गुरुवार, 23 जून 2011

चंदन के तस्कर


(Published in Public agenda)
कभी दक्षिण-भारत के जंगलों में आतंक का पर्याय रहे और जंगल का राजा कहे जाने वाले वीरप्पन को मरे हुए 7 साल हो चुके हैं। अपने जीवनकाल में दस हजार टन से भी ज्यादा चंदन की लकड़ी की तस्करी करने वाले वीरप्पन ने कर्नाटक, तमिलनाडू और केरल के जंगलों से चंदन के पेड़ों की सफाई करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी, पर उसके जाने के बाद भी यहां एक नहीं बल्कि कई वीरप्पन सक्रिय हैं, जो रातों-रात बंगलूरू जैसे  शहर में विधानसभा से सटे वीवीआईपी इलाके से भी चंदन के पेड़ काट ले जाते हैं और उनका कोई कुछ नहीं कर पाता। हाल ही में तस्करों ने यहाँ चंदन के 3 पेड़ रातों रात काट डाले। जिसमें से एक तो  विधानसभा और हाई कोर्ट के सामने कब्बन पार्क जैसे इलाके  में था।  सार्वजनिक जगह पर साबुत बचा यह शहर का इकलौता चंदन का पेड़ था और जिसकी सुरक्षा में हमेशा  एक सशस्त्र सुरक्षाकर्मी भी तैनात रहता था। और 2 पेड़ सीवी रमण नगर इलाके के एक घर के अहाते से बंदुक की नोक पर काट लिया गया। एक पेशेवर तस्कर  केवल 3 मिनट में परिपक्व चंदन का पेड़ को काट डालता है। आईआईएम बंगलूरू के कैंपस से भी चंदन के पेड़ काट लिए जाते हैं । यहां तक कि इन्सटीट्यूट ऑफ वुड साईंस एंड टेकनॉलजी से भी पांच परिपक्व चंदन के पेड़ों को काटने की कोशिश की गई। सरकार द्वारा अभी भी तमाम सरकारी जमीन और भवनों के अहाते में चंदन के पेड़ लगाए गए हैं पर इन्हें तस्करी से बचाना बड़ा काम है। अभी भी तुराहल्ली के जंगल, बंगलूरू विश्वविद्यालय परिसर, जीकेवीके कैपस, इन्सटीट्यूट ऑफ वुड साईंस एंड टेकनॉलजी और इबलुर में चंदन के पेड़ों की ठीक-ठाक संख्या है जो कुछ सालों में परिपक्व हो जाएंगे पर ये तस्करों से बच पाएंगे या नहीं ये बड़ा सवाल है। अभी के हालात देखकर तो यही लगता है कि तस्करों के हौसले सरकार से ज्यादा बुलंद हैं। कर्नाटक फारेस्ट सेल के रिकार्ड के मुताबिक 2007 में राज्य में चंदन की लकड़ी की तस्करी के 88 मामले सामने आए थे जो 2008 में 191 हो गए लेकिन 2009 में 102 मामले ही दर्ज हुए। लेकिन मामलों में कमी इसलिए नहीं आयी कि पुलिस-प्रशासन ज्यादा मुस्तैद हो गया बल्कि इसलिए कि दिनों दिन चंदन के पेड़ घटते जा रहे है। असलियत ये है कि राज्य के जंगलों में संभवतः गिने-चुने ही प्राकृतिक रूप से उगे चंदन के पेड़ बचे हों या शायद  वो भी नहीं। जबकि कर्नाटक के उत्तरी इलाके में कभी हजारों किलोमीटर तक चंदन के जंगल हुआ करते थे।

अभी एक दशक पहले तक ही बंगलूरू में 97 बड़़े और पुराने चंदन के पेड़ हुआ करते थे जिसमें 21 कब्बन पार्क में थे। लेकिन जल्दी ही इनकी संख्या 21 से 6 रह गई, धीरे-धीरे सब माफियाओं की भेंट चढ़ते गए। और आखिरकार इकलौता पेड़ भी उनकी नजर हो गया। हांलाकि कब्बन पार्क और लाल बाग जैसी जगहों में चंदन के और पेड़़ है पर उन्हें लगाए कुछ ही साल हुए है और वो अभी परिपक्व नहीं हुए हैं।
चंदन, कर्नाटक की पहचान और संस्कृति का हिस्सा रहा है। सिल्क के साथ-साथ कर्नाटक अपने मैसूर सैंडल सोप और चंदन की लकड़ी से बनी खूबसूरत कलाकृतियां के लिए भी उतना ही जाना जाता है। यहां लाखों लोगों की रोजी रोटी, चंदन और इससे जुड़े कारोबार से चलती है मसलन, अगरबत्ती से लेकर  साबुन, टेल्कम पाउडर, परफ्यूम और ऐसे ही अनगिनत सौन्दर्य उत्पाद यहां बनते हैं। इसके अलावा चंदन की लकड़ी पर नक्काषी या इससे कलाकृतियां बनाने का काम भी यहां बड़े पैमाने पर होता है, दवाईयों में भी चंदन के तेल का इस्तेमाल होता है। यह कर्नाटक का राजकीय वृ़क्ष भी है। और मैसूर तो कर्नाटक का चंदन का षहर ही कहलाता है। देष का 70 प्रतिशत चंदन कर्नाटक ही मुहैया कराता रहा है। जो हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि दुनियां में सबसे बेहतरीन माना जाता है।  पर दिनों दिन बढती मांग और घटती आपूर्ति ने आज इस पेड़ के आस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है।
वैसे चंदन के पेड़़ भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं भी लगाए जा सकते हैं, केवल सही किस्म का चयन करना होता है। फिलहाल देश में 27 किस्म के चंदन के पेड़ पाएं जातें है। मध्यम उर्वर मिट्टी, और थोड़ी ढाल वाली जमीन ताकि जड़ों में पानी नहीं रूके इसके लिए उत्तम है। लेकिन शुष्क जलवायु दशाओं में पेड़ में बनने वाले हार्टवुड और तेल की गुणवत्ता जरूर बहुत उम्दा हो जाती है। कर्नाटक की आबो हवा और प्राकृतिक दशाएं चंदन के पेड़ों के लिए एकदम सटीक है। सदाबहार जंगल का यह पेड़ 40 से 50 फीट तक उंचा और 3 से 8 फीट मोटा होता है। थोड़ा बैंगनीपन लिए हुए इसके भूरे रंग के फूल सुंगधहीन होते हैं। प्राकृतिक  चंदन के पेड़ कम से कम 30 साल में परिपक्व होते है। जबकि प्लानटेशन के तहत उगाए गए चंदन के पेडों में़ दस से पन्द्रह साल के भीतर ही  25 किलो तक संुगधित हार्टवुड का निर्माण हो जाता है। लेकिन अब चंदन के पेड़ों की ऐसी किस्में भी विकसित कर ली गई हैं जो 12 साल में तैयार हो जाती है। चंदन की लकड़ी की बिक्री हार्टवुड, ब्रांचवुड, चिप्स और पाउडर के रूप में होती है। हार्टवुड से ही चंदन की कलाकृतियां और गहने बनाए जाते हैं जबकि छाल को पीसकर उससे अगरबत्ती बनती है। जड़ों से तेल निकाला जाता है। और पेड़ को खरोंच-खरोंच कर पाउडर जमा किया जाता है।
दरअसल, चंदन मतलब पैसा! एक ऐसा पेड़, जो आकार नहीं बल्कि वजन के हिसाब से बेचा जाता है। आज एक टन भारतीय चंदन की लकड़ी की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लगभग 45 लाख से भी ज्यादा है। पिछले 18 साल से सालाना लगभग 18 प्रतिशत की दर से इसमें  इजाफा हो रहा है। जबकि 1 लीटर चंदन के तेल की कीमत सवा लाख से उपर है। दो साल पहले तक प्रति टन चंदन की लकड़ी की कीमत 20 लाख रूपए थी। मोटे तौर पर एक एकड़ में चंदन लगाने पर 12 से 15 साल में 22 से 25 लाख तक खर्च आता है और मुनाफा ढ़ाई करोड़ से उपर। यही वजह है कि निजी क्षेत्र की कई कंपनियां चंदन के प्लानटेशन में उतर चुकी हैं। सूर्या विनायक इंडस्ट्रीज, डी एस समूह और नामधारी सीड्स लिमिटेड कर्नाटक के अलावा देश के अन्य राज्यों में बड़े पैमाने पर चंदन की खेती कर रही हैं। श्री श्री एग्री ग्रुप जैसी कंपनी तो बिहार में भी चंदन की खेती की योजना बना रही है। इसके अलावा भारत को चंदन के उत्पादन में सबसे बड़ी चुनौती आस्ट्रेलिया से मिलने वाली है। जहां बड़े पैमाने पर भारतीय चंदन की प्लानटेषन की गई है और 2012 से वहां के चंदन की पहली खेप बाजार में आनी शुरू  हो जाएगी।
कर्नाटक के कुल 20 फीसदी हिस्से में जंगल हैं और कुल वन-क्षेत्र के 10 फीसदी में कभी चंदन हुआ करते थे जो अब घटकर महज 5 फीसदी या उससे भी कम रह गया है। यानी चंदन के प्राकृतिक वन-क्षेत्र विलुप्त होने के कगार पर हैं। तस्करी का आलम जब बंगलूरू में ऐसा है तो सहज समझा जा सकता है राज्य के जंगल कितने सुरक्षित हैं।  चंदन उत्पादन में अग्रणी रहे कर्नाटक में पिछले तीन साल से लकड़ी की नीलामी ही नहीं हुई है। जाहिर है  दूसरे राज्यों और आयात करके काम चलाया जा रहा है पर लंबे समय तक कच्चे माल की आपूर्ति नहीं होने की सूरत में लाखों लोगों की रोजी-रोटी पर इसका सीधा असर होगा। इसलिए  चंदन उत्पादन को लेकर सरकार गंभीर हो गई है। और चंदन की खेती का रकबा डेढ़ हजार एकड़ से बढ़ा कर दो हजार एकड़ करने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही सरकार ने चंदन की लकड़ी के उत्पादों से होने वाले मुनाफे पर लगाए जाने वाले 50 फीसदी कर में भी रियायत दे दी है। और उत्पादक राज्य सरकार के अलावा अन्य एजेंसियों को भी चंदन की लकड़ी बेच सकता है। यहां तक कि विभिन्न सरकारी संस्थान भी अगर अपने परिसर में लगे चंदन के पेड़ों को हटाते हैं तो  राज्य का वन विभाग उन्हें इसका भुगतान करेगा।  इसके अलावा नेशनल मेडीसिनल प्लांट बोर्ड भारत सरकार की ओर से भी चंदन की खेती पर सबसिडी दी जाती है साथ ही सभी र्राष्ट्रीय बैंक चंदन के पेड़ लगाने की परियोजनाओं के लिए कर्ज भी मुहैया कराते हैं।
हालात को देखते हुए ही राज्य सरकार विधानसभा के अगले सत्र में कर्नाटक राज्य वृक्ष संरक्षण कानून में संशोधन करने जा रही है। राज्य के वन मंत्री सी एच विजयशंकर ने इस संबंध में बताया कि कानून के पारित हो जाने के बाद चंदन के पेड़ के मालिक अंतर्राष्ट्रीय कीमत के अनुसार अपने पेड़ की लकड़ी भी बेच सकेंगे। गौरतलब है कि कर्नाटक में 2001 में वृक्ष संरक्षण कानून में संशोधन कर अपनी जमीन पर लगाए गए चंदन के पेड़ का मालिकाना हक भूस्वामी को दे दिया गया था पर उसकी बिक्री पर सरकार का नियंत्रण है। इसके इस्तेमाल के लिए सरकारी मंजूरी जरूरी है। यही नहीं बगैर सरकारी मंजूरी के चंदन की लकड़ी अपने पास रखना या इसे कहीं ले जाना भी गैरकानूनी है। जाहिर है ऐसे में पेड़ को बेचना और फिर सरकार की ओर से पैसे का भुगतान बड़ी समस्या थी। इसलिए किसान चंदन की खेती से दूर रह रहे थे।  है। किसानों को इससे जोड़ने के लिए कानून में संशोधन समय की मांग है।
कुल मिलाकर चंदन की लकड़ी उगाने वालों के लिए आने वाला समय सबसे मुफीद साबित होने वाला है। बशर्ते अगर उनके पेड़ वीरप्पनों से बच जाएं।


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