शुक्रवार, 3 अगस्त 2012

कठोर जीवन और कला

कई मासूम जिंदगियों को बाल-मजदूरी, ग़रीबी और नशे के शिकंजे से निकाल कर बंगलुरू में खुली-ताजी हवा में सांस लेने का मौक़ा दे रहा है बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल। मनोरमा की रिपोर्ट (Public Agenda)
कभी नारियल पानी बेचने में अपने पिता की मदद करने वाला सुब्रमण्या आज एक अच्छा-खासा अभिनेता है। अभिनय में जल्दी ही डिप्लोमा करने की उसकी ख्वाहिश है। साथ ही वह अच्छी फोटोग्राफी और क्ले मॉडलिंग भी करता है। कुछ ऐसा ही किस्सा लॉ फ्रीडा शांति का भी है, जिनका असली नाम तो लक्ष्मी था पर जॉन देवराज ने उसमें फ्रीडा काहलो को देखा और फ्रीडा नाम दे दिया। फ्रीडा जॉन देवराज के "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' की आज मजबूत स्तंभ है। एक कलाकार होने के साथ ही स्कूल और हॉस्टल की तमाम जिम्मेदारियां बखूबी निभाती है। चार साल की उम्र में वह पुणे से भागकर बंगलुरू आयी थी और घरेलू नौकर से लेकर फैक्ट्री तक में काम करके अपना पेट पालती रही। लेकिन 2005 में "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' के एक कैंप में शामिल होने के साथ उसकी जिंदगी बदल गयी। अब उसे मूर्तिकला, पेंटिंग, नृत्य-संगीत, फोटोग्राफी और क्लेमॉडलिंग में महारत हासिल है। उसकी बनायी कलाकृतियों और चित्रों की प्रदर्शनी लगती है। नन्हीं शिल्पा और मीना पहले ट्रैफिक सिग्नल पर गुलाब के फूल बेचा करती थीं, लेकिन अब वे दूसरी कक्षा में पढ़ाई कर रही हैं। फजल पहले एक ड्रग-एडिक्ट था, अब भी पूरी तरह से नशे की गिरफ्त से आजाद नहीं हुआ है। लेकिन, "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' ने उसे भविष्य के प्रति आशावान जरूर बना दिया है। अक्तूबर 2009 में 25 बिहारी बाल बंधुआ मजदूरों को मैजेस्टिक के बैग बनाने की फैक्ट्री से छुड़ाया गया। उन्हीं में एक गज भी था। पांच सौ रुपये में गज को बच्चों के स्कूल बैग बनाने वाली फैक्ट्री में काम करने के लिए बेचा गया था। वह जिमनास्टिक में कर्नाटक राज्य का प्रतिनिधित्व कर रहा है।
वेंकटेश, मारप्पा, श्रीनिवास, रेशमा, संजना, एंथनी, प्रशांत, एलिजाबेथ, गौरी गंजेला, रंजीता, चन्ना बासव्वा, पीटर, अनीता, जयराम, रॉबिन बालू, किरण जेके, रवि, जलाली जैसे कई और नाम हैं, जिनकी जिंदगियां बाल-मजदूरी, गरीबी और नशे की लत के शिकंजे से निकल कर अब खुली-ताजी हवा में सांस ले रही हैं, खिलखिला रही हैं। इसका सारा श्रेय बंगलुरू के "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' और उसके संस्थापक जॉन देवराज को जाता है।
दरअसल, "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' अपने आप में एक अनोखी पहल है। यह सड़कों और फुटपाथों पर रहने वाले बच्चों और बाल-मजदूरी और बंधुआ मजदूरी करने वाले बच्चों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रहा है। वह भी गीत-संगीत, नृत्य, थियेटर, फोटोग्राफी, पेंटिंग, फिल्ममेकिंग, क्ले-मॉडलिंग और मूर्तिकला के जरिये। जॉन खुद जाने-माने कलाकार हैं। वे मूर्तिकला, पेंटिंग, संगीत, फोटोग्राफी, थियेटर और कला निर्देशन में पारंगत हैं। उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की, लेकिन मन लगा तो रंगों, रेखाओं और आकारों की दुनिया में। आखिरकार उन्होंने अपना जीवन उन बच्चों के नाम कर दिया, जो अपने बुनियादी हकों से वंचित हैं। जॉन को बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ते हुए एक दशक से भी ज्यादा हो गया। सड़कों और फुटपाथ पर रहने वाले अनाथ बाल-मजदूर बच्चों के लिए और हजारों बच्चों को बाल-मजदूरी से निकाल कर मुख्यधारा में वापस लाने की कोशिश के बारे में जॉन कहते हैं, "मैं आंध्र प्रदेश का हूं, जहां एक दशक पहले चक्रवातीय तूफान में लाखों लोग मारे गये थे। मेरे आसपास के भी सैकड़ों लोग मारे गये थे। इस घटना का मुझ पर बहुत असर हुआ। मैं स्वयंसेवक बनकर लोगों की मदद के साथ ही पेंटिंग भी करने लगा। मेरी कलात्मक अभिव्यक्तियों में उस घटना की गहरी छाप अब भी है। उस तबाही ने मुझे बेचैन किया। फिर कला ने ही मुझे थामा। मेरी समझ में तभी आ चुका था कि कला बहुत समृद्ध माध्यम है समाज को कुछ वापस लौटाने का। इसमें लोगों और समाज को बदलने की क्षमता है।' 
जॉन ने 2006 में "बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल' की शुरुआत की। मकसद था सड़कों पर मारे-मारे फिरने वालों बच्चों और बाल-मजदूरी करने वाले बच्चों को कला की मार्फत शिक्षा देकर मुख्यधारा में लाना। जॉन कहते हैं, "देश के बजट का यानी हमारे संसाधनों का पचास फीसद हिस्सा हथियारों की खरीद में खर्च होता है। देश के भविष्य को दुरुस्त करने के लिए सरकारों के पास बजट नहीं होता। इसलिए मैंने बाल-मजदूरी से मुक्त कराये गये बच्चों के साथ मिलकर दुनिया का सबसे लंबा प्रेम-पत्र पाकिस्तान के बच्चों के नाम लिखा जिसमें युद्ध नहीं, बल्कि शिक्षा को दोनों देशों की प्राथमिकता बनाने की गुजारिश की गयी थी। उस पर दोनों देशों के लाखों बच्चों के हस्ताक्षर थे। आखिर दोनों देशों के साधनहीन गरीब तबके के बच्चों की हालात एक जैसी ही है।'
जॉन कहते हैं, "पूरी दुनिया में 21 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे बाल-मजदूरी कर रहे हैं। अकेले भारत में यह संख्या दस-बारह करोड़ से ऊपर है। यानी इसे खत्म करने के लिए बहुत बड़े स्तर पर काम करने की जरूरत है। लेकिन जॉन ने कला का माध्यम ही इन बच्चों को मुख्यधारा में लाने के लिए क्यों चुना? यह पूछने पर वे कहते हैं, "ऐसे बच्चे बहुत कठिन दुनिया में रहकर आते हैं। उनके अनुभव बहुत कड़वे होते हैं, ऐसे में कला मरहम का काम करती है। इन आहत बच्चों की आत्मा को "हील' करती है। सब स्वीकार करते हुए आगे बढ़ने और अपनी तकदीर खुद लिखने का हौसला देती है। ऐसा नहीं है कि हम केवल कलात्मक हुनर ही इन्हें सिखाते हैं, ये बच्चे स्कूलों में पढ़ते भी हैं।'
जॉन के लिए बगैर किसी किस्म की सरकारी सहायता या अनुदान के यह सब करना खासा मुश्किल काम रहा। लेकिन वे कहते हैं, "सबसे बड़ा सहयोग हमें वॉलंटियर्स से मिलता है, जो बगैर किसी चाहत के समाज को कुछ लौटाना चाहते हैं। फिलहाल हम यही चाहते हैं कि ज्यादा से ज्यादा वॉलंटियर्स न सिर्फ बंगलुरू या कर्नाटक, बल्कि पूरे देश में हमसे जुड़ें और इसे आगे बढायें।'इसी साल फरवरी में ब्रिटेन की कलाकार सैडी ने एक महीने तक बॉर्न फ्री आर्ट स्कूल के 20 बच्चों को चित्रकला और पेंटिंग सिखायी और बाद में इन बच्चों की पेंटिंग की प्रदर्शनी "फ्रीडम फ्रॉम टाइल-गुड लाइफ, बैड लाइफ' के नाम से लगी, जिसे स्थानीय लोगों के अलावा ऑस्ट्रेलिया, जापान, पोलैंड, इंग्लैंड, स्लोवाकिया जैसे देशों से आये लोगों ने भी देखा और सराहा। जॉन देवराज बच्चों के साथ मिलकर समय-समय पर कई आयोजन करते हैं, ताकि वे अपनी कला और रोजमर्रा के जीवन में उसकी प्रासंगिकता के बीच तालमेल बिठा सकें। इसी सिलसिले में हाल ही में जॉन ने बॉर्न फ्री बच्चों के साथ दुनिया का सबसे बड़ा मिट्टी का घड़ा लालबाग में बनाया इसे गिनीज बुक्स ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में शामिल भी किया गया है। पर्यावरण संरक्षण और पेड़ों की रक्षा के संदेश के साथ बना यह घड़ा 25 फीट ऊंचा है। इसका वजन दो हजार किलोग्राम है। 

शनिवार, 28 जुलाई 2012


ताक़त के तीन हिस्से

कलह और गुटबाज़ी से जूझ रही कर्नाटक भाजपा का राजनीतिक संकट फ़िल हाल टल गया है लेकिन येदियुरप्पा की महत्वाकांक्षाओं के शिकार हुए सदानंद गौड़ा का गुट फिर से राजनीतिक संकट खड़ा कर सकता है। मनोरमा की रिपोर्ट( द पब्लिक एजेंडा में प्रकाशित  )
कर्नाटक में भाजपा का संकट अभी खत्म होता नहीं लगता। सरकार बचाने और चलाने की जद्दोजहद में ही अगला विधानसभा चुनाव का समय नजदीक आ जायेगा, जिसमें मात्र ग्यारह महीने ही बचे हैं। चार साल के अंतराल में राज्य में तीसरे मुख्यमंत्री शपथ लेने वाले हैं। दरअसल, कर्नाटक भाजपा इन दिनों व्यक्तिगत अहम, कलह और गुटबाजी की राजनीति से जूझ रही है। मौजूदा संकट और नेतृत्व परिवर्तन उसी की बानगी है। पार्टी से बड़ा व्यक्ति विशेष का अहम हो गया है और केंद्रीय नेतृत्व की मजबूरी है उसे तुष्ट करना। आखिरकार येदियुरप्पा ने साबित कर ही दिया कि कर्नाटक में फिलहाल भाजपा के सबसे कद्दावर नेता वही हैं, चाहे वे मुख्यमंत्री पद पर रहें या न रहें। भाजपा को राज्य में अपना अस्तित्व बनाये और बचाये रखना है तो येदियुरप्पा के आगे उसे झुकना ही होगा। इसलिए सदानंद गौड़ा को असमय मुख्यमंत्री पद की बलि देनी पड़ी और जगदीश शेट्टर के लिए रास्ता खाली करना पड़ा। 
सदानंद गौड़ा साफ छवि के नेता हैं और उनकी सरकार पर कोई दाग भी नहीं लगा, बावजूद इसके वे अपना पद छोड़ने के लिए राजी हो गये तो इसकी वजह उनका राजनीतिक व्यक्तित्व और शैली ही है। उनकी जगह येदियुरप्पा होते तो ऐसा शायद नहीं कर पाते। गौड़ा शुरू से भाजपा के अनुशासित नेता रहे हैं और अब तक पार्टी के आदेशों के मुताबिक ही उन्होंने राजनीति की है। लेकिन मौजूदा घटनाक्रमों ने कर्नाटक भाजपा में उनका भी एक खेमा विकसित कर दिया है, जो हर आदेश को चुपचाप मानने को तैयार नहीं है। यह उस समय दिखा भी जब वे अपना इस्तीफा राजभवन में सौंपने जा रहे थे। उनके समर्थकों ने उन्हें रोकने की पूरी कोशिश की, लेकिन अंततः उन्होंने एक साल पूरा करने से पहले ही पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि, वोक्कालिगा समुदाय के लोगों का तीव्र विरोध जारी है और वेे किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर रहे हैं। 
बहरहाल गौड़ा के प्रस्थान की इस पटकथा को पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने लिखा। जेल से वापस आने के साथ ही येदियुरप्पा ने केंद्रीय नेतृत्व पर खुद को मुख्यमंत्री बनाने या गौड़ा को बदलने के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया था, जिसे टालने की भरपूर कोशिशें की गयीं। लेकिन पिछले दिनों उनके खेमे के नौ मंत्रियों ने कैबिनेट से इस्तीफा देकर केंद्रीय नेतृत्व को गौड़ा को हटाने के लिए अंततः मजबूर कर ही दिया। इन मंत्रियों में जगदीश शेट्टर भी एक थे। ये वही येदियुरप्पा हैं जो अपने शासन काल के दौरान इसी तरह की परेशानियां रेड्डी बंधुओं के कारण झेलते रहे थे। हालांकि, सरकार भी उन्होंने उन्हीं रेड्डी बंधुओं के पैसों और सहयोग से ही बनायी थी। लेकिन अवैध खनन के मामले में लोकायुक्त की रिपोर्ट में नाम आने पर पिछले साल जुलाई में उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था और अगस्त में सदानंद गौड़ा प्रदेश के नये मुख्यमंत्री बनाये गये थे। ऐसा राजनीति में ही हो सकता है कि जिस जगदीश शेट्टर को मात देकर येदियुरप्पा ने सदानंद गौड़ा को मुख्यमंत्री बनवाया था, आज पासा एकदम पलटा हुआ है। शेट्टर के लिए येदियुरप्पा ने गौड़ा को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिलवा दिया। वैसे कहा जाता है कि "दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है' लेकिन येदियुरप्पा शायद यह भूल रहे हैं कि सदानंद गौड़ा उनके खेमे के और उनके भरोसे के हुआ करते थे, जबकि जगदीश शेट्टर हमेशा उनके प्रतिद्वंद्वी रहे हैं। दोनों लिंगायत समुदाय के नेता हैं, इसलिए येदियुरप्पा कभी भी शेट्टर का कद बढ़ने देना नहीं चाहते थे। जब गौड़ा उनके लिए रबर स्टांप मुख्यमंत्री नहीं बने, तो क्या गारंटी है कि शेट्टर आने वाले समय में उन्हें किनारे नहीं करेंगे? 
सबसे दुखद बात ये है कि इस पूरे प्रकरण ने कर्नाटक की जाति आधारित राजनीति का बदरंग चेहरा सामने रखा है, जहां भाजपा को अगली बार भी बहुमत में आने के लिए लिंगायतों को तुष्ट करना पड़ेगा। चूंकि येदियुरप्पा अदालत में चल रहे मामलों के कारण अभी मुख्यमंत्री नहीं बन सकते इसलिए एक और लिंगायत नेता जगदीश शेट्टर को पार्टी का चेहरा बनाया गया है। कहा ये भी जा रहा है कि मुख्यमंत्री पद के लिए येदियुरप्पा की पहली पसंद पिछली बार उनकी करीबी ऊर्जा मंत्री शोभा करंदलाजे ही थीं, लेकिन वे लिंगायत की बजाय वोक्कालिगा थीं, इसलिए मुख्यमंत्री नहीं बन सकीं। हालांकि, सदानंद गौड़ा भी वोक्कालिगा ही थे। दरअसल, कर्नाटक में सबसे ज्यादा सतरह फीसद वोट लिगंायतों के ही हैं और वोक्कालिगा 15 फीसद के साथ दूसरे नंबर पर आते हैं, लेकिन उनका वोट बंटा हुआ है। 
फिलहाल जनता दल सेक्युलर (जेडीएस) की वोक्कालिगा समुदाय पर अच्छी पकड़ है, जबकि भाजपा के लिए राज्य में लिंगायत ही सबसे बड़े वोट-आधार हैं। दूसरी ओर लिंगायत वोट धर्मगुरुओं और मठों के द्वारा बहुत हद तक निर्देशित होते हैं और भाजपा का इन मठों और धर्मगुरुओं पर खासा असर है। कांग्रेस की पकड़ पिछड़ों और दलितों के बीच ज्यादा है। 
बहरहाल, जगदीश शेट्टर पहली लड़ाई तो जीत गये हैं, लेकिन क्या आगे का रास्ता तय करना उनके लिए आसान है? कर्नाटक में भाजपा सरकार के चार साल में तीसरे मुख्यमंत्री बने 56 वर्षीय जगदीश शेट्टर हुबली से चौथी बार विधायक हैं और लिंगायत होने के साथ उत्तरी कर्नाटक के प्रभावशाली नेता भी हैं, जहां भाजपा की मजबूत उपस्थिति है। एसएम कृष्णा के मुख्यमंत्री रहने के दौरान शेट्टर विपक्ष के नेता रह चुके हैं और सन् 2009 में ग्रामीण विकास और पंचायती राज मंत्री बनने से पहले येदियुरप्पा के मुख्यमंत्री रहने के दौरान विधानसभा अध्यक्ष भी रह चुके हैं। अपने कैरियर की शुरुआत में वे येदियुरप्पा के करीब भी रहे हैं। यहां तक कि येदियुरप्पा के "ऑपरेशन कमल' को अमली जामा पहनाने में भी शेट्टर की प्रमुख भूमिका रही। अब देखना यह है कि साफ-साफ दो खेमों में बंट चुके विधायकों के साथ वे कैसा मंत्रिमंडल बना पाते हैं और असंतुष्टों को साध कर कैसे सरकार चला पाते हैं। बड़ी चुनौती उन्हें गौड़ा समर्थक विधायकों से ही मिलेगी। साथ ही अंदरूनी कलह से बिगड़ी भाजपा की छवि सुधारने की बड़ी जिम्मेदारी भी उनपर है। लेकिन इसके लिए उनके पास ज्यादा समय नहीं है। मई 2013 में विधाानसभा चुनाव हो सकते हैं या फिर ये भी हो सकता है कि गुजरात विधानसभा चुनाव के साथ दिसंबर में ही कर्नाटक में चुनाव कराये जायें। बहरहाल, संकट का पहला पड़ाव तो पार कर लिया गया है। यानी मुख्यमंत्री पद का मसला, मंत्रीमंडल का गठन और हर खेमे को संतोषजनक प्रतिनिधित्व देना ये ज्यादा बड़ी समस्याएं नहीं हैं और केंद्रीय नेतृत्व को इसकी ज्यादा चिंता भी नहीं है। संकट शिखर के लोगों का और लोगों से है। दरअसल, येदियुरप्पा प्रदेश पार्टी अध्यक्ष का पद अपने लिए चाहते हैं। वे गौड़ा को किसी भी कीमत पर इस पद पर नहीं देखना चाहते, क्योंकि उनके नेतृत्व में अगर भाजपा राज्य में अगला चुनाव जीत जाती है, तो गौड़ा कर्नाटक में भाजपा के सबसे बड़े नेता बन कर उभर सकते हैं। दूसरी ओर, गौड़ा अपनी ताकत मुख्यमंत्री के बाद एक इसी पद से साबित कर सकते हैं। जाहिर है, केंद्रीय नेतृत्व का उन्हें राज्यसभा में भेजने का प्रस्ताव देना फिलवक्त राज्य की राजनीति से वनवास ले लेने के समान होगा। दूसरी ओर यह भी गौरतलब है कि येदियुरप्पा को कर्नाटक में जब बहुमत मिला तब गौड़ा ही प्रदेश अध्यक्ष थे। ऐसे में भाजपा के लिए "आगे कुंआ, पीछे खाई' सी स्थिति बन रही है। गौड़ा की उपेक्षा से वोक्कालिगा वोट प्रभावित हो सकते हैं। खबर ये भी है कि केंद्रीय नेतृत्व संतुलन बनाने के लिए प्रदेश पार्टी अध्यक्ष पद पर किसी दलित नेता को बिठा सकता है। क्योंकि येदियुरप्पा खेमा ईश्वरप्पा के बजाय गृहमंत्री आर अशोक को उपमुख्यमंत्री बनाना चाहता है और सदानंद गौड़ा खेमे की पसंद ईश्वरप्पा हैं। ऐसे में संभावना दो उपमुख्यमंत्री बनने की है। 
अब देखना ये है कि गौड़ा को प्रदेश पार्टी अध्यक्ष पद मिलता है या नहीं, क्योंकि राज्यसभा जाने की पेशकश तो उन्होंने पहले ही ठुकरा दी है। ऐसे में केंद्रीय नेतृत्व उन्हें उनके खेमे के लोगों को बेहतर पोर्टफोलियो देने का आश्वासन ही दे सकता है। ये और बात है कि गौड़ा इस पर शायद ही मानें। उनके खेमे में पचास से ज्यादा विधायक हैं और शेट्टर कैबिनेट में 20 मंत्री पद उनकी मांग है। 

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

कितने दिन अमन-चैन

(Published in Public Agenda)
येदियुरप्पा गद्दी पाने को उतावले है। लेकिन अपने जिस चहेते सदानंद गौड़ा को उन्होंने कुर्सी पर बिठाया था वही आज उनकी राह का रोड़ा हैं। फ़िलहाल कर्नाटक भाजपा में तूफ़ान के आने से पहले की ख़ामोशी छायी है। मनोरमा की रिपोर्ट

कर्नाटक में जब येदियुरप्पा मुख्यमंत्री थे तो तीन बार कुछ ऐसा ही हाई वोल्टेज ड्रामा खेला गया जैसा पिछले दस दिनों से जारी है। तीनों बार वे अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे, हालांकि चौथी बार उन्हें कुर्सी छोड़नी ही पड़ी। उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। अवैध खनन और भूमि आवंटन में अनियमितता के आरोपों के कारण जब उन्हें गद्दी छोड़नी पड़ी थी तब भी उनके पास सत्तर से ऊपर विधायकों का समर्थन था, लेकिन चाहते हुए भी वे विद्रोही तेवर नहीं दिखा सके। कारण केंद्रीय नेतृत्व हर हाल में कर्नाटक में लगे दाग को साफ करना चाहता था। तब येदियुरप्पा के खास चहेते सदानंद गौड़ा मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे।आज वही सदानंद गौड़ा येदियुरप्पा की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। उस समय जगदीश शेट्टर अनंत कुमार खेमे की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे। तब गुप्त मतदान से मुख्यमंत्री चुना गया था। गौड़ा को 66 मत मिले थे और शेट्टर को 52 ही। लेकिन राजनीति में कब पासा पलट जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता। अब वही अनंत कुमार और येदियुरप्पा करीब आ गये हैं और उन 70 विधायकों के साथ-साथ जगदीश शेट्टर भी येदियुरप्पा के साथ खड़े हैं। यहां तक कि बजट सत्र से पहले खुद को मुख्यमंत्री नहीं बनाये जाने की सूरत में येदियुरप्पा चाहते थे कि शेट्टर को वित्त मंत्री बना दिया जाये ताकि बजट गौड़ा नहीं शेट्टर पेश कर सकें। बहरहाल, इस पूरे प्रकरण में भाजपा की अंदरूनी राजनीति और अनुशासन की कलई खुल गयी। राज्य में पार्टी को बड़ी चुनौती विपक्षी दलों से नहीं, बल्कि अपने ही खेमों से मिल रही है। चुनाव सन् 2013 में होने हैं पर ऐसे ही हालात रहे तो मौजूदा सरकार का अपना कार्यकाल पूरा कर पाना मुश्किल लगता है। संकट की शुरुआत इसी महीने के पहले हफ्ते से हो गयी थी जब कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अवैध खनन के मामले में येदियुरप्पा पर लोकायुक्त पुलिस द्वारा दायर एफआईआर रद्द कर दी। गौरतलब है कि लोकायुक्त विशेष अदालत के आदेश के खिलाफ येदियुरप्पा की ओर से कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील की गयी थी। चूंकि अवैध खनन पर जारी लोकायुक्त की रिपोर्ट में नाम आने पर ही पिछले साल जुलाई में येदियुरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा था, इसलिए उच्च न्यायालय द्वारा इस मामलें में क्लीन-चिट मिल जाने पर ही तार्किक रूप से मुख्यमंत्री के तौर पर उनकी दावेदारी वापसी की बनती है।इसलिए येदियुरप्पा ने दवाब की राजनीति खेलनी शुरू की। पहले उन्होंने उडुपी-चिकमगलूर के उपचुनाव में प्रचार करने से इनकार कर दिया जबकि वे स्टार प्रचारक थे। पार्टी को यहां मिली हार बेशक उनके मन की मुराद थी। इससे वे यह संदेश देने में कामयाब रहे हैं कि राज्य में उनके कद का नेता कोई नहीं, बल्कि जिस लिंगायत मतदाता का समर्थन उनके साथ है, भाजपा उसकी अनदेखी नहीं कर सकती। इसके अलावा येदियुरप्पा ने अपने एक उम्मीदवार को राज्यसभा में पहुंचाकर अपनी दमदार वापसी का संकेत दे दिया है। फिर बजट सत्र से पहले मुख्यमंत्री बदलने का अल्टीमेटम उनकी दूसरी चाल थी। येदियुरप्पा अड़ गये कि बतौर मुख्यमंत्री वे ही बजट पेश करेंगे। उन्होंने यह धमकी 55 विधायकों के साथ दी जिनके बल पर वे बंगलुरू के एक रिसॉर्ट में डेरा डाले हुए थे। एक दिन बाद 10 और विधायक उनके साथ शामिल हो गये। फिलहाल उनका दावा है कि सत्तर से ऊपर विधायक उनके साथ हैं। वर्तमान में भाजपा के 117 विधायक हैं और सरकार बनाने के लिए 112 विधायकों का समर्थन जरूरी है। 
वैसे  उच्च न्यायालय के इस फैसले को फिर सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गयी है और उस पर फैसला आना बाकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने सेंट्रल एमपावर्ड कमेटी को यह निर्देश दिया है कि अवैध खनन के मामले में येदियुरप्पा और उनके परिवार की संलिप्तता की सीबीआई जांच आवश्यक है या नहीं, इस पर अपनी रिपोर्ट दे। जरूरी नहीं कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला भी येदियुरप्पा के हक में आये या उनपर सीबीआई जांच का मसला न बने। अतः अक्लमंदी यही थी कि फिलहाल राज्य के नेतृत्व में बदलाव नहीं किया जाये।दूसरी ओर, पिछले महीनों में सदानंद गौड़ा बगैर किसी विवाद के सरकार चलाते रहे हैं। उनकी छवि साफ और ईमानदार नेता की है। वे आरएसएस की पसंद भी हैं। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि उनके द्वारा पेश किये गये बजट को सराहना मिली है हालांकि इस पूरे विवाद के कारण इस पर अपेक्षित चर्चा नहीं हो पायी। साथ ही वे राज्य के दूसरे सबसे बड़े समुदाय वोक्कालिगा से आते हैं और भाजपा की ओर से एचडी कुमारस्वामी का जवाब माने जाते हैं। लेकिन राज्य के जाति समीकरण में लिंगायत 20 फीसद से ऊपर हैं। इस समुदाय से येदियुरप्पा जैसा कोई और प्रभावशाली नेता भाजपा के पास नहीं है। भाजपा के गढ़ माने जाने वाले उडुपी-चिकमगलूर में पार्टी को पैंतालीस हजार मतों के अंतर से मिली हार चेतावनी है। कर्नाटक की जनता पिछले चार साल से भ्रष्टाचार के तमाम मामलों के साथ-साथ भाजपा का अंतर्कलह देख रही है जो अब अपने चरम पर है।आकलन के मुताबिक, इस उपचुनाव में करीब 24 हजार नये मतदाता जुड़े और पहली बार वोट दे रहे इन मतदाताओं का एक भी वोट भाजपा को नहीं मिला। यानी अगले चुनाव में मतदाता जाति के अलावा दूसरे गुंजाइश फैक्टर को नजरअंदाज नहीं करेगा। भाजपा के लिए चिंता की बात यह भी है कि लिंगायतों के दबदबे वाले राज्य के मठों का समर्थन अभी भी येदियुरप्पा के साथ ही है। ऐसे में येदियुरप्पा की ज्यादा दिनों तक अनदेखी नहीं की जा सकती। एक ओर येदियुरप्पा के बागी तेवर हैं तो दूसरी ओर सन् 2013 में चुनाव की नैया। बहरहाल, येदियुरप्पा की खामोशी तूफान से पहले की खामोशी भी हो सकती है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उन्हें बजट सत्र तक यथास्थिति बहाल रखने के एवज में अप्रैल में उनके हक में फैसला करने का आश्वासन दिया है। येदियुरप्पा यह दिखा चुके हैं कि 69 विधायकों का समर्थन उनके पास है और वे बजट सत्र में कभी भी सरकार गिरा सकने की स्थिति में थे। अब चालू सत्र तक उन्हें शांत कराकर भले ही गडकरी ने मामला सुलझा लिया हो, अप्रैल में पता चल जायेगा कि यह शांति कितने दिनों की थी।

सभी विधायक साथ हैं


कर्नाटक भाजपा अध्यक्ष के एस ईश्वरप्पा से  मनोरमा की बातचीत

कर्नाटक में हालिया राजनीतिक घटनाक्रम पर आप क्या कहते हैं?
राजनीति में ऐसा होता रहता है। यह पार्टी का अंदरूनी मसला था। पार्टी से बड़ा कोई नहीं है, अंततः सभी को उसी के अनुसार चलना है। लेकिन मुझे मीडिया के एक वर्ग से शिकायत है, जिसने सदानंद गौड़ा के इस्तीफा देने और येदियुरप्पा के कुर्सी संभालने की लगातार खबरें देकर भ्रम की स्थिति बनाये रखी। हमारी ओर से इस संबंध में कोई लिखित बयान जारी नहीं किया गया था।

यह भी कहा जा रहा है कि येदियुरप्पा 30 मार्च तक ही शांत हुए हैं। उसके बाद वे फिर धमाका कर सकते हैं?
मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं। जहां तक मुझे पता है, इस बारे में पार्टी में एक राय है कि सदानंद गौड़ा मुख्यमंत्री बने रहेंगे। वैसे भी इस संदर्भ में पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व का ही फैसला अंतिम होगा। वैसे येदियुरप्पा इससे पहले भी कई बार ऐसी डेडलाइन दे चुके हैं। उसका नतीजा भी सबको मालूम ही है।

उनके पास 60-70 विधायकों का समर्थन है?
मेरी जानकारी में सभी विधायक पार्टी के साथ हैं और सभी को केंद्रीय नेतृत्व का हर फैसला मंजूर है। हमारा ध्यान अब अगले चुनाव पर है और पार्टी जाति और पैसों के आधार पर नहीं, बल्कि उम्मीदवारों की योग्यता और प्रदर्शन के आधार पर टिकट देगी। भाजपा में ब्लैकमेलिंग की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है।

भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी से क्या येदियुरप्पा को यह आश्वासन मिला है कि बजट सत्र खत्म होते ही उनके हक में फैसला होगा?
केंद्रीय नेतृत्व जो भी फैसला करेगा, हम सब मानेगे।

यह भी कहा जा रहा है कि येदियुरप्पा मुख्यमंत्री नहीं तो कर्नाटक में भाजपा के अध्यक्ष पद चाहते हैं?
मुझे इस बारे में भी नहीं पता। दिल्ली में पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं से मेरा विचार-विमर्श हुआ। ऐसा कुछ तो नहीं कहा गया मुझसे। वैसे अगर हाईकमान कर्नाटक भाजपा अध्यक्ष येदियुरप्पा को बनाते हैं तो इसमें मैं क्या कर सकता हूं? केंद्रीय नेतृत्व का फैसला सभी को मान्य होगा।

उडुपी-चिकमगलूर के उपचुनाव में मिली हार पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है? वह सीट पहले भाजपा के खाते में थी। येदियुरप्पा का प्रचार न करना पार्टी के लिए महंगा साबित हुआ?
हमारा ज्यादा नुकसान पार्टी में जारी अंतर्कलह से हुआ। खास तौर पर उपचुनाव से पहले येदियुरप्पा जी के साथ विधायकों का रिसॉर्ट में डेरा जमाना और सरकार पर अस्थिरता की तलवार लटका देना। जाहिर है, मतदाताओं में इससे भाजपा के प्रति बहुत नकारात्मक संदेश गया।

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

मैं बेदाग़ निकलूंगा

(published in Public Agenda)
अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व प्रमुख जी माधवन नायर से मनोरमा की बातचीत
एंट्रिक्स-देवास सौदे में हुई अनियमितता के मद्देनजर केंद्र सरकार ने हाल ही में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र, (इसरो) के पूर्व प्रमुख जी माधवन नायर को जिम्मेदार ठहराते हुए नायर समेत चार वैज्ञानिकों की किसी भी सरकारी पद पर नियुक्ति पर रोक लगा दी है। बंगलुरू में माधवन नायर से इस विषय पर बातचीत के मुख्य अंशः

देवास को ही सौदे के लिए क्यों चुना गया?
यह कहा जा रहा है कि सौदे में पारदर्शिता नहीं बरती गयी।ऐसा बिल्कुल नहीं है। उस समय एक नयी तकनीक या प्रौद्योगिकी को देश में लाने का विचार था। सन् 2002 की सैटेलाइट नीति बनायी ही गयी थी सैटेलाइटों के निजी परिचालन को प्रोत्साहित करने के लिए। 
अगर कोई भी निजी ऑपरेटर इसरो से ट्रांसपोंडर उपलब्ध कराने को कहता तो इसरो उपलब्ध कराता और न होने की स्थिति में किराये पर लेकर उपलब्ध कराता है। साथ ही, किसी भी इसरो कर्मचारी को अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी से संबंधित उद्योग शुरू करने की अनुमति दी गयी और कहा कि उन्हें अपेक्षाकृत कम लागत पर अंतरिक्ष तकनीक मुहैया करायी जायेगी। देवास सौदे के पहले से ही इसरो एस बैंड संचार के लिए सैटेलाइट तकनीक विकसित कर रहा था और दिसंबर 2010 से पहले एस-बैंड स्पेक्ट्रम और परिक्रमा स्लॉट का इस्तेमाल करना भी अनिवार्य था।एक बार ऐसा सैटेलाइट विकसित हो जाने के बाद हमें सर्विस मुहैया कराने वाले चाहिए थे। 2002-2004 में ऐसा कोई नहीं था। सौदा सभी के लिए खुला था, लेकिन कोई नहीं आया। 
यह सौदा देवास को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। इसी दौरान डॉ शंकर के अधीन एक टीम बनी और तकनीकी टीम के प्रस्तावों के आधार पर एंट्रिक्स नाम से इसरो की व्यावसायिक शाखा बनी। यह सौदा एंट्रिक्स के मार्फत हुआ और इसके लिए पूरी प्रक्रिया का पालन हुआ, जिसमें अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग लोगों और विभागों की अपनी-अपनी भूमिका रही। इसके अलावा सौदे के लिए राशि तय करते समय इस बात का ध्यान रखा गया था कि सरकार को कोई नुकसान न हो। साथ ही पूरे निवेश पर सरकार को दस से पंद्रह फीसद लाभ हासिल हो। 

क्या यह सौदा पूरी तरह से देवास के पक्ष में था?
नहीं, बिल्कुल नहीं। उस समय यह तकनीक केवल जापान के पास थी। हमें सात सौ करोड़ का चेक ऑडिटर के मार्फत मिला था। देवास को चुनने का कारण यह था कि किसी और कंपनी की ओर से बोली नहीं लगायी गयी थी और देवास ने यह भरोसा दिया था कि वह यह तकनीक देश में लायेगी। दरअसल, जब हम सैटेलाइट आधारित संचार तकनीक लेकर आये थे, तब बाजार में उसका कोई खरीदार नहीं था, केवल दूरदर्शन और टाटा स्काई थे। हमने "पहले आओ, पहले पाओ' के तहत आनेवाली अकेली कंपनी देवास के साथ समझौता कर लिया जबकि इस अनुबंध के लिए कोई भी बोली लगा सकता था। 

इस पूरे मसले में आपकी भूमिका क्या रही?
मैं इस सौदे के दौरान इसरो का प्रमुख था और एंट्रिक्स का अध्यक्ष इसरो का प्रमुख ही होता है। लेकिन कोई भी प्रस्ताव पहले तकनीकी समीक्षा के लिए जाता है। फिर वित्त मंत्रालय के पास जाता है। इसके बाद सभी अपनी सिफारिशें इसरो प्रमुख के पास भेजते हैं। इसके अलावा अंतरिक्ष आयोग का अध्यक्ष इसरो का प्रमुख होता है। प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रमुख सचिव और मंत्रिमंडल सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, वित्त सदस्य और अंतरिक्ष विभाग के अतिरिक्त सचिव भी इसके बोर्ड में होते हैं। इसरो की व्यावसायिक शाखा एंट्रिक्स और देवास के बीच 2005 में हुए करार के तहत कंपनी को 70 मेगाहर्टज एस-बैंड स्पेक्ट्रम डिजीटल मल्टीमीडिया सेवाओं के लिए बीस साल के लिए दिया गया था। इस करार पर मुहर एंट्रिक्स के बोर्ड ने मिलकर लगायी थी। मेरी भूमिका यही थी। 

राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी यह सौदा खतरा था?
नहीं।240 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम पहले भी सेना और रक्षा संबंधी जरूरतों के लिए निर्धारित था और 70 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम को ही व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए रखा गया था। 

एक साल के बाद यह करार फिर से सुर्खियों में है। इसके पीछे क्या वजह है?
मैंने इस मसले का ट्रैक रिकॉर्ड नहीं रखा। सन् 2010 में यह मसला बाहर आया। एक बात और बाहर आ रही है - 2010 में जब मैं अध्यक्ष नहीं था, यूरोप से एक कंपनी आयी। दरअसल 2010 में ही अंतरिक्ष विभाग ने अगर कोई स्पष्टीकरण दिया होता तो यह विवाद होता ही नहीं। चतुर्वेदी समिति ने भी कहा है कि उस समय कोई कार्रवाई नहीं की गयी। अब जाकर किसी ने उन बातों का नोटिस लिया लेकिन सारा दोष उन लोगों के माथे मढ़ दिया जिन्होंने इस प्रक्रिया की शुरुआत की थी। 

इस विवाद पर आपका रुख क्या है?
मेरा कोई निजी एजेंडा नहीं है। लेकिन जो भी कहा जा रहा है, उससे मेरा गंभीर विरोध है। केवल प्रक्रिया में बरती गयी खामियों पर बात की जा रही है। जो लोग इसमें शामिल रहे हैं और जिम्मेदार हैं, उनके बारे में बात नहीं की जा रही। मैंने प्रधानमंत्री के पास अपील की है और उनके जवाब का इंतजार कर रहा हूं। मेरे लिए यह अपनी साख को बहाल करने और अपने सम्मान को बरकार रखने का सवाल है। मैंने 42 साल इसरो के लिए काम किया है और मुझे इस बात का गर्व है। मुझे भरोसा है कि मैं इस विवाद से बेदाग बाहर निकलूंगा। 

मंद होते बैंड के सुर


(Published in Public Agenda)
बंगलुरू जितना आईटी सिटी के तौर पर जाना जाता है उतना ही पब सिटी और देश  के बीयर कैपिटल के रूप में भी। सबसे ज्यादा पब देश में यहीं पर हैं और इन पबों में कार्यक्रम पेश करने वाले लाईव बैंड बंगलूरू के युवाओं की जीवन-शैली का अहम हिस्सा रहे हैं। पश्चिमी  संगीत खासतौर पर राॅक संगीत को लेकर यहां एक किस्म की दीवानगी रही है आश्चर्य  नहीं कि मेटेलिका को सुनने यहां चालीस हजार से ज्यादा की भीड़ जमा हो गई थी और आज भी दुनिया के तमाम नामी बैंड भारत में बंगलूरू में जरूर गाना चाहते हैं। लेकिन दूसरी हकीकत ये है कि बंगलुरू के कई लाईव बैंड खत्म हो गए हैं या खुद को बचाए रखने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। वजह यहां बार और पबों में लाईव बैंड के कार्यक्रमों पर लगी पाबंदी है।
दरअसल, बार और पबों में लाईव बैंड के साथ बारबालाओं के डांस को भी शामिल कर लिए जाने के बाद परेशानी की शुरूआत हुई। 2005 में मुंबई में बारबालाओं के काम करने पर पाबंदी लग जाने के बाद बड़ी संख्या में इनका पलायन बंगलुरू की ओर हुआ और अचानक यहां के पश्चिमी  संगीत आधारित लाईव बैंड के मायने बदल गए। लाईव बैंड के मार्फत बारबलाओं के डांस सभी बार और पबों का हिस्सा बनने लगे। इसी को रोकने के लिए कर्नाटक पुलिस कानून 2005 के तहत यहां 2008 से बार और पबों में लाईव बैंड पर बिल्कुल रोक लगा दी गई पर इसका मकसद बारगर्ल की संस्कृति को खत्म करना था। शुरूआत महिलाओं के बार या पब में किसी भी तरह  का काम करने पर मौखिक पाबंदी लगाकर की गई। जिसके खिलाफ  डोमलुर  के शेफ इन रीजेंसी बार एंड रेस्ट्रांट में काम करने वाली नाजिया और उनकी दो और सहकर्मियों ने कर्नाटक उच्च न्यायालय में अर्जी दायर कर दी। क्योंकि इस आदेश  के बाद उन्हें रेस्तरां के प्रबंधन ने नौकरी से निकाल दिया था। अदालत ने अपने फैसले में बार में उनके काम करने के अधिकार को बरकरार रखा। दरअसल, 31 मई 2011 को बंगलुरू के पुलिस कमिश्नर  ने अपने अफसरों को शहर के उन सभी बार और रेस्तरां को बंद करा देने का मौखिक आदेश  दिया था जहां महिलाएं बारबाला के तौर पर काम करती हैं। जबकि देश  की सर्वोच्च अदालत ने दिसंबर 2007 में ही ये कहा था कि महिलाओं को शराब परोसी जानेवाली जगहों पर भी काम करने का अधिकार है। कर्नाटक आबकारी अधिनियम 1965 के नियम 9 में सार्वजनिक स्थान पर किसी महिला के द्वारा शराब परोसे जाने को असंवैधानिक माना गया था पर 2008 में कर्नाटक उच्च अदालत ने कर्नाटक आबकारी अधिनियम 1965 के नियम 9 को खारिज कर दिया था। हांलाकि बंगलूरू पुलिस ने उसी समय कर्नाटक उच्च न्यायालय में ये हलफनामा पेश  कर कहा कि उनके द्वारा महिलाओं को बार में बारटेंडर के तौर पर काम करने से नहीं रोका जाता बल्कि उन बारों और रेस्तरां पर छापे मारे जाते हैं जो गैरकानूनी रूप  से चल रहे हैं और जहां कोई भी अवैध गतिविधि संचालित की जाती हो। लेकिन 2008 से यहां किसी भी सार्वजनिक जगह जहां शराब परोसी जाती हो वहां गीत-संगीत या लाईव बैंड के कार्यक्रम नहीं पेश  किए जा सकते।  अतिरिक्त पुलिस कमिश्नर  कानून और व्यवस्था बंगलुरू सुनील कुमार के मुताबिक बंगलुरू में वैसी जगहों जहां शराब परोसी जाती है, किसी भी किस्म के गीत-संगीत और नृत्य के कार्यक्रम दिन और रात किसी भी समय नहीं पेश  किए जा सकते हैं, लाईसेंस प्राप्त बार में रात साढ़े ग्यारह बजे तक शराब परोसी जा सकती हैं और महिलाएं वहां बारटेंडर के तार पर साढ़े ग्यारह बजे तक काम कर सकती हैं। लाईव बैंड शराब परोसने वाले बार को छोड़कर किसी भी सार्वजिक जगह पर कार्यक्रम पेश  कर सकते हैं। बंगलूरू पुलिस के मुताबिक फिलहाल बंगलूरू में लगभग साठ बारों में महिलाएं काम कर रही हैं और इनपर उनकी नजर हमेशा  रहती है।

बहरहाल, कानून और व्यवस्था के लिहाज से प्रशाषण  के पास अपने तर्क हैं पर बंगलुरू जहां लाईव बैंड की अपनी एक अलग संस्कृति रही है और इनकी अच्छी-खासी संख्या भी है, कई बैंड पबों और बार में कार्यक्रम करके ही खुद को चला पा रहे थे। लेकिन इस पाबंदी के कारण कई छोटे लाईव बैंड बंद हो गए, इसके कलाकार बेरोजगार हो गए। कुछ ने शहर बदल लिया। अमूमन रॉक,पॉप  और जैज संगीत पर आधारित इन लाईव बैंड समूहों के साथ ये दिक्कत रही है कि इनके श्रोता समूह अलग और युवा-पीढी के वे लोग हैं, जो पब और बार में जाते हैं।
वैसे कहने को बार और पबों में लाईव बैंड पर पाबंदी है पर सच में ऐसा है नहीं। कोरमंगला, इंदिरानगर, एमजी रोड जैसे इलाकों में कई पब  इस पाबंदी की धज्जिया उड़ाते मिल जाएंगे। खासतौर पर पश्चिमी  और मध्य बंगलुरू के बार और पबों में। कायरा रेस्तरा बार के निदेशक नवनीत कहते हैं उनके यहां शुक्रवार, शनिवार और रविवार को रात साढ़े आठ बजे से लाईव बैंड का लुत्फ लिया जा सकता है। इस दौरान उनके यहां शराब भी परोसी जाती है। शराब परोसी जानेवाली सार्वजनिक जगहों पर लाईव बैंड के कार्यक्रम पर पाबंदी की बात करने पर वो कहते हैं मेरी जानकारी में ऐसा केवल महिलाओं के शमिल होने और कार्यक्रम शालीन नहीं होने पर है। जहां तक मैं जानता हूँ केवल कायरा ही नहीं बल्कि लीजेंड ऑफ़ रॉक,  टेक फाईव, बी फ्लैट, फिलिंग स्टेशन,एक्सट्रीम स्पोर्टस बार, कासा डेल सोल जैसे और कई बार हैं जहां लाईव बैंड के कार्यक्रम होते हैं। इसके लिए कोई कोई विशेष अनुमति लेने की बात से भी इनकार किया उन्होनें। नवनीत ने तो यहां तक कहा कि उनके रेस्तरां में आयोजित मोहम्मद रफी नाईट में बंगलूरू के एसीपी मुरली ने भी अपना कार्यक्रम पेश किया था। और इनके यहां अच्छी खासी संख्या में लोग इनक कार्यक्रमों का लुत्फ उठाने आते हैं। सेंट मार्क रोड स्थित हार्ड रॉक कैफे बार में भी गुरूवार को लाईव बैंड का कार्यक्रम होता है। बार के मैनेजर ने बताया कि स्थानीय लाईव बैंड्स जिनमें लड़कियों का गाना और डांस होता है उनपर रोक है पर हमारे बार में फोकस केवल संगीत हैं और दिल्ली, उत्तर-पूर्व भारत के बैंड यहां हर सप्ताह अपने कार्यक्रम पश  करते हैं बंगलुरू में सिर्फ हार्ड रॉक ही नहीं कई और बार हैं जहां लाईव म्यूजिक बैंड्स कार्यक्रम पेश  करते हैं। ओर इसके लिए बंगलुरू पुलिस से विशेष  अनुमति हासिल करने की बात भी कहते हैं यही बात ला रॉक  कैफे के मैनेजर भी दोहराते हैं जहां हर रविवार को लाईव बैंड संगीत कार्यक्रम पेश  करता है। फिलहाल यहां 150 से ज्यादा बार हैं जिनमें  लाईव बैंड्स की परंपरा रही है, एम जी रोड स्थित आईस बार, कोकुन, रेस्टो बार, नेवादा पब, ब्लू तंत्रा, ओन  द रॉक्स  और अनलॉक  बार जैसे तमाम बार हैं जहां अभी भी लाईव बैंड सक्रिय है।
तस्वीर का दूसरा पहलू लाईव बैंड पर पाबंदी से बेरोजगार हुईं बारबालाओं की जिंदगी है। एक अनुमान के मुताबिक इस पाबंदी के बाद बार में काम करने वाली लगभग पैंतालीस हजार महिलाओं को जीविका के लिए देह-व्यापार अपनाना पड़ा है। महिलाओं के अधिकार और उनके खिलाफ हिंसा के लिए लड़ने वाली स्वयंसेवी संस्था विमोचना की शकुन कहती हैं लाईव बैंड पर रोक का सबसे बड़ा असर यही हुआ है कि सेक्स-वर्करों की संख्या में और इजाफा हो गया है। मुंबई में बार में महिलाओं के काम करने पर रोक लगने का तुरंत असर बंगलुरू पर हुआ था, मुंबई  से बड़ी संख्या में बारबालाएं यहां काम करने आयीं पर यहां भी रोक लग गयी। हमने उन महिलाओं के पुर्नवास की कोशिश  की जो हमारे पास मदद के लिए आयीं। इनमें ज्यादा संख्या नेपाल, बांग्लादेश  और उत्तर-पूर्व की लड़कियों की हैं,जिन्हें बारटेंडर की नौकरी मिली वो काम कर रही हैं। स्थानीय लड़कियां कर्नाटक के ही छोटे-छोटे शहरों में देह-व्यापार कर अपना गुजारा कर रही हैं। गौर करने वाली बात है कि बार और पबों में लाईव बैंड्स पर पाबंदी लग जाने के बाद ई-ब्रोथल और मसाज पार्लरों की संख्या यकायक काफी बढ़ गई। ज्यादातर बारबाला, बारटेंडर के ही रूप में काम करना चाहती हैं क्योंकि एक नई बारटेंडर को बीस से पैंतीस हजार तक तनख्वाह मिल जाती है, सेलीब्रिटी बारटेंडर की आय पचास हजार से उपर होती है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि बंगलरू के पीपुल्स एजुकेशन  सोसाईटी, इंस्टीट्यूट ऑफ़  होटल मैनेजमेंट और क्राईस्ट कालेज में बारटेंडिंग एक कोर्स के तौर पर पढ़ाया जाता है। और काफी संख्या में लड़कियां इस कोर्स के तहत प्रशिक्षण भी ले रही हैं। अनुमानतः राज्य में साठ -सत्तर हजार से भी ज्यादा बार हैं, जाहिर है लड़कियों के लिए ये बड़ी संख्या में रोजगार का जरिया हो सकते हैं। मुंबई की ही तरह जहां अस्सी के दशक से बार और पबों में महिलाएं डांसर और बारटेंडर के तौर पर काम कर रही हैं बंगलूरू में भी महिलाएं अस्सी के दशक से ही बार और पबों में काम कर रही हैं। अस्सी के दौरान कैबरे का चलन था और नब्बे के दशक में लाईव बैंड्स मशहूर हुए। ये भी गौर करने वाली बात है कि इन डांस बार में काम करने वाली लड़कियों को अपने काम को लेकर कोई परेशानी नहीं है, बारमालिक उन्हें आईटी और बीपीओ क्षेत्र में काम करने वाली लड़कियों की तरह ही पूरी सुरक्षा मुहैया कराते हैं। और सबसे बड़ी बात डांस के कारण वो खुद को देह-व्यापार से बचा लेती हैं। लेकिन प्रशाशन  का रवैया जरूर उन्हें खलता है। जबकि चाहने पर भी उनके पास कोई विकल्प नहीं है। इसमें कुछ दोष सामाजिक सोच का भी है। एमजी रोड के बार में काम करने वाली एक बारबाला बताती है,  हमलोगों ने कुछ दूकानों में सेल्सगर्ल की नौकरी मांगी पर हमें अपमानित कर भगा दिया गया।  यही शिकायत कर्नाटक बार और रेस्तरां कामगार महिला कल्याण संघ की ओर से भी है कि बार में महिलाओं के काम करने पर रोक हट जाने के बावजूद पुलिस उन्हें काम नहीं करने देती केवल बड़े रेस्तराओं के डिस्कोथिक में ही महिलाओं को बतौर बारटेंडर आसानी से काम करने देती है। ये सीधे तौर पर बराबरी से काम करने के संवैधनिक अधिकारों की अवहेलना है।
दरअसल, कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनने के साथ ही वेलेन्टाईन डे विरोध, बार और पबों में महिलाओं के काम करने पर रोक या पबों में जाने वाली महिलाओं पर मंगलोर में श्री राम सेने के कार्यकर्ताओं द्वारा हमला किए जाने जैसी घटनाओं को कुछ लोग भाजपा के  सांस्कृतिक शुद्धिकरण  के जबरन प्रयासों  के तौर पर भी देखते हैं। प्रसिद्ध थर्मल एंड ए क्वाटर लाईव बैंड  के जाने-माने सदस्य ब्रुस ली मनी तो इसे सांस्कृतिक अपराध का नाम देना ज्यादा पसंद करते हैं। इसकी अगली कड़ी शराब पर पूणतया रोक लगाने की मांग हैं लेकिन दस हजार करोड़ से ज्यादा राजस्व देने वाली शराब पर सचमुच पाबंदी लगाना और बात है। यही नहीं 2010 जुलाई में बंगलुरू सिटी पुलिस ने बारों और पबों के लिए आचार-संहिता जैसी एक निर्देशिका भी बनायी, जिसका पालन करना सभी बारमालिकों के लिए अनिवार्य है। आचार-संहिता के तहत महिलाओं के लिए शालीन कपड़े व एक जैसी वर्दी पहनना अनिवार्य है। बार मालिकों को महिला कर्मचारियों को नौकरी पर रखने के बाद पुलिस को उनकी तस्वीर के साथ पूरा विवरण भी देना होगा। किसी नयी महिला कर्मचारी को रखने या उसके नौकरी छोड़ने पर भी पुलिस को सूचना देनी होगी। साथ ही महिलाओं की संख्या बार की कुल सीट-संख्या की एक चैथाई ही होनी चाहिए। इस निर्देशिका  में अच्छी बात ये भी है कि बारमालिकों के लिए श्रम कानून का पालन भी अनिवार्य है मसलन, उन्हें महिलाओं को न्यूनतम मजदूरी, स्वास्थ्य सुविधा और प्रोविडेंट  फंड सभी कुछ देना होगा। इसलिए ड्रेस कोड पर लगभग सभी की सहमति है। कर्नाटक महिला कामगार संघ ने भी इसका विरोध नहीं किया।
कानूनन लाईव बैंड पुलिस के द्वारा वैध लाईसेंस जारी किए बिना नहीं चलने चाहिए पर बावजूद इसके, हकीकत में लगभग सौ बार ऐसे हैं जहां अभी भी गैरकानूनी तौर-तरीके से लड़कियों से बारबाला के अतिरिक्त मेहमानों का मनोरंजन करने का भी काम लिया जा रहा है। ड्रेस कोड का पालन नहीं किया जाता और सीसीटीवी भी पुलिस के कहने के बावजूद नहीं लगाया गया है। जिसके लिए पुलिस अफसरों को मोटी रिश्वत खिलायी जाती है। डिस्कोथिक के नाम पर भी बारबालाओं से डांस कराया जा रहा है। यानी अगर पाबंदिया हैं तो उसका तोड़ भी हैं पर इसके बीच सचमुच संगीत से प्यार करनेवालों और उसी से अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले लाईव बैंड नाहक मारा जा रहा है।

शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

कोई किसी से कम नहीं


( पब्लिक एजेंडा में प्रकाशित )
इसी साल जुलाई के आखिर में लोकायुक्त के अवैध खनन रिपोर्ट में नाम आने पर तत्कालीन मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा को ना चाहते हुए भी इस्तीफा देना पड़ा था। कांग्रेस और जेडीएस के लिए ये एक बड़े जष्न का मौका था, क्योंकि कर्नाटक में भाजपा के पैर जमाने में येदुरप्पा की बहुत अहम भूमिका रही है। ऐसे नेता और मुख्यमंत्री का भ्रश्टचारी होने के दाग के साथ विदा होना राज्य के विपक्षी दलो के लिए मंुहमांगी मुराद थी। इसी रिपोर्ट के कारण जनार्दन रेड्डी को भी पर्यटन मंत्रालय और करूणाकर रेड्डी को राजस्व मंत्रालय छोड़ना पड़ा। और इनके करीबी श्रीरामलू भी कैबिनेट से बाहर हुए। पर राजनीति में पासा पलटते देर नहीं लगता, चार महीने बाद ही ये बात कांग्रेस और जेडीएस को समझ में आ गई है। दरअसल, हाल ही में कर्नाटक लोकायुक्त पुलिस ने राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों के खिलाफ अवैध खनन मामलें में एफआईआर दर्ज की है जिसमें दो मुख्यमंत्री कांग्रेसी रहे हैं, मौजूदा विदेष मंत्री एस एम कृश्णा और  धरम सिंह इसके अलावा जेडीएस के एचडी कुमारस्वामी। इन तीनों पर अपने कार्यकाल में अवैध खनन को आसान बनाने के लिए नियम-कानून को ढ़ीला बनाने के आरोप हैं।  इसके अलावा एफआईआर में 11 अफसरों के भी नाम हैं। एफआईआर बंगलूरू के सामाजिक कार्यकर्ता अब्राहम टी जोसेफ की षिकायत पर दर्ज की गई है, जिसमें उन्होंने कहा है कि राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों ने राज्य के खजाने को भारी नुकसान पहंुचाया है। खासतौर पर एस एम कृश्णा ने लौह खदानों को लीज पर देने की मंजूरी देने के साथ-साथ वन और पर्यावरण विभाग के कड़े एतराज के बावजूद अवैध खनन के लिए रास्ता साफ करने हेतु वन विभाग की जमीन को गैर-संरक्षित घोशित कर दिया।  टी अब्राहम की इस षिकायत पर लोकायुक्त अदालत ने पुलिस को जांच का आदेष दिया है और 6 जनवरी से पहले अपनी रिपोर्ट पेष करने को कहा है।


देखा जाए तो ये कोई नई बात नहीं है जिस रिपोर्ट के कारण येदुरप्पा और रेड्डी बंधुओं की कुर्सी गई और उन्हें सलाखों के पीछे जाना पड़ा उसी रिपोर्ट में  येदुरप्पा से पहले के समय के मामलों की भी जांच को समेटा गया है। लोकायुक्त ने साल  2000 तक के मामलों की जांच की है और  अक्टूबर 1999 से 2004 मई तक एस एम कृश्णा कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे, फिर धरम सिंह और उसके बाद एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने। रिपोर्ट के मुताबिक कर्नाटक में लोहे का बहुत समृद्ध भंडार है पर पिछले दस वर्शो में इसे लूटने की होड़ मची हुई है। सिर्फ मौजूदा भाजपा सरकार ही नहीं बल्कि पहले की एचडी कुमारस्वामी और धरम सिंह की सरकारों की भी इस लूट में हिस्सेदारी रही है। वर्श 2006 से 2009 के दौरान कुल 80 खदानों में से  प्रतिदिन बीस हजार टन लौह-अयस्क की अवैध निकासी की गई है और इस निकासी के लिए रिस्क फी के तौर पर प्रतिदिन 50 लाख से ज्यादा राषि वसूली गई है। यानी  करीब  तीन हजार से पांच हजार करोड़ तक की वसूली की गई है। एस एम कृश्णा की ही बात करें तो अपने मुख्यमंत्रीकाल में उन्होंने 39 लाईसेंस मंजूर किए। उनके दामाद वी सिद्धार्थ के काॅफी चेन कैफे काॅफी डे की सफलता में उनका उस दौरान कर्नाटक का मुख्यमंत्री होना ही सबसे ज्यादा काम आया था। जबकि धरम सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में 43 खनन लाईसेंस का अनुमोदन किया था जिसमें 33 को मंजूरी केन्द्र की यूपीए सरकार से ही मिली थी। एच डी कुमारस्वामी ने 47 खनन लाईसेंस का अनुमोदन किया था जिसमें 22 को यूपीए सरकार ने मंजूर कर दिया था। यूपीए सरकार ने कर्नाटक में राश्ट्पति षासनकाल के ही दौरान 14 खनन लाईसेंस मंजूर किया जबकि येदुरप्पा ने तो केवल 22 लाईसेंस को अनुमोदित किया था जिसमें से केन्द्र सरकार ने 2 को ही मंजूर किया। जमीन की लूट में ही केवल येदुरप्पा ही नहीं, एस एम कृश्णा, देवगौड़ा और एच डी कुमारस्वामी भी पीछे नहीं रहे हैं। एस एम कृश्णा ने ही 11 हजार वनभूमि को खनन के लिए डिनोटिफाई किया था। लोकायुक्त रिपोर्ट में एचडीकुमार स्वामी का नाम दो मामलों में है, उन्होंने जंतकाल इंटरप््रााईजेज और साई व्येंकटेष्वरा मिनरल कंपनी के लाईसेंस को नियम-कानून की अनदेखी करते हुए व्यक्तिगत तौर पर मंजूरी दी। उनके मुख्यमंत्रित्व काल में उनके परिवार के सदस्यों को 146 प्लाट अवैध रूप से आवंटित किए गए। उन्होने मुख्यमंत्री के तौर पर 550 करोड़ के ठेके को 1032 करोड़ में मंजूर कर दिया और राज्य के स्वामित्व वाली सिंचाई निगम कर्नाटक नीरवरि निगम के बैठक की अध्यक्षता करने के बाद  ठेका हासिल करने वाली कंपनी को 103 करोड़ अग्रिम भुगतान करने की भी मंजूरी दे दी। साथ ही उनके परिवार  द्वारा संचालित ट्रस्ट को खनन सेक्टर से ढ़ाई सौ करोड़ की रकम दान में और 168 करोड़ की राषि रिष्वत के तौर मिले। यानी कोई भी येदुरप्पा से पीछे नहीं रहा है। येदुरप्पा के मुख्यमंत्री बनने के बाद लोहे का अवैध खनन अपने चरम पर पहुंच गया और इसे करने वाले राज्य के राजस्व और पर्यटन मंत्री बन गए। रिपोर्ट के मुताबिक 2009 मार्च से से 2010 मई के बीच 14 महीने में अवैध खनन से राज्य को 18 सौ करोड़ से ज्यादा का नुकसान हुआ है। 600 से ज्यादा सरकारी अधिकारियों पर लोहे के अवैध खनन के भ्रश्टाचार में संलग्न होने के आरोप हैं। कुल मिलाकर अवैध खनन की बुनियाद काफी पहले ही रखी और मजबूत की जा चुकी थी। इसलिए जुलाई में अपना इस्तीफा देते समय येदुरप्पा को भी लगा होगा कि उनके ग्रह-नक्षत्र वाकई सही नहीं है, एक ही किस्म के आरोप पर उन्हें कुर्सी गंवानी पड़ी और जेल जाना पड़ा, बाकी लोगों की ओर किसी का ध्यान भी नहीं गया। बहरहाल, अब येदुरप्पा को भी कुछ राहत महसूस हो रही होगी। साथ ही उनकी पार्टी भाजपा को भी, क्योकि नैतिकता के सवाल पर अब कांग्रेस से जवाब तलब करने की बारी उनकी है। जो पहले ही अपने एक और मंत्री पी चिदंबरम के 2जी मामले में फंसे होने के आरोपों के बचाव में लगी है।