल का नहीं था और न गांव में कोई किसी समूह का। बस सबकी लाईन एक ही रही-सिरागुप्पी के तरक्की की लाईन। इस गांव की पंचायत और लोगों ने साबित किया कि सब अगर मिलकर एक लक्ष्य के लिए काम करें तो बदलाव जरूर ला सकते हैं। पिछले पांच साल में इस गांव ने 8 करोड़ अपने विकास पर खर्च किए।
सच तो ये है कि माॅडल गांव जैसा कोई अवार्ड होना ही नहीं चाहिए था, विकास के जिन मानकों पर ये अवार्ड दिया जाता है, हर गांव का ये बुनियादी हक है, पर ऐसा है नहीं। आज भी देष के लाखों गांव बिजली, सड़क, स्कुल, अस्पताल, और पीने के पानी की सप्लाई जैसे बुनियादी सुविधाओं से महरूम है। ऐसे में किसी गांव में घर-घर में नल होना, प््रााॅपर अंडरग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम होना,घर-घर में टाॅयलेट होना, कचरे का सिस्टेमेटिक ढंग से निपटान होना और अच्छी सड़के होना, निष्चिततौर पर देष के दूसरे गांवों के लिए सपने सरीखा ही है। लेकिन ये सब तभी संभव हो पाया जब पंचायत ने सरकार की सारी योजनाओं को पूरी पारदर्षिता के साथ लागू किया। और लोगों ने भी योजनाओं का किसी भी रूप में दुरूपयोग नहीं किया। सरकारी फंड के साथ-साथ इस गांव ने अपने एमपी और एमएलए फंड का भी बखूबी इस्तेमाल किया। फिर भी पैसा कम पड़ा तो अपने स्रोत से संसाधन जमा कर विकास के अपने लक्ष्यों को हासिल किया। यही नहीं केन्द्र सरकार की मनरेगा जैसी योजना को इस गांव ने 100 प््रातिषत क्षमता के साथ लागू किया है। गांव के प्राईमरी हेल्थ सेंटर में आपको एम्बूलेंस भी मिल जाएगा। 2290 घरों वाले इस गांव के  1335 घर में  नल हैं। गांव की साक्षरता दर 96 फीसदी है। दस हजार की आबादी वाले इस गांव में 70 सेल्फ हेल्प ग्रुप हैं। पंचायत में प्री युनिवर्सिटी काॅलेज, तीन हाई स्कूल, छः प््रााईमरी स्कूल और नौ आंगनबाड़ी सेंटर हैं। यहां बैंकों  की षाखाएं भी हैं  और पंचायत पूरी तरह से कंप्यूटराईज्ड है। साथ ही पानी पर चार्ज से पंचायत ने 7 लाख रूपए अर्जित किए।
षिरागुप्पी गांव ने अपनी सूरत, अपने लिए बनायी गई योजनाओं और उनके लिए आवंटित रकम का इस्तेमाल करके बदली है, देष के बाकी गांवों को यही याद रखने की जरूरत है।

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

तेरी याद में एक पेड़



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चाह हो तो राह मिल ही जाती है ये बात बंगलूरू की जैनेट एग्नेश्वरण पर पूरी तरह से लागू होती है। पेशे से लैंडस्केप कलाकार जैनेट स्वभाव से ही प्रकृति प्रेमीरही हैं। बंगलूरू के अपेक्षाकृत ज्यादा हरे.भरे इलाके कोरमंगला में रहनेवाली जैनेट इस गार्डन सिटी को तेजी से ग्रे सिटी में बदलते देख अपनी ओर से कुछ पहल करने की सोच रही थीं। शहरीकरण और विकास के नाम पर बुनियादी ढ़ांचा खड़ा करने के लिए बेहिसाब पेड़ों की कटाई इन दिनों यहां आम है। अपने आस.पास की हरियाली से प्यार करने वाले हर शख्स को यह बात खलती भी है पर पहल कुछ ही लोग कर पाते हैंए जैनेट भी ऐसे ही कुछ लोगों में से हैं जिन्होंने पेड़ों के कटने पर सवाल करने के बजाए पेड़ लगाने को तव्वजों दिया। नतीजा 2005 से अब तक वो बंगलूरू और इसके आस.पास 23 हजार 300 से ज्यादा पेड़ लगा चुकी हैं। दरअसल 2003 में अपने पति की मौत के बाद उनकी याद में उन्होंने पेड़ लगाने की शुरूआत की। फिर नवंबर 2005 में राजानेट एग्नेश्वरण  चैरिटेबल ट्रस्ट बनाया और ट्री फॉर फ्री नाम से एक संगठन की नींव रखी।  आज इस संगठन के साथ बंगलूरू की ग्रीन ग्रुप्स की कंपनियां जुड़ चुकी हैं और आईटी क्षेत्र में काम करने वाले कई युवा भी वालेन्टियर बन कर पेड़ लगाने की इस मुहिम में निजी तौर पर शामिल हो रहे हैं। जाहिर है परिदृष्य कुछ तो बदल रहा है और भविष्य के प्रति भी कुछ उम्मीद जग रही है। शायद हरियाली बची रहेगी।
जैनेट के लिए शुरूआत इतनी आसान भी नहीं रही। लोगों के पास जाना उन्हें अपने घर के सामने मुफ्त में पेड़ लगाने के लिए जगह देने के लिए राजी करना और फिर ये कहना कि पेड़ लगा देने के बाद क्या वो उसकी देखभाल करेंगे, सब मुश्किल था लेकिन कुछ लोग तैयार हुए और पहले साल वो 250 पेड़ लगाने में कामयाब हुईं। लेकिन अब सब उन्हें और उनके काम को जान गए हैंए खुद उन्हें फोन करके पेड़ लगाने के लिए बुलाते हैं। यहां तक कि किसान भी। जैनेट से जिस दिन बात हुई वो बंगलूरू की बाहरी सीमा पर होस्कोटे में पेड़ लगा कर लौटी थीं। और खुश  होकर बताया अब हम फलों के पेड़ भी लगा रहे हैं। किसानों के खेत में जाकर मुफ्त में कलमी आम के पौधें लगा रहे हैं इसलिए अब उनसे भी हमें बुलावा आ रहा है। बंगलूरू के हाउसिंग कॉम्पलेक्स में रहने वाले भी खुद उन्हें फोन कर पेड़ लगाने का आमंत्रण देने लगे हैं। हाल ही में इन्होंने ऐसे कई आवासीय परिसरों में पेड़ लगाएं जहां पहले एक भी पेड़ नहीं थें। लेकिन उन्हें पेड़ लगाने का बुलावा ज्यादातर बनरगटा और कनकपूरा से आता है जो अभी भी ज्यादा हरे.भरे हैं। जैनेट चाहती हैं कि उन इलाकों के लोग उन्हें बुलाएं जहां अब सचमुच हरियाली कम हो गई है। गौरतलब है कि जैनेट पौध नहीं बांटती हैं अगर आपके पास पेड़ के लिए जगह है तो वहां पेड़ लगाती हैं। उसके बाद देखभाल की जिम्मेदारी पेड़ लगाने के लिए बुलावा देने वाले पर होती है।  
ट्री फॉर फ्री  के अब लोकप्रिय होने का कारण पुछने पर जैनेट कहती हैं हमारा मकसद लोगों को भावानात्मक तौर पेड़ों से जोड़ कर उनकी तादाद में इजाफा करना है। तभी लगाए जाने के बाद इन पेड़ों को संरक्षण मिलेगा जो उनके बचे रहने की गारंटी होगी। पेड़ों से प्यार बढ़ाने के लिए वो किसी की याद में पेड़ लगाने की सलाह देती हैंए तोहफे में पेड़ देने और लेने को प्रोत्साहित करती हैं। वो कहती हैं हम पेड़ लगाने के पैसे नहीं लेते, लोगों को अपने साथ लेकर पेड़ लगाते हैं शायद यही वजह है कि लोग अब ज्यादा संख्या में जुड़ रहे हैं। कुछ बदलाव लोगों में पर्यावरण के प्रति आयी जागरूकता के कारण भी है। इस संदर्भ में जैनेट खासतौर पर आईटी कंपनियों के युवाओं की तारीफ करती हैं जो काम के अलावा अपने आस.पास को लेकर खासे सजग हैं और काम के बाद फुरसत पाते ही कुछ सकारात्मक करने की ख्वाहिश  रखते हैं। जैनेट के साथ साफ्टवेयर कंपनियों में काम करने वाले ऐसे 150 सदस्य हैं जो पेड़ लगाने में अपना सहयोग देते हैं। इसके अलावा याहू, जेपी मोर्गन, हार्ले डेविडसन और अब सेल जैसी कंपनियां भी पेड़ लगाने के इनके इस अभियान में सहयोग कर रही हैं। लेकिन सरकार से इन्हें किसी किस्म का सहयोग नहीं मिला है। जैनेट कहती हैं पिछले दो साल हमें सरकारी नर्सरी से बांस के पौध भी नहीं मिल रहे। यानी यह पूरा अभियान लोगों की अपनी प्रतिबद्धता और ग्रीन ग्रुप्स की कंपनियों के कॉरपोरेट सहयोग से चल रहा है। जैनेट की हरियाली की यह मुहिम धीरे.धीरे अपने पांव पसार रही है बंगलूरू के अलावा आस.पास के जिलों और तमिलनाडू में भी उन्होंने पेड़ लगाएं हैं चाहे तो आप भी उनकी इस मुहिम में http://www.treesforfree.org के मार्फत शामिल हो सकते हैं।

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

बूंद-बूंद सहेजने की टेक्नीक


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सूरज तप रहा है, धरती जल रही है और सारी दुनिया में वाटर क्राइसिस का शोर हो, ऐसे में कोई ये कहे कि पानी के लिए रोते क्यों हो, तुम्हारे पास पानी की कोई कमी नहीं है, तो किसी को यकीन नहीं होगा. बंगलुरू के अयप्पा महादेवप्पा मसागी यही कहते हैं. पानी की बूंद-बूंद को हर कदम पर सहेजने और बर्बादी से बचाने वाले अयप्पा को इसलिए वाटर गांधी कहा जाता है. जबकि देश के ज्यादातर हिस्सों में भंयकर गर्मी वाले दिनों की छोड़ें अब तो सर्दियों में भी पानी के लिए मुश्किल होती है. 
  
महानगरों में तो पूरे साल ही पर्याप्त वाटर-सप्लाई का टोटा रहता है. बंगलुरू भी इससे अछूता नहीं है पर अयप्पा जैसे लोगों ने एक सार्थक और जरूरी कदम इस दिशा में बढ़ाया है, जिसके नतीजे काफी उत्साहजनक और सभी के अमल में लाने योग्य हैं. दरअसल, बढ़ती आबादी और घटते जल-स्त्रोत के कारण पूरी आबादी को पानी की पर्याप्त आपूर्ति बहुत विकट समस्या बनती जा रही है. गौर करने वाली बात यह भी है कि पानी की कमी का रोना रोने के बावजूद वाटर डिस्ट्रीब्यूशन के दौरान पानी की बेशुमार बर्बादी की जाती है. बहरहाल, हम सब ये फैक्ट अच्छी तरह से जानते हैं, पर इस दिशा में कोई पहल नहीं कर पाते. बंगलुरू के अयप्पा महादेवप्पा मसागी ने ऐसा नहीं किया. नतीजा पानी सहेजने की इनकी छोटी-छोटी कोशिशों ने बहुत बड़ा फर्क पैदा किया अब इन्हें दुनिया वाटर गांधी के नाम से जानती है. पानी बचाने के लिए इन्होंने खुद ही बहुत इफेक्टिव और सस्ती तकनीक ईजाद की है, जबकि न तो ये टेक्निकली ट्रेंड हैं और ना ही इनके पास कोई बड़ी डिग्री है. 
  
वाटर क्राइसिस शब्द इस 54 वर्षीय शख्स के सामने कोई मायने नहीं रखता. पानी बचाने के लिए ये अब तक सौ से भी ज्यादा तकनीक का सफल प्रयोग कर चुके हैं. कर्नाटक के गदग जिले के गांव से ताल्लुक रखने वाले मसागी को बचपन की वो बात जरूर याद है, जब उन्हें सुबह-सवेरे 3 बजे ही 2 किलोमीटर चलकर पड़ोस के गांव से पानी लाना पड़ता था. हालांकि शुरुआत में संसाधनों की कमी के कारण वो पानी बचाने की दिशा में शौक के बावजूद कुछ नहीं कर पाए पर बाद में हालात बेहतर होने पर इन्होंने जिन टेक्नीक्स का ईजाद किया, उसे हाउसिंग सेक्टर के साथ-साथ इंडस्ट्रीज भी अपना रही हैं और पानी के खर्च के साथ-साथ पानी को सहेजने और बचाने पर भी उतना ही ध्यान दे रही हैं. मसलन, मसागी ने रिचार्ज सॉफ्ट टेक्नीक ईजाद की जो बेहद कारगर साबित हो रही है, जिसके तहत बोरवेल के पास ही सबसॉईल रिचार्जिग सिस्टम बनाया जाता है. 
  
यह प्रणाली रेनवाटर हारवेस्ंिटग सिस्टम और फिल्टर्ड ग्रे-वाटर से भी कनेक्टेड होती है. इनका मोटो एकदम सरल है और वो ये कि पानी की एक बूंद भी बेकार ना होने पाए, चाहे वो बारिश का पानी हो या फिर सोर्स से घरों के नलों तक पहुंचने वाला पानी. यहां तक कि बाथरूम और किचन में इस्तेमाल हो चुके ग्रे-वाटर का भी इस्तेमाल ये सुनिश्चित करा देते हैं. इनकी सक्सेस स्टोरी ये है कि अब तक 200 अपार्टमेंट, हजार से ज्यादा निजी मकान और 41 इंडस्ट्री ने इनकी तकनीक की मदद से पानी की किल्लत खत्म की है. जबकि 17 और प्रोजेक्ट पर काम जारी है. अगर उनकी बात मानें तो बंगलुरू में ही निर्माणाधीन मेट्रो प्रोजेक्ट के ट्रैक के प्रति किलोमीटर पर ये 3 करोड़ लीटर पानी सालाना बचा सकते हैं. इसके लिए केवल एक बार बीस लाख खर्च करना पड़ेगा. 1 स्क्वॉयर मीटर छत वाले घर में केवल एक बार दस हजार रुपए लगाने के बाद सालाना 1.2 लाख लीटर पानी बचाया जा सकता है. इनके काम को देखते हुए 2009 में इन्हें रूरल डेवलपमेंट में साइंस और टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के लिए नेशनल अवॉर्ड दिया गया. साथ ही दक्षिण अफ्रीका जैसे देश ने भी इन्हें अपने यहां जल-सरंक्षण तकनीक सिखाने के लिए बुलाया है. जाहिर है दुनिया को आज ऐसे कई वाटर गांधी की जरूरत है, ताकि पानी के लिए तीसरे विश्व-युद्ध की नौबत ना आने पाएं.

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

सुरों से सवंरता बचपन

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हममें से बहुत से लोग सफल होते हैं शोहरत और दौलत सब कमा लेते हैं पर जिस मिट्टी, जिस गांव, जिस देश , से हम आते हैं उसे उसका बकाया वापस लौटाने लिए बहुत कम ही लोग वापस मुड़ते हैं। अमेरिका के बे-एरिया में रहने वाले कर्नाटक के वादिराजा भट्ट और उनके दो दोस्त एच सी श्रीनिवास और अशोक कुमार ऐसे ही लोगों में से हैं। कुछ साल पहले अपनी मिट्टी का कर्ज चुकाने की जो छोटी सी मुहिम उन्होंने चलायी, अब उसका असर दिखने लगा है। और कर्नाटक और तमिलनाड् के दूर-दराज के गांवों के उन स्कूलों की सूरत बदलने लगी हैं जहां बच्चों को एक ही कमरे के टूटे-फृटे स्कूलों में पढ़ना होता था वो भी बगैर पानी, बिजली और टाॅयलेट जैसी बुनियादी सुविधाओं के। अब यही स्कूल पक्की इमारत में चल रहे हैं वो भी सभी बुनियादी सुविधाओं के साथ। इनकी इस मुहिम का नाम है ‘वन स्कूल एट ए टाईम’ या ‘ओसाट’।


दरअसल, कुछ करने की ख्वाहिश हो तो रास्ते निकल ही आते हैं। ऐसी हर सक्सेस स्टोरी के बारे में जानने-पढ़ने के बाद यही समझ आता है। इन तीन दोस्तों के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ, कुछ साल पहले जब ये कर्नाटक आएं तो भट्ट राज्य के दक्षिण कन्नडा जिले में स्थित अपने गांव बाजेगोली भी गए। लेकिन वहां के स्कूल की हालात देखकर उन्हें खासी परेशानी हुई। गांव के सारे बच्चों के लिए वहां एक ही स्कूल था, जो एक कमरे में चलता था अब वो कमरा भी एकदम खस्ताहालत में था। पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं तो बहुत दूर की बात थी। वापस अमेरिका आने पर उन्होंने संगीत के जरिए इस स्कूल के लिए फंड जमा करने की सोचा। और रागा नाम से एक संगीत मंडली बनायी। इसी तरह काटे नाम से थियेटर ग्रुप भी बनाया। संगीत और कल्चरल प्रोग्राम के जरिए उनकी फंड जमा करने की स्कीम रंग लायी जब अमेरिका में आयोजित रागा म्यूजिक कंसर्ट सुपरहिट रहा। बाजेगोली के खस्ताहाल स्कूल की हालात सुधरी तो बच्चों और उनके माता-पिता के चेहरे की मुस्कुराहट ने उन्हें अब इस काम को मिशन बनाने की प्रेरणा दी। अब तक ये ग्रूप पांच स्कूल की सूरत पूरी तरह से बदल चुका है। और दो स्कूल में इनका काम चल रहा है।

उनके काम करने का तरीका बहुत आसान है, तीनों पहले उस स्कूल का चयन करते हैं जिसका रिनोवेशन किया जाना है, फिर ऑथोरिटी बात करते हैं, स्थानीय लोगों और सुपरवाईजरों को इस काम से जोड़ते हैं और फिर स्थानीय रोटरी क्लब को इन्वाल्व कर उनकी मदद से काम पूरा करते हैं। इस प्रोग्राम की खासियत ये है कि कोई भी स्कूल का नाम रिनोवेशन के लिए सुझा सकता है। शर्त केवल यही है कि उस स्कूल से गरीब बच्चों को फायदा होना चाहिए और उस स्कूल के टीचर्स में बच्चों को बेहतर पढ़ाने और बेहतर शैक्षिणक माहौल देने की ललक होनी चाहिए। बहरहाल आने वाले समय में इनका लक्ष्य साल में पच्चीस स्कूलों के रिनोवेशन के सभी हिस्से में काम करने का है।

रविवार, 26 सितंबर 2010

येदुरप्पा का कैबिनेट विस्तार

तूफान से पहले की खामोशी!
कर्नाटक में येदुरप्पा ने आखिरकार महीनों से लंबित अपने कैबिनेट विस्तार को अंजाम दे ही दिया और वो भी बिल्कुल अपनी पसंद का ख्याल रखते हुए। ये और बात है कि कैबिनेट विस्तार से पहले पूरी राजनीतिक ड्रामेबाजी हुई। लेकिन अंत में सभी को येदुरप्पा के फैसले के साथ समझौता करना ही पड़ा। चाहे वो रेड्डी बंधु हों जिन्होंने पिछले साल शोभा करंदलाजे को मंत्रिमंडल से निकलवाकर और जगदीश शेट्टर को मंत्री बनवा कर ही दम लिया था और येदुरप्पा की आंखों में सार्वजनिक मंच पर आंसु तक ला दिया था। पर वहीं शोभा अब फिर मंत्रीमंडल में आ चुकी हैं लेकिन सब खामोश हैं। अब ना तो आत्महत्या की धमकी देने वाले गुलीहट्टी आत्महत्या कर रहे हैं और ना ही इस्तीफे की धमकी देने वालों ने अपना इस्तीफा पेश किया है।


दरअसल, इस कैबिनेट विस्तार को येदुरप्पा की कूटनीतिक सफलता कहा जा सकता है। क्योंकि उन्होंने सारे दवाबों को किनारे कर वही किया जो करना चाहते थे और सबसे बड़ी बात ये कि उनके इन फैसलों पर पार्टी हाईकमान ने अपनी मुहर लगा कर फिलवक्त सारे असंतुष्टों का मुंह बंद कर दिया है।

अपनी चीन यात्रा से वापस आने के तुरंत बाद ही येदुरप्पा ने कैबिनेट का विस्तार करने की घोषणा की और इसके साथ ही राज्य में राजनीतिक ड्रामेबाजी का दौर शुरू हो गया। पहले तो मुख्यमंत्री और कर्नाटक भाजपा राज्य इकाई के अध्यक्ष के.एसईश्वरप्पा की ही अलग सोच सामने आ गई। जहां ईश्वरप्पा कैबिनेट से चार मंत्रियों को केवल हटाए जाने की बात कर रहे थे वहीं येदुरप्पा किसी को हटाए जाने से इन्कार कर रहे थे और साथ ही खाली मंत्रीपदों को वापस भरने की भी बात कर रहे थे। गौरतलब है कि हाल ही में तीन मंत्रियों को विभिन्न आरोपों के कारण मंत्रीपद से इस्तीफा देना पड़ा था। स्वास्थ्य शिक्षा मंत्री रामचंद्र गौड़ा को बहाली घोटाले के कारण, धार्मिक मामलों के मंत्री एस.एन कृष्णैया शेट्टी को भूमि घोटाले के कारण और खाद्य और आपूर्ति मंत्री एच हलप्पा को बलात्कार के आरोप के कारण।

बहरहाल, इस घोषणा के साथ ही मंत्री पद की चाह रखने वाले विधायको और उनके समर्थकों और कैबिनेट से निकाले जाने वाले मंत्रियों ने येदुरप्पा पर तरह तरह से दबाव बनाने की कोशिश की। खेल और युवा मामलों के मंत्री गुलीहट्टी शेखर ने आत्महत्या कर लेने की धमकी दी तो एक और मंत्री ने इस्तीफा दे देने की धमकी दी। इसके अलावा ढ़ेरों विधायक पार्टी से त्यागपत्र देने की धमकी दे रहे थे। गौरतलब है कि शेखर निर्दलीय विधायक हैं जिन्हंे राज्य में भाजपा सरकार बनाने में सहयोग करने के बदले मंत्रीपद मिला था। इसी तरह पब्लिक लाईब्रेरी मंत्री के शिवनगौड़ा नाईक भी जेडीएस से जीतने के बाद भाजपा में शामिल हुए थे और मंत्री बने थे। ये भी गौर करने वाले बात है कि 2008 में राज्य में बनी भाजपा की पहली सरकार में पांच निर्दलीय विधायकों को पार्टी के साथ लाने में रेड्डी बंधुओं की अहम भूमिका रही थी। इसलिए वो निर्दलीय मंत्रियों को हटाए जाने के विरोध में थे।

इस ड्रामेबाजी के तहत बड़ा झटका देने की कोशिश कैबिनेट में शामिल होने की चाह रखने वाले दो विधायक सी टी रवि और एस के बेल्लुबी ने की जब उन्हें पता चला कि वो मंत्री नहीं बनाए जाएंगे तो वो सात विधायकों के साथ बंगलूरू के एक होटल में विरोध की योजना बनाने लगे।



मामला जब बंगलूरू में नहीं सुलझा तो दिल्ली का रूख करना पड़ा। जहां लाल कृष्ण आडवाणी, भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी वरिष्ठ नेता वैंक्यया नायडू और शांताकुमार ने येदुरप्पा के मंत्रीमंडल विस्तार के फैसलों पर सहमति की मुहर लगाई।

अब जिन छः नए मंत्रियों ने शपथ लिया उनके नाम हैं, शोभा करंदलाजे, वी सोमन्ना, सी सी पाटिल, ए नारायणस्वामी, एस ए रामदास, और सी एच विजयशंकर। इनमें शोभा और सोमन्ना येदुरप्पा के खास लोगों में से हैं, और बाकी चार भी भाजपा के ही विधायक हैं।शोभा को उर्जा मंत्रालय मिला है, वी सोमन्ना के जिम्मे खाद्य और नागरिक आपूर्ति है, सी एच विजय शंकर को वन और पर्यावरण दिया गया है ए नारायण स्वामी समाज कल्याण और सी सी पाटिल महिला और बाल विकास तथा एस ए रामदास को स्वास्थ्य शिक्षा।

तीन जिन्हें हटाया गया वे हैं, उच्च शिक्षा मंत्री अरविंद लिंबावली, खेल और युवा मामलों के मंत्री गुलीहट्टी डी शेखर और लाईब्रेरी मंत्री शिवन्नगौडा नाईक। यानी कुल पांच निर्दलीय विधायकों में से केवल एक को ही हटाया गया है, चार अभी भी मंत्री हैं।

इसके अलावा एक बड़ा बदलाव ये भी हुआ है कि वी एस आचार्य को गृहमंत्रालय की जगह उच्च शिक्षा और योजना और सांख्यिकी दे दिया गया है और तर्क ये दिया गया है कि आचार्य काबिल मंत्री हैं इसलिए उन्हें ज्यादा अहम् मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई है। जबकि परिवहन मंत्री आर. अशोक को पविहन के साथ गृहमंत्रालय भी दे दिया गया है।

बहरहाल, हाईकमान के दखल से अभी सभी को शांत कर लिया गया है। अवैध खनन मामले में फंसे रेड्डी बंधु भी शांत रहकर अपनी ओर से ध्यान हटाना चाह रहे हैं जबकि केन्द्रीय नेतृत्व कर्नाटक भाजपा के अंर्तकलह को बार-बार सुर्खियां बनते नहीं देखना चाहता इसलिए फिलहाल उपरी तौर पर सब कुछ शांत दिख रहा है पर ये तूफान से पहले की भी शान्ति हो सकती है।

बुधवार, 8 सितंबर 2010

लोहे की राजनीति

कर्नाटक की राजधानी बंगलूरू से 350 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बेल्लारी यंू तो देश के अन्य कस्बाई शहरों जैसा ही है, धूल-धक्कड़, टूटी सड़के और उनपर बेतरतीब वाहन, लेकिन थोड़ा नजर दौड़ाने पर आलीशान बंगले, गाड़ियां और हेलीकाप्टर भी दिखेंगे, फिर दूर-दूर तक खुदाई की हुई उजाड़ जमीन और चारो ओर लाल धूल का गुबार, जो लोहे के खनन और ढ़ुलाई के कारण यहां के आसमान में फैला रहता है। क्योंकि इसी बेल्लारी और इससे सटे चित्रदुर्गा और तुमकूर में देश के बेहतरीन लोहे का भंडार है।


दरअसल, बचपन से हम जो भारत के बारे में पढ़ते आ रहे हैं वही बात बेल्लारी पर भी लागू होती है- बेल्लारी तो अमीर है लेकिन बेल्लारी के लोग गरीब। कभी अंग्रेजों के बनवाए कुख्यात जेल और अपनी भीषण गर्मी के लिए प्रसिद्ध बेल्लारी अपनी जमीन में बेशकीमती खजाना होने के बावजूद एक गुमनाम सा ही शहर था। लेकिन 1999 में सोनिया गांधी ने यहां से लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला करके और मुकाबले में भाजपा ने सुषमा स्वराज को खड़ा करके उनींदे और पिछड़े़ बेल्लारी को सुर्खियों में ला दिया। यहां के रेड्डी बंधुओं के सिर पर सुषमा स्वराज ने हाथ क्या रखा बेल्लारी का लोहा उनके लिए सोना बनने लगा। वर्तमान में येदुरप्पा सरकार में मंत्री, करूणाकर, सोमशेखर और जर्नादन रेड्डी और इनके साथ श्रीरामलू ने बेल्लारी में चिट-फंड के अपने पिटे कारोबार को छोड़कर 2002 में खनन उद्योग में हाथ डाला। 2008 में चीन में होने वाले ओलंपिक खेलों के कारण लोहे की मांग और दाम दोनों आसमान छूने लगे जिसका भरपूर फायदा इनलोगों ने अपनी खनन कंपनी ओबूलापूरम माईनिंग जिसे बेल्लारी से सटे आन्ध्रप्रदेश के अनंतपूर में खनन लीज हासिल था, के मार्फत बेल्लारी की सीमा में अतिक्रमण कर लोहे का अवैध खनन और निर्यात करके उठाया।

आज बेल्लारी की सड़कों पर महंगी विदेशी कारें, निजी हेलीकॉप्टर, आलीशान बंगले और गेस्ट हाउस आम बात है, लेकिन बेल्लारी के लोगों की जिंदगी और बदतर हो गई। अब इन्हें साफ पानी, साफ हवा भी मयस्सर नहीं है, जंगल और जमीन तेजी से घटते जा रहे हैं, प्राकृतकि संपदा चाहे वो पेड़-पौधे हों या संरक्षित विलुप्तप्राय जीव सब खत्म होते जा रहे हैं। बेल्लारी का पारिस्थितकी संतुलन बिगड़ गया है। पिछले कई सालों से वहां सूखे के हालात हैं। कर्नाटक मानव विकास रिपोर्ट 2005 की सूची में बेल्लारी राज्य के 27 जिलों में 18वें स्थान पर है। साक्षरता, स्वास्थ्य, पेय-जल की उपलब्धता के मामले में यह निचले पायदान पर है। जबकि यहां के लोगों की औसत आय राज्य के लोगों के औसत आय से उपर है यानी जिनके पास है बहुत ज्यादा है बाकी के पास कुछ नहीं है। खनन ने बाकी आबादी के रोजगार खेती से भी उन्हें बेदखल कर बेरोजगार बना दिया है वो अलग से। लेकिन और कुछ हो या न हो अब 900 एकड़ जमीन पर 140 करोड़ की लागत से नया हवाईअड्डा जरूर बनने जा रहा है।



अवैध खनन से राज्य के पर्यावरण और अर्थव्यवस्था को जो नुकसान हुआ उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अवैध खनन ने कर्नाटक के 2,800 एकड़ वन्य-भूमि का विनाश किया है। जो देश भर में खनन से वन्य-भूमि को हुए नुकसान का दस प्रतिशत है। और आकलन के मुताबिक ओबुलापूरम माईनिंग कंपनी ने 2003 से अब तक कर्नाटक से 30 मिलीयन टन लोहे का अवैध खनन और फिर निर्यात कर राज्य को भारी राजस्व नुकसान दिया है। दूसरे शब्दों में बेल्लारी का अवैध लौह-खनन मसला दरअसल देश का सबसे बड़ा घोटाला है जो कम से कम 30 से 60 हजार करोड़ के बीच का है।

बहरहाल, पिछले दस साल से कर्नाटक की राजनीति में लोहे का अवैध खनन और इसका पैसा अहम किरदार बन चुके हैं। और रेड्डी बंधु बेल्लारी ही नहीं बंगलूरू में भीं अपनी बादशाहत कायम कर किंगमेकर बन बैठे। आन्ध्रप्रदेशा  में कांग्रेस के स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी के करीबी और उनके बेटे जगनमोहन के व्यावसायिक साझीदार रेड्डी बंधुओं ने कर्नाटक में येदुरप्पा सरकार की नींव अपने पैसों के बल पर समर्थन खरीद कर ही डाली थी। और हमेशा के लिए येदुरप्पा सरकार की गले की फांस बन गए, जिन्हें खुष करके रखना सरकार की मजबूरी है। रेड्डी बंधुओं की कहानी पैसों के ताकत की कहानी है जिनसे सभी राजनीतिक-दल प्यार करने के लिए नफरत करते हैं या नफरत करने के लिए प्यार। येदुरप्पा ब्लैकमेलिंग के कारण उनसे पीछा छुड़ाना चाहते हैं लेकिन छुड़ा नहीं पाते। कांग्रेस को राजशेखर रेड्डी के समय में रेड्डियों से कोई आपत्ति नहीं थी लेकिन अब जगनमोहन आन्ध्र में कांग्रेस की गले की हड्डी है और जगनमोहन की औकात रेड्डी बंधुओं के कारण ही है ऐसे में केन्द्र को अब रेड्डी बंधुओं पर शिकंजा कसने की जरूरत महसूस हो रही है।

दरअसल, यह मुद्दा अब इतना बड़ा हो चुका है कि केन्द्र सरकार भी कई राज्यों और खासकर कर्नाटक में अवैध खनन रोकने के लिए नया कानून लाने जा रही है

इधर कर्नाटक सरकार ने राज्य में लोहे के निर्यात पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी है। साथ ही लोहे व अन्य खनिजो के अवैध खनन और निर्यात की जांच के लिए एक 14 सदस्यीय विशेष पैनल का गठन किया है। यह समिति इसका आकलन करेगी कि खननकर्ताओं ने कितनी मात्रा में लौह-अयस्क का खनन किया, कितना निर्यात किया और कितना घरेलू इस्पात कंपनियों को दिया। साथ ही खनन फर्मो के द्वारा राज्य सरकार को कितनी रायल्टी का भुगतान किया गया। इसके अलावा समिति लोहे के अवैध परिवहन को रोकने के लिए बनाए गए 13 नए चेकपोस्ट पर भी नजर रखेगी। हालांकि खनन पर रोक लगाने से खान मालिक 300 करोड़ प्रति सप्ताह के नुकसान की बातें कर रहे हैं। लेकिन राज्य के सभी जिलों में ज्यादातर खान मालिकों के द्वारा इसका पालन हो रहा है। केवल बेल्लारी से सटे संदुर में अब भी इसका उल्लंघन हो रहा है।

बहरहाल, कर्नाटक के लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े की पहल से भी कर्नाटक और खासकर बेल्लारी में जारी लोहे के खेल पर सभी का ध्यान गया है, अब चाहे जो हो, लेकिन बेल्लारी और राज्य के लोगों में इसके प्रति नाराजगी अब दिख रही है। कांग्रेस की इसी मुद्दे पर बेल्लारी चलो पदयात्रा को मिली सफलता इसका प्रमाण है।
( Public Agenda के लिए )

बुधवार, 11 अगस्त 2010

ग्रीन जाब यानी ग्रीन इकानमी

(Inext में प्रकाशित लेख)
हाल ही में इंटरनेशनल लेबर आॅरगनाईजेशन के साथ भारत सरकार के श्रम और रोजगार मंत्रालय ने ग्रीन जाॅब पर कान्फ्रेंस का आयोजन किया। यह अपनी तरह का पहला कान्फ्रेंस था और रोजगार को लेकर सरकार के नजरिये में भी बदलाव की ओर इशारा कर रहा था। सुनने में ये कुछ अजीब सा लगे पर हकीकत यही है आने वाला समय ग्रीन जाॅब्स का ही है। इसलिए देश के श्रम और रोजगार मंत्री ने लो कार्बन इकोनाॅमी के लिए पाॅलिसी के स्तर पर संरचात्मक बदलाव और इसमें निवेश की बात की। साथ ही एनवायरन्मेंट फ्रेंडली रोजगार संभावनाओं और मौजूदा व्यवसायों को भी ग्रीन इकाॅनमी में बदलने पर चर्चा की।

ग्रीन जाॅब्स आखिर है क्या? दरअसल, ये वो रोजगार हैं जो उत्पादन आैर उपभोग के साईकिल को पर्यावरण के अनुकूल बना सकते हैं। ग्रीन जाॅब ऐसे टिकाउ अर्थव्यवस्था और समाज का प्रतीक तीक है जो पर्यावरण की फिक्र और उसकी रक्षा खुद अपने और अपनी आगे आने वाली पीढ़ी के लिए करने को लेकर सचेत है। इसके तहत ग्रीन एनर्जी एफििशएंट इमारतें, पर्यावरण अनुकूल खेती, वाटर हारवेटिस्टंग, वेस्ट मैनेजमंट, एनवायरन्मेंट फ्रेंडली तरीके से बिजली और ईंधन का उत्पादन वगैरह-वगैरह शामिल है। दरअसल, हर काम या रोजगार के ग्रीन जाॅब होने की संभावनाएं हैं वो भी मुनाफे से बगैर समझौता और सस्टेनेबल विकास को कायम रखते हुए।

लेकिन ग्रीन जाॅब्स का मतलब केवल रिन्यूयेबल एनर्जी, जैव िविवधता संरक्षण , वेस्ट मैनेजमेंट, वाटर हारवेस्टिंग और कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करना ही नहीं बल्कि रोजगार के पैटर्न में ही बदलाव है। ताकि  उत्पादन आैर उपभोग एनवायन्मेंट फ्रेंडली बन सके। जैसे-जैसे पर्यावरण और क्लाईमेट चेंज के प्रति सभी की जागरूकता बढ़ेगी ग्रीन जाॅब सेक्टर करोड़ों नई नौकरियां पैदा करेगा। लेकिन इन संभावनाओं को पैदा करने और उनका पूरी तरह से फायदा उठाने के लिए सही समय पर सही पाॅलिसी बनाना भी उतना ही जरूरी है साथ ही शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में समय रहते इस हिसाब से बदलाव भी।

पिछले दिनों आर्थिक मंदी के दौरान ये अनुभव किया गया कि ग्रीन जाॅब्स सभी के लिए संभावनाओं के नए दरवाजे खोल सकता है। क्योंकि इसके तहत अधिकांशतः रोजगार का सृजन प्राकृतिक संसाधनों को मैनेज करके किया जा सकता है। इंटरनेशनल लेबर आॅरगनाईजेशन का ग्रीन जाॅब प्रोग्राम आज दुनिया के बहुत से देशों में शुरू हो चुका है। एशिया में भारत, बांग्लादेश,चीन, थाईलैंड और फिलीपींस में इस संबंध में पायलट प्रोग्राम चलाया जा रहा है। जिसका मकसद ग्रीन जाॅब की संभावनाओं और एनवायन्मेंट फ्रेन्डली रोजगार पैदा करने के बारे में लोगों में जागरूकता लाना है। साथ ही इससे जुड़ी नीतियों के बारे में चर्चा भी।



बहरहाल, भारत में महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम जैसी योजनाओं में सरकार ने पर्यावरण और रोजगार के बीच तालमेल को तवज्जो दी है। आर्थिक विकास रोजगार के नए मौकों का सृजन और गरीबी हटाना आज ये हर सरकार की प्राथमकिता है। लेकिन साथ ही अपने अस्तित्व के लिए पानी, हवा और अन्य सभी नैचुरल रिसोर्सज का संरक्षण भी उतना ही जरूरी हो गया है। इसलिए , ग्रोथ,  प्रोडक्शन आैर कंजम्पशन को पर्यावरण के साथ जोड़ना ही होगा। इसी जरूरत को ध्यान में रखते हुए मार्च 2009 में श्रम और रोजगार मंत्रालय ने आईएलओ के सहयोग से ग्रीन जाॅब और क्लाईमेट चेंज पर मल्टीस्टेकहोल्डर टास्कफोर्स बनाया गया। इस टास्कफोर्स में सरकारी विभागों के प्रतिनिधयों, रिसर्च इंस्टीट्यूट, एनजीओ, वकर्स और एम्प्लायर्स को शामिल किया गया है, ताकि एनवायरन्मेंट फ्रेंडली रोजगार और नीतियों के बारे में एक राय बन सके।

दरअसल, दो दशक पहले जैसी क्रांति आईटी से आयी थी ग्रीन जाॅब भी अब वही करने जा रहा है। रिन्यूयेबल एनर्जी से लेकर, पर्यावरण संरक्षण, वाटर और वेस्ट मैनेजमेंट और जलवायु से जुड़े अन्य सेक्टर में अपार रोजगार की संभावनाएं हैं। एक्सपर्ट की राय में आने वाले दिनों में भारत के 6 लाख गांवों में ही वाटर और वेस्ट मैनेजरों की जरूरत होगी यानी 1.2 करोड़ लोगों के लिए रोजगार पैदा होगा।

इंटरनेशनल लेबर आॅरगनाईजेशन की एक रिसर्च में भी इस बात का खुलासा किया गया है कि क्यों रिसेसन के दौरान दुनिया की बहुत सी सरकारें पर्यावरण को इतनी तव्वजों दे रही हैं और गंभीरता से ले रही हैं। दरअसल, इस रिसर्च के मुताबिक 2020 तक एनवायन्मेंटल प्रोडक्ट और सर्विस की मार्केट वैल्यू 2.740 लाख करोड़ तक हो जाने का अनुमान है। यानी ‘गो ग्रीन  इज फ्यूचर, क्योंकि आनेवाला समय ग्रीन एम्प्लायमेंट और ग्रीन इकाॅनमी के ही नाम होने वाला है।

शनिवार, 3 जुलाई 2010

बिजली बेचने वाला गांव

(Inext के िलए िलखा गया लेख)


भारत की एक तिहाई आबादी के लिए बिजली अभी भी एक सपना ही है। गांव की बात छोड़ें, बड़े शहर यहां तक कि मेट्रो सिटीज भी बिजली की भारी किल्लत झेल रहे हैं। ऐसे में कोई गांव अपनी जरूरत की बिजली न सिर्फ खुद बना रहा हो बल्कि सरप्लस बिजली राज्य सरकार को बेच भी भी रहा हो तो आप क्या कहेंगे? यकीन नहीं करेंगे, लेकिन ऐसा हो रहा है। कर्नाटक का काब्बीगेरे ग्राम पंचायत ऐसा ही एक गांव है, जो अब सारे देश के लिए एनवायरन्मेंट फ्रेडंली सस्टेनेबल डेवलपमेंट का एक उम्दा उदाहरण बन गया है। इस गांव ने रिन्यूयेबल एनर्जी स्रोतों के इस्तेमाल से अपनी तकदीर और तस्वीर बदल डाली है। और यह साबित कर रहा है कि सरकारी योजनाएं भी बहुत कारगर हो सकती हैं अगर स्थानीय जरूरतों के मुताबिक लोकल पार्टीसिपेशन से उसे लागू किया जाए तो।

गहरी हरियाली की चादर से ढंका कर्नाटक का काब्बीगेरे ग्राम पंचायत देश का पहला ऐसा गांव है जो स्टेट पावर ग्रिड यानी बंगलूरू इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई कंपनी को अपनी बनायी हुई बिजली बेचता है और वो भी मामूली कीमत, 2.85 प्रति के.वाट की दर से। यही नहीं बिजली का उत्पादन भी गांव में ही पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल तरीकों से किया जाता है। दरअसल, ये कहानी शुरू हुई संयुक्त राष्ट्रसंघ-कर्नाटक सरकार के संयुक्त प्रयास से शुरू किए गए बायोमास पावर प्लांटस् प्रोजेक्ट से। यों तो शुरूआत हुई थी बिजली के मामले में इस गांव को इंडीपेंडेंट बनाने से लेकिन बिजली मुहैया कराने का यह प्रोजेक्ट अब गांव के चौरफा विकास और बदलाव की बुनियाद साबित हो चुका है। दरअसल, बायोमास पावर प्लांट लगाने की इस योजना से गांव के लोग बिजली के मामले में आत्मनिर्भर तो हो ही गए है आर्थिक तौर पर भी मजबूत हुए हैं। साथ ही सरप्लस बिजली बेच भी रहे हैं। बायोमास प्रोजेक्ट पेड़ों र्से इंधन हासिल करता है, बायोमास, कार्बन न्यूट्रल होता है यानी इससे कार्बन का उत्सर्जन नहीं होता है। इसके लिए यूकेलिप्टस और अन्य पेड़ों की जरूरत होती है, यानी आस पास हरियाली बढ़ाना होता है। जाहिर है बिजली में इंडीपेंडेंट होने की यह योजना एक साथ कई और मौके उपलब्ध कराती है।

काब्बीगेरे की सफलता की कहानी, यूएनडीपी के बायोमास एनर्जी फाॅर रूरल इंडिया प्रोग्राम का नतीजा है।जिसका इंप्लीमेंटेशन ग्लोबल एनवायरन्मेंट फेसिलिटी, भारत-कनाडा फेसिलिटी और कर्नाटक सरकार के ग्रामीण विकास और पंचायती राज के सहयोग से संभव हो पाया है। इस योजना के तहत 250, 250 और 500 के.वाट क्षमता के तीन छोटे पावर प्लांट लगाए गए जो स्थानीय स्तर पर उपलब्ध बायोमास का इस्तेमाल कर बिजली बनाते है। इन प्लांटों के द्वारा 2007 से अब तक लगभग 400,000 कि.वाट बिजली पैदा की जा चुकी है।

एक छोटी सी लेकिन बुनियादी जरूरत बिलजी की उपलब्धता लोगों के जीवन को किस कदर बदल देती है इस गांव में देखा जा सकता है। यहां अब खाना बनाना आसान हो गया है। पढ़ने, लिखने के लिए लड़कियों और महिलाओं को दूसरे कामों के लिए ज्यादा समय मिलने लगा है, जलावन के लिए लकड़ियों के इंतजाम में लगने वाले समय की बचत हो रही है, पानी सुलभ हो गया है। बिजली की उपलब्धता के कारण अब गांव में 130 बोरवेल हैं, जाहिर है इससे सिंचाई आसान हो गई है और खेती की तस्वीर बदल गई है। गांव के लोगों की आमदनी में 20 प्रतिशत का इजाफा इसका सबूत है। साथ ही पावर प्लांट में स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिल रहा है। जिन्हें सरकार प्रशिक्षण देती है। यह योजना न सिर्फ पर्यावरण के लिए फायदेमंद साबित हुई है बल्कि इसी प्रोजेक्ट के तहत 51 गोबर-गैस प्लांट भी लगाए गए हैं। जिससे लगभग पौने दो सौ घरों में बगैर किसी अतिरिक्त लागत के स्वच्छ व प्रदूषण-मुक्त कुकिंग ईंधन भी उपलब्ध हो जा रहा है। बायोगैस प्लांट स्थानीय स्वयं-सहायता समूहों के नर्सरियों से आॅरगेनिक कचड़ा भी लेते हैं। इस तरह हािशए पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं को भी आमदनी का जरिया मिल गया है।

दरअसल, यह योजना और इसकी सफलता अपने आप में एक बड़ी उम्मीद की किरण है। यदि कोिशश की जाए तो बिजली,पानी और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते देश के बाकी गांव भी न सिर्फ आत्मनिर्भर हो सकते हैं बल्कि उनका भी पूरी तरह से कायाकल्प हो सकता है।

शुक्रवार, 7 मई 2010

एम एस सत्थ्यू से एक मुलाकात


मैसूर श्रीनिवास सत्थ्यू भारतीय फिल्म उद्योग का एक प्रतिष्टत नाम है। 1973 में बनीं उनकी फिल्म गर्म हवा, न सिर्फ विभाजन पर देश  की पहली फिल्म है, बल्कि विभाजन से पैदा मानवीय त्रासदी को संवेदनशील तरीके से सामने लाने वाली फिल्म भी है। इस फिल्म को भारत में नए किस्म के सिनेमा, कला या समानांतर सिनेमा की शुरूआत करने वाला भी कहा जाता है। जिसकी श्याम बेनेगल की अंकुर जैसी फिल्मों से आगे बढती है। 
मैसूर में 1930 में जन्में एम.एस सत्थ्यू ने अपने फिल्मी कैरियर की शरुआत 1956 में चेतन आनंद के साथ की थी। चेतन आनंद की हकीकत के लिए सत्थ्यू को बेस्ट कला निर्देशन का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। सिनेमा के लगभग सभी पक्षों पर मजबूत पकड़ रखने वाले सत्थ्यू ने कला निर्देशक, कैमरामैन, पटकथालेखन, निर्माता और निर्देशक सभी हैसियत से काम किया है। हिन्दी, उर्दु और कन्नड़ में  अब तक ये नौ फिल्में बना चुके हैं साथ ही 15 डाक्यूमेंट्री भी। इसके अलावा कई विज्ञापण फिल्मों और टीवी कार्यक्रमों का भी इन्होंने निर्माण किया है। फिलहाल, सत्थ्यू बंगलूरू में ‘सिनेमा इत्यादि’ नाम से एक एडिटिंग स्टुडियो चलाते हैं।

सत्थ्यू हिन्दी और कन्नड़ दोनों भाषाओं में फिल्में बनाते रहे हैं, उनकी बाकी फिल्मों के बारे में नहीं भी बात करें तो भी सिर्फ गरम हवा ही उन्हें भारत के समानांतर सिनेमा आंदोलन का सबसे बड़ा नायक साबित करती है। वामपंथ विचारधारा से प्रभावित सत्थ्यू ने  इप्टा के साथ बहुत काम किया। गर्म हवा को भी इप्टा के वैचारिक ट्रेंड वाली फिल्म कहा जा सकता है। जिसमें अल्पसंख्यकों के डर और चिंता को बहुत सलीके से उकेरा गया है साथ ही उनके लौटते आत्मविशवास और भरोसे को भी। यह फिल्म काॅन फिल्म समारोह में में गोल्डन पाम श्रेणी में नामांकित हुई थी और आॅस्कर के लिए भेजी गयी थी। साथ ही इसे नरगिस दत्त पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। गर्म हवा के अलावा कान्नेष्वरा रामा, बारा हिन्दी में सूखा इनकी उल्लेखनीय फिल्में हैं। पद्श्री एम. एस सत्थ्यू की सभी कन्नड़ फिल्मों को कर्नाटक राज्य सम्मान हासिल हुआ है। बहरहाल, लगभग एक दशक से भी ज्यादा समय के बाद कन्नड़ भाषा की फिल्म इज्जोडू के साथ सत्थ्यू ने फिर वापसी की है।  देवदासी प्रथा पर बनी यह फिल्म 30 अप्रैल को कर्नाटक में रिलीज हुई।
एम. एस सत्थ्यू से  बातचीत की के प्रमुख अंश:



हाल में रीलीज अपनी नई फिल्म इज्जोडू के बारे में बताएं?
-मेरी यह फिल्म देवदासी प्रथा के बारे में है। हांलाकि सरकार ने इस पर 1982 में ही रोक लगा दी है पर अब भी यह जारी है। फिल्म में मुख्य भूमिका राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त अभिनेत्री मीरा जैसमीन ने िनभाया है साथ में अनिरूद्ध हैं। यह फिल्म और इसका सब्जेक्ट मेरे दिल के बहुत करीब है। मेरी फिल्म देवदासी प्रथा पर बहुत कड़ा स्टैंड लेती है। अभी तक देश के चार फिल्म समारोहों में इज्जोडू दिखायी जा चुकी है, सभी जगह जूरी,आलोचकों और सिनेमा-प्रेमियों ने इसे काफी सराहा है।
देवदासी प्रथा क्या अब भी कायम है? कर्नाटक में इसका क्या स्वरूप है?
-बिल्कुल अभी भी यह कुप्रथा कायम है। उत्तरी कर्नाटक के लगभग 10 जिलों के येल्लमा समाज में देवदासी बनाए जाने की परंपरा है। येल्लमा देवी को मानने वाले खुद को, या अपनी संतान को देवी की सेवा में अर्पित कर देते हैं। मेरी फिल्म में भी गांव वाले एक महामारी से बचने के लिए नायिका को बासवी बनाकर देवी को अर्पित कर देते हैं। बासवी भी देवदासी जैसी ही होती है जो बाद में देह-व्यापार करने पर विवश हो जाती है। कर्नाटक में 10वींशताब्दी से भी पहले से देवदासी प्रथा प्रचलित रही है। जिनमें सबसे प्रमुख येल्लमा देवी को मानने वाला समाज है। गरीबी और अिशक्षा के कारण आज भी ये लोग या तो खुद को या फिर अपनी संतान को देवी की सेवा में अर्पित कर देते हैं। मंदिरों में अपनी बाकी जिंदगी गुजारने को विवश इन लोगों में से महिलाएं बाद में सेक्स वर्कर बनने को बाध्य हो जाती हैं।
लगभग 12 साल के बाद आपने इज्जोडू के साथ वापसी की है, इतना लंबा अंतराल क्यों?
-पैसे नहीं थे। इस दौरान भी कई विषयों और कहानियों पर मेरा मन फिल्म बनाने को हुआ पर उनके लिए फाईंनेंसर नहीं मिल पाए। एफएफसी के पास भी पैसे नहीं हैं और अब तो यह संस्था लगभग निष्क्रय हो गयी है। इज्जोडू को रिलायंस बिग पिक्चर जैसे समूह ने फायनेंस किया है। अब बड़े काॅरपोरेट समूहों का पैसा पाॅपुलर सिनेमा के साथ-साथ प्रायोगिक और छोटी फिल्मों में भी लग रहा है। यह अच्छी बात है, इनके काम करने का तरीका भी पारदर्शी है। बिग पिक्चर हिन्दी में थ्री इंडियट और पा जैसी फिल्मों में पैसा लगाने के साथ साथ क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों में भी पैसा लगा रही हैं।

गर्म हवा को आज भी विभाजन पर बनी सबसे संवेदनशील, प्रमाणिक और बेहतरीन फिल्म माना जाता है। फिर शयाम बेनेगल की मम्मों का नाम याद आता है। दूसरी ओर प िशचम  में युद्ध और ऐसी ही त्रासदियों पर फिल्मों की लंबी श्रृंखला है?
-हमारा सिनेमा इंटरटेनमेंट सिनेमा है। इसलिए अप्रसांगिक है, अपने समय को दर्ज करना हमारे लोकप्रिय सिनेमा को पसंद ही नहीं है, बस एक तय फारमेट में बाॅक्स आॅफिस के हिसाब से फिल्में बनायी जाती है। दरअसल, हम इस्केपिस्ड टाईप हैं जबकि यूरोप में युद्ध के बाद आपको एंटीवार फिल्मों का एक सिलसिला सा मिलेगा, वो रिसेप्टिव रहे हैं।
किसके सिनेमा से आप सबसे ज्यादा प्रभावित रहे हैं?
-स्पीलबर्ग की फिल्में मुझे बहुत पसंद आती रही हैं।
पिछले कुछ सालों में अपने यहां की कौन-कौन सी फिल्में अच्छी लगीं? और निर्देशकों में कौन पसंद हैं?
-माचिस, सत्या, पेज थ्री पसंद आयी मुझे। मणिरत्नम रोचक तरीके से फिल्म बनाते हैं उन्हें व्यावसायिकता और कलात्मकता में संतुलन साधना आ गया है। अनुराग बासु की देव डी भी बहुत उम्दा फिल्म है। उनका काम काफी अच्छा है। रंग दे बंसती में एक अंग्रेज लड़की का आकर हमारा इतिहास बताना मुझे कुछ जमा नहीं। पिछले साल स्लमडाॅग मिलेनियर की बहुत चर्चा रही पर यह कहीं से हमारा सिनेमा नहीं था और न ही आॅस्कर के लायक। लगान भी आॅस्कर टाईप फिल्म नहीं थी और इस बार भेजी गयी हरिष्चंद्राची फैक्टरी भी उस स्तर की नहीं है। हिन्दी के मुकाबले मलयालम, बंगाली और असमी में ज्यादा अच्छी फिल्में बन रही हैं। हिन्दी में नसीर, ओमपूरी परेश रावल के बाद सैफ, शाहिद और अभय देवोल बेहतर अभिनय कर है हैं। शाहरूख और आमिर जैसे अभिनेता महज एक पर्सनेलिटी भर हैं।
आपकी राय में भारतीय सिनेमा का हर पक्ष अपने सर्वोत्तम रूप में किस फिल्म में मौजूद है?
-मृणाल सेन की खंडहर हर मायने में विशवस्तरीय फिल्म है। इसमें सिनेमा का हर पहलू चाहे वो कहानी हो, अभिनय हो या फोटोग्राफी सभी कुछ बहुत उंचा है।
साहित्य से आपको काफी लगाव रहा है। गर्म हवा आपने इस्मत चुगताई की कहानी पर बनायी थी, यू आर अंनतमूर्ति की कहानियों पर भी आपने फिल्म बनायी है। इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं और किन पर काम करने की सोच रहे हैं?
-हां मैं पढ़ता रहता हंू और लगभग हर कहानी और उपन्यास को लगभग इसी नजरिये से पढ़ता हंू कि इस पर फिल्म कैसी बनेगी?  फिलहाल, मैं एक पाकिस्तानी लेखक की रचना ‘स्टोरी आॅफ अ विडो’ पढ़ रहा हूं और वाकई फिल्म बनाने के लिहाज से यह एक अच्छा उपन्यास है। लेकिन साहित्यक रचनाओं पर फिल्म बनाना काफी रिस्की है। इधर कन्नड़ के युवा लेखक बी सुरेशा भी मुझे पसंद आ रहे हैं।
कन्नड़ फिल्म उद्योग के बारे में कुछ बताएं?
-बहुत घटिया फिल्में बन रहीं हैं यहां। सिर्फ रीमेक से काम चलाया जाता है मौलिक काम नही के बराबर हो रहा है। साहित्य में 6 ज्ञानपीठ कन्नड़ को मिल चुका है पर कोई पढ़ता ही नहीं। दूसरी ओर शेशाद्री की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म विमुक्ति को देखने मैं हाॅल में गया तो वहां दर्शक नदारद थे। वैसे काफी बोरिंग फिल्म है यह। गिरीश कासरवल्ली की गुलाबी टाॅकीज अच्छी फिल्म है लेकिन उसे ठीक से रिलीज नहीं किया गया।
स्टेज के लिए काफी काम किया है आपने?
-हां, स्टेज में बहुत पैसों की जरूरत नहीं होती, इसलिए फिल्मों के लिए पैसे नहीं थे तो स्टेज में व्यस्त रहा। वैसे स्टेज का ग्लैमर कुछ अलग ही है।
टीवी के लिए भी आपने बहुत काम किया है, कोई नया प्रोजेक्ट?
-बिल्कुल नहीं! टी.वी में वेराईटी नहीं है अब इस माध्यम में काम करने में कोई मजा नहीं रहा। दूरदर्शन में रचनात्मक आजादी नहीं है और सैटेलाईट चैनलों में टीआरपी की दौड़ में उल-जलूल कार्यक्रमों की भरमार।
सत्तर और आज के सिनेमा की दुनिया में क्या फर्क महसूस करते हैं?
-सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह का फर्क महसूस करता हंू मैं। मल्टीप्लेक्स के कारण प्रयोगों को भी जगह मिल रही है।  तकनीक में हम बहुत आगे निकल आएं हैं। काम आसान हो गया है लेकिन तकनीक का दुरूपयोग भी हो रहा है। दरअसल, फिल्म का एक व्याकरण होता है उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
आगे की योजनाएं क्या हैं?
-मेरी सारी फिल्में एक के बाद एक रिलीज हो रही हैं जिनमें ‘कहां कहां से गुजर गया’ भी शामिल है जो अभी तक रिलीज नहीं हो पायी थी। पंकज कपूर की यह पहली फिल्म है और इसमें अनिल कपूर भी हैं। नक्सल आंदोलन के खत्म होने के बाद युवाओं के लक्ष्यहीन भटकाव के बारे में है यह फिल्म। इसके अलाव पेंग्विन इंडिया की ओर से गरम हवा पर किताब भी आ रही है।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

कहां कहां से गुजर गया

पंकज कपूर की पहली फिल्म अब शायद थियेटर का मंूह देख सके। शयाम बेनेगल की आरोहन से अपने फिल्मी कैिरयर की शुरूआत करने वाले पंकज इस फिल्म से पहले कहां कहां से गुजर गया में काम चुके थे, पर ये फिल्म आज तक िरलीज नहीं हो सकी। अभिनेता अिनल कपूर भी इस फिल्म में हैं। नक्सल आंदोलन के खत्म हो जाने के बाद लक्ष्यहीन, दिशाहीन हो चुके युवाआें की यह कहानी गरम हवा जैसी कालजयी फिल्म बनाने वाले फिल्मकार  एम . एस. सत्थयू  ने 1981 में बनायी थी। लगभग एक दशक के बाद कन्नड़ फिल्म इज्जोडू से वापसी कर रहे सत्थयू  अगले एक दो महीने में कहां कहां से गुजर गया के िडब्बे से बाहर िनकल िथयेटर में आने की उम्मीद कर रहे हैं।
नक्सल आंदोलन के खत्म होने के बाद युवाआें में उपजी िदशाहीनता के बारे में बात करने वाली यह फिल्म अब कितनी प्रासंिगक है इसके बारे में सत्थयू कहते हैं आज फिर नक्सल आंदोलन अपने चरम पर है आैर सरकार के िलए कानून आैर व्यवथा के स्तर पर सबसे बड़ी समस्या। इतने सालों में न तो सरकार का नजिरया बदला आैर न ही यह समस्य  सुलझी। हां हमें भी यह अंदाजा नहीं था कि सरकार इतने लंबे समय में भी इस समस्या को सुलझा नहीं सकेगी। बहरहाल, कहां कहां से गुजर गया नक्सल आंदोलन के कमजोर पड़ने के बाद की कहानी है आज के युवा इससे कितना िरलेट करेंगे ये तो मैं नहीं जानता पर मैंने इस  फिल्म में  उस समय, उस दौर को दर्ज किया है, एक दस्तावेज है वो उस दौर के युवाआें की मनोदशा का। आज के युवा बदल गए हैं, महानगरों आैर बड़े शहरों के युवाआें के िलए नक्सलवाद,   सामािजक आिर्थक  की बात छोड़े  शायद यह कोई समस्या ही न हो । डेवलपमेंट पाकेट में रहने वाले ये युवा उस दौर के शहरों के युवाआें जैसे नहीं  हैं इसलिए देश की समस्याआें पर िरयेक्ट करने का उनका तरीका भी। जो कुछ कर सकते हैं उनमें मेजोरिटी की सोच सरकार जैसी है कि नक्सलवाद महज कानून आैर व्वस्था की समस्या है सामािजक आिर्थक िवषमता, गैरबराबरी या िवकास की दौड़ में हािशये पर छूटे लोगों का िरयेक्शन नहीं। सबसे अफसोसजनक बात तो ये है कि आज तीस साल से भी ज्यादा होने को आए लेकिन महानगरों आैर बड़े बड़े शहरों से इतर दूर  दराज के  लोगों के िलए  अब भी कुछ नहीं बदला। भारत का वो  युवा वहीं हैं, अपने बुिनयादी अिधकारों के िलए  लड़ता हुआ।
 एम . एस. सत्थयू से बाकी बातचीत अगली पोस्ट में

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

सिर्फ पढ़ना काफी नहीं

Inext में प्रकाशित लेख
राइट टू एजूकेशन का जश्न मन रहा है इसके प्रैक्टिकल एप्लीकेशन में क्या.क्या दिक्कतें आने वाली हैं  इस पर भी चर्चा हो रही है । इन सबके बीच क्वालिटी एजूकेशन का सवाल भी तो है। मौजूदा समय में हमारे देश में एजूकेशन में क्वांटिटेटिव सुधार तो आया है लेकिन क्वालिटी में नहीं। सरकार की कोशिशों के कारण अगर प्राइमरी एजूकेशन सभी के लिए सुनिश्चित हो भी जाए तो भी भविष्य में हायर एजूकेशन पर इससे बहुत फर्क पड़ेगा इसमें शक है। इस संदर्भ में लगातार पहले ही काफी चिंताएं जताई जा रही हैं लेकिन ज्यादा परेशान करने वाली बात ये है कि मौजूदा समय में देश में हायर एजूकेशन स्टैंडर्ड भी काफी चिंताजनक हैं।   हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार सैम पित्रोदा ने कहा कि देश की 90 प्रतिशत यूनिवर्सिटी मानक से लो स्टैंडर्ड एजूकेशन मुहैया करा रही है, एक कान्फ्रेंस में सैम पित्रोदा ने अपनी चिंताएं जाहिर करते हुए कहा कि 90 प्रतिशत यूनिवर्सिटी मानक से लो स्टैंडर्ड एजूकेशन मुहैया करा रही हैं आैर इनकी क्वालिटी ऑफ एजूकेशन अप.टू.द मार्क नहीं है, इसे तुरंत सुधारे जाने की जरूरत है।   चिंता यह भी थी कि जितनी यूनिवर्सिटीज या कॉलेजेस हायर एजूकेशन के लिए हैं  वे काफी नहीं हैं, शायद इसलिए सरकार ने 14 नई यूनिवर्सिटी ऑफ इनोवेशन और 400 नए कॉलेज खोलने का फैसला लिया है, लेकिन कॉलेज खोले जाना भर काफी नहीं है।  असल सवाल यह है कि जो एजूकेशन अवेलेबल कराई जा रही है, वो कितनी कारगर है? शिक्षा के इस मसले के दो बिल्कुल अलग.अलग सेक्शन हैं, एक जिसकी चिंता में हर व्यक्ति की जद में शिक्षा का न पहुंचना है जिससे संबंधित राइट टू एजूकेशन हाल ही में आया ही है, दूसरा सेक्शन है कि क्वालिटी एजूकेशन, क्वालिटी एजूकेशन किसी भी देश की बेसिक रिक्वायरमेंट तो है ही, इसी पर देश की तरक्की बेस करती है।  देश में हर साल बड़ी संख्या में बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है यह संख्या अपने आप में काफी कुछ कहती है हाथों में डिग्रियां थामे बेरोजगारों की संख्या बढ़ाने वाले हाथ कितने इक्विप्ड हैं उनकी शिक्षा कितनी कारगर है खुद उनके लिए और देश की प्रोग्रेस के लिए उनके हाथ में शिक्षा का हथियार तो है लेकिन अगर वो मोथरा है तो किस काम का? ये वो सवाल हैं जिन पर काम होना जरूरी है। एक बढि़या कॉलेज से पढ़.लिखकर निकला युवा किसी भी सूरत में बेरोजगार नहीं हो सकता, नौकरी भर उसका लक्ष्य होता भी नहीं वो नये रास्ते खोजता है और कुछ न कुछ बेहतर करने की फिराक में रहता है एक बार किसी ने कहा था कि एक आईआईएम पास आउट अगर सब्जी का ठेला भी लगायेगा तो उसमें भी कुछ न कुछ लैंडमार्क सक्सेस जरूर अचीव करेगा।  एजूकेशन का व्यापक अर्थ समझना है, एजूकेशन सिर्फ डिग्री हासिल करना नहीं काले अक्षरों को जानना भर नहीं है, जीवन के जटिल अर्थो को सहज रूप में समझना है एक वेल एजूकेटेड व्यक्ति कभी भी बेकार नहीं रह सकता  वह कुछ न कुछ करके अपने लिए रास्ते निकाल ही लेगा।
  किसी देश के भविष्य की चाभी बेहतर एजूकेशन में छिपी होती है। भारत में बंगलूरू इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जो आज से 20.25 साल पहले केवल अपने कॉलेजों के लिए प्रसिद्ध था।  लेकिन बाद में तकनीकी शिक्षा से लैस यही युवा यहां.वहां बड़ा वर्कफोर्स बन गए और दुनिया में भारत को बंगलूरू के नाम से एक अलग पहचान दिलाई। पूरे देश को बंगलूरू बनना है ,जो  भी पढ़ा.पढ़ाया जा रहा है उसकी क्वालिटी पर ध्यान रखे जाने की जरूरत है सरकार की जिम्मेदारी तो है ही लेकिन एक इंडीविजुअल के तौर पर टीचर्स और स्टूडेंट्स का इनीसिएशन भी इंपॉर्टेट है  इसे इग्नोर नहीं किया जा सकता।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

कर्नाटक में जारी लोहे के अवैध खनन पर राज्य के लोकायुक्त जस्टिस संतोश हेगड़े के साथ बातचीत।


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-कर्नाटक में लोहे की राजनीति के बारे में क्या कहेंगे आप?
बेल्लारी, चित्रदुर्गा और टूमकूर में लोहे का जमाव है और सारा किस्सा इस खजाने के ज्यादा से ज्यादा हिस्से पर अपना कब्जा जमाने की प्रतिस्पद्र्धा का है। इसकी शुरूआत वर्ष 2002 से हुई जब चीन को अपने यहां 2008 में होने वाले ओलंपिक खेलों के लिए भारी मात्रा में लोहे की जरूरत हंई। अचानक लोहे की कीमत आसमान छूने लगी और यहीं से लोहे की राजनीति शुरू हुई।
-खनन क्षेत्र में जारी लूट-खसोट की जांच कैसे शुरू की आपने? और कहां तक पहंुचे?
2007 में मेरे पास सरकार की ओर से लोहे के अवैध खनन और वन क्षेत्र में लोहे की ढुलाई की जांच की लिखित शिकायत आयी। इस आधार पर बेल्लारी, होस्पेट और टूमकूर में जांच करने पर हमने पाया कि यहां भारतीय खान ब्यूरो के मानकों का सीधे तौर पर उल्लंघन हो रहा है। जिसके तहत वन क्षेत्र में अतिक्रमण, वहां माल की अवैध डंपिंग, लीज क्षेत्र से बाहर और मानक गहराई से ज्यादा खनन जैसी बाते हमने देखीं। हमने लोहे की ढुलाई में भारी अनियमितता पायी। मैं किसी भी कंपनी का नाम नहीं लेना चाहुंगा, बहरहाल, मैंने पाया कि एक लाॅरी को 30 दिन में एक बार लौह-अयस्क ढुलाई करने का परमिट होता है पर पोर्ट तक पहंुचने और लौटने में मात्र एक दिन लगता है अतः  महीने एक लाॅरी 10 से 15 ट्रिप माल ढ़ुलाई करती है। राज्य सरकार के कर्मचारी घूस लेकर उस कंपनी के ट्रकों की बेरोकटोक आवाजाही सुनिष्चित कर रहे हैं।

-कर्नाटक में अवैध खनन पर अपनी रिपोर्ट का पहला हिस्सा आप सौंप चुके हैं दूसरा भाग कब तक आने की संभावना है?
 दूसरा भाग लगभग तैयार है एक महीने के भीतर हम इसे सार्वजनिक कर देंगे।
-इस रिपोर्ट में कुछ खास है?
नहीं ऐसा कुछ नहीं है, लोहे के अवैध खनन, वन अधिनियम का उल्लंघन और उसके ट्रांसपोर्टेशन में होने वाली अनियमितताओं व  भ्रष्टाचार पर पहले भाग में ही हम काफी कुछ कह चुके हैं। हां इस रिपोर्ट में हमने कर्नाटक में ग्रेनाईट के खनन में जारी अनियमितताओं और खनन व वन्य कानून के उल्लंघन पर भी फोकस किया है। बंगलूरू के पास कनकपूरा,चामराजनगर, रामनगर और बिदड़ी में ग्रेनाईट खनन में भी हमने काफी अनियमितता पायी है। इन इलाकों में पाया जाने वाला ग्रेनाईट इटैलियन ग्रेनाईट की श्रेणी का है।
-हाल ही में आपने कहा था कि आपके पास पावर नहीं है सरकार को लोकायुक्त को और शक्ति प्रदान करनी चाहिए और आपसे ज्यादा शक्ति उपलोकायुक्त के पास है?
बिल्कुल सही! मैं मौजूदा व्यवस्था से खुश नहीं हंू। और मैं इस संदर्भ में प्रक्रियात्मक बदलावा चाहता हंू। लेकिन सरकार इस बदलाव के पक्ष में तो नहीं दिखती है। दरअसल लोकायुक्त के पास सुओ मोटो अधिकार नहीं है। लोकायुक्त के जांच के दायरे में प्रथम श्रेणी के कमर्चारी  से लेकर मुख्यमंत्री तक आते हैं पर हमें बगैर लिखित िशकायत के किसी भी प्रकार की कार्रवाही का अधिकार नहीं है जबकि उपलोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र में निचले पायदान के कर्मचारी तक शामिल हैं और उसे सुओ मोटो अधिकार हासिल है। सबसे रोचक बात तो ये है कि पिछले चुनाव में भी कर्नाटक में चुनाव लड़ रहे तीन बड़े दलों के चुनावी घोषणापत्र में लोकायुक्त को और अधिक शक्तिशाली बनाने और सुओ मोटो अधिकार देने की बात थी। अब उनमें से एक दल की सरकार है पर हालात पहले जैसे ही हैं। वैसे भी हमारे काम का केवल दस फीसदी ही भ्रष्टाचार जैसे मामलों की जांच से संबंधित होता है, नब्बे प्रतिषत मामले तो हम जनता की शिकायतों मसलन पेशंन , उपचार इत्यादि से संबंधित सुलझाते हैं।
-अवैध खनन के कारण कर्नाटक के सरकारी खजाने को हुए नुकसान की भरपायी दोषियों से वसूल करने की बात कही थी आपने?
मेरा मतलब उन सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों से जुर्माना वसूल करना था जिनके भ्रष्टाचार की वजह से सरकारी खजाने को इतना बड़ा नुकसान हुआ।
-कुछ बदला?
राज्य सरकार को पहले प्रति टन लोहे पर 27 रूपए राॅयल्टी मिलती थी अब यह 200 रूपए हो गई है। जबकि 2006 और 2007 में राज्य सरकार को 27 रूपए रायल्टी देकर इसी लौह-अयस्क का 6,000 से 7,000 हजार रूपए प्रति टन के हिसाब से निर्यात होता था। यानी सरकार को पहले ही करोड़ों का नुकसान हो चुका है।
-पर्यावरण और वन मंत्रालय के मुताबिक 1980 वन अधिनियम के बाद इसके उल्लंघन के कुल 1309 मामले अभी तक अनुमोदित हुए हैं और कुल 100,871 हक्टेयर वन क्षेत्र इसके कारण नष्ट हुआ है और इसमें केवल कर्नाटक से ही 10 फीसदी से कुछ ज्यादा वन क्षेत्र नष्ट हुआ है?
- मैं इस बात से सहमत हंू, खनन से पर्यावरण और वन क्षेत्र बहुत प्रभावित है। आज इस इलाके से स्लाॅग बीयर पूरी तरह से गायब हो चुके हैं। चंदन के पेड़ भी खत्म हो गए। और इसके लिए जिम्मेदार खनन लीज प्रदान करने में होने वाली धांधली ही है। पहले प्रोस्पेक्टिंग मानचित्र के आधार पर लीज मिलता था अब केवल काल्पनिक मानचित्र जमा करके भी लीज हासिल कर लेते है न तो केन्द्र सरकार और न ही राज्य सरकार की ओर से उस क्षेत्र की क्रास चेकिंग की जाती है। इसके अलावा एक और वजह रेजिंग काॅन्ट्रेक्ट भी है जिसके तहत लीज मिलने के बाद उसे थर्ड पार्टी को बेच दिया जाता है। जिसे सिर्फ और सिर्फ धातू के अधिकतम दोहन से मतलब होता है। राज्य सरकार ने केवल 158 खनन लीज प्रदान किया है जबकि ढ़ाई सौ से ती सौ जगहों पर खनन हो रहा है। जिस तेजी से यहां खनन हो रहा है उसके आधार पर अनुमान है कि 30 साल तक चलने वाला यह खजाना 6 साल में ही खत्म हो जाएगा।
-येदुरप्पा सरकार के रूख के बारे में आपकी क्या राय है?
सरकार को हम अपनी आधी रिपोर्ट सौंप चुके हैं लेकिन अभी तक उसके मुताबिक कार्रवाही नहीं हुई है। सरकार कितनी मजबूर है यह कुछ महीने पहले ही सब देख चुके हैं। अभी तक इस सदंर्भ में कुछ ठोस नहीं हुआ है।
-आपको क्या लगता है कैसे अवैध खनन और इस क्षेत्र में जारी भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है?
हमने तो अपनी रिपोर्ट दे दी, सरकार को उसके मुताबिक एक्शन लेना है। हालात सभी के सामने हैं। मैं किसी भी विशेष व्यक्ति, कंपनी या राजनीतिक दल का नाम लेना नहीं चाहंूगा। पर ये जरूर कहंूगा कि खनन क्षेत्र में पूरे देश में खासतौर पर कर्नाटक और आन्ध्रप्रदेश में पूरी तरह से राजनीति हावी है। मैंने निर्यात बंद करने का सुझाव दिया था, मेरी समझ से निर्यात पर पूरी तरह से रोक लगाकर इस क्षेत्र में जारी लूट-खसोट को नियंत्रित किया जा सकता है। सरकार को कैप्टिव खनन लीज यानी खनन करने वाली कंपनियों के लिए वहां कारखाना लगाना अनिवार्य हो इस व्यवस्था के तहत खनन लीज देना चाहिए। इससे हालात बदल सकते हैं लोगों को रोजगार मिलेगा, केन्द्र सरकार को सेंट्रल एक्साईज टैक्स और राज्य सरकार को वैट के जरिए हजारों करोड़ों की आय होगी। साथ ही देश की बहुमुल्य संपदा देश में ही रहेगी। मेरे विचार से केवल सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार ही इस पर रोक लगा सकती है।

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बुधवार, 14 अप्रैल 2010

अब आया उंट पहाड़ के नीचे

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कर्नाटक में इन दिनों लोहा फिर गर्म है लेकिन इस बार तस्वीर का रूख कुछ और है। कुछ महीने पहले लोहे की ताकत से येदुरप्पा सरकार की जान अटकाने वाले बेल्लारी के बेताज बदशाह इन दिनों थोड़ा बौखलाए हुए हैं। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार सर्वे आॅफ इंडिया की टीम मेजर जनरल ए के पाधा के नेतृत्व में बेल्लारी में अनंतपूर जिले के 6 खनन लीज का सर्वेक्षण कर रही है। जिसमें से तीन ओबुलापूरम माईनिंग कंपनी या ओएमसी के पास है। ओएमसी की एक खान का सर्वेक्षण पूरा कर टीम ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दिया है। इस रिपोर्ट में कुछ अतिक्रमण किए जाने का संकेत है। सर्वेक्षण पूरा होने तक इस क्षेत्र में खनन पर पहले ही अदालत ने रोक लगाया हुआ है। सर्वे आॅफ इंडिया की यह रिपोर्ट रेड्डी बंधुओं के लिए एक बड़ा झटका है। वैसे उनकी बौखलाहट इससे पहले ही दिखनी शुरू हो गई थी जब उनके विरूद्ध मामला दायर करने वाले लोगों पर हमले हुए या उनके खिलाफ आवाज उठाने वाले दहशत के साये में जी रहे हैं।
हाल ही में  बेल्लारी में आठ अज्ञात हमलावरों ने टुम्टी आयरन ओर के मालिक तापल गणेष और उनके भाईयों पर उस समय जानलेवा हमला किया जब वे एक रेस्तरां में सर्वे आॅफ इंडिया की टीम से मुलाकात करने के लिए इंतजार कर रहे थे। उनके साथ कुछ पत्रकार भी थे, उन पर भी हमला किया गया। दरअसल, तापल गणेष वहीं शख्स हैं जिनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने बेल्लारी के रेड्डी भाईयों करूणाकर रेड्डी, जर्नादन रेड्डी और सोमशेखर रेड्डी की कंपनी ओबुलापूरम माईंनिंग कंपनी के आन्ध्रप्रदेश के अनंतपूर जिले में खनन कार्य पर रोक लगा दी है। उन्हीं की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सर्वे आॅफ इंडिया की टीम को यह पता लगाने का आदेश दिया है कि ओएमसी के द्वारा कर्नाटक राज्य के बेल्लारी जिले में उनकी खानों में अतिक्रमण कर अवैध खनन किया गया है और दोनों राज्यों के बीच की सीमा से छेड़डाड़ की गई है साथ ही आरक्षित वन क्षेत्र में भी अतिक्रमण किया गया है। गणेष अपने परिवार के तीसरी पीढ़ी के खननकर्ता हैं। उनकी खानें कर्नाटक में है और रेड्डी बंधुओं की आन्ध्रप्रदेश में, दोनों की सीमाएं आपस में मिलती है। गणेष ने 2006 में यह पुलिस शिकायत दर्ज करायी थी कि रेड्डी बंधु उनकी खानों का अतिक्रमण कर रहे हैं, बाद में 2009 में उन्होंने इसी से संबंधित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की।
इधर, ओएमसी के पूर्व कर्मचारी वी अंजनैया जैसे लोग भी हैं जो इन दिनों दहशत के कारण बंगलूरू में हैं और बाहर लोगों के संपर्क में आने से डर रहे हैं। उनका कसूर केवल यही है कि उन्होंने ओएमसी में उपमहाप्रबंधक के तौर पर काम किया था। ं केन्द्रीय श्रम मंत्रालय और खान सुरक्षा के डायरेक्टर जनरल की ओर से उन्हें प्रथम श्रेणी खनन प्रबंधक प्रमाणपत्र हासिल है। रेड्डी बंधु की ओएमसी का काम उनकी इस योग्यता से बहुत आसान हो जाता था। लेकिन पिछले साल दिसंबर में सीबीआई के द्वारा ओएमसी के दफ्तर पर छापे की खबर के बाद रातों रात अंजनैया के दफ्तर को ओएमसी के द्वारा ही नेस्तनाबूद कर दिया गया। सारे रिकार्ड हटा दिए गए। अंजनैया ने इसी पर सवाल उठाया था। दरअसल, ये सभी वाकये रेड्डी बंधुओं की घबराहट में किए गए पलटवार ही हैं। लेकिन इस मसले पर रेड्डी बंधुओं में से कोई भी कुछ नहीं कह रहा। उनके फोन बंद हैं और उनके सचिव ओएमसी के मुद्दे पर कुछ भी टिप्पणी करने को तैयार नहीं हैं।
दूसरी ओर अपनी पांच सदस्यीय टीम के साथ सर्वेक्षण कर रहे मेजर जनरल ए. के पाधा भी सर्वेक्षण के बाबत अभी कुछ भी कहने को तैयार नहीं हैं। उनसे संपर्क करने पर उन्होंने कहा कि मैं कुछ नहीं जानता। हांलाकि उनकी टीम ने बेल्लारी को केन्द्र बनाते हुए हैदराबाद में सैटेलाईट नियंत्रण प्वाइंट रखकर नवीनतम वैज्ञानिक विधि से इस इलाके का सर्वेक्षण किया है। पहली बार इस इलाके का सर्वे आॅफ इंडिया के 1972-73 के मानचित्रों के आधार पर सैटेलाईट सर्वेक्षण किया गया है। जबकि अनंतपूर के मुख्य वन संरक्षक पदनाभन ने जरूर कहा कि पहली बार इलाके का सैटेलाईट सर्वे किया जा रहा है इसलिए कितना समय लगेगा इसके बारे में अभी निष्चित तौर पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। टीम ने फिलहाल आन्ध्रप्रदेश और कर्नाटक के राजस्व और वन विभाग के मानचित्रो साथ ही ओएमसी के 68.5 हेक्टेयर के स्केच का निरीक्षण किया। जहां कुछ हद तक अतिक्रमण पाया है। ताजा सर्वेक्षण का निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने आन्ध्रप्रदेश सरकार की उस याचिका पर दिया है तहत आन्ध्र सरकार ने हाई कोर्ट में सर्वेक्षण की अपनी याचिका के खारिज हो जाने और खनन पर रोक हटा देने के बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी।
दरअसल, 22 मार्च को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कर्नाटक के राजस्व मंत्री जनार्दन रेड्डी और पर्यटन मंत्री करूणाकर रेड्डी के स्वामित्व वाली कंपनी ओबुलापुरम माईनिंग कंपनी और तीन  अन्य कंपनियों के इस क्षेत्र में खनन कार्यो पर रोक लगा दी थी। और आरोपों की जांच के लिए एक समिति नियुक्त कर उसे दो सप्ताह के भीतर अपनी रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया। जस्टिस के जी बालाकृष्नन, और जस्टिस दीपक वर्मा की खंडपीठ ने संरक्षित वन क्षेत्र में ओएमसी के अतिक्रमण की जांच का भी आदेश दिया है। कोर्ट ने 9 अप्रैल तक पहले ओएमसी के 68.5 हेक्टेयर वाले एक खान की सर्वे रिपोर्ट सौंपने को कहा था। इस बीच ओएमसी के वकील मुकुल रोहतगी ने अदालत से बाकी दो खानों में खनन जारी रखने की अनुमति की निवेदन किया। लेकिन अदालत ने कहा कि खनन की अनुमति तभी मिलेगी जब यह सुनिष्चित हो जाएगा कि ओएमसी ने लीज क्षेत्र और वन क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं किया है। साथ ही सभी लीज क्षेत्र में सर्वेक्षण कार्य पूरा होने तक कोई खनन गतिविधि नहीं हो सकेगी। गौरतलब है कि ओएमसी के दो अन्य लीज क्षेत्र क्रमषः 25.98 हेक्टेयर और 39.5 हेक्टेयर के हैं। ओएमसी के बाद बेल्लारी आयरन ओर लिमिटेड, वाई.एम सन और अनंतपूर माईनिंग काॅरपोरेशन के लीज क्षेत्र का सर्वे किया जाएगा।
इधर येदुरप्पा सरकार की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तापल गणेष पर हुए हमले के बाद राज्य मानवाधिकार आयोग ने राज्य के अतिरिक्त मुख्य सचिव गृह, और डायरेक्टर जनरल व इंस्पेक्टर जनरल आॅफ पुलिस को बेल्लारी के एस पी श्रीमंत कुमार सिंह को वहां से हटाने का आदेष दिया था लेकिन इस आदेष का पालन नहीं हुआ। अब राज्य मानवाधिकार आयोग  राज्य सरकार को इस मुद्दे पर नोटिस भेजने का मन बना रहा है। इधर ओएमसी के अतिक्रमण जैसे मुद्दों पर मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार ने कहा कि हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं हमारा कोई भी कदम उस फैसले के अनुरूप ही होगा।

गुरुवार, 25 मार्च 2010

कर्नाटक से केरल भाया बांदीपूर


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भारत में वन्य जीवों की संख्या, विकास और शहरीकरण के कारण खतरनाक रूप से कम होती जा रही है। इनके प्रति हमारी असंवेदनशीलता का ही नतीजा है कि आज बाघों की संख्या बस हजार से कुछ उपर रह गयी है। जबकि हमारे अस्तित्व के लिए इनका बचे होना भी अनिवार्य है। बहरहाल, हाल ही में कर्नाटक हाई कोर्ट ने इस दिशा में एक उल्लेखनीय फैसला दिया है। जिससे न सिर्फ कर्नाटक बल्कि देश के सभी वन्य जीव प्रेमी और पर्यावरणवादियों में खुशी की लहर है। आखिर इस फैसले ने वन्य जीवों के संरक्षण और उनके प्राकृतिक अधिवास में हमारी गतिविधियों के प्रति संवेदनशील नजरिया रखने की हिमायत की है।               
दरअसल, हाल ही में कर्नाटक हाई कोर्ट ने बांदीपूर-मधुमलाई जो कि कर्नाटक-तमिलनाडू में आता है और बादीपूर-सुल्तान बाथेरी जो कि कर्नाटक-केरल का इलाका है में रात में होने वाले अंतरराज्यीय यातायात पर रोक लगा दी है। कर्नाटक हाई कोर्ट ने बांदीपूर संरक्षित वन क्षेत्र से गुजरने वाले कोझीकोड-मैसूर राष्ट्रीय राजमार्ग एनएच-212 और उटी-मैसूर राष्ट्रीय राजमार्ग एनएच-67 पर यातायात पर रात नौ बजे से सुबह छः बजे तक रोक लगा दी है। और  कर्नाटक सरकार को माननथावाडी को जोड़ने वाली  मैसूर-कुट्टा रोड को छः महीने के भीतर ठीक करने को कहा है, ताकि रात में इस सड़क का वैकल्पिक मार्ग के तौर पर इस्तेमाल हो सके।
कर्नाटक हाई कोर्ट ने यातायात पर रोक को जनहित में बताते हुए कहा कि इससे दुर्लभ वन्य प्राणियों और बाघों की सुरक्षा में मदद मिलेगी। अदालत ने ये भी कहा कि मानवता को बदलते समय के साथ चलना चाहिए। वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए यह छोटा सा त्याग बहुत बड़ा असर पैदा कर सकता है जबकि यह सिर्फ हमारे संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वाह भर है।
जस्टिस वी गोपाल गौडा और जस्टिस बी एस पाटिल की खंडपीठ ने केरल सरकार, एफ.आर फ्रावेश और अन्य के द्वारा 14 अगस्त 2009 को बांदीपूर के मुथंगा-गुंदलपेट मार्ग पर रात में वाहनों की आवाजाही पर लगी रोक को हटाने संबंधी दायर याचिका पर अपना फैसला सुनाते हुए रोक को जारी रखने का आदेश दिया है। गौरतलब है कि बांदीपूर से होकर जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 212 मैसूर से कालपेट्टा, सुल्तान बाथेरी होते हुए जाता है और एनएच 67 मैसूर से गुंदलपेट होकर। रात में इसके बंद होने पर केरल के ट्रांसपोर्टर को वैकल्पिक मार्ग से जाना होगा।
दरअसल इस विवाद की शुरूआत पिछले साल ही हुई । रात में वाहनों की तेज रफ्तार की चपेट में आकर  बांदीपूर क्षेत्र में वन्य जीवों होने वाली मौतों के कारण  कर्नाटक वन विभाग बहुत लंबे समय से रात में इस क्षेत्र में यातायात पर रोक लगवाने पर विचार कर रहा था। आखिरकार, पिछले साल 3 जून को चामराज नगर जिले के डिप्टी कमिष्नर मनोज कुमार मीणा ने बांदीपूर संरक्षित वन क्षेत्र में एनएच-212 और एनएच-67 के लगभग 30 किलोमीटर के हिस्से में पर रात 9 से सुबह 6 बजे तक यातायात पर रोक लगा दी। लेकिन केरल और कर्नाटक दोनों राज्यों की ओर से पड़ रहे दवाब के कारण मुख्यमंत्री येदुरप्पा ने उन्हें सात दिनों बाद 10 जून को  रोक हटाने का निर्देश दे दिया। इस आदेश को वापस लिए जाने के पीछे राजनीतिक दवाब के अलावा ट्रक लाॅबी के भी सक्रिय होने की आशंका जतायी गई थी।
अब  कर्नाटक हाई कोर्ट ने इस आदेश को पुनः बहाल कर दिया है। उल्लेखनीय है कि डीसी के इस आदेश के विरोध में बंगलूरू के वकील और पर्यावरणप्रेमी एल श्रीनिवास बाबू ने जनहित याचिका दायर की थी जिस पर हाई कोर्ट ने 29 जुलाई को श्रीनिवास के पक्ष में आदेश दिया था। और डी सी ने पुनः 1 अगस्त 2009 से रात में यातायात पर रोक लगाने का आदेश दे दिया। साथ ही दो बैकिल्पक रूट सुझाए थे, मैसूर और उटी के लिए साथे होकर जो 78 किलोमीटर ज्यादा लंबा है और मैसूर से कालपेट्टा के लिए पोनमपेट होकर, जो 38 किलोमीटर ज्यादा लंबा है। दिलचस्प बात ये है कि केरल और तमिलनाडू सरकार, के अलावा केएसआरटीसी, केरल व्यापारी व्यवसायी इकोपना समिति वायनाड, और केरल-कर्नाटक यात्री फोरम के साथ  कर्नाटक सरकार ने भी रोक को हटाने के लिए अर्जी दी थी। बहरहाल,  इस फैसले से तमिलनाडू को कोई आपत्ति नहीं है,जबकि कर्नाटक सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले के अनुरूप चलने की घोशण की है और केरल से जोड़नेवाली सड़क एनएच-212 को जल्द से जल्द वैकल्पिक मार्ग के तौर पर विकसित करने का आशवासन दिया है। कर्नाटक सरकार के एडवोकेड जनरल अशोक हारनहल्ली ने कहा कि वैकल्पिक मार्ग मौजूदा मार्ग से 20-30 किलोमीटर से ज्यादा दूर नहीं होगा और इसे छः महीने के भीतर इसे यातायात योग्य बना दिया जाएगा।
लेकिन केरल ने इस मसले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने का फैसला किया है। दरअसल, केरल सरकार का मानना है कि इस फैसले  से केरल की अर्थव्यस्था और जरूरी चीजों की आपूर्ति प्रभावित हो रही है। खासतौर पर वायनाड और उसके आसपास रहने वाले लोगों को इससे परेशानी हो रही है। क्योंकि यहां सब्जियों की आपूर्ति कर्नाटक के गुंदलपेट से होती है। जिसे रात में ही ढ़ोया जाता है। साथ ही लोगों को ज्यादा दूरी तय करनी होगी। इसके अलावा बंगलूरू में काम करने, पढ़ाई करने वाले लोगों को भी इससे खासा परेशानी हो रही है, और व्यापारियों को नुकसान भी। यही वजह है कि मालाबार चैंबर्स आॅफ कामर्स ने राज्य सरकार से बंगलूरू और उत्तरी केरल के बीच बेहतर रेल सुविधा मुहैया कराने की मांग की है। इसके अलावा केरल का यह भी मानना है कि यह रोक केवल वन्य जीव संरक्षण के लिए नहीं है, क्योंकि वैकिल्पक मार्ग को माननथवाडी-कूटा सेक्टर से होकर ले जाने का प्रस्ताव है जो कि वायनाड अभ्यारण्य से होकर ही जाता है। इसलिए केरल की मांग है कि कर्नाटक को वाहनों की गति, को नियंत्रित करने और इस क्षेत्र में व्यवसायिक गतिविधियों पर रोक लगाने जैसे उपायों पर जोर देना चाहिए। साथ ही उनका ये भी कहना है कि यह मार्ग 300 साल पुराना है, फिर आज अचानक इससे कैसे समस्या हो सकती है। इस संदर्भ में कर्नाटक के एडवोकेड जनरल अशोक हारनहल्ली कहते हैं कि वाहनों की संख्या और आवृति बहुत ज्यादा बढ़ गयी है अतः फैसले को इस नजरिए से देखा जाना जरूरी है। केरल द्वारा मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने के सवाल पर भी एडवोकेड जनरल का कहना है कि हमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भी कोई आपत्ति नहीं होगी। कर्नाटक सरकार वन्य जीवों के संरक्षण को लेकर काफी गंभीर है।
बहरहाल, कर्नाटक हाई कोर्ट के इस फैसले पर विरोध को लेकर केरल में मुख्यमंत्री वी एस अच्युतानंद से लेकर युनाईटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट और व्यापारी संघ सभी एक मंच पर हैं। यहां तक कि केरल व्यापारी व्यवसायी इकोपना समिति वायनाड इसे सीधे-सीधे नागरिकों के मौलिक अधिकार का हनन मानता है। जबकि वायनाड प्रकृति संरक्षण समिति और ऐसी ही कई अन्य पर्यावरण संस्थाओं ने यातायात पर रोक का यह कहते हुए स्वागत किया है कि जब तक केरल में भी इसी तरह बेलगाम रात्रिकालीन यातायात पर रोक नहीं लगता तब तक बांदीपूर में वन्य जीव संरक्षण अधूरा है। 

दरअसल, बांदीपूर,नागरहोले,मधुमलाई और वायनाड का यह  सम्मिलित इलाका बाघों की संख्या के मामले में देश का दूसरा सबसे बड़ा इलाका है। यहां  2,500 वर्ग किलोमीटर में लगभग 300 बाघों के होने का अनुमान है। देश में बाघों की मौजूदा संख्या को देखते हुए इस इलाके को हर प्रकार के सरंक्षण की जरूरत है। अनुमानतः बांदीपूर से प्रति मिनट 15 से 20 वाहन गुजरते हैं। जिनमें लगभग 400 तक सब्जियों के ट्रक और करीब 300 बालू से लदे ट्रक होते हैं, इसके अलावा हजारों पर्यटक वाहन भी। इसी आधार पर कर्नाटक राज्य वन विभाग ने बांदीपूर में गुंदलपेट और उटी को जोड़ने वाले एन एच 212 और गंुदलपेट और सुल्तान बाथेरी को जोड़नेवाले एनएच-67 पर रात में यातायात पर लगी रोक को हटाए जाने का विरोध किया था। जबकि कर्नाटक सरकार ने रोक हटाने का निर्देश दिया था।
बांदीपूर राष्ट्रीय उद्यान में एनएच-212, 17.5 किलामीटर तक केरल के वायनाड राष्ट्रीय उद्यान से होकर गुजरता है और एनएच-67, 12.5 किलोमीटर तमिलनाडू से होकर गुजरता है। अंतरराज्यीय यातायात के कारण यह इलाका वन्य जीवों के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुका था। अतः इस फैसले की अहमियत इस बात से भी समझी जा सकती है कि बांदीपूर नेशनल पार्क, वाईल्ड लाईफ कंजरवेशन फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक केवल 2004 से 2007 तक की अवधि में ही इस इलाके में 200 से ज्यादा दुर्लभ वन्य जीव वाहनों की चपेट में आकर मारे गए हैं। इसके अलावा लगभग तीन बड़े जीव हर महीने मारे जाते हैं। और लगभग 65 प्रतिषत वन्य जीव रात में ही वाहनों की चपेट में आते हैं। जबकि इस वन के जितने क्षेत्र में रात में यातायात पर रोक लगी है वह कुल वन्य क्षेत्र का 2 प्रतिषत से भी कम है। वाहनों की चपेट में सबसे ज्यादा बाघ, हाथी, चीता, सांभर और लंगूर आते हैं। यही नहीं सड़क से सटे जंगल के लगभग 2 किलोमीटर भीतर का वन्य जीव अधिवास वाहनों के शोर और हाई बीम लाईट के कारण प्रभावित होता है। कर्नाटक हाई कोर्ट ने इसी क्षेत्र में रात में यातायात पर रोक लगायी है। इसके अलावा रात में यातायात पर रोक से शिकार पर भी एक हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है।
बहरहाल, राज्य वन्य विभाग अधिकारियो और संरक्षणविदो के अनुसार पिछले छः महीने में इस इलाके में सड़क हादसे में मरने वाले वन्य जीवों की संख्या में अप्रत्याशित रूप से 95 प्रतिशत से भी ज्यादा कमी आयी है। जबकि रोक से पहले लगभग 91 वन्य जीवों की मौत दर्ज की गई थी। जिसमें हाथी, बाघ, चीता और अन्य स्तनधारी व सरीसृप जैसे जीव शामिल हैं। यह काफी उत्साहजनक खबर है।

बुधवार, 17 मार्च 2010

मिलिए बंगलूरू की महिला पुरोहित स्वतंत्रलता शर्मा से

भारतीय आेपिनियन में प्रकाशित
आज महिलाएं तमाम किस्म के स्टीरियोटाईप को तोड़ रही हैं और हर उस क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही हैं जहां पहले कभी उनके होने या काम करने के बारे में सोचा भी नहीं गया था। अठत्तर बसंत से ज्यादा देख चुकीं स्वतंत्रलता शर्मा  का नाम भी उन महिलाओं की सूची में शामिल किया जा सकता है जिन्होंने धार्मिक कर्मकांड और संस्कार कराने जैसे पुरूष वर्चस्व वाले क्षेत्र में अपनी  चुनौती पेश की और लीक से हटकर अपने लिए राह बनायी।
जिस उम्र में आमतौर पर लोगों की सक्रियता खत्म हो जाती है, स्वतंत्रलता लोगों को सांसारिक संस्कारों से जोड़ती हैं और जन्म, मुंडन, शांतिपाठ, विवाह और मृत्यु जैसे संस्कारों को वैदिक रीति से संपन्न कराती हैं। 
स्टेला मेरीज काॅलेज से बी.ए और प्रेसिडेंसी काॅलेज चेन्नई से इकोनाॅमिक्स में एम ए स्वतंत्रलता ने शुरूआत मेरठ में काॅलेज में इकोनाॅमिक्स पढ़ाने से की। लेकिन उनकी किस्मत में कुछ और था और वो प्रोफेसर बनने के बजाए पुरोहित बन गई।
मूलतः अंबाला के पास की रहने वाली स्वतंत्रलता का जन्म वर्मा के रंगून में हुआ था। दूसरे विशव-युद्ध के समय उनके पिता को परिवार समेत पैदल ही वर्मा छोड़ना पड़ा था और 1949 में इनका परिवार चेन्नई में बस गया। इनके पिता आर्य समाज के सदस्य थे, वर्मा में भी इनके परिवार में वैदिक रीति से हवन और शांतिपाठ होते रहते थे। इसलिए पूजा-पाठ और वैदिक रीति-रिवाजों का संस्कार उन्हें बचपन से ही मिल गया था। वर्ष् 1961 में ये पति के साथ बंगलूरू आ गईं। इनके पति पेशे से वकील थे और बंगलूरू में उनका होटल व्यवसाय भी था। बंगलूरू में उन्होंने काफी सालों तक नर्सरी स्कूल भी चलाया। हालांकि शादी की शुरूआत में स्वतंत्रलता और इनके पति दोनों ने मेरठ में काॅलेज में अध्यापन कार्य किया था। बंगलूरू आने के बाद स्वतंत्रलता फिर से आर्य-समाज की गतिविधियों में सक्रिय हो गईं। यहीं पर इनकी मुलाकात वरिष्ठ आर्यसमाजी के. एल पोद्दार से हुईं। स्वतंत्रलता कहती हैं-पोद्दार जी से मेरा बहुत आत्मीय रिशता था, वो मुझमें अपनी बेटी की छवि देखते थे। उन्होंने ही मेरा गंभीर वैदिक साहित्य और भारतीय अध्यात्मिक परंपरा से परिचय कराया और मुझे ढे़रों किताबें पढ़ने को दी। वैदिक साहित्य को गहरायी से जान लेने के बाद मैंने प्रवचन देना शुरू किया और सत्संग में जाना भी।
अब तक चैदह सौ शादियां और तीस मृत्यु संस्कार संपन्न करा चुकी स्वतंत्रलता पुरोहिताई के क्षेत्र में आने को एक संयोग मानती हैं और खुद भी नहीं समझ पाती हैं कि कैसे वो धीरे-धीरे इसमें गहराई से उतरती चली गयीं। स्वतंत्रलता, नियति में पूरी तरह से यकीन करती हैं और मानती हैं कि  इश्वर हर किसी को इस दुनियां में खास मकसद से भेजता है और किसे क्या करना है यह पहले से ही सुनिशचत होता है।
बहरहाल, स्वतंत्रलता की पुरोहिताई की शुरूआत बहुत ही भयावह, मृत्यु-संस्कार के साथ हुई। एक पच्चीस वर्षीय युवक की मौत बंगारपेट में ट्रेन दुर्घटना में हो गई थी और स्वतंत्रलता को उसके रिशतेदार के साथ उसकी पहचान के लिए जाना पड़ा और फिर स्थितियां ऐसी बनीं कि स्वतंत्रलता को उसका क्रिया-कर्म कराना पड़ा। हांलाकि इससे पहले वो बंगलूरू और उसके आस-पास शांतिपाठ और हवन वगैरह जरूर कराती रही थीं। स्वतंत्रलता ने खुद अपने परिवार के लोगों का भी अंतिम संस्कार संपन्न कराया है,  अपनी  जिठानी और बहू की दादी का अंतिम संस्कार भी उनके हाथों ही हुआ है।  
शादियों को संपन्न कराने के बारे में बताते हुए स्वतंत्रलता कहती हैं-बात साल 1991 की है, एक दफा बंगलूरू में ही आर्य-समाज के पंडित छुट्टी पर चले गए थे और उसी दौरान एक विवाह संपन्न कराना था, पंडित नहीं थे अब शादी कौन संपन्न कराए? यह बड़ा सवाल था। आखिरकार उनकी एक दोस्त ने सुझाया तुम क्यों नहीं शादी  संपन्न करा देती, आखिर तुम्हें सारी विधि और मंत्र आते ही हैं। और इस तरह मैं शादियां भी संपन्न कराने लगी। हांलाकि शुरूआत में वो हिन्दी में ही संस्कार संपन्न कराती थीं पर बाद में उनकी किसी परिचित महिला ने उन्हें मंत्रों की व्याख्या अंग्रेजी में करने की सलाह दी और यही उनकी खासियत बन गयी। स्वतंत्रलता ने अब तक लगभग 1400 शादिया करायी हैं इनमें पूर्व केन्द्रीय मंत्री रेणुका चैधरी की बेटी ,इसरो के प्रोफेसर यू आर राव की बेटी, इंदिरा नूई की ममेरी बहन और खुद अपने परपोते की शादी शामिल है। स्वतंत्रलता कहती हैं-दरअसल, मैं उच्चारण पर बहुत ध्यान देती हंू और मंत्रों की व्याख्या अंग्रेजी में करने के कारण लोगों को समझ में आती हैं साथ ही मैं डेढ़ घंटे में ही शादी संपन्न करा देती हंू इसलिए खासतौर पर यंग जेनरेशन मुझे पसंद करती है। समाज में उनके विशिष्ट योगदान को देखते हुए बंगलूरू के रोटरी क्लब ने 2004 में इन्हें सम्मानित किया।
हांलाकि एक दो मौकों पर स्वतंत्रलता को महिला होते हुए पुरोहिताई करने के कारण विरोध का भी सामना करना पड़ा, लेकिन आर्य-समाज संस्था ने इनका साथ दिया और यह साबित किया कि वैदिक युग महिलाओं के साथ कोई फर्क नहीं करता था और उन्हें पुरूषाें के समकक्ष हर अधिकार देता था।
पुरोहिताई के अलावा स्वतंत्रलता भजन कंपोज करती हैं और गाती भी हैं। पहले वो कहानियां भी लिखती थीं जो हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका धर्मयुग में छपती थीं। स्वतंत्रलता सिर्फ संस्था यानी आर्य-समाज के लिए ही स्वांतः सुखाय यह कार्य करती हैं। पुरोहिताई उनकी आजीविका का जरिया नहीं है। पहले ये केवल बंगलूरू में ही शादियां कराती थीं लेकिन धीरे-धीरे देश के अन्य हिस्सों में भी  इनके बारे में लोगों को मालूम चला और अब इनके पास पूरे देश से न्यौता आता है।