शुक्रवार, 7 मई 2010

एम एस सत्थ्यू से एक मुलाकात


मैसूर श्रीनिवास सत्थ्यू भारतीय फिल्म उद्योग का एक प्रतिष्टत नाम है। 1973 में बनीं उनकी फिल्म गर्म हवा, न सिर्फ विभाजन पर देश  की पहली फिल्म है, बल्कि विभाजन से पैदा मानवीय त्रासदी को संवेदनशील तरीके से सामने लाने वाली फिल्म भी है। इस फिल्म को भारत में नए किस्म के सिनेमा, कला या समानांतर सिनेमा की शुरूआत करने वाला भी कहा जाता है। जिसकी श्याम बेनेगल की अंकुर जैसी फिल्मों से आगे बढती है। 
मैसूर में 1930 में जन्में एम.एस सत्थ्यू ने अपने फिल्मी कैरियर की शरुआत 1956 में चेतन आनंद के साथ की थी। चेतन आनंद की हकीकत के लिए सत्थ्यू को बेस्ट कला निर्देशन का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। सिनेमा के लगभग सभी पक्षों पर मजबूत पकड़ रखने वाले सत्थ्यू ने कला निर्देशक, कैमरामैन, पटकथालेखन, निर्माता और निर्देशक सभी हैसियत से काम किया है। हिन्दी, उर्दु और कन्नड़ में  अब तक ये नौ फिल्में बना चुके हैं साथ ही 15 डाक्यूमेंट्री भी। इसके अलावा कई विज्ञापण फिल्मों और टीवी कार्यक्रमों का भी इन्होंने निर्माण किया है। फिलहाल, सत्थ्यू बंगलूरू में ‘सिनेमा इत्यादि’ नाम से एक एडिटिंग स्टुडियो चलाते हैं।

सत्थ्यू हिन्दी और कन्नड़ दोनों भाषाओं में फिल्में बनाते रहे हैं, उनकी बाकी फिल्मों के बारे में नहीं भी बात करें तो भी सिर्फ गरम हवा ही उन्हें भारत के समानांतर सिनेमा आंदोलन का सबसे बड़ा नायक साबित करती है। वामपंथ विचारधारा से प्रभावित सत्थ्यू ने  इप्टा के साथ बहुत काम किया। गर्म हवा को भी इप्टा के वैचारिक ट्रेंड वाली फिल्म कहा जा सकता है। जिसमें अल्पसंख्यकों के डर और चिंता को बहुत सलीके से उकेरा गया है साथ ही उनके लौटते आत्मविशवास और भरोसे को भी। यह फिल्म काॅन फिल्म समारोह में में गोल्डन पाम श्रेणी में नामांकित हुई थी और आॅस्कर के लिए भेजी गयी थी। साथ ही इसे नरगिस दत्त पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। गर्म हवा के अलावा कान्नेष्वरा रामा, बारा हिन्दी में सूखा इनकी उल्लेखनीय फिल्में हैं। पद्श्री एम. एस सत्थ्यू की सभी कन्नड़ फिल्मों को कर्नाटक राज्य सम्मान हासिल हुआ है। बहरहाल, लगभग एक दशक से भी ज्यादा समय के बाद कन्नड़ भाषा की फिल्म इज्जोडू के साथ सत्थ्यू ने फिर वापसी की है।  देवदासी प्रथा पर बनी यह फिल्म 30 अप्रैल को कर्नाटक में रिलीज हुई।
एम. एस सत्थ्यू से  बातचीत की के प्रमुख अंश:



हाल में रीलीज अपनी नई फिल्म इज्जोडू के बारे में बताएं?
-मेरी यह फिल्म देवदासी प्रथा के बारे में है। हांलाकि सरकार ने इस पर 1982 में ही रोक लगा दी है पर अब भी यह जारी है। फिल्म में मुख्य भूमिका राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त अभिनेत्री मीरा जैसमीन ने िनभाया है साथ में अनिरूद्ध हैं। यह फिल्म और इसका सब्जेक्ट मेरे दिल के बहुत करीब है। मेरी फिल्म देवदासी प्रथा पर बहुत कड़ा स्टैंड लेती है। अभी तक देश के चार फिल्म समारोहों में इज्जोडू दिखायी जा चुकी है, सभी जगह जूरी,आलोचकों और सिनेमा-प्रेमियों ने इसे काफी सराहा है।
देवदासी प्रथा क्या अब भी कायम है? कर्नाटक में इसका क्या स्वरूप है?
-बिल्कुल अभी भी यह कुप्रथा कायम है। उत्तरी कर्नाटक के लगभग 10 जिलों के येल्लमा समाज में देवदासी बनाए जाने की परंपरा है। येल्लमा देवी को मानने वाले खुद को, या अपनी संतान को देवी की सेवा में अर्पित कर देते हैं। मेरी फिल्म में भी गांव वाले एक महामारी से बचने के लिए नायिका को बासवी बनाकर देवी को अर्पित कर देते हैं। बासवी भी देवदासी जैसी ही होती है जो बाद में देह-व्यापार करने पर विवश हो जाती है। कर्नाटक में 10वींशताब्दी से भी पहले से देवदासी प्रथा प्रचलित रही है। जिनमें सबसे प्रमुख येल्लमा देवी को मानने वाला समाज है। गरीबी और अिशक्षा के कारण आज भी ये लोग या तो खुद को या फिर अपनी संतान को देवी की सेवा में अर्पित कर देते हैं। मंदिरों में अपनी बाकी जिंदगी गुजारने को विवश इन लोगों में से महिलाएं बाद में सेक्स वर्कर बनने को बाध्य हो जाती हैं।
लगभग 12 साल के बाद आपने इज्जोडू के साथ वापसी की है, इतना लंबा अंतराल क्यों?
-पैसे नहीं थे। इस दौरान भी कई विषयों और कहानियों पर मेरा मन फिल्म बनाने को हुआ पर उनके लिए फाईंनेंसर नहीं मिल पाए। एफएफसी के पास भी पैसे नहीं हैं और अब तो यह संस्था लगभग निष्क्रय हो गयी है। इज्जोडू को रिलायंस बिग पिक्चर जैसे समूह ने फायनेंस किया है। अब बड़े काॅरपोरेट समूहों का पैसा पाॅपुलर सिनेमा के साथ-साथ प्रायोगिक और छोटी फिल्मों में भी लग रहा है। यह अच्छी बात है, इनके काम करने का तरीका भी पारदर्शी है। बिग पिक्चर हिन्दी में थ्री इंडियट और पा जैसी फिल्मों में पैसा लगाने के साथ साथ क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों में भी पैसा लगा रही हैं।

गर्म हवा को आज भी विभाजन पर बनी सबसे संवेदनशील, प्रमाणिक और बेहतरीन फिल्म माना जाता है। फिर शयाम बेनेगल की मम्मों का नाम याद आता है। दूसरी ओर प िशचम  में युद्ध और ऐसी ही त्रासदियों पर फिल्मों की लंबी श्रृंखला है?
-हमारा सिनेमा इंटरटेनमेंट सिनेमा है। इसलिए अप्रसांगिक है, अपने समय को दर्ज करना हमारे लोकप्रिय सिनेमा को पसंद ही नहीं है, बस एक तय फारमेट में बाॅक्स आॅफिस के हिसाब से फिल्में बनायी जाती है। दरअसल, हम इस्केपिस्ड टाईप हैं जबकि यूरोप में युद्ध के बाद आपको एंटीवार फिल्मों का एक सिलसिला सा मिलेगा, वो रिसेप्टिव रहे हैं।
किसके सिनेमा से आप सबसे ज्यादा प्रभावित रहे हैं?
-स्पीलबर्ग की फिल्में मुझे बहुत पसंद आती रही हैं।
पिछले कुछ सालों में अपने यहां की कौन-कौन सी फिल्में अच्छी लगीं? और निर्देशकों में कौन पसंद हैं?
-माचिस, सत्या, पेज थ्री पसंद आयी मुझे। मणिरत्नम रोचक तरीके से फिल्म बनाते हैं उन्हें व्यावसायिकता और कलात्मकता में संतुलन साधना आ गया है। अनुराग बासु की देव डी भी बहुत उम्दा फिल्म है। उनका काम काफी अच्छा है। रंग दे बंसती में एक अंग्रेज लड़की का आकर हमारा इतिहास बताना मुझे कुछ जमा नहीं। पिछले साल स्लमडाॅग मिलेनियर की बहुत चर्चा रही पर यह कहीं से हमारा सिनेमा नहीं था और न ही आॅस्कर के लायक। लगान भी आॅस्कर टाईप फिल्म नहीं थी और इस बार भेजी गयी हरिष्चंद्राची फैक्टरी भी उस स्तर की नहीं है। हिन्दी के मुकाबले मलयालम, बंगाली और असमी में ज्यादा अच्छी फिल्में बन रही हैं। हिन्दी में नसीर, ओमपूरी परेश रावल के बाद सैफ, शाहिद और अभय देवोल बेहतर अभिनय कर है हैं। शाहरूख और आमिर जैसे अभिनेता महज एक पर्सनेलिटी भर हैं।
आपकी राय में भारतीय सिनेमा का हर पक्ष अपने सर्वोत्तम रूप में किस फिल्म में मौजूद है?
-मृणाल सेन की खंडहर हर मायने में विशवस्तरीय फिल्म है। इसमें सिनेमा का हर पहलू चाहे वो कहानी हो, अभिनय हो या फोटोग्राफी सभी कुछ बहुत उंचा है।
साहित्य से आपको काफी लगाव रहा है। गर्म हवा आपने इस्मत चुगताई की कहानी पर बनायी थी, यू आर अंनतमूर्ति की कहानियों पर भी आपने फिल्म बनायी है। इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं और किन पर काम करने की सोच रहे हैं?
-हां मैं पढ़ता रहता हंू और लगभग हर कहानी और उपन्यास को लगभग इसी नजरिये से पढ़ता हंू कि इस पर फिल्म कैसी बनेगी?  फिलहाल, मैं एक पाकिस्तानी लेखक की रचना ‘स्टोरी आॅफ अ विडो’ पढ़ रहा हूं और वाकई फिल्म बनाने के लिहाज से यह एक अच्छा उपन्यास है। लेकिन साहित्यक रचनाओं पर फिल्म बनाना काफी रिस्की है। इधर कन्नड़ के युवा लेखक बी सुरेशा भी मुझे पसंद आ रहे हैं।
कन्नड़ फिल्म उद्योग के बारे में कुछ बताएं?
-बहुत घटिया फिल्में बन रहीं हैं यहां। सिर्फ रीमेक से काम चलाया जाता है मौलिक काम नही के बराबर हो रहा है। साहित्य में 6 ज्ञानपीठ कन्नड़ को मिल चुका है पर कोई पढ़ता ही नहीं। दूसरी ओर शेशाद्री की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म विमुक्ति को देखने मैं हाॅल में गया तो वहां दर्शक नदारद थे। वैसे काफी बोरिंग फिल्म है यह। गिरीश कासरवल्ली की गुलाबी टाॅकीज अच्छी फिल्म है लेकिन उसे ठीक से रिलीज नहीं किया गया।
स्टेज के लिए काफी काम किया है आपने?
-हां, स्टेज में बहुत पैसों की जरूरत नहीं होती, इसलिए फिल्मों के लिए पैसे नहीं थे तो स्टेज में व्यस्त रहा। वैसे स्टेज का ग्लैमर कुछ अलग ही है।
टीवी के लिए भी आपने बहुत काम किया है, कोई नया प्रोजेक्ट?
-बिल्कुल नहीं! टी.वी में वेराईटी नहीं है अब इस माध्यम में काम करने में कोई मजा नहीं रहा। दूरदर्शन में रचनात्मक आजादी नहीं है और सैटेलाईट चैनलों में टीआरपी की दौड़ में उल-जलूल कार्यक्रमों की भरमार।
सत्तर और आज के सिनेमा की दुनिया में क्या फर्क महसूस करते हैं?
-सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह का फर्क महसूस करता हंू मैं। मल्टीप्लेक्स के कारण प्रयोगों को भी जगह मिल रही है।  तकनीक में हम बहुत आगे निकल आएं हैं। काम आसान हो गया है लेकिन तकनीक का दुरूपयोग भी हो रहा है। दरअसल, फिल्म का एक व्याकरण होता है उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
आगे की योजनाएं क्या हैं?
-मेरी सारी फिल्में एक के बाद एक रिलीज हो रही हैं जिनमें ‘कहां कहां से गुजर गया’ भी शामिल है जो अभी तक रिलीज नहीं हो पायी थी। पंकज कपूर की यह पहली फिल्म है और इसमें अनिल कपूर भी हैं। नक्सल आंदोलन के खत्म होने के बाद युवाओं के लक्ष्यहीन भटकाव के बारे में है यह फिल्म। इसके अलाव पेंग्विन इंडिया की ओर से गरम हवा पर किताब भी आ रही है।