रविवार, 26 सितंबर 2010

येदुरप्पा का कैबिनेट विस्तार

तूफान से पहले की खामोशी!
कर्नाटक में येदुरप्पा ने आखिरकार महीनों से लंबित अपने कैबिनेट विस्तार को अंजाम दे ही दिया और वो भी बिल्कुल अपनी पसंद का ख्याल रखते हुए। ये और बात है कि कैबिनेट विस्तार से पहले पूरी राजनीतिक ड्रामेबाजी हुई। लेकिन अंत में सभी को येदुरप्पा के फैसले के साथ समझौता करना ही पड़ा। चाहे वो रेड्डी बंधु हों जिन्होंने पिछले साल शोभा करंदलाजे को मंत्रिमंडल से निकलवाकर और जगदीश शेट्टर को मंत्री बनवा कर ही दम लिया था और येदुरप्पा की आंखों में सार्वजनिक मंच पर आंसु तक ला दिया था। पर वहीं शोभा अब फिर मंत्रीमंडल में आ चुकी हैं लेकिन सब खामोश हैं। अब ना तो आत्महत्या की धमकी देने वाले गुलीहट्टी आत्महत्या कर रहे हैं और ना ही इस्तीफे की धमकी देने वालों ने अपना इस्तीफा पेश किया है।


दरअसल, इस कैबिनेट विस्तार को येदुरप्पा की कूटनीतिक सफलता कहा जा सकता है। क्योंकि उन्होंने सारे दवाबों को किनारे कर वही किया जो करना चाहते थे और सबसे बड़ी बात ये कि उनके इन फैसलों पर पार्टी हाईकमान ने अपनी मुहर लगा कर फिलवक्त सारे असंतुष्टों का मुंह बंद कर दिया है।

अपनी चीन यात्रा से वापस आने के तुरंत बाद ही येदुरप्पा ने कैबिनेट का विस्तार करने की घोषणा की और इसके साथ ही राज्य में राजनीतिक ड्रामेबाजी का दौर शुरू हो गया। पहले तो मुख्यमंत्री और कर्नाटक भाजपा राज्य इकाई के अध्यक्ष के.एसईश्वरप्पा की ही अलग सोच सामने आ गई। जहां ईश्वरप्पा कैबिनेट से चार मंत्रियों को केवल हटाए जाने की बात कर रहे थे वहीं येदुरप्पा किसी को हटाए जाने से इन्कार कर रहे थे और साथ ही खाली मंत्रीपदों को वापस भरने की भी बात कर रहे थे। गौरतलब है कि हाल ही में तीन मंत्रियों को विभिन्न आरोपों के कारण मंत्रीपद से इस्तीफा देना पड़ा था। स्वास्थ्य शिक्षा मंत्री रामचंद्र गौड़ा को बहाली घोटाले के कारण, धार्मिक मामलों के मंत्री एस.एन कृष्णैया शेट्टी को भूमि घोटाले के कारण और खाद्य और आपूर्ति मंत्री एच हलप्पा को बलात्कार के आरोप के कारण।

बहरहाल, इस घोषणा के साथ ही मंत्री पद की चाह रखने वाले विधायको और उनके समर्थकों और कैबिनेट से निकाले जाने वाले मंत्रियों ने येदुरप्पा पर तरह तरह से दबाव बनाने की कोशिश की। खेल और युवा मामलों के मंत्री गुलीहट्टी शेखर ने आत्महत्या कर लेने की धमकी दी तो एक और मंत्री ने इस्तीफा दे देने की धमकी दी। इसके अलावा ढ़ेरों विधायक पार्टी से त्यागपत्र देने की धमकी दे रहे थे। गौरतलब है कि शेखर निर्दलीय विधायक हैं जिन्हंे राज्य में भाजपा सरकार बनाने में सहयोग करने के बदले मंत्रीपद मिला था। इसी तरह पब्लिक लाईब्रेरी मंत्री के शिवनगौड़ा नाईक भी जेडीएस से जीतने के बाद भाजपा में शामिल हुए थे और मंत्री बने थे। ये भी गौर करने वाले बात है कि 2008 में राज्य में बनी भाजपा की पहली सरकार में पांच निर्दलीय विधायकों को पार्टी के साथ लाने में रेड्डी बंधुओं की अहम भूमिका रही थी। इसलिए वो निर्दलीय मंत्रियों को हटाए जाने के विरोध में थे।

इस ड्रामेबाजी के तहत बड़ा झटका देने की कोशिश कैबिनेट में शामिल होने की चाह रखने वाले दो विधायक सी टी रवि और एस के बेल्लुबी ने की जब उन्हें पता चला कि वो मंत्री नहीं बनाए जाएंगे तो वो सात विधायकों के साथ बंगलूरू के एक होटल में विरोध की योजना बनाने लगे।



मामला जब बंगलूरू में नहीं सुलझा तो दिल्ली का रूख करना पड़ा। जहां लाल कृष्ण आडवाणी, भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी वरिष्ठ नेता वैंक्यया नायडू और शांताकुमार ने येदुरप्पा के मंत्रीमंडल विस्तार के फैसलों पर सहमति की मुहर लगाई।

अब जिन छः नए मंत्रियों ने शपथ लिया उनके नाम हैं, शोभा करंदलाजे, वी सोमन्ना, सी सी पाटिल, ए नारायणस्वामी, एस ए रामदास, और सी एच विजयशंकर। इनमें शोभा और सोमन्ना येदुरप्पा के खास लोगों में से हैं, और बाकी चार भी भाजपा के ही विधायक हैं।शोभा को उर्जा मंत्रालय मिला है, वी सोमन्ना के जिम्मे खाद्य और नागरिक आपूर्ति है, सी एच विजय शंकर को वन और पर्यावरण दिया गया है ए नारायण स्वामी समाज कल्याण और सी सी पाटिल महिला और बाल विकास तथा एस ए रामदास को स्वास्थ्य शिक्षा।

तीन जिन्हें हटाया गया वे हैं, उच्च शिक्षा मंत्री अरविंद लिंबावली, खेल और युवा मामलों के मंत्री गुलीहट्टी डी शेखर और लाईब्रेरी मंत्री शिवन्नगौडा नाईक। यानी कुल पांच निर्दलीय विधायकों में से केवल एक को ही हटाया गया है, चार अभी भी मंत्री हैं।

इसके अलावा एक बड़ा बदलाव ये भी हुआ है कि वी एस आचार्य को गृहमंत्रालय की जगह उच्च शिक्षा और योजना और सांख्यिकी दे दिया गया है और तर्क ये दिया गया है कि आचार्य काबिल मंत्री हैं इसलिए उन्हें ज्यादा अहम् मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई है। जबकि परिवहन मंत्री आर. अशोक को पविहन के साथ गृहमंत्रालय भी दे दिया गया है।

बहरहाल, हाईकमान के दखल से अभी सभी को शांत कर लिया गया है। अवैध खनन मामले में फंसे रेड्डी बंधु भी शांत रहकर अपनी ओर से ध्यान हटाना चाह रहे हैं जबकि केन्द्रीय नेतृत्व कर्नाटक भाजपा के अंर्तकलह को बार-बार सुर्खियां बनते नहीं देखना चाहता इसलिए फिलहाल उपरी तौर पर सब कुछ शांत दिख रहा है पर ये तूफान से पहले की भी शान्ति हो सकती है।

बुधवार, 8 सितंबर 2010

लोहे की राजनीति

कर्नाटक की राजधानी बंगलूरू से 350 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बेल्लारी यंू तो देश के अन्य कस्बाई शहरों जैसा ही है, धूल-धक्कड़, टूटी सड़के और उनपर बेतरतीब वाहन, लेकिन थोड़ा नजर दौड़ाने पर आलीशान बंगले, गाड़ियां और हेलीकाप्टर भी दिखेंगे, फिर दूर-दूर तक खुदाई की हुई उजाड़ जमीन और चारो ओर लाल धूल का गुबार, जो लोहे के खनन और ढ़ुलाई के कारण यहां के आसमान में फैला रहता है। क्योंकि इसी बेल्लारी और इससे सटे चित्रदुर्गा और तुमकूर में देश के बेहतरीन लोहे का भंडार है।


दरअसल, बचपन से हम जो भारत के बारे में पढ़ते आ रहे हैं वही बात बेल्लारी पर भी लागू होती है- बेल्लारी तो अमीर है लेकिन बेल्लारी के लोग गरीब। कभी अंग्रेजों के बनवाए कुख्यात जेल और अपनी भीषण गर्मी के लिए प्रसिद्ध बेल्लारी अपनी जमीन में बेशकीमती खजाना होने के बावजूद एक गुमनाम सा ही शहर था। लेकिन 1999 में सोनिया गांधी ने यहां से लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला करके और मुकाबले में भाजपा ने सुषमा स्वराज को खड़ा करके उनींदे और पिछड़े़ बेल्लारी को सुर्खियों में ला दिया। यहां के रेड्डी बंधुओं के सिर पर सुषमा स्वराज ने हाथ क्या रखा बेल्लारी का लोहा उनके लिए सोना बनने लगा। वर्तमान में येदुरप्पा सरकार में मंत्री, करूणाकर, सोमशेखर और जर्नादन रेड्डी और इनके साथ श्रीरामलू ने बेल्लारी में चिट-फंड के अपने पिटे कारोबार को छोड़कर 2002 में खनन उद्योग में हाथ डाला। 2008 में चीन में होने वाले ओलंपिक खेलों के कारण लोहे की मांग और दाम दोनों आसमान छूने लगे जिसका भरपूर फायदा इनलोगों ने अपनी खनन कंपनी ओबूलापूरम माईनिंग जिसे बेल्लारी से सटे आन्ध्रप्रदेश के अनंतपूर में खनन लीज हासिल था, के मार्फत बेल्लारी की सीमा में अतिक्रमण कर लोहे का अवैध खनन और निर्यात करके उठाया।

आज बेल्लारी की सड़कों पर महंगी विदेशी कारें, निजी हेलीकॉप्टर, आलीशान बंगले और गेस्ट हाउस आम बात है, लेकिन बेल्लारी के लोगों की जिंदगी और बदतर हो गई। अब इन्हें साफ पानी, साफ हवा भी मयस्सर नहीं है, जंगल और जमीन तेजी से घटते जा रहे हैं, प्राकृतकि संपदा चाहे वो पेड़-पौधे हों या संरक्षित विलुप्तप्राय जीव सब खत्म होते जा रहे हैं। बेल्लारी का पारिस्थितकी संतुलन बिगड़ गया है। पिछले कई सालों से वहां सूखे के हालात हैं। कर्नाटक मानव विकास रिपोर्ट 2005 की सूची में बेल्लारी राज्य के 27 जिलों में 18वें स्थान पर है। साक्षरता, स्वास्थ्य, पेय-जल की उपलब्धता के मामले में यह निचले पायदान पर है। जबकि यहां के लोगों की औसत आय राज्य के लोगों के औसत आय से उपर है यानी जिनके पास है बहुत ज्यादा है बाकी के पास कुछ नहीं है। खनन ने बाकी आबादी के रोजगार खेती से भी उन्हें बेदखल कर बेरोजगार बना दिया है वो अलग से। लेकिन और कुछ हो या न हो अब 900 एकड़ जमीन पर 140 करोड़ की लागत से नया हवाईअड्डा जरूर बनने जा रहा है।



अवैध खनन से राज्य के पर्यावरण और अर्थव्यवस्था को जो नुकसान हुआ उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अवैध खनन ने कर्नाटक के 2,800 एकड़ वन्य-भूमि का विनाश किया है। जो देश भर में खनन से वन्य-भूमि को हुए नुकसान का दस प्रतिशत है। और आकलन के मुताबिक ओबुलापूरम माईनिंग कंपनी ने 2003 से अब तक कर्नाटक से 30 मिलीयन टन लोहे का अवैध खनन और फिर निर्यात कर राज्य को भारी राजस्व नुकसान दिया है। दूसरे शब्दों में बेल्लारी का अवैध लौह-खनन मसला दरअसल देश का सबसे बड़ा घोटाला है जो कम से कम 30 से 60 हजार करोड़ के बीच का है।

बहरहाल, पिछले दस साल से कर्नाटक की राजनीति में लोहे का अवैध खनन और इसका पैसा अहम किरदार बन चुके हैं। और रेड्डी बंधु बेल्लारी ही नहीं बंगलूरू में भीं अपनी बादशाहत कायम कर किंगमेकर बन बैठे। आन्ध्रप्रदेशा  में कांग्रेस के स्वर्गीय राजशेखर रेड्डी के करीबी और उनके बेटे जगनमोहन के व्यावसायिक साझीदार रेड्डी बंधुओं ने कर्नाटक में येदुरप्पा सरकार की नींव अपने पैसों के बल पर समर्थन खरीद कर ही डाली थी। और हमेशा के लिए येदुरप्पा सरकार की गले की फांस बन गए, जिन्हें खुष करके रखना सरकार की मजबूरी है। रेड्डी बंधुओं की कहानी पैसों के ताकत की कहानी है जिनसे सभी राजनीतिक-दल प्यार करने के लिए नफरत करते हैं या नफरत करने के लिए प्यार। येदुरप्पा ब्लैकमेलिंग के कारण उनसे पीछा छुड़ाना चाहते हैं लेकिन छुड़ा नहीं पाते। कांग्रेस को राजशेखर रेड्डी के समय में रेड्डियों से कोई आपत्ति नहीं थी लेकिन अब जगनमोहन आन्ध्र में कांग्रेस की गले की हड्डी है और जगनमोहन की औकात रेड्डी बंधुओं के कारण ही है ऐसे में केन्द्र को अब रेड्डी बंधुओं पर शिकंजा कसने की जरूरत महसूस हो रही है।

दरअसल, यह मुद्दा अब इतना बड़ा हो चुका है कि केन्द्र सरकार भी कई राज्यों और खासकर कर्नाटक में अवैध खनन रोकने के लिए नया कानून लाने जा रही है

इधर कर्नाटक सरकार ने राज्य में लोहे के निर्यात पर पूरी तरह से पाबंदी लगा दी है। साथ ही लोहे व अन्य खनिजो के अवैध खनन और निर्यात की जांच के लिए एक 14 सदस्यीय विशेष पैनल का गठन किया है। यह समिति इसका आकलन करेगी कि खननकर्ताओं ने कितनी मात्रा में लौह-अयस्क का खनन किया, कितना निर्यात किया और कितना घरेलू इस्पात कंपनियों को दिया। साथ ही खनन फर्मो के द्वारा राज्य सरकार को कितनी रायल्टी का भुगतान किया गया। इसके अलावा समिति लोहे के अवैध परिवहन को रोकने के लिए बनाए गए 13 नए चेकपोस्ट पर भी नजर रखेगी। हालांकि खनन पर रोक लगाने से खान मालिक 300 करोड़ प्रति सप्ताह के नुकसान की बातें कर रहे हैं। लेकिन राज्य के सभी जिलों में ज्यादातर खान मालिकों के द्वारा इसका पालन हो रहा है। केवल बेल्लारी से सटे संदुर में अब भी इसका उल्लंघन हो रहा है।

बहरहाल, कर्नाटक के लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े की पहल से भी कर्नाटक और खासकर बेल्लारी में जारी लोहे के खेल पर सभी का ध्यान गया है, अब चाहे जो हो, लेकिन बेल्लारी और राज्य के लोगों में इसके प्रति नाराजगी अब दिख रही है। कांग्रेस की इसी मुद्दे पर बेल्लारी चलो पदयात्रा को मिली सफलता इसका प्रमाण है।
( Public Agenda के लिए )

बुधवार, 11 अगस्त 2010

ग्रीन जाब यानी ग्रीन इकानमी

(Inext में प्रकाशित लेख)
हाल ही में इंटरनेशनल लेबर आॅरगनाईजेशन के साथ भारत सरकार के श्रम और रोजगार मंत्रालय ने ग्रीन जाॅब पर कान्फ्रेंस का आयोजन किया। यह अपनी तरह का पहला कान्फ्रेंस था और रोजगार को लेकर सरकार के नजरिये में भी बदलाव की ओर इशारा कर रहा था। सुनने में ये कुछ अजीब सा लगे पर हकीकत यही है आने वाला समय ग्रीन जाॅब्स का ही है। इसलिए देश के श्रम और रोजगार मंत्री ने लो कार्बन इकोनाॅमी के लिए पाॅलिसी के स्तर पर संरचात्मक बदलाव और इसमें निवेश की बात की। साथ ही एनवायरन्मेंट फ्रेंडली रोजगार संभावनाओं और मौजूदा व्यवसायों को भी ग्रीन इकाॅनमी में बदलने पर चर्चा की।

ग्रीन जाॅब्स आखिर है क्या? दरअसल, ये वो रोजगार हैं जो उत्पादन आैर उपभोग के साईकिल को पर्यावरण के अनुकूल बना सकते हैं। ग्रीन जाॅब ऐसे टिकाउ अर्थव्यवस्था और समाज का प्रतीक तीक है जो पर्यावरण की फिक्र और उसकी रक्षा खुद अपने और अपनी आगे आने वाली पीढ़ी के लिए करने को लेकर सचेत है। इसके तहत ग्रीन एनर्जी एफििशएंट इमारतें, पर्यावरण अनुकूल खेती, वाटर हारवेटिस्टंग, वेस्ट मैनेजमंट, एनवायरन्मेंट फ्रेंडली तरीके से बिजली और ईंधन का उत्पादन वगैरह-वगैरह शामिल है। दरअसल, हर काम या रोजगार के ग्रीन जाॅब होने की संभावनाएं हैं वो भी मुनाफे से बगैर समझौता और सस्टेनेबल विकास को कायम रखते हुए।

लेकिन ग्रीन जाॅब्स का मतलब केवल रिन्यूयेबल एनर्जी, जैव िविवधता संरक्षण , वेस्ट मैनेजमेंट, वाटर हारवेस्टिंग और कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करना ही नहीं बल्कि रोजगार के पैटर्न में ही बदलाव है। ताकि  उत्पादन आैर उपभोग एनवायन्मेंट फ्रेंडली बन सके। जैसे-जैसे पर्यावरण और क्लाईमेट चेंज के प्रति सभी की जागरूकता बढ़ेगी ग्रीन जाॅब सेक्टर करोड़ों नई नौकरियां पैदा करेगा। लेकिन इन संभावनाओं को पैदा करने और उनका पूरी तरह से फायदा उठाने के लिए सही समय पर सही पाॅलिसी बनाना भी उतना ही जरूरी है साथ ही शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में समय रहते इस हिसाब से बदलाव भी।

पिछले दिनों आर्थिक मंदी के दौरान ये अनुभव किया गया कि ग्रीन जाॅब्स सभी के लिए संभावनाओं के नए दरवाजे खोल सकता है। क्योंकि इसके तहत अधिकांशतः रोजगार का सृजन प्राकृतिक संसाधनों को मैनेज करके किया जा सकता है। इंटरनेशनल लेबर आॅरगनाईजेशन का ग्रीन जाॅब प्रोग्राम आज दुनिया के बहुत से देशों में शुरू हो चुका है। एशिया में भारत, बांग्लादेश,चीन, थाईलैंड और फिलीपींस में इस संबंध में पायलट प्रोग्राम चलाया जा रहा है। जिसका मकसद ग्रीन जाॅब की संभावनाओं और एनवायन्मेंट फ्रेन्डली रोजगार पैदा करने के बारे में लोगों में जागरूकता लाना है। साथ ही इससे जुड़ी नीतियों के बारे में चर्चा भी।



बहरहाल, भारत में महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम जैसी योजनाओं में सरकार ने पर्यावरण और रोजगार के बीच तालमेल को तवज्जो दी है। आर्थिक विकास रोजगार के नए मौकों का सृजन और गरीबी हटाना आज ये हर सरकार की प्राथमकिता है। लेकिन साथ ही अपने अस्तित्व के लिए पानी, हवा और अन्य सभी नैचुरल रिसोर्सज का संरक्षण भी उतना ही जरूरी हो गया है। इसलिए , ग्रोथ,  प्रोडक्शन आैर कंजम्पशन को पर्यावरण के साथ जोड़ना ही होगा। इसी जरूरत को ध्यान में रखते हुए मार्च 2009 में श्रम और रोजगार मंत्रालय ने आईएलओ के सहयोग से ग्रीन जाॅब और क्लाईमेट चेंज पर मल्टीस्टेकहोल्डर टास्कफोर्स बनाया गया। इस टास्कफोर्स में सरकारी विभागों के प्रतिनिधयों, रिसर्च इंस्टीट्यूट, एनजीओ, वकर्स और एम्प्लायर्स को शामिल किया गया है, ताकि एनवायरन्मेंट फ्रेंडली रोजगार और नीतियों के बारे में एक राय बन सके।

दरअसल, दो दशक पहले जैसी क्रांति आईटी से आयी थी ग्रीन जाॅब भी अब वही करने जा रहा है। रिन्यूयेबल एनर्जी से लेकर, पर्यावरण संरक्षण, वाटर और वेस्ट मैनेजमेंट और जलवायु से जुड़े अन्य सेक्टर में अपार रोजगार की संभावनाएं हैं। एक्सपर्ट की राय में आने वाले दिनों में भारत के 6 लाख गांवों में ही वाटर और वेस्ट मैनेजरों की जरूरत होगी यानी 1.2 करोड़ लोगों के लिए रोजगार पैदा होगा।

इंटरनेशनल लेबर आॅरगनाईजेशन की एक रिसर्च में भी इस बात का खुलासा किया गया है कि क्यों रिसेसन के दौरान दुनिया की बहुत सी सरकारें पर्यावरण को इतनी तव्वजों दे रही हैं और गंभीरता से ले रही हैं। दरअसल, इस रिसर्च के मुताबिक 2020 तक एनवायन्मेंटल प्रोडक्ट और सर्विस की मार्केट वैल्यू 2.740 लाख करोड़ तक हो जाने का अनुमान है। यानी ‘गो ग्रीन  इज फ्यूचर, क्योंकि आनेवाला समय ग्रीन एम्प्लायमेंट और ग्रीन इकाॅनमी के ही नाम होने वाला है।

शनिवार, 3 जुलाई 2010

बिजली बेचने वाला गांव

(Inext के िलए िलखा गया लेख)


भारत की एक तिहाई आबादी के लिए बिजली अभी भी एक सपना ही है। गांव की बात छोड़ें, बड़े शहर यहां तक कि मेट्रो सिटीज भी बिजली की भारी किल्लत झेल रहे हैं। ऐसे में कोई गांव अपनी जरूरत की बिजली न सिर्फ खुद बना रहा हो बल्कि सरप्लस बिजली राज्य सरकार को बेच भी भी रहा हो तो आप क्या कहेंगे? यकीन नहीं करेंगे, लेकिन ऐसा हो रहा है। कर्नाटक का काब्बीगेरे ग्राम पंचायत ऐसा ही एक गांव है, जो अब सारे देश के लिए एनवायरन्मेंट फ्रेडंली सस्टेनेबल डेवलपमेंट का एक उम्दा उदाहरण बन गया है। इस गांव ने रिन्यूयेबल एनर्जी स्रोतों के इस्तेमाल से अपनी तकदीर और तस्वीर बदल डाली है। और यह साबित कर रहा है कि सरकारी योजनाएं भी बहुत कारगर हो सकती हैं अगर स्थानीय जरूरतों के मुताबिक लोकल पार्टीसिपेशन से उसे लागू किया जाए तो।

गहरी हरियाली की चादर से ढंका कर्नाटक का काब्बीगेरे ग्राम पंचायत देश का पहला ऐसा गांव है जो स्टेट पावर ग्रिड यानी बंगलूरू इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई कंपनी को अपनी बनायी हुई बिजली बेचता है और वो भी मामूली कीमत, 2.85 प्रति के.वाट की दर से। यही नहीं बिजली का उत्पादन भी गांव में ही पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल तरीकों से किया जाता है। दरअसल, ये कहानी शुरू हुई संयुक्त राष्ट्रसंघ-कर्नाटक सरकार के संयुक्त प्रयास से शुरू किए गए बायोमास पावर प्लांटस् प्रोजेक्ट से। यों तो शुरूआत हुई थी बिजली के मामले में इस गांव को इंडीपेंडेंट बनाने से लेकिन बिजली मुहैया कराने का यह प्रोजेक्ट अब गांव के चौरफा विकास और बदलाव की बुनियाद साबित हो चुका है। दरअसल, बायोमास पावर प्लांट लगाने की इस योजना से गांव के लोग बिजली के मामले में आत्मनिर्भर तो हो ही गए है आर्थिक तौर पर भी मजबूत हुए हैं। साथ ही सरप्लस बिजली बेच भी रहे हैं। बायोमास प्रोजेक्ट पेड़ों र्से इंधन हासिल करता है, बायोमास, कार्बन न्यूट्रल होता है यानी इससे कार्बन का उत्सर्जन नहीं होता है। इसके लिए यूकेलिप्टस और अन्य पेड़ों की जरूरत होती है, यानी आस पास हरियाली बढ़ाना होता है। जाहिर है बिजली में इंडीपेंडेंट होने की यह योजना एक साथ कई और मौके उपलब्ध कराती है।

काब्बीगेरे की सफलता की कहानी, यूएनडीपी के बायोमास एनर्जी फाॅर रूरल इंडिया प्रोग्राम का नतीजा है।जिसका इंप्लीमेंटेशन ग्लोबल एनवायरन्मेंट फेसिलिटी, भारत-कनाडा फेसिलिटी और कर्नाटक सरकार के ग्रामीण विकास और पंचायती राज के सहयोग से संभव हो पाया है। इस योजना के तहत 250, 250 और 500 के.वाट क्षमता के तीन छोटे पावर प्लांट लगाए गए जो स्थानीय स्तर पर उपलब्ध बायोमास का इस्तेमाल कर बिजली बनाते है। इन प्लांटों के द्वारा 2007 से अब तक लगभग 400,000 कि.वाट बिजली पैदा की जा चुकी है।

एक छोटी सी लेकिन बुनियादी जरूरत बिलजी की उपलब्धता लोगों के जीवन को किस कदर बदल देती है इस गांव में देखा जा सकता है। यहां अब खाना बनाना आसान हो गया है। पढ़ने, लिखने के लिए लड़कियों और महिलाओं को दूसरे कामों के लिए ज्यादा समय मिलने लगा है, जलावन के लिए लकड़ियों के इंतजाम में लगने वाले समय की बचत हो रही है, पानी सुलभ हो गया है। बिजली की उपलब्धता के कारण अब गांव में 130 बोरवेल हैं, जाहिर है इससे सिंचाई आसान हो गई है और खेती की तस्वीर बदल गई है। गांव के लोगों की आमदनी में 20 प्रतिशत का इजाफा इसका सबूत है। साथ ही पावर प्लांट में स्थानीय लोगों को रोजगार भी मिल रहा है। जिन्हें सरकार प्रशिक्षण देती है। यह योजना न सिर्फ पर्यावरण के लिए फायदेमंद साबित हुई है बल्कि इसी प्रोजेक्ट के तहत 51 गोबर-गैस प्लांट भी लगाए गए हैं। जिससे लगभग पौने दो सौ घरों में बगैर किसी अतिरिक्त लागत के स्वच्छ व प्रदूषण-मुक्त कुकिंग ईंधन भी उपलब्ध हो जा रहा है। बायोगैस प्लांट स्थानीय स्वयं-सहायता समूहों के नर्सरियों से आॅरगेनिक कचड़ा भी लेते हैं। इस तरह हािशए पर रहने वाले समुदायों की महिलाओं को भी आमदनी का जरिया मिल गया है।

दरअसल, यह योजना और इसकी सफलता अपने आप में एक बड़ी उम्मीद की किरण है। यदि कोिशश की जाए तो बिजली,पानी और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए तरसते देश के बाकी गांव भी न सिर्फ आत्मनिर्भर हो सकते हैं बल्कि उनका भी पूरी तरह से कायाकल्प हो सकता है।

शुक्रवार, 7 मई 2010

एम एस सत्थ्यू से एक मुलाकात


मैसूर श्रीनिवास सत्थ्यू भारतीय फिल्म उद्योग का एक प्रतिष्टत नाम है। 1973 में बनीं उनकी फिल्म गर्म हवा, न सिर्फ विभाजन पर देश  की पहली फिल्म है, बल्कि विभाजन से पैदा मानवीय त्रासदी को संवेदनशील तरीके से सामने लाने वाली फिल्म भी है। इस फिल्म को भारत में नए किस्म के सिनेमा, कला या समानांतर सिनेमा की शुरूआत करने वाला भी कहा जाता है। जिसकी श्याम बेनेगल की अंकुर जैसी फिल्मों से आगे बढती है। 
मैसूर में 1930 में जन्में एम.एस सत्थ्यू ने अपने फिल्मी कैरियर की शरुआत 1956 में चेतन आनंद के साथ की थी। चेतन आनंद की हकीकत के लिए सत्थ्यू को बेस्ट कला निर्देशन का फिल्म फेयर पुरस्कार मिला। सिनेमा के लगभग सभी पक्षों पर मजबूत पकड़ रखने वाले सत्थ्यू ने कला निर्देशक, कैमरामैन, पटकथालेखन, निर्माता और निर्देशक सभी हैसियत से काम किया है। हिन्दी, उर्दु और कन्नड़ में  अब तक ये नौ फिल्में बना चुके हैं साथ ही 15 डाक्यूमेंट्री भी। इसके अलावा कई विज्ञापण फिल्मों और टीवी कार्यक्रमों का भी इन्होंने निर्माण किया है। फिलहाल, सत्थ्यू बंगलूरू में ‘सिनेमा इत्यादि’ नाम से एक एडिटिंग स्टुडियो चलाते हैं।

सत्थ्यू हिन्दी और कन्नड़ दोनों भाषाओं में फिल्में बनाते रहे हैं, उनकी बाकी फिल्मों के बारे में नहीं भी बात करें तो भी सिर्फ गरम हवा ही उन्हें भारत के समानांतर सिनेमा आंदोलन का सबसे बड़ा नायक साबित करती है। वामपंथ विचारधारा से प्रभावित सत्थ्यू ने  इप्टा के साथ बहुत काम किया। गर्म हवा को भी इप्टा के वैचारिक ट्रेंड वाली फिल्म कहा जा सकता है। जिसमें अल्पसंख्यकों के डर और चिंता को बहुत सलीके से उकेरा गया है साथ ही उनके लौटते आत्मविशवास और भरोसे को भी। यह फिल्म काॅन फिल्म समारोह में में गोल्डन पाम श्रेणी में नामांकित हुई थी और आॅस्कर के लिए भेजी गयी थी। साथ ही इसे नरगिस दत्त पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। गर्म हवा के अलावा कान्नेष्वरा रामा, बारा हिन्दी में सूखा इनकी उल्लेखनीय फिल्में हैं। पद्श्री एम. एस सत्थ्यू की सभी कन्नड़ फिल्मों को कर्नाटक राज्य सम्मान हासिल हुआ है। बहरहाल, लगभग एक दशक से भी ज्यादा समय के बाद कन्नड़ भाषा की फिल्म इज्जोडू के साथ सत्थ्यू ने फिर वापसी की है।  देवदासी प्रथा पर बनी यह फिल्म 30 अप्रैल को कर्नाटक में रिलीज हुई।
एम. एस सत्थ्यू से  बातचीत की के प्रमुख अंश:



हाल में रीलीज अपनी नई फिल्म इज्जोडू के बारे में बताएं?
-मेरी यह फिल्म देवदासी प्रथा के बारे में है। हांलाकि सरकार ने इस पर 1982 में ही रोक लगा दी है पर अब भी यह जारी है। फिल्म में मुख्य भूमिका राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त अभिनेत्री मीरा जैसमीन ने िनभाया है साथ में अनिरूद्ध हैं। यह फिल्म और इसका सब्जेक्ट मेरे दिल के बहुत करीब है। मेरी फिल्म देवदासी प्रथा पर बहुत कड़ा स्टैंड लेती है। अभी तक देश के चार फिल्म समारोहों में इज्जोडू दिखायी जा चुकी है, सभी जगह जूरी,आलोचकों और सिनेमा-प्रेमियों ने इसे काफी सराहा है।
देवदासी प्रथा क्या अब भी कायम है? कर्नाटक में इसका क्या स्वरूप है?
-बिल्कुल अभी भी यह कुप्रथा कायम है। उत्तरी कर्नाटक के लगभग 10 जिलों के येल्लमा समाज में देवदासी बनाए जाने की परंपरा है। येल्लमा देवी को मानने वाले खुद को, या अपनी संतान को देवी की सेवा में अर्पित कर देते हैं। मेरी फिल्म में भी गांव वाले एक महामारी से बचने के लिए नायिका को बासवी बनाकर देवी को अर्पित कर देते हैं। बासवी भी देवदासी जैसी ही होती है जो बाद में देह-व्यापार करने पर विवश हो जाती है। कर्नाटक में 10वींशताब्दी से भी पहले से देवदासी प्रथा प्रचलित रही है। जिनमें सबसे प्रमुख येल्लमा देवी को मानने वाला समाज है। गरीबी और अिशक्षा के कारण आज भी ये लोग या तो खुद को या फिर अपनी संतान को देवी की सेवा में अर्पित कर देते हैं। मंदिरों में अपनी बाकी जिंदगी गुजारने को विवश इन लोगों में से महिलाएं बाद में सेक्स वर्कर बनने को बाध्य हो जाती हैं।
लगभग 12 साल के बाद आपने इज्जोडू के साथ वापसी की है, इतना लंबा अंतराल क्यों?
-पैसे नहीं थे। इस दौरान भी कई विषयों और कहानियों पर मेरा मन फिल्म बनाने को हुआ पर उनके लिए फाईंनेंसर नहीं मिल पाए। एफएफसी के पास भी पैसे नहीं हैं और अब तो यह संस्था लगभग निष्क्रय हो गयी है। इज्जोडू को रिलायंस बिग पिक्चर जैसे समूह ने फायनेंस किया है। अब बड़े काॅरपोरेट समूहों का पैसा पाॅपुलर सिनेमा के साथ-साथ प्रायोगिक और छोटी फिल्मों में भी लग रहा है। यह अच्छी बात है, इनके काम करने का तरीका भी पारदर्शी है। बिग पिक्चर हिन्दी में थ्री इंडियट और पा जैसी फिल्मों में पैसा लगाने के साथ साथ क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों में भी पैसा लगा रही हैं।

गर्म हवा को आज भी विभाजन पर बनी सबसे संवेदनशील, प्रमाणिक और बेहतरीन फिल्म माना जाता है। फिर शयाम बेनेगल की मम्मों का नाम याद आता है। दूसरी ओर प िशचम  में युद्ध और ऐसी ही त्रासदियों पर फिल्मों की लंबी श्रृंखला है?
-हमारा सिनेमा इंटरटेनमेंट सिनेमा है। इसलिए अप्रसांगिक है, अपने समय को दर्ज करना हमारे लोकप्रिय सिनेमा को पसंद ही नहीं है, बस एक तय फारमेट में बाॅक्स आॅफिस के हिसाब से फिल्में बनायी जाती है। दरअसल, हम इस्केपिस्ड टाईप हैं जबकि यूरोप में युद्ध के बाद आपको एंटीवार फिल्मों का एक सिलसिला सा मिलेगा, वो रिसेप्टिव रहे हैं।
किसके सिनेमा से आप सबसे ज्यादा प्रभावित रहे हैं?
-स्पीलबर्ग की फिल्में मुझे बहुत पसंद आती रही हैं।
पिछले कुछ सालों में अपने यहां की कौन-कौन सी फिल्में अच्छी लगीं? और निर्देशकों में कौन पसंद हैं?
-माचिस, सत्या, पेज थ्री पसंद आयी मुझे। मणिरत्नम रोचक तरीके से फिल्म बनाते हैं उन्हें व्यावसायिकता और कलात्मकता में संतुलन साधना आ गया है। अनुराग बासु की देव डी भी बहुत उम्दा फिल्म है। उनका काम काफी अच्छा है। रंग दे बंसती में एक अंग्रेज लड़की का आकर हमारा इतिहास बताना मुझे कुछ जमा नहीं। पिछले साल स्लमडाॅग मिलेनियर की बहुत चर्चा रही पर यह कहीं से हमारा सिनेमा नहीं था और न ही आॅस्कर के लायक। लगान भी आॅस्कर टाईप फिल्म नहीं थी और इस बार भेजी गयी हरिष्चंद्राची फैक्टरी भी उस स्तर की नहीं है। हिन्दी के मुकाबले मलयालम, बंगाली और असमी में ज्यादा अच्छी फिल्में बन रही हैं। हिन्दी में नसीर, ओमपूरी परेश रावल के बाद सैफ, शाहिद और अभय देवोल बेहतर अभिनय कर है हैं। शाहरूख और आमिर जैसे अभिनेता महज एक पर्सनेलिटी भर हैं।
आपकी राय में भारतीय सिनेमा का हर पक्ष अपने सर्वोत्तम रूप में किस फिल्म में मौजूद है?
-मृणाल सेन की खंडहर हर मायने में विशवस्तरीय फिल्म है। इसमें सिनेमा का हर पहलू चाहे वो कहानी हो, अभिनय हो या फोटोग्राफी सभी कुछ बहुत उंचा है।
साहित्य से आपको काफी लगाव रहा है। गर्म हवा आपने इस्मत चुगताई की कहानी पर बनायी थी, यू आर अंनतमूर्ति की कहानियों पर भी आपने फिल्म बनायी है। इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं और किन पर काम करने की सोच रहे हैं?
-हां मैं पढ़ता रहता हंू और लगभग हर कहानी और उपन्यास को लगभग इसी नजरिये से पढ़ता हंू कि इस पर फिल्म कैसी बनेगी?  फिलहाल, मैं एक पाकिस्तानी लेखक की रचना ‘स्टोरी आॅफ अ विडो’ पढ़ रहा हूं और वाकई फिल्म बनाने के लिहाज से यह एक अच्छा उपन्यास है। लेकिन साहित्यक रचनाओं पर फिल्म बनाना काफी रिस्की है। इधर कन्नड़ के युवा लेखक बी सुरेशा भी मुझे पसंद आ रहे हैं।
कन्नड़ फिल्म उद्योग के बारे में कुछ बताएं?
-बहुत घटिया फिल्में बन रहीं हैं यहां। सिर्फ रीमेक से काम चलाया जाता है मौलिक काम नही के बराबर हो रहा है। साहित्य में 6 ज्ञानपीठ कन्नड़ को मिल चुका है पर कोई पढ़ता ही नहीं। दूसरी ओर शेशाद्री की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म विमुक्ति को देखने मैं हाॅल में गया तो वहां दर्शक नदारद थे। वैसे काफी बोरिंग फिल्म है यह। गिरीश कासरवल्ली की गुलाबी टाॅकीज अच्छी फिल्म है लेकिन उसे ठीक से रिलीज नहीं किया गया।
स्टेज के लिए काफी काम किया है आपने?
-हां, स्टेज में बहुत पैसों की जरूरत नहीं होती, इसलिए फिल्मों के लिए पैसे नहीं थे तो स्टेज में व्यस्त रहा। वैसे स्टेज का ग्लैमर कुछ अलग ही है।
टीवी के लिए भी आपने बहुत काम किया है, कोई नया प्रोजेक्ट?
-बिल्कुल नहीं! टी.वी में वेराईटी नहीं है अब इस माध्यम में काम करने में कोई मजा नहीं रहा। दूरदर्शन में रचनात्मक आजादी नहीं है और सैटेलाईट चैनलों में टीआरपी की दौड़ में उल-जलूल कार्यक्रमों की भरमार।
सत्तर और आज के सिनेमा की दुनिया में क्या फर्क महसूस करते हैं?
-सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह का फर्क महसूस करता हंू मैं। मल्टीप्लेक्स के कारण प्रयोगों को भी जगह मिल रही है।  तकनीक में हम बहुत आगे निकल आएं हैं। काम आसान हो गया है लेकिन तकनीक का दुरूपयोग भी हो रहा है। दरअसल, फिल्म का एक व्याकरण होता है उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती।
आगे की योजनाएं क्या हैं?
-मेरी सारी फिल्में एक के बाद एक रिलीज हो रही हैं जिनमें ‘कहां कहां से गुजर गया’ भी शामिल है जो अभी तक रिलीज नहीं हो पायी थी। पंकज कपूर की यह पहली फिल्म है और इसमें अनिल कपूर भी हैं। नक्सल आंदोलन के खत्म होने के बाद युवाओं के लक्ष्यहीन भटकाव के बारे में है यह फिल्म। इसके अलाव पेंग्विन इंडिया की ओर से गरम हवा पर किताब भी आ रही है।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

कहां कहां से गुजर गया

पंकज कपूर की पहली फिल्म अब शायद थियेटर का मंूह देख सके। शयाम बेनेगल की आरोहन से अपने फिल्मी कैिरयर की शुरूआत करने वाले पंकज इस फिल्म से पहले कहां कहां से गुजर गया में काम चुके थे, पर ये फिल्म आज तक िरलीज नहीं हो सकी। अभिनेता अिनल कपूर भी इस फिल्म में हैं। नक्सल आंदोलन के खत्म हो जाने के बाद लक्ष्यहीन, दिशाहीन हो चुके युवाआें की यह कहानी गरम हवा जैसी कालजयी फिल्म बनाने वाले फिल्मकार  एम . एस. सत्थयू  ने 1981 में बनायी थी। लगभग एक दशक के बाद कन्नड़ फिल्म इज्जोडू से वापसी कर रहे सत्थयू  अगले एक दो महीने में कहां कहां से गुजर गया के िडब्बे से बाहर िनकल िथयेटर में आने की उम्मीद कर रहे हैं।
नक्सल आंदोलन के खत्म होने के बाद युवाआें में उपजी िदशाहीनता के बारे में बात करने वाली यह फिल्म अब कितनी प्रासंिगक है इसके बारे में सत्थयू कहते हैं आज फिर नक्सल आंदोलन अपने चरम पर है आैर सरकार के िलए कानून आैर व्यवथा के स्तर पर सबसे बड़ी समस्या। इतने सालों में न तो सरकार का नजिरया बदला आैर न ही यह समस्य  सुलझी। हां हमें भी यह अंदाजा नहीं था कि सरकार इतने लंबे समय में भी इस समस्या को सुलझा नहीं सकेगी। बहरहाल, कहां कहां से गुजर गया नक्सल आंदोलन के कमजोर पड़ने के बाद की कहानी है आज के युवा इससे कितना िरलेट करेंगे ये तो मैं नहीं जानता पर मैंने इस  फिल्म में  उस समय, उस दौर को दर्ज किया है, एक दस्तावेज है वो उस दौर के युवाआें की मनोदशा का। आज के युवा बदल गए हैं, महानगरों आैर बड़े शहरों के युवाआें के िलए नक्सलवाद,   सामािजक आिर्थक  की बात छोड़े  शायद यह कोई समस्या ही न हो । डेवलपमेंट पाकेट में रहने वाले ये युवा उस दौर के शहरों के युवाआें जैसे नहीं  हैं इसलिए देश की समस्याआें पर िरयेक्ट करने का उनका तरीका भी। जो कुछ कर सकते हैं उनमें मेजोरिटी की सोच सरकार जैसी है कि नक्सलवाद महज कानून आैर व्वस्था की समस्या है सामािजक आिर्थक िवषमता, गैरबराबरी या िवकास की दौड़ में हािशये पर छूटे लोगों का िरयेक्शन नहीं। सबसे अफसोसजनक बात तो ये है कि आज तीस साल से भी ज्यादा होने को आए लेकिन महानगरों आैर बड़े बड़े शहरों से इतर दूर  दराज के  लोगों के िलए  अब भी कुछ नहीं बदला। भारत का वो  युवा वहीं हैं, अपने बुिनयादी अिधकारों के िलए  लड़ता हुआ।
 एम . एस. सत्थयू से बाकी बातचीत अगली पोस्ट में

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

सिर्फ पढ़ना काफी नहीं

Inext में प्रकाशित लेख
राइट टू एजूकेशन का जश्न मन रहा है इसके प्रैक्टिकल एप्लीकेशन में क्या.क्या दिक्कतें आने वाली हैं  इस पर भी चर्चा हो रही है । इन सबके बीच क्वालिटी एजूकेशन का सवाल भी तो है। मौजूदा समय में हमारे देश में एजूकेशन में क्वांटिटेटिव सुधार तो आया है लेकिन क्वालिटी में नहीं। सरकार की कोशिशों के कारण अगर प्राइमरी एजूकेशन सभी के लिए सुनिश्चित हो भी जाए तो भी भविष्य में हायर एजूकेशन पर इससे बहुत फर्क पड़ेगा इसमें शक है। इस संदर्भ में लगातार पहले ही काफी चिंताएं जताई जा रही हैं लेकिन ज्यादा परेशान करने वाली बात ये है कि मौजूदा समय में देश में हायर एजूकेशन स्टैंडर्ड भी काफी चिंताजनक हैं।   हाल ही में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के सलाहकार सैम पित्रोदा ने कहा कि देश की 90 प्रतिशत यूनिवर्सिटी मानक से लो स्टैंडर्ड एजूकेशन मुहैया करा रही है, एक कान्फ्रेंस में सैम पित्रोदा ने अपनी चिंताएं जाहिर करते हुए कहा कि 90 प्रतिशत यूनिवर्सिटी मानक से लो स्टैंडर्ड एजूकेशन मुहैया करा रही हैं आैर इनकी क्वालिटी ऑफ एजूकेशन अप.टू.द मार्क नहीं है, इसे तुरंत सुधारे जाने की जरूरत है।   चिंता यह भी थी कि जितनी यूनिवर्सिटीज या कॉलेजेस हायर एजूकेशन के लिए हैं  वे काफी नहीं हैं, शायद इसलिए सरकार ने 14 नई यूनिवर्सिटी ऑफ इनोवेशन और 400 नए कॉलेज खोलने का फैसला लिया है, लेकिन कॉलेज खोले जाना भर काफी नहीं है।  असल सवाल यह है कि जो एजूकेशन अवेलेबल कराई जा रही है, वो कितनी कारगर है? शिक्षा के इस मसले के दो बिल्कुल अलग.अलग सेक्शन हैं, एक जिसकी चिंता में हर व्यक्ति की जद में शिक्षा का न पहुंचना है जिससे संबंधित राइट टू एजूकेशन हाल ही में आया ही है, दूसरा सेक्शन है कि क्वालिटी एजूकेशन, क्वालिटी एजूकेशन किसी भी देश की बेसिक रिक्वायरमेंट तो है ही, इसी पर देश की तरक्की बेस करती है।  देश में हर साल बड़ी संख्या में बेरोजगारों की संख्या बढ़ रही है यह संख्या अपने आप में काफी कुछ कहती है हाथों में डिग्रियां थामे बेरोजगारों की संख्या बढ़ाने वाले हाथ कितने इक्विप्ड हैं उनकी शिक्षा कितनी कारगर है खुद उनके लिए और देश की प्रोग्रेस के लिए उनके हाथ में शिक्षा का हथियार तो है लेकिन अगर वो मोथरा है तो किस काम का? ये वो सवाल हैं जिन पर काम होना जरूरी है। एक बढि़या कॉलेज से पढ़.लिखकर निकला युवा किसी भी सूरत में बेरोजगार नहीं हो सकता, नौकरी भर उसका लक्ष्य होता भी नहीं वो नये रास्ते खोजता है और कुछ न कुछ बेहतर करने की फिराक में रहता है एक बार किसी ने कहा था कि एक आईआईएम पास आउट अगर सब्जी का ठेला भी लगायेगा तो उसमें भी कुछ न कुछ लैंडमार्क सक्सेस जरूर अचीव करेगा।  एजूकेशन का व्यापक अर्थ समझना है, एजूकेशन सिर्फ डिग्री हासिल करना नहीं काले अक्षरों को जानना भर नहीं है, जीवन के जटिल अर्थो को सहज रूप में समझना है एक वेल एजूकेटेड व्यक्ति कभी भी बेकार नहीं रह सकता  वह कुछ न कुछ करके अपने लिए रास्ते निकाल ही लेगा।
  किसी देश के भविष्य की चाभी बेहतर एजूकेशन में छिपी होती है। भारत में बंगलूरू इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जो आज से 20.25 साल पहले केवल अपने कॉलेजों के लिए प्रसिद्ध था।  लेकिन बाद में तकनीकी शिक्षा से लैस यही युवा यहां.वहां बड़ा वर्कफोर्स बन गए और दुनिया में भारत को बंगलूरू के नाम से एक अलग पहचान दिलाई। पूरे देश को बंगलूरू बनना है ,जो  भी पढ़ा.पढ़ाया जा रहा है उसकी क्वालिटी पर ध्यान रखे जाने की जरूरत है सरकार की जिम्मेदारी तो है ही लेकिन एक इंडीविजुअल के तौर पर टीचर्स और स्टूडेंट्स का इनीसिएशन भी इंपॉर्टेट है  इसे इग्नोर नहीं किया जा सकता।

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

कर्नाटक में जारी लोहे के अवैध खनन पर राज्य के लोकायुक्त जस्टिस संतोश हेगड़े के साथ बातचीत।


For Public Agenda



-कर्नाटक में लोहे की राजनीति के बारे में क्या कहेंगे आप?
बेल्लारी, चित्रदुर्गा और टूमकूर में लोहे का जमाव है और सारा किस्सा इस खजाने के ज्यादा से ज्यादा हिस्से पर अपना कब्जा जमाने की प्रतिस्पद्र्धा का है। इसकी शुरूआत वर्ष 2002 से हुई जब चीन को अपने यहां 2008 में होने वाले ओलंपिक खेलों के लिए भारी मात्रा में लोहे की जरूरत हंई। अचानक लोहे की कीमत आसमान छूने लगी और यहीं से लोहे की राजनीति शुरू हुई।
-खनन क्षेत्र में जारी लूट-खसोट की जांच कैसे शुरू की आपने? और कहां तक पहंुचे?
2007 में मेरे पास सरकार की ओर से लोहे के अवैध खनन और वन क्षेत्र में लोहे की ढुलाई की जांच की लिखित शिकायत आयी। इस आधार पर बेल्लारी, होस्पेट और टूमकूर में जांच करने पर हमने पाया कि यहां भारतीय खान ब्यूरो के मानकों का सीधे तौर पर उल्लंघन हो रहा है। जिसके तहत वन क्षेत्र में अतिक्रमण, वहां माल की अवैध डंपिंग, लीज क्षेत्र से बाहर और मानक गहराई से ज्यादा खनन जैसी बाते हमने देखीं। हमने लोहे की ढुलाई में भारी अनियमितता पायी। मैं किसी भी कंपनी का नाम नहीं लेना चाहुंगा, बहरहाल, मैंने पाया कि एक लाॅरी को 30 दिन में एक बार लौह-अयस्क ढुलाई करने का परमिट होता है पर पोर्ट तक पहंुचने और लौटने में मात्र एक दिन लगता है अतः  महीने एक लाॅरी 10 से 15 ट्रिप माल ढ़ुलाई करती है। राज्य सरकार के कर्मचारी घूस लेकर उस कंपनी के ट्रकों की बेरोकटोक आवाजाही सुनिष्चित कर रहे हैं।

-कर्नाटक में अवैध खनन पर अपनी रिपोर्ट का पहला हिस्सा आप सौंप चुके हैं दूसरा भाग कब तक आने की संभावना है?
 दूसरा भाग लगभग तैयार है एक महीने के भीतर हम इसे सार्वजनिक कर देंगे।
-इस रिपोर्ट में कुछ खास है?
नहीं ऐसा कुछ नहीं है, लोहे के अवैध खनन, वन अधिनियम का उल्लंघन और उसके ट्रांसपोर्टेशन में होने वाली अनियमितताओं व  भ्रष्टाचार पर पहले भाग में ही हम काफी कुछ कह चुके हैं। हां इस रिपोर्ट में हमने कर्नाटक में ग्रेनाईट के खनन में जारी अनियमितताओं और खनन व वन्य कानून के उल्लंघन पर भी फोकस किया है। बंगलूरू के पास कनकपूरा,चामराजनगर, रामनगर और बिदड़ी में ग्रेनाईट खनन में भी हमने काफी अनियमितता पायी है। इन इलाकों में पाया जाने वाला ग्रेनाईट इटैलियन ग्रेनाईट की श्रेणी का है।
-हाल ही में आपने कहा था कि आपके पास पावर नहीं है सरकार को लोकायुक्त को और शक्ति प्रदान करनी चाहिए और आपसे ज्यादा शक्ति उपलोकायुक्त के पास है?
बिल्कुल सही! मैं मौजूदा व्यवस्था से खुश नहीं हंू। और मैं इस संदर्भ में प्रक्रियात्मक बदलावा चाहता हंू। लेकिन सरकार इस बदलाव के पक्ष में तो नहीं दिखती है। दरअसल लोकायुक्त के पास सुओ मोटो अधिकार नहीं है। लोकायुक्त के जांच के दायरे में प्रथम श्रेणी के कमर्चारी  से लेकर मुख्यमंत्री तक आते हैं पर हमें बगैर लिखित िशकायत के किसी भी प्रकार की कार्रवाही का अधिकार नहीं है जबकि उपलोकायुक्त के अधिकार क्षेत्र में निचले पायदान के कर्मचारी तक शामिल हैं और उसे सुओ मोटो अधिकार हासिल है। सबसे रोचक बात तो ये है कि पिछले चुनाव में भी कर्नाटक में चुनाव लड़ रहे तीन बड़े दलों के चुनावी घोषणापत्र में लोकायुक्त को और अधिक शक्तिशाली बनाने और सुओ मोटो अधिकार देने की बात थी। अब उनमें से एक दल की सरकार है पर हालात पहले जैसे ही हैं। वैसे भी हमारे काम का केवल दस फीसदी ही भ्रष्टाचार जैसे मामलों की जांच से संबंधित होता है, नब्बे प्रतिषत मामले तो हम जनता की शिकायतों मसलन पेशंन , उपचार इत्यादि से संबंधित सुलझाते हैं।
-अवैध खनन के कारण कर्नाटक के सरकारी खजाने को हुए नुकसान की भरपायी दोषियों से वसूल करने की बात कही थी आपने?
मेरा मतलब उन सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों से जुर्माना वसूल करना था जिनके भ्रष्टाचार की वजह से सरकारी खजाने को इतना बड़ा नुकसान हुआ।
-कुछ बदला?
राज्य सरकार को पहले प्रति टन लोहे पर 27 रूपए राॅयल्टी मिलती थी अब यह 200 रूपए हो गई है। जबकि 2006 और 2007 में राज्य सरकार को 27 रूपए रायल्टी देकर इसी लौह-अयस्क का 6,000 से 7,000 हजार रूपए प्रति टन के हिसाब से निर्यात होता था। यानी सरकार को पहले ही करोड़ों का नुकसान हो चुका है।
-पर्यावरण और वन मंत्रालय के मुताबिक 1980 वन अधिनियम के बाद इसके उल्लंघन के कुल 1309 मामले अभी तक अनुमोदित हुए हैं और कुल 100,871 हक्टेयर वन क्षेत्र इसके कारण नष्ट हुआ है और इसमें केवल कर्नाटक से ही 10 फीसदी से कुछ ज्यादा वन क्षेत्र नष्ट हुआ है?
- मैं इस बात से सहमत हंू, खनन से पर्यावरण और वन क्षेत्र बहुत प्रभावित है। आज इस इलाके से स्लाॅग बीयर पूरी तरह से गायब हो चुके हैं। चंदन के पेड़ भी खत्म हो गए। और इसके लिए जिम्मेदार खनन लीज प्रदान करने में होने वाली धांधली ही है। पहले प्रोस्पेक्टिंग मानचित्र के आधार पर लीज मिलता था अब केवल काल्पनिक मानचित्र जमा करके भी लीज हासिल कर लेते है न तो केन्द्र सरकार और न ही राज्य सरकार की ओर से उस क्षेत्र की क्रास चेकिंग की जाती है। इसके अलावा एक और वजह रेजिंग काॅन्ट्रेक्ट भी है जिसके तहत लीज मिलने के बाद उसे थर्ड पार्टी को बेच दिया जाता है। जिसे सिर्फ और सिर्फ धातू के अधिकतम दोहन से मतलब होता है। राज्य सरकार ने केवल 158 खनन लीज प्रदान किया है जबकि ढ़ाई सौ से ती सौ जगहों पर खनन हो रहा है। जिस तेजी से यहां खनन हो रहा है उसके आधार पर अनुमान है कि 30 साल तक चलने वाला यह खजाना 6 साल में ही खत्म हो जाएगा।
-येदुरप्पा सरकार के रूख के बारे में आपकी क्या राय है?
सरकार को हम अपनी आधी रिपोर्ट सौंप चुके हैं लेकिन अभी तक उसके मुताबिक कार्रवाही नहीं हुई है। सरकार कितनी मजबूर है यह कुछ महीने पहले ही सब देख चुके हैं। अभी तक इस सदंर्भ में कुछ ठोस नहीं हुआ है।
-आपको क्या लगता है कैसे अवैध खनन और इस क्षेत्र में जारी भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है?
हमने तो अपनी रिपोर्ट दे दी, सरकार को उसके मुताबिक एक्शन लेना है। हालात सभी के सामने हैं। मैं किसी भी विशेष व्यक्ति, कंपनी या राजनीतिक दल का नाम लेना नहीं चाहंूगा। पर ये जरूर कहंूगा कि खनन क्षेत्र में पूरे देश में खासतौर पर कर्नाटक और आन्ध्रप्रदेश में पूरी तरह से राजनीति हावी है। मैंने निर्यात बंद करने का सुझाव दिया था, मेरी समझ से निर्यात पर पूरी तरह से रोक लगाकर इस क्षेत्र में जारी लूट-खसोट को नियंत्रित किया जा सकता है। सरकार को कैप्टिव खनन लीज यानी खनन करने वाली कंपनियों के लिए वहां कारखाना लगाना अनिवार्य हो इस व्यवस्था के तहत खनन लीज देना चाहिए। इससे हालात बदल सकते हैं लोगों को रोजगार मिलेगा, केन्द्र सरकार को सेंट्रल एक्साईज टैक्स और राज्य सरकार को वैट के जरिए हजारों करोड़ों की आय होगी। साथ ही देश की बहुमुल्य संपदा देश में ही रहेगी। मेरे विचार से केवल सुप्रीम कोर्ट और केन्द्र सरकार ही इस पर रोक लगा सकती है।

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बुधवार, 14 अप्रैल 2010

अब आया उंट पहाड़ के नीचे

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कर्नाटक में इन दिनों लोहा फिर गर्म है लेकिन इस बार तस्वीर का रूख कुछ और है। कुछ महीने पहले लोहे की ताकत से येदुरप्पा सरकार की जान अटकाने वाले बेल्लारी के बेताज बदशाह इन दिनों थोड़ा बौखलाए हुए हैं। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार सर्वे आॅफ इंडिया की टीम मेजर जनरल ए के पाधा के नेतृत्व में बेल्लारी में अनंतपूर जिले के 6 खनन लीज का सर्वेक्षण कर रही है। जिसमें से तीन ओबुलापूरम माईनिंग कंपनी या ओएमसी के पास है। ओएमसी की एक खान का सर्वेक्षण पूरा कर टीम ने अपनी रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट को सौंप दिया है। इस रिपोर्ट में कुछ अतिक्रमण किए जाने का संकेत है। सर्वेक्षण पूरा होने तक इस क्षेत्र में खनन पर पहले ही अदालत ने रोक लगाया हुआ है। सर्वे आॅफ इंडिया की यह रिपोर्ट रेड्डी बंधुओं के लिए एक बड़ा झटका है। वैसे उनकी बौखलाहट इससे पहले ही दिखनी शुरू हो गई थी जब उनके विरूद्ध मामला दायर करने वाले लोगों पर हमले हुए या उनके खिलाफ आवाज उठाने वाले दहशत के साये में जी रहे हैं।
हाल ही में  बेल्लारी में आठ अज्ञात हमलावरों ने टुम्टी आयरन ओर के मालिक तापल गणेष और उनके भाईयों पर उस समय जानलेवा हमला किया जब वे एक रेस्तरां में सर्वे आॅफ इंडिया की टीम से मुलाकात करने के लिए इंतजार कर रहे थे। उनके साथ कुछ पत्रकार भी थे, उन पर भी हमला किया गया। दरअसल, तापल गणेष वहीं शख्स हैं जिनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने बेल्लारी के रेड्डी भाईयों करूणाकर रेड्डी, जर्नादन रेड्डी और सोमशेखर रेड्डी की कंपनी ओबुलापूरम माईंनिंग कंपनी के आन्ध्रप्रदेश के अनंतपूर जिले में खनन कार्य पर रोक लगा दी है। उन्हीं की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सर्वे आॅफ इंडिया की टीम को यह पता लगाने का आदेश दिया है कि ओएमसी के द्वारा कर्नाटक राज्य के बेल्लारी जिले में उनकी खानों में अतिक्रमण कर अवैध खनन किया गया है और दोनों राज्यों के बीच की सीमा से छेड़डाड़ की गई है साथ ही आरक्षित वन क्षेत्र में भी अतिक्रमण किया गया है। गणेष अपने परिवार के तीसरी पीढ़ी के खननकर्ता हैं। उनकी खानें कर्नाटक में है और रेड्डी बंधुओं की आन्ध्रप्रदेश में, दोनों की सीमाएं आपस में मिलती है। गणेष ने 2006 में यह पुलिस शिकायत दर्ज करायी थी कि रेड्डी बंधु उनकी खानों का अतिक्रमण कर रहे हैं, बाद में 2009 में उन्होंने इसी से संबंधित याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की।
इधर, ओएमसी के पूर्व कर्मचारी वी अंजनैया जैसे लोग भी हैं जो इन दिनों दहशत के कारण बंगलूरू में हैं और बाहर लोगों के संपर्क में आने से डर रहे हैं। उनका कसूर केवल यही है कि उन्होंने ओएमसी में उपमहाप्रबंधक के तौर पर काम किया था। ं केन्द्रीय श्रम मंत्रालय और खान सुरक्षा के डायरेक्टर जनरल की ओर से उन्हें प्रथम श्रेणी खनन प्रबंधक प्रमाणपत्र हासिल है। रेड्डी बंधु की ओएमसी का काम उनकी इस योग्यता से बहुत आसान हो जाता था। लेकिन पिछले साल दिसंबर में सीबीआई के द्वारा ओएमसी के दफ्तर पर छापे की खबर के बाद रातों रात अंजनैया के दफ्तर को ओएमसी के द्वारा ही नेस्तनाबूद कर दिया गया। सारे रिकार्ड हटा दिए गए। अंजनैया ने इसी पर सवाल उठाया था। दरअसल, ये सभी वाकये रेड्डी बंधुओं की घबराहट में किए गए पलटवार ही हैं। लेकिन इस मसले पर रेड्डी बंधुओं में से कोई भी कुछ नहीं कह रहा। उनके फोन बंद हैं और उनके सचिव ओएमसी के मुद्दे पर कुछ भी टिप्पणी करने को तैयार नहीं हैं।
दूसरी ओर अपनी पांच सदस्यीय टीम के साथ सर्वेक्षण कर रहे मेजर जनरल ए. के पाधा भी सर्वेक्षण के बाबत अभी कुछ भी कहने को तैयार नहीं हैं। उनसे संपर्क करने पर उन्होंने कहा कि मैं कुछ नहीं जानता। हांलाकि उनकी टीम ने बेल्लारी को केन्द्र बनाते हुए हैदराबाद में सैटेलाईट नियंत्रण प्वाइंट रखकर नवीनतम वैज्ञानिक विधि से इस इलाके का सर्वेक्षण किया है। पहली बार इस इलाके का सर्वे आॅफ इंडिया के 1972-73 के मानचित्रों के आधार पर सैटेलाईट सर्वेक्षण किया गया है। जबकि अनंतपूर के मुख्य वन संरक्षक पदनाभन ने जरूर कहा कि पहली बार इलाके का सैटेलाईट सर्वे किया जा रहा है इसलिए कितना समय लगेगा इसके बारे में अभी निष्चित तौर पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। टीम ने फिलहाल आन्ध्रप्रदेश और कर्नाटक के राजस्व और वन विभाग के मानचित्रो साथ ही ओएमसी के 68.5 हेक्टेयर के स्केच का निरीक्षण किया। जहां कुछ हद तक अतिक्रमण पाया है। ताजा सर्वेक्षण का निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने आन्ध्रप्रदेश सरकार की उस याचिका पर दिया है तहत आन्ध्र सरकार ने हाई कोर्ट में सर्वेक्षण की अपनी याचिका के खारिज हो जाने और खनन पर रोक हटा देने के बाद सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी।
दरअसल, 22 मार्च को सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ ने कर्नाटक के राजस्व मंत्री जनार्दन रेड्डी और पर्यटन मंत्री करूणाकर रेड्डी के स्वामित्व वाली कंपनी ओबुलापुरम माईनिंग कंपनी और तीन  अन्य कंपनियों के इस क्षेत्र में खनन कार्यो पर रोक लगा दी थी। और आरोपों की जांच के लिए एक समिति नियुक्त कर उसे दो सप्ताह के भीतर अपनी रिपोर्ट सौंपने का आदेश दिया। जस्टिस के जी बालाकृष्नन, और जस्टिस दीपक वर्मा की खंडपीठ ने संरक्षित वन क्षेत्र में ओएमसी के अतिक्रमण की जांच का भी आदेश दिया है। कोर्ट ने 9 अप्रैल तक पहले ओएमसी के 68.5 हेक्टेयर वाले एक खान की सर्वे रिपोर्ट सौंपने को कहा था। इस बीच ओएमसी के वकील मुकुल रोहतगी ने अदालत से बाकी दो खानों में खनन जारी रखने की अनुमति की निवेदन किया। लेकिन अदालत ने कहा कि खनन की अनुमति तभी मिलेगी जब यह सुनिष्चित हो जाएगा कि ओएमसी ने लीज क्षेत्र और वन क्षेत्र का अतिक्रमण नहीं किया है। साथ ही सभी लीज क्षेत्र में सर्वेक्षण कार्य पूरा होने तक कोई खनन गतिविधि नहीं हो सकेगी। गौरतलब है कि ओएमसी के दो अन्य लीज क्षेत्र क्रमषः 25.98 हेक्टेयर और 39.5 हेक्टेयर के हैं। ओएमसी के बाद बेल्लारी आयरन ओर लिमिटेड, वाई.एम सन और अनंतपूर माईनिंग काॅरपोरेशन के लीज क्षेत्र का सर्वे किया जाएगा।
इधर येदुरप्पा सरकार की हालत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तापल गणेष पर हुए हमले के बाद राज्य मानवाधिकार आयोग ने राज्य के अतिरिक्त मुख्य सचिव गृह, और डायरेक्टर जनरल व इंस्पेक्टर जनरल आॅफ पुलिस को बेल्लारी के एस पी श्रीमंत कुमार सिंह को वहां से हटाने का आदेष दिया था लेकिन इस आदेष का पालन नहीं हुआ। अब राज्य मानवाधिकार आयोग  राज्य सरकार को इस मुद्दे पर नोटिस भेजने का मन बना रहा है। इधर ओएमसी के अतिक्रमण जैसे मुद्दों पर मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार ने कहा कि हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार कर रहे हैं हमारा कोई भी कदम उस फैसले के अनुरूप ही होगा।

गुरुवार, 25 मार्च 2010

कर्नाटक से केरल भाया बांदीपूर


For Public Agenda
भारत में वन्य जीवों की संख्या, विकास और शहरीकरण के कारण खतरनाक रूप से कम होती जा रही है। इनके प्रति हमारी असंवेदनशीलता का ही नतीजा है कि आज बाघों की संख्या बस हजार से कुछ उपर रह गयी है। जबकि हमारे अस्तित्व के लिए इनका बचे होना भी अनिवार्य है। बहरहाल, हाल ही में कर्नाटक हाई कोर्ट ने इस दिशा में एक उल्लेखनीय फैसला दिया है। जिससे न सिर्फ कर्नाटक बल्कि देश के सभी वन्य जीव प्रेमी और पर्यावरणवादियों में खुशी की लहर है। आखिर इस फैसले ने वन्य जीवों के संरक्षण और उनके प्राकृतिक अधिवास में हमारी गतिविधियों के प्रति संवेदनशील नजरिया रखने की हिमायत की है।               
दरअसल, हाल ही में कर्नाटक हाई कोर्ट ने बांदीपूर-मधुमलाई जो कि कर्नाटक-तमिलनाडू में आता है और बादीपूर-सुल्तान बाथेरी जो कि कर्नाटक-केरल का इलाका है में रात में होने वाले अंतरराज्यीय यातायात पर रोक लगा दी है। कर्नाटक हाई कोर्ट ने बांदीपूर संरक्षित वन क्षेत्र से गुजरने वाले कोझीकोड-मैसूर राष्ट्रीय राजमार्ग एनएच-212 और उटी-मैसूर राष्ट्रीय राजमार्ग एनएच-67 पर यातायात पर रात नौ बजे से सुबह छः बजे तक रोक लगा दी है। और  कर्नाटक सरकार को माननथावाडी को जोड़ने वाली  मैसूर-कुट्टा रोड को छः महीने के भीतर ठीक करने को कहा है, ताकि रात में इस सड़क का वैकल्पिक मार्ग के तौर पर इस्तेमाल हो सके।
कर्नाटक हाई कोर्ट ने यातायात पर रोक को जनहित में बताते हुए कहा कि इससे दुर्लभ वन्य प्राणियों और बाघों की सुरक्षा में मदद मिलेगी। अदालत ने ये भी कहा कि मानवता को बदलते समय के साथ चलना चाहिए। वन्य प्राणियों के संरक्षण के लिए यह छोटा सा त्याग बहुत बड़ा असर पैदा कर सकता है जबकि यह सिर्फ हमारे संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वाह भर है।
जस्टिस वी गोपाल गौडा और जस्टिस बी एस पाटिल की खंडपीठ ने केरल सरकार, एफ.आर फ्रावेश और अन्य के द्वारा 14 अगस्त 2009 को बांदीपूर के मुथंगा-गुंदलपेट मार्ग पर रात में वाहनों की आवाजाही पर लगी रोक को हटाने संबंधी दायर याचिका पर अपना फैसला सुनाते हुए रोक को जारी रखने का आदेश दिया है। गौरतलब है कि बांदीपूर से होकर जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 212 मैसूर से कालपेट्टा, सुल्तान बाथेरी होते हुए जाता है और एनएच 67 मैसूर से गुंदलपेट होकर। रात में इसके बंद होने पर केरल के ट्रांसपोर्टर को वैकल्पिक मार्ग से जाना होगा।
दरअसल इस विवाद की शुरूआत पिछले साल ही हुई । रात में वाहनों की तेज रफ्तार की चपेट में आकर  बांदीपूर क्षेत्र में वन्य जीवों होने वाली मौतों के कारण  कर्नाटक वन विभाग बहुत लंबे समय से रात में इस क्षेत्र में यातायात पर रोक लगवाने पर विचार कर रहा था। आखिरकार, पिछले साल 3 जून को चामराज नगर जिले के डिप्टी कमिष्नर मनोज कुमार मीणा ने बांदीपूर संरक्षित वन क्षेत्र में एनएच-212 और एनएच-67 के लगभग 30 किलोमीटर के हिस्से में पर रात 9 से सुबह 6 बजे तक यातायात पर रोक लगा दी। लेकिन केरल और कर्नाटक दोनों राज्यों की ओर से पड़ रहे दवाब के कारण मुख्यमंत्री येदुरप्पा ने उन्हें सात दिनों बाद 10 जून को  रोक हटाने का निर्देश दे दिया। इस आदेश को वापस लिए जाने के पीछे राजनीतिक दवाब के अलावा ट्रक लाॅबी के भी सक्रिय होने की आशंका जतायी गई थी।
अब  कर्नाटक हाई कोर्ट ने इस आदेश को पुनः बहाल कर दिया है। उल्लेखनीय है कि डीसी के इस आदेश के विरोध में बंगलूरू के वकील और पर्यावरणप्रेमी एल श्रीनिवास बाबू ने जनहित याचिका दायर की थी जिस पर हाई कोर्ट ने 29 जुलाई को श्रीनिवास के पक्ष में आदेश दिया था। और डी सी ने पुनः 1 अगस्त 2009 से रात में यातायात पर रोक लगाने का आदेश दे दिया। साथ ही दो बैकिल्पक रूट सुझाए थे, मैसूर और उटी के लिए साथे होकर जो 78 किलोमीटर ज्यादा लंबा है और मैसूर से कालपेट्टा के लिए पोनमपेट होकर, जो 38 किलोमीटर ज्यादा लंबा है। दिलचस्प बात ये है कि केरल और तमिलनाडू सरकार, के अलावा केएसआरटीसी, केरल व्यापारी व्यवसायी इकोपना समिति वायनाड, और केरल-कर्नाटक यात्री फोरम के साथ  कर्नाटक सरकार ने भी रोक को हटाने के लिए अर्जी दी थी। बहरहाल,  इस फैसले से तमिलनाडू को कोई आपत्ति नहीं है,जबकि कर्नाटक सरकार ने हाईकोर्ट के फैसले के अनुरूप चलने की घोशण की है और केरल से जोड़नेवाली सड़क एनएच-212 को जल्द से जल्द वैकल्पिक मार्ग के तौर पर विकसित करने का आशवासन दिया है। कर्नाटक सरकार के एडवोकेड जनरल अशोक हारनहल्ली ने कहा कि वैकल्पिक मार्ग मौजूदा मार्ग से 20-30 किलोमीटर से ज्यादा दूर नहीं होगा और इसे छः महीने के भीतर इसे यातायात योग्य बना दिया जाएगा।
लेकिन केरल ने इस मसले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने का फैसला किया है। दरअसल, केरल सरकार का मानना है कि इस फैसले  से केरल की अर्थव्यस्था और जरूरी चीजों की आपूर्ति प्रभावित हो रही है। खासतौर पर वायनाड और उसके आसपास रहने वाले लोगों को इससे परेशानी हो रही है। क्योंकि यहां सब्जियों की आपूर्ति कर्नाटक के गुंदलपेट से होती है। जिसे रात में ही ढ़ोया जाता है। साथ ही लोगों को ज्यादा दूरी तय करनी होगी। इसके अलावा बंगलूरू में काम करने, पढ़ाई करने वाले लोगों को भी इससे खासा परेशानी हो रही है, और व्यापारियों को नुकसान भी। यही वजह है कि मालाबार चैंबर्स आॅफ कामर्स ने राज्य सरकार से बंगलूरू और उत्तरी केरल के बीच बेहतर रेल सुविधा मुहैया कराने की मांग की है। इसके अलावा केरल का यह भी मानना है कि यह रोक केवल वन्य जीव संरक्षण के लिए नहीं है, क्योंकि वैकिल्पक मार्ग को माननथवाडी-कूटा सेक्टर से होकर ले जाने का प्रस्ताव है जो कि वायनाड अभ्यारण्य से होकर ही जाता है। इसलिए केरल की मांग है कि कर्नाटक को वाहनों की गति, को नियंत्रित करने और इस क्षेत्र में व्यवसायिक गतिविधियों पर रोक लगाने जैसे उपायों पर जोर देना चाहिए। साथ ही उनका ये भी कहना है कि यह मार्ग 300 साल पुराना है, फिर आज अचानक इससे कैसे समस्या हो सकती है। इस संदर्भ में कर्नाटक के एडवोकेड जनरल अशोक हारनहल्ली कहते हैं कि वाहनों की संख्या और आवृति बहुत ज्यादा बढ़ गयी है अतः फैसले को इस नजरिए से देखा जाना जरूरी है। केरल द्वारा मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने के सवाल पर भी एडवोकेड जनरल का कहना है कि हमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले से भी कोई आपत्ति नहीं होगी। कर्नाटक सरकार वन्य जीवों के संरक्षण को लेकर काफी गंभीर है।
बहरहाल, कर्नाटक हाई कोर्ट के इस फैसले पर विरोध को लेकर केरल में मुख्यमंत्री वी एस अच्युतानंद से लेकर युनाईटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट और व्यापारी संघ सभी एक मंच पर हैं। यहां तक कि केरल व्यापारी व्यवसायी इकोपना समिति वायनाड इसे सीधे-सीधे नागरिकों के मौलिक अधिकार का हनन मानता है। जबकि वायनाड प्रकृति संरक्षण समिति और ऐसी ही कई अन्य पर्यावरण संस्थाओं ने यातायात पर रोक का यह कहते हुए स्वागत किया है कि जब तक केरल में भी इसी तरह बेलगाम रात्रिकालीन यातायात पर रोक नहीं लगता तब तक बांदीपूर में वन्य जीव संरक्षण अधूरा है। 

दरअसल, बांदीपूर,नागरहोले,मधुमलाई और वायनाड का यह  सम्मिलित इलाका बाघों की संख्या के मामले में देश का दूसरा सबसे बड़ा इलाका है। यहां  2,500 वर्ग किलोमीटर में लगभग 300 बाघों के होने का अनुमान है। देश में बाघों की मौजूदा संख्या को देखते हुए इस इलाके को हर प्रकार के सरंक्षण की जरूरत है। अनुमानतः बांदीपूर से प्रति मिनट 15 से 20 वाहन गुजरते हैं। जिनमें लगभग 400 तक सब्जियों के ट्रक और करीब 300 बालू से लदे ट्रक होते हैं, इसके अलावा हजारों पर्यटक वाहन भी। इसी आधार पर कर्नाटक राज्य वन विभाग ने बांदीपूर में गुंदलपेट और उटी को जोड़ने वाले एन एच 212 और गंुदलपेट और सुल्तान बाथेरी को जोड़नेवाले एनएच-67 पर रात में यातायात पर लगी रोक को हटाए जाने का विरोध किया था। जबकि कर्नाटक सरकार ने रोक हटाने का निर्देश दिया था।
बांदीपूर राष्ट्रीय उद्यान में एनएच-212, 17.5 किलामीटर तक केरल के वायनाड राष्ट्रीय उद्यान से होकर गुजरता है और एनएच-67, 12.5 किलोमीटर तमिलनाडू से होकर गुजरता है। अंतरराज्यीय यातायात के कारण यह इलाका वन्य जीवों के लिए बहुत बड़ा खतरा बन चुका था। अतः इस फैसले की अहमियत इस बात से भी समझी जा सकती है कि बांदीपूर नेशनल पार्क, वाईल्ड लाईफ कंजरवेशन फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक केवल 2004 से 2007 तक की अवधि में ही इस इलाके में 200 से ज्यादा दुर्लभ वन्य जीव वाहनों की चपेट में आकर मारे गए हैं। इसके अलावा लगभग तीन बड़े जीव हर महीने मारे जाते हैं। और लगभग 65 प्रतिषत वन्य जीव रात में ही वाहनों की चपेट में आते हैं। जबकि इस वन के जितने क्षेत्र में रात में यातायात पर रोक लगी है वह कुल वन्य क्षेत्र का 2 प्रतिषत से भी कम है। वाहनों की चपेट में सबसे ज्यादा बाघ, हाथी, चीता, सांभर और लंगूर आते हैं। यही नहीं सड़क से सटे जंगल के लगभग 2 किलोमीटर भीतर का वन्य जीव अधिवास वाहनों के शोर और हाई बीम लाईट के कारण प्रभावित होता है। कर्नाटक हाई कोर्ट ने इसी क्षेत्र में रात में यातायात पर रोक लगायी है। इसके अलावा रात में यातायात पर रोक से शिकार पर भी एक हद तक नियंत्रण पाया जा सकता है।
बहरहाल, राज्य वन्य विभाग अधिकारियो और संरक्षणविदो के अनुसार पिछले छः महीने में इस इलाके में सड़क हादसे में मरने वाले वन्य जीवों की संख्या में अप्रत्याशित रूप से 95 प्रतिशत से भी ज्यादा कमी आयी है। जबकि रोक से पहले लगभग 91 वन्य जीवों की मौत दर्ज की गई थी। जिसमें हाथी, बाघ, चीता और अन्य स्तनधारी व सरीसृप जैसे जीव शामिल हैं। यह काफी उत्साहजनक खबर है।

बुधवार, 17 मार्च 2010

मिलिए बंगलूरू की महिला पुरोहित स्वतंत्रलता शर्मा से

भारतीय आेपिनियन में प्रकाशित
आज महिलाएं तमाम किस्म के स्टीरियोटाईप को तोड़ रही हैं और हर उस क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही हैं जहां पहले कभी उनके होने या काम करने के बारे में सोचा भी नहीं गया था। अठत्तर बसंत से ज्यादा देख चुकीं स्वतंत्रलता शर्मा  का नाम भी उन महिलाओं की सूची में शामिल किया जा सकता है जिन्होंने धार्मिक कर्मकांड और संस्कार कराने जैसे पुरूष वर्चस्व वाले क्षेत्र में अपनी  चुनौती पेश की और लीक से हटकर अपने लिए राह बनायी।
जिस उम्र में आमतौर पर लोगों की सक्रियता खत्म हो जाती है, स्वतंत्रलता लोगों को सांसारिक संस्कारों से जोड़ती हैं और जन्म, मुंडन, शांतिपाठ, विवाह और मृत्यु जैसे संस्कारों को वैदिक रीति से संपन्न कराती हैं। 
स्टेला मेरीज काॅलेज से बी.ए और प्रेसिडेंसी काॅलेज चेन्नई से इकोनाॅमिक्स में एम ए स्वतंत्रलता ने शुरूआत मेरठ में काॅलेज में इकोनाॅमिक्स पढ़ाने से की। लेकिन उनकी किस्मत में कुछ और था और वो प्रोफेसर बनने के बजाए पुरोहित बन गई।
मूलतः अंबाला के पास की रहने वाली स्वतंत्रलता का जन्म वर्मा के रंगून में हुआ था। दूसरे विशव-युद्ध के समय उनके पिता को परिवार समेत पैदल ही वर्मा छोड़ना पड़ा था और 1949 में इनका परिवार चेन्नई में बस गया। इनके पिता आर्य समाज के सदस्य थे, वर्मा में भी इनके परिवार में वैदिक रीति से हवन और शांतिपाठ होते रहते थे। इसलिए पूजा-पाठ और वैदिक रीति-रिवाजों का संस्कार उन्हें बचपन से ही मिल गया था। वर्ष् 1961 में ये पति के साथ बंगलूरू आ गईं। इनके पति पेशे से वकील थे और बंगलूरू में उनका होटल व्यवसाय भी था। बंगलूरू में उन्होंने काफी सालों तक नर्सरी स्कूल भी चलाया। हालांकि शादी की शुरूआत में स्वतंत्रलता और इनके पति दोनों ने मेरठ में काॅलेज में अध्यापन कार्य किया था। बंगलूरू आने के बाद स्वतंत्रलता फिर से आर्य-समाज की गतिविधियों में सक्रिय हो गईं। यहीं पर इनकी मुलाकात वरिष्ठ आर्यसमाजी के. एल पोद्दार से हुईं। स्वतंत्रलता कहती हैं-पोद्दार जी से मेरा बहुत आत्मीय रिशता था, वो मुझमें अपनी बेटी की छवि देखते थे। उन्होंने ही मेरा गंभीर वैदिक साहित्य और भारतीय अध्यात्मिक परंपरा से परिचय कराया और मुझे ढे़रों किताबें पढ़ने को दी। वैदिक साहित्य को गहरायी से जान लेने के बाद मैंने प्रवचन देना शुरू किया और सत्संग में जाना भी।
अब तक चैदह सौ शादियां और तीस मृत्यु संस्कार संपन्न करा चुकी स्वतंत्रलता पुरोहिताई के क्षेत्र में आने को एक संयोग मानती हैं और खुद भी नहीं समझ पाती हैं कि कैसे वो धीरे-धीरे इसमें गहराई से उतरती चली गयीं। स्वतंत्रलता, नियति में पूरी तरह से यकीन करती हैं और मानती हैं कि  इश्वर हर किसी को इस दुनियां में खास मकसद से भेजता है और किसे क्या करना है यह पहले से ही सुनिशचत होता है।
बहरहाल, स्वतंत्रलता की पुरोहिताई की शुरूआत बहुत ही भयावह, मृत्यु-संस्कार के साथ हुई। एक पच्चीस वर्षीय युवक की मौत बंगारपेट में ट्रेन दुर्घटना में हो गई थी और स्वतंत्रलता को उसके रिशतेदार के साथ उसकी पहचान के लिए जाना पड़ा और फिर स्थितियां ऐसी बनीं कि स्वतंत्रलता को उसका क्रिया-कर्म कराना पड़ा। हांलाकि इससे पहले वो बंगलूरू और उसके आस-पास शांतिपाठ और हवन वगैरह जरूर कराती रही थीं। स्वतंत्रलता ने खुद अपने परिवार के लोगों का भी अंतिम संस्कार संपन्न कराया है,  अपनी  जिठानी और बहू की दादी का अंतिम संस्कार भी उनके हाथों ही हुआ है।  
शादियों को संपन्न कराने के बारे में बताते हुए स्वतंत्रलता कहती हैं-बात साल 1991 की है, एक दफा बंगलूरू में ही आर्य-समाज के पंडित छुट्टी पर चले गए थे और उसी दौरान एक विवाह संपन्न कराना था, पंडित नहीं थे अब शादी कौन संपन्न कराए? यह बड़ा सवाल था। आखिरकार उनकी एक दोस्त ने सुझाया तुम क्यों नहीं शादी  संपन्न करा देती, आखिर तुम्हें सारी विधि और मंत्र आते ही हैं। और इस तरह मैं शादियां भी संपन्न कराने लगी। हांलाकि शुरूआत में वो हिन्दी में ही संस्कार संपन्न कराती थीं पर बाद में उनकी किसी परिचित महिला ने उन्हें मंत्रों की व्याख्या अंग्रेजी में करने की सलाह दी और यही उनकी खासियत बन गयी। स्वतंत्रलता ने अब तक लगभग 1400 शादिया करायी हैं इनमें पूर्व केन्द्रीय मंत्री रेणुका चैधरी की बेटी ,इसरो के प्रोफेसर यू आर राव की बेटी, इंदिरा नूई की ममेरी बहन और खुद अपने परपोते की शादी शामिल है। स्वतंत्रलता कहती हैं-दरअसल, मैं उच्चारण पर बहुत ध्यान देती हंू और मंत्रों की व्याख्या अंग्रेजी में करने के कारण लोगों को समझ में आती हैं साथ ही मैं डेढ़ घंटे में ही शादी संपन्न करा देती हंू इसलिए खासतौर पर यंग जेनरेशन मुझे पसंद करती है। समाज में उनके विशिष्ट योगदान को देखते हुए बंगलूरू के रोटरी क्लब ने 2004 में इन्हें सम्मानित किया।
हांलाकि एक दो मौकों पर स्वतंत्रलता को महिला होते हुए पुरोहिताई करने के कारण विरोध का भी सामना करना पड़ा, लेकिन आर्य-समाज संस्था ने इनका साथ दिया और यह साबित किया कि वैदिक युग महिलाओं के साथ कोई फर्क नहीं करता था और उन्हें पुरूषाें के समकक्ष हर अधिकार देता था।
पुरोहिताई के अलावा स्वतंत्रलता भजन कंपोज करती हैं और गाती भी हैं। पहले वो कहानियां भी लिखती थीं जो हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका धर्मयुग में छपती थीं। स्वतंत्रलता सिर्फ संस्था यानी आर्य-समाज के लिए ही स्वांतः सुखाय यह कार्य करती हैं। पुरोहिताई उनकी आजीविका का जरिया नहीं है। पहले ये केवल बंगलूरू में ही शादियां कराती थीं लेकिन धीरे-धीरे देश के अन्य हिस्सों में भी  इनके बारे में लोगों को मालूम चला और अब इनके पास पूरे देश से न्यौता आता है।

गुरुवार, 4 मार्च 2010

काले सफेद का जादूगर वी के मूर्ति



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गरूदत्त की कागज के फूल, साहब बीबी और गुलाम और प्यासा जैसी फिल्मों को अपनी अपनी सिनेमैटोग्राफी से कालजयी बनाने वाले वी के मूर्ति को इस साल के दादा साहब फाल्के सम्मान के लिए चुना गया है। प्रकाश और छाया के बेमिसाल समायोजन से सेल्युलायड पर चित्रकारी करने वाली इस शख्सियत ने फिल्मों में अपने कैरियर की शुरूआत आरकेस्ट्रा में वायलिन बजाने की थी। पेश है उनसे गुरूदत्त उनकी फिल्मों, सिनेमैटोग्राफी तकनीक और उनके संस्मरणों पर की गई खास बातचीत।


अपने शुरूआती दिनों के बारे में बताएं?
-मैं मैसूर का हंू, बचपन से ही फिल्मों में दिलचस्पी थी। मेरे चाचा मूक फिल्मों के दौर में सिनेमा हाॅल में बैठकर संगीत बजाया करते थे। मैंने भी वायलिन सीखा था। बंगलूरू से मैंने सिनेमैटोग्राफी का कोर्स किया। उस जमाने में कन्नड़ फिल्म इंडस्ट्री नहीं थी, और तमिल, तेलगू में भी उतनी फिल्में नहीं बन रही थी, इसलिए मैं सीधा मंुबई चला गया।
हिंदी फिल्मों में ब्रेक कैसे मिला?
-साल 1946 में मैं जयंत देसाई की फिल्म महाराणा प्रताप में द्रोणाचार्य का सहायक सिनेमैटोग्राफर था। वहीं मैं ने पहली बार आम्रपाली में फली मिस्त्री के काम को देखा। उनकी सिनेमैटोग्राफी अंग्रेजी फिल्मों के स्तर की  थी। तभी से मैं उनके साथ काम करना चाहता था। बाद में फली ने खुद मुझे अपने साथ काम करने बुलाया। सच कहुं मैं आज भी नहीं जानता ऐसा कैसे हुआ शायद् इसे ही किस्मत कहते हैं। दरअसल, मैं वायलिन भी बजाता था, मैंने एक संगीत-निर्देशक के लिए वायलिन बजाया था और उसी के पैसे लेने गया था, वहीं पर किसी ने मुझे बताया कि फली साहब तुम्हें काम करने के लिए खोज रहे हैं। मैं तुरंत उनके पास गया, उन्होंने बतौर सहायक मुझे रख लिया। सुबह से शाम तक मैं काम करता रहा। शाम को उन्होंने कहा अब तक 23 असिस्टेंट कैमरामैन मेरे साथ काम कर चुके हैं तुम 24वें हो और यू आर द बेस्ट। मैंने 4-5 साल उनके साथ काम किया और खूब सीखा, वो मेरे गुरू थे। उस दौर में फरीदूर ईरानी, जल मिस्त्री, द्वारका दीवेचा भी अच्छे सिनेमैटोग्राफर थे। 

गुरूदत्त से कैसे मिलना हुआ ?
--वो जमाना स्टुडियो का था। फिल्में स्टुडियों में ही बना करती थीं। मैं तब फेमस स्टुडियों में बतौर सहायक कैमरामैन काम कर रहा था। चेतन आनंद ने अपनी फिल्म बाजी की शुटिंग के लिए इस स्टुडियो को किराए पर लिया था। देव आनंद फिल्म के हीरो थे। देव साहब के ही रिश्ते के भाई वी रात्रा  कैमरामैन थे और मैं उन्हें स्टुडियो की ओर से असिस्ट कर रहा था। फिल्म के निर्देशक गुरूदत्त  थे। रात्रा काम को लेकर उतने गंभीर नहीं होते थे इसलिए उनकी संगत में मुझे अपने मन मुताबिक काम करने के मौके मिल जाया करते थे। एक दिन गुरूदत्त एक गाने को फिल्माने को लेकर कुछ परेशान दिख रहे थे, शायद , सुनो गजर क्या गाए ये गीत था। वो गाने के एक हिस्से को फिल्माने के लिए किसी खास एंगल की तलाश कर रहे थे। क्योंकि उस हिस्से में काफी संगीत था। वो संगीत को कैमरा मूवमेंट के साथ ढंकना चाहते थे। मैंने उनसे कहा, अगर आप चाहें तो मैं कुछ कर सकता हंू , मैंने उन्हें एक बड़ा आईना दिखाते हुए कहा, इसकी मदद से प्रभावशाली कैमरा मूवमेंट पैदा किया जा सकता है। उन्होंने कहा कैसे? मैंने कहा हम कैमरा को आईना पर रखेंगे और देव साहब की एंट्री उनके अक्स से शुट करेंगे। और जब तक वो कुर्सी पर बैठेंगे तब तक कैमरा उन्हीं पर होगा। गुरूदत्त को लगा रात्रा से इतनी मूवमेंट संभव नहीं है। इसलिए रात्रा से पूछकर उन्होंने इस सीन को मुझसे शुट कराया और फिर शाम को उन्होंने मुझसे कहा अब मेरी हर फिल्म के कैमरामैन तुम ही होगे। जाल में पहली बार बतौर कैमरामैन उन्होंने मुझे मौका दिया।
उनके साथ काम करना कैसा अनुभव था?
-उनके साथ काम करना सबसे अलग था। वो कहते थे मूर्ति कागज के फूल और प्यासा मैने तुम्हारे लिए ही बनायी है। उन्होंने मुझे टेक्नीकलर लैब में सिनेमैटोग्राफी सीखने के लिए गन्स आॅफ नवारून के शुटिंग के दौरान पांच महीने के लिए लंदन भेजा था। इस फिल्म में ग्रेगरी पेक थे और मेरे पसंदीदा ओस्वाल्ड माॅरिश सिनेमैटोग्राफर थे। सभी को लगता था कि मैं वहां तकनीक सीखने गया हंू, पर ऐसा बिल्कुल नहीं था। दरअसल, तकनीक में कोई फर्क नहीं था केवल उनके काम करने का तरीका बहुत नियोजित हुआ करता था। जबकि हमारे यहां ऐसा नहीं था। मैंने वहां यही सीखा था और कुछ नहीं। लेकिन गुरूदत्त के साथ इन बातों का कोई मतलब ही नहीं था। आपने एक दिन पहले जो भी तैयारी की हो, अगली सुबह उनके दिमाग में कुछ अलग होता था। मेरे ख्याल से उनके बाद सत्यजित रे ही उनकी जैसी सृजनात्मकता के साथ काम करते थे। वो कैमरा के आगे आने से झिझकते थे पर मेरे लगातार कहने पर आखिरकार अभिनय  के लिए वो मान गए।
गुरूदत्त ने आत्महत्या क्यों की?
--मैं कह नहीं सकता शायद ये उनकी प्रवृति में था। वो यूं भी कहा करते थे-मुर्ति ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है! उनके बच्चों में से एक बेटे अरूण ने भी 32 साल की उम्र में आत्महत्या कर ली, ये प्रवृति ही हो सकती है। वो स्वभावतः एकाकी थे, आत्महत्या की उनकी ये तीसरी कोशिश  थी। उनकी पत्नी और बच्चे उनके साथ नहीं थे शायद ये भी कारण हो। लेकिन गीता दत्त को मैं सबसे ज्यादा मानवीय व्यक्तिव मानता हूं, वो बहुत अच्छी थीं। खैर, उस दिन मैं बंगलूरू में था, और सबसे पहले तो मुझे अपने लिए ही अफसोस हुआ। सच भी है उनके बाद वैसा साथ, वैसा बौ़िद्धक काम और वैसी रचनात्मक आजादी मुझे नहीं मिल पायी। 

गुरूदत्त के पसंदीदा शाट्स के बारे में बताएं?



 मेरे तीन साल के बेटे के कैमरे में मुर्ति
-उन्हें प्रयोग पंसद था। लेकिन खासतौर पर उन्हें बड़े क्लोज-अप पसंद थे। वो कैमरे को जितना संभव हो उतना नजदीक ले जाकर शाट लेना पसंद करते थे। बहुत जल्दी संतुष्ट नहीं होते थे और नई तकनीक को तुरंत अपनाते थे। चाहे सिनेमास्कोप में फिल्म बनाने की बात हो या फिर चैदवीं का चंाद फिल्म के गीत की कलर प्रिंट में शुटिंग।

उन दिनों के लोगों के साथ संपर्क में हैं?
-कुछ खास नहीं। वहीदा मुझे फोन करती रहती हैं। गुरूदत्त की बेटी ललिता लाजमी जो पेंटर भी हैं उनके संपर्क में हंू।



अपनी विरासत आप किसमें देखते हैं?
-नरीमन ईरानी, गोविन्द निहलाणी, जे मलिक, के जी प्रभाकर और एस आर के मूर्ति जिन्होंने मेरे साथ काम किया मैंने उन्हें अपने बच्चे की तरह सब कुछ सिखाया। ये सब बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।

इन दिनों किसका काम पसंद आ रहा है?
-फिल्मों से मैं बिल्कुल दूर हंू। पिछले 10-12 साल से मैंने कोई फिल्म नहीं देखी है इसलिए कोई जानकारी नहीं है।

आपने मुंबई क्यों छोड़ दिया?
-1964 में गुरूदत्त की मौत के बाद मैंने कमाल अमरोही, गोविन्द निहलाणी, श्याम बेनेगल और प्रमोद चक्रवर्ती के साथ काम किया। भारत की खोज और तमस जैसे धारावाहिकों में मजा आया। कमाल अमरोही के साथ पाकीजा और रजिया सुल्तान में भी। लेकिन धीरे-धीरे सब बदल रहा था, मुझे काम में मजा नहीं आ रहा था। इसलिए मैंने 2001 में मुंबई छोड़ दिया।

अपना बेहतरीन आपने किस फिल्म को दिया?
-हांलाकि कागज के फूल और साहब बीबी और गुलाम के लिए मुझे फिल्म फेयर अवार्ड मिला पर प्यासा को मैं अपना बेहतरीन काम मानता हंू। कागज के फूल पहली 75 एम.एम सिनेमास्कोप फिल्म थी इसलिए लोगों ने बेहतर तरीके से समझा। लेकिन प्यासा में मैंने फ्रेम दर फ्रेम गुरूदत्त के साथ स्क्रीन पर कविता लिखी है।
बहरहाल, कागज के फूल के गीत वक्त ने किया क्या हसीं सितम को प्रकाश संयोजन के लिहाज से मील का पत्थर माना जाता है। यह प्रयोग भी तब सूझा जब नटराज स्टुडियों में शुटिंग करते समय मैंने वेंटीलेटर से आती हुई सूरज की रोशनी के बीम को देखा। गुरूदत्त ने मुझे सूर्यप्रकाश का इस्तेमाल करने को कहा, इसलिए मैंने दो बड़े-बड़े आईने मंगवाएं एक को स्टुडियों में रखा और एक को उपर बाहर बालकनी में और दरवाजा खोल दिया। प्रकाश के परावर्तन से रोशनी का बीम बना। स्टुडियो में हमने लोबान जलाकर इस प्रभाव को और गहन किया।

पश्चिम  के किन सिनेमैटोग्राफर ने आपको सबसे ज्यादा प्रभावित किया? आप दोनों की जोड़ी को दुनिया की बेहतरीन निर्देशक-कैमरामैन जोड़ियों मसलन बर्गमैन-निकवेस्ट, सुब्रतो-सत्यजित रे में से एक माना जाता है?

-निकवेस्ट का मुझे याद नहीं लेकिन ब्रिटिश सिनेमैटोग्राफर और निर्देशक जैक कार्डिफ का मैं कायल रहा हंू। पावेल, हु्रस्टन और हिचकाॅक की फिल्मों में उनका काम देखने को मिलता है। उनका कैरियर मूक फिल्मों के दौर से टेक्नीकलर फिल्मों तक था। पावेल की फिल्म अ मैटर आॅफ डेथ एंड लाईफ और ब्लैक नारसिसस में उनका काम बेमिसाल था। एक और ब्रिटीश सिनेमोटोग्राफर हुआ करते थे ओस्वाल्ड माॅरिश उनकी शैली भी मुझे बहुत पसंद थी। उन्होंने रोनाल्ड नीमे और डेविड लीन के साथ खूब काम किया था। और खुद सिनेमैटोग्राफर से निर्देशक बने नीमे तो ओस्वाल्ड को दुनिया का सबसे बेहतरीन कैमरामैन कहा करते थे। गन्स आॅफ नवारून्स के सिनेमैटोग्राफर भी ओस्वाल्ड ही थे। इस फिल्म की यूनिट के साथ मैं लंदन में था और इस दौरान मुझे इनके काम को करीब से देखने का मौका भी मिला। इसके अलावा ओलीवर फिल्म में भी उनका काम पसंद आया।
हाॅलीवुड में मुझे जेम्स वांग होवे का काम पसंद आता था। ये हाॅलीवुड के सबसे चहेते सिनेमैटोग्राफर हुआ करते थे। शैडो या छाया के फिल्मांकन का उन्हें मास्टर कहा जाता था और उन्होंने ही डीप फोकस सिनेमैटोग्राफी की शुरूआत की थी। उन्हें ड्रामैटिक लाईटिंग और डीप शैडो का उस्ताद कहा जाता था। ब्लैक एंड वह्राईट फिल्मों में उनका काम बेमिसाल था। खासतौर पर अ रोज टैटू , फनी लेडी और हुड जैसी फिल्म में। एक और अमेरिकन सिनेमैटोग्राफर चाल्र्स ब्रायंट लैंग जुनियर की शैली का भी मैं कायल था। ए फेयरवेल टू आम्र्स, डिजायर और एंजेल इन फिल्मों में उनका काम बहुत अच्छा था। ये सभी ब्लैक एंड व्ह्राईट फिल्में थीं। ट्राशलुसेंट लाईट के साथ उनका प्रयोग बेजोड़ हुआ करता था। उनकी रंगीन फिल्मों में बटरफलाईज आर फ्री में भी बहुत अच्छा काम है। इसके अलावा रेनाहन और अरनेस्ट हालर भी मुझे बहुत पसंद थे। फिल्म गाॅन विद द विंड  में दोनों को अकेडमी अवार्ड मिला था। अरनेस्ट की फिल्म फ्लेम एंड द एैरो भी उल्लेखनीय है।

दादा साहब फाल्के पाकर कैसा लग रहा है?
-मेरे पास जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय से फोन आया तो मुझे लगा कोई मजाक कर रहा है, लेकिन जब दोबारा उन्होंने मेरा नाम लेकर कहा तब मैंने समझा ये मेरी ही बात कर रहे हैं। आमतौर पर अभिनय और निर्देशन के लिए ही अवार्ड मिलते हैं शायद मैं पहला तकनीशियन हंू जिसे यह अवार्ड मिला है। मुझसे पहले नितिन बोस को भी मिला था पर वो सिनेमैटोग्राफर के साथ-साथ निर्देशक भी थे। मेरा तो पूरा जीवन बीत गया जब मैंने फोकस हमेशा स्टार पर ही देखा। पत्रकार भी हमारे साथ फोटो खिंचवा लिया करते थे, लेकिन प्रकाशित कभी नहीं कराते थे, हमेशा स्टार ही तस्वीरों में हुआ करते थे। खैर, इस सम्मान से तकनीशियनों के योगदान को भी समझा जाएगा। मेरे लिए तो सबसे बड़ी उपलब्धि मेरी पूरी यात्रा और इसमें मिले लोग हैं खासतौर पर गुरूदत्त।


  मेरे बेटे के साथ मुर्ति

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

हरा भ्ररा ,प्लास्टिक मुक्त गांव

(Published in Public Agenda)
कर्नाटक के बंतवाल तालुके का इरा गांव युं तो भारत के किसी भी आम गांव जैसा ही है पर कुछ बातें इसे न सिर्फ देश बल्कि दुनियां में एक खास गांव बनाती हंै।  इरा, आज भारत का पहला प्लास्टिक मुक्त गांव है। प्लास्टिक मुक्त ग्राम होने के अलावा इस गांव की अन्य उपलब्धियां भी काबिलेगौर हैं। इरा को केन्द्र सरकार का निर्मल ग्राम पुरस्कार भी मिल चुका है। संपूर्ण साक्षर और पूर्णत: भ्रष्टाचार व बालश्रम मुक्त इस गांव से पिछले तीन साल से सौ प्रतिशत टैक्स कलेक्शन  हासिल हुआ है। इसके अलावा यह देश का पहला डिजीटल ग्राम पंचायत भी है। इरा ग्राम पंचायत दुनियां के अन्य देशों के लिए भी आज रोल-माडल बन चुका है। यूनिसेफ के 20 प्रतिनिधियों की टीम ने भी इस गांव का दौरा किया जिसमें जिम्बाबे, जाम्बिया, नाइजीरिया और इंडोनेशिया जैसे देशाे के प्रतिनिधी शामिल थे।
दरअसल, सरकार और स्थानीय लोगों की भागीदारी से इस छोटे से गांव ने विकास और सफलता की जो बड़ी कहानी लिखी है वह कृष्णा मूल्या और ‘शीना शेट्टी जैसे लोगों और उनके संगठनों के जिक्र के बगैर अधूरी है। कर्नाटक के दक्षिणी कन्नडा जिले में एक दशक से भी ज्यादा समय से काम कर रहे जन शिक्षण ट्रस्ट के कृष्णा मूल्या और शीना शेट्टी बताते हैं सरकार और नागरिक सहयोग से केवल इरा गांव ही नहीं बल्कि पूरे बंतवाल तालुके की तस्वीर अब बदल रही है। वर्ष 2005 में संपूर्ण स्वच्छता आंदोलन के साथ उनके संगठन ने इस क्षेत्र में केन्द्र की एक नोडल एजेंसी के तौर पर काम करना शुरू  किया और अपना देश नाम से एक आंदोलन चलाया। मूल्या और ‘शेट्टी बताते हैं अपना देश आंदोलन आदर्श  गांव बनाने का आंदोलन है। यह स्थानीय लोगों की भागीदारी से विकास के लक्ष्यों को हासिल करने का प्रयास है जिससे न सिर्फ लोगों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता आयी है बल्कि अपने नागरिक कर्तव्यों के प्रति जिम्मेदारी की समझ भी पैदा हुई है। दरअसल, अपना देश आंदोलन अपनी स्थानीय समस्याओं को खुद ही हल करने करने का आंदोलन है। वे कहते हैं इरा के कायाकल्प की कहानी की शुरूआत भी वर्ष 2005 में केन्द्र सरकार के संपूर्ण स्वच्छता आंदोलन के क्रियान्वयन के साथ शुरू हुई। जिसका लक्ष्य निर्मल ग्राम और ग्रामीण विकास के सपने को साकार करना था। लेकिन पिछले दो साल से प्लास्टिक के दुष्प्रभाव और इससे पर्यावरण को होने वाले नुकसान  के प्रति लोगों में जागरूकता लाने के अभियान पर काफी जोर डाला गया, स्थानीय लोगों में इसका काफी गहरा असर हुआ, जिसका परिणाम है आज इरा लगभग प्लास्टिक मुक्त गांव बन चुका है। पालीथिन की थैलियां यहां वर्जित है, धार्मिक स्थलों पर भी प्लास्टिक की जगह कपड़े की थैलियों का प्रयोग होता है हांलाकि अभी भी दवाईयों इत्यादि के लिए प्लास्टिक का प्रयोग होता है। इरा गांव के प्लास्टिक मुक्त क्षेत्र होने का असर भी अब दिखने लगा है, न सिर्फ गांव की हरियाली में इजाफा हुआ है बल्कि पानी भी पूर्णत: प्रदूषन मुक्त हो गया है। शेट्टी और मूल्या कहते हैं इरा गांव की सफलता और समूचे बतंवाल तालुके में आए बदलाव में भरतलाल मीणा और वी.पी बालिगर जैसे प्रशासनिक अधिकारियों की अत्यंत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसके अलावा इलाके के सभी राजनीतिक दलों ने भी दलगत राजनीति से उपर उठकर क्षेत्र के लिए काम किया है और धर्म, जाति व क्षेत्र की राजनीति से अलग विकास की राजनीति की है। नतीजा बंतवाल तालुके के 45 ग्राम पंचायतों में से आज लगभग 20 गांव आदर्श गांव में तब्दील हो चुके हैं।

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून

(बंगलूरू से प्रकाशित होने वाली हिन्दी पत्रिका भारतीय ओपीनियन मे प्रकाशित)


पानी की समस्या आज दुनियां की सबसे बड़ी समस्या है। ग्लोबल वार्मिंग, पर्यावरणीय असन्तुलन, नदियों और उपलब्ध सभी जलस्रोतों का असन्तुलित दोहन, भूमिगत जल स्तर का दिनों दिन नीचे जाना, ये सभी मिलकर भयावह दृश्य पेश कर रहे हैं और संकेत कर रहे हैं कि अगला विश्व युद्ध पानी के लिए ही होगा। दरअसल जल संकट अब करो या मरो की स्थिति में आ चुका है। खासतौर पर शहरों और महानगरों में आबादी में लगातार इजाफा के कारण जल आपूर्ति एक विकट समस्या बनती जा रही है। ऐसे में पानी को सहेज कर रखना और पानी का किफायती इस्तेमाल दोनों बेहद जरूरी हो गया है। जल संरक्षण की दिशा बहुत से लोग उल्लेखनीय काम भी कर रहे हैं। कुछ लोग बड़े स्तर पर तो कुछ व्यक्तिगत स्तर पर। पिछले 12 साल से बंगलूरू में रह रहे फ्रीलांस पेंटर और म्यूरल आर्टिस्ट संजय सिंह पानी और पर्यावरण के प्रति अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी को बखूबी निभा रहे हैं और अनुकरणीय उदाहरण पेश कर रहे हैं।
मूलत: बिहार के रहने वाले संजय सिंह ने विश्वभारती से पेिन्टंग में  ग्रेजुएशन म्यूरल या भित्तिचित्र में मास्टर की डिग्री ली है। विश्वभारती में ही इनका परिचय कर्नाटक की प्रतिभा से हुआ जो फिलहाल बंगलूरू चित्रकला परिषद में फैकल्टी हैं और इनकी जीवन संगिनी भी। कलाकार होने के कारण दोनों अपने आसपास और पर्यावरण के प्रति काफी संवेदनशील रहे हैं।  इसलिए बंगलूरू में जब इन्होंने अपना घर बनाया तो  वर्षाजल संरक्षण के साथ-साथ घर को यथासम्भव इकोफ्रेडंली बनाने की कोशिश की। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि संजय सिंह के घर में पूरी तरह से प्राकृतिक प्रकाश के इस्तेमाल की व्यवस्था है और प्राकृतिक रंगों का ही प्रयोग किया गया है। बंगलूरू में पानी की समस्या काफी विकट रही है जो दिनों-दिन और गहराती जा रही है। यहां जल आपूर्ति कावेरी नदी के पानी से की जाती है, जिसे 100 किलोमीटर से लाया जाता है।  संजय जिस इलाके में रहते हैं वहां अभी सरकारी सप्लाई का पानी नहीं पहुंचता है। लगभग 25 रिहाईशी घर वाले इस इलाके में पानी की आपूर्ति कॉमन बोरवेल से की जाती है। संजय बताते हैं  वर्षाजल संरक्षण प्रणाली को अपना कर पानी के मामले में हमने खुद को काफी हद तक आत्मनिर्भर बना लिया है। संजय के मुताबिक इस प्रणाली को लगाने के बाद लगभग 4-5 महीने उन्हें किसी अन्य स्रोत से पानी की जरूरत नहीं होती है। साधारण बारिश में भी 7 मिनट की अवधि में उनके पास लगभग 500 लीटर पानी जमा हो जाता है। लेकिन संजय ये भी बताना नहीं भूलते कि वे पानी का इस्तेमाल भी किफायत से करते हैं। दरअसल, आपूर्ति और खर्च के बीच सन्तुलन बेहद जरूरी है और पानी के मामले में तो आपको एक कदम आगे बढ़कर आने वाली पीढ़ियों को सोचकर चलना होगा। इसलिए वे किफायत पर बहुत जोर देते हैं।
आखिर वर्षाजल संरक्षण प्रणाली है क्या और इसकी लागत क्या है?
इस सवाल के जवाब में संजय बताते हैं कि दरअसल घर बनाते समय ही अगर इस प्रणाली को अपनाया जाए तो कोई अतिरिक्त खर्च नहीं आता है, केवल छत पर पतला सा, ढ़ाल वाला प्लास्टर चढ़ाना होता है। छत को साफ रखना होता है और नीचे जहां पानी जमा होता है वहां फिल्टर लगाना होता है। छत से प्राप्त बारिश के पानी को फिल्टर करते हुए संप में पंहुचाना होता है और फिर ओवरहेड टैंक में। पानी को वाटर टैंक, संप या ड्रम में स्टोर करने से पहले फिल्टर करने के लिए जो तकनीक इस्तेमाल की जाती है वो बिल्कुल पारंपरिक होती है। जिसके तहत बोल्डर्स, बड़े जेली स्टोन, छोटे जेली स्टोन इसके बाद चारकोल फिर बड़े जेली स्टोन और छोटे जेली स्टोन, कपड़े और फिर बालू की परत बिछायी जाती है। और हर पांच साल पर इन परतों को फिर से बिछाना होता है। उन्होंने मात्र 2 हजार रूपए में इस प्रणाली को लगाया था। संजय के मुताबिक बाद में भी इस प्रणाली को लगाने पर अधिकतम 5 हजार से ज्यादा खर्च नहीं आता है। रेनवाटर हारवेस्टिंग क्लब के एस विश्वनाथ को संजय पानी और उसके संग्रह के मामले में अपना पथ-प्रदर्शक मानते हैं। अनुमानत: बंगलूरू के लगभग 5 हजार भवनों में वर्षाजल संग्रह प्रणाली को अपनाया जा चुका है।
   
बंगलूरू में सालाना औसत बारिश लगभग 1,000 मिली मीटर तक होती है। जबकि यहां प्रतिव्यक्ति पानी की खपत लगभग 135 से 140 लीटर के बीच में है। वर्षाजल संग्रह के मार्फत 40 गुणा 60 फीट की छत से सालाना सवा दो लाख लीटर तक पानी जमा किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए इस तरह  पानी के मामले में पूरी तरह आत्मनिर्भर बना जा सकता है।
वर्षाजल के मार्फत बोरवेल को भी रिचार्ज किया जा सकता है, इसके लिए सबसे पहले बोरवेल के केसिंग पाईप के पास एक मीटर लंबा, चौड़ा और 10 फीट गहरा गड्ढ़ा खोदना होता है ।और इसमें सीमेंट रिंग लगाना होता है। गड्ढ़े की तली में फिल्टर होल बनाना होता है और बोरवेल पाईप के साथ स्टील मेश वाला केसिंग पाईप खूब टाईट करके फिक्स करना चाहिए। इस तरह बोरवेल को हमेशा रिचार्ज रखा जा सकता है। इसी तरह से कुओं को भी रिचार्ज किया जा सकता है।
सिंगापूरा में कुछ लोगों ने संजय सिंह से प्रेरित होकर इस प्रणाली को अपनाया भी है पर वे चाहते हैं कि सिर्फ बंगलूरू ही नहीं बल्कि पूरे देश में ज्यादा से ज्यादा लोग इस प्रणाली को जल्द से जल्द अपनाएं।

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

तलाक की सिलिकाॅन वैली

 महानगरों  में तलाक के मामलों में लगातार इजाफा हो रहा है। बंगलूरू में ही रोजाना तलाक के 25 नए मामले दर्ज हो रहे हैं।
(Published in Public Agenda )

आई टी कंपनी में काम करने वाली प्रमिला का दिन सुबह साढ़े छः बजे षुरू हो जाता है। उन्हें नौ बजे तक दफ्तर पहुंचना होता है और घर लौटते-लौटते आठ बज जाते हैं। उनके पति बालाजी भी आई टी क्षेत्र की बड़ी कंपनी में काम करते हैं और बहुत व्यस्त रहते हैं। प्रमिला दफ्तर और घर की जिम्मेदारियों के बीच खुद को रोबोट जैसी समझने लगी इसलिए नौकरी छोड़ दी लेकिन फिर अकेलेपन ने नौकरी वापस पकड़ा दी। व्यस्तता के कारण संवादहीनता अब उनके लिए संवेदनहीनता बन चुका है, अपनी षादी में उन्हें कोई जोड़ने वाला तत्व नजर नहीं आता इसलिए दोनों ने आपसी सहमति से तलाक के लिए अर्जी दायर कर दी है। बीपीओ सेक्टर में काम करने वाले अजीत के लिए भी उनकी पत्नी की ओर से तलाक की मांग षाॅकिंग था, लेकिन रात की नौकरी और दिन में सोने की उनकी दिनचर्या ने उनकी पत्नी का अपनी षादी से ही मोहभंग कर दिया। आखिरकार अजीत भी तलाक के लिए तैयार हो गए। भारत की सिलिकाॅन वैली में इन दिनों रोजाना तलाक के पच्चीस नए मामले दर्ज हो रहे हैं, जिनमें ज्यादातर मामले आई टी क्षेत्र के दंपतियों हैं। लगभग 13 हजार तलाक के मामले बंगलूरू में लंबित है जिनमें पांच हजार मामले केवल 2008 में दर्ज हुए हैं। सालाना लगभग पांच हजार से अधिक नए मामले दर्ज हो रहे हैं। हांलाकि भारत में अभी भी अमेरिका और अन्य देषों के मुकाबले तलाक दर कम है। अभी भी यहां 100 षादियों में केवल एक षादी ही टूटती है लेकिन महानगरों में पिछले पांच साल में ऐसे मामलों में दोगुना इजाफा हुआ है। और बंगलूरू फैमिली कोर्ट में की सूची में आपको 20 से 30 साल की उम्र वाले जोड़ों के तलाक की अर्जी मिलेगी। यहां तक कि अपेक्षाकृत संकीर्ण सोच वाले परिवार भी अपने बेटे या बेटी के तलाक के फैसले को सहजता से स्वीकार रहे हैं।
षेशाद्रीपूरम में वकालत करने वाले प्रसन्ना कुमार कहते हैं रोजाना 20-25 तलाक के नए मामले दर्ज हो रहे हैं और गौर करने वाली बात है कि आई टी क्षेत्र में काम करने वाले ज्यादातर तलाक के मामले आपसी रजामंदी से दायर हो रहे हैं इसलिए ऐसे मामलों में फैसलें में भी देर नहीं हो रही है। प्रसन्ना बताते हैं- बंगलुरू में दस साल पहले तलाक के मामलों की सुनवाई के लिए केवल एक कोर्ट हुआ करता था आज आठ कोर्ट हैं जिनमें प्रतिदिन सौ मामलों की सुनवाई होती है। तलाक के बढ़ते मामलों के कारणों की तह में जाते हुए प्रसन्ना कहते हैं-समाज तेजी से बदल रहा है, महानगरों में पति-पत्नी दोनों काम पर जाते हैं इसलिए एक-दूसरे के लिए समय नहीं निकाल पाते, बुजुर्गो के साथ नहीं रहने के कारण कोई दवाब भी नहीं होता है। तनाव, काम का लंबा समय और दौरे उन्हें एक-दूसरे से और दूर कर रहे हैं।
जबकि एक-दूसरे से अपेक्षाएं काफी बढ़ गयी हैं साथ ही अहम का टकराव भी। यहां षादी के महज 15 दिन और 6 महीने बाद ही तलाक के लिए आवेदन करने वाले जोड़े आपको मिल जाएंगे।
बंगलूरू उच्च न्यायलय और फैमिली कोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकील करूणाकरण कहते हैं-मेरे पास रोजाना दस ऐसे फोन आते हैं और ज्यादातर मामले आई टी क्षेत्र के जोड़ों के होते हैं, जो आपसी रजामंदी से तलाक चाहते हैं। गलतफहमी और एक-दूसरे के लिए धैर्य नहीं होना उनके संबंधों में खटास का कारण बन रही है। करूणाकरण बहुत से मामलों में तलाक के कारणों को बेवकूफाना करार देते हैं और बताते हैं कि एक मामले में तो महिला ने सिर्फ इसलिए तलाक की अर्जी दी कि वो अपने पति के घर नहीं रहना चाहती थी, बच्चे के जन्म के बाद वो मायके से नहीं लौटी और अपने मां-बाप के साथ रहने के लिए तलाक की अर्जी दी।
इधर मैरिज कांउंसलर मित्तिनरसिंहमूर्ति कहते हैं-दरअसल, तलाक के मामलों में इजाफा षहरीकरण, और स्त्री पुरूश दोनों के आर्थिक हालात में आयी मजबूती से गहरायी से जुड़ा है।  आज की सक्षम और सषक्त महिला भारतीय समाज के पारंपरिक दोहरेपन को ज्यों का त्यों स्वीकार करने को तैयार नहीं है। तलाक के मामले पहले कम थे और अब ज्यादा हो रहे हैं इसमें कसूरवार महिला नहीं बल्कि उनकी हालत में आया सकारात्मक बदलाव है। पहले वो सह लेती थी अब विकल्प चुनने की ताकत आ रही है उनके पास। इसलिए महानगरों में तलाक के बढ़ते मामलों का सीधा-सीधा संबंध महिला सषक्तिकरण से जोड़ा जाना चाहिए। इसके अलावा अधिक उम्र में षादी, के कारण भी उनकी षख्सियत आसानी से बदलाव नहीं स्वीकार कर पा रही है। खासतौर पर महिलाएं अपने परिवेष से अलग नहीं हो पा रही हैं। दूसरी ओर आर्थिक बंधन नहीं होने पर दोनों अपने रिष्ते को बनाए रखने की कोषिष भी नहीं करते क्योंकि वो अलग-अलग भी बेहतर जिदंगी गुजार सकते हैं।

मैरिज काउंसलर कलावती चंद्रषेखर का मानना हैं कि तलाक के मामलों में बढ़ोतरी की सबसे बड़ी वजह महिलाओं का षिक्षित और आत्मनिर्भर होना है। आत्मनिर्भरता ने उनमें आत्मविष्वास भर दिया है ऐसे में षादीषुदा जीवन में उलझाव पैदा होने पर वो अलग हो जाने के विकल्प को अपना रही हैं। ऐसा नहीं है कि आज की महिलाएं षादी से जबरन बाहर आ रही है बल्कि अब वो जबरन षादी को बचाए रखने की कोषिष नहीं कर रही है। क्योंकि उनके पास पहले के मुकाबले ज्यादा आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा है। और ये उनके सषक्तिकरण का प्रतीक है। आज लड़कियों को तलाक के हालात होने पर उनके अपने मां-बाप और परिवार का भी पूरा सहयोग मिल रहा है। लेकिन वो ये भी मानती हैं कि ज्यादातर महिलाएं अपनी षादी को बचाने की भरसक कोषिष करती हैं और अंत में ही तलाक के विकल्प को अपनाती हैं। वो कहती हैं तलाक के किसी भी कारण को बेवकूफाना करार नहीं दिया जा सकता, हमें मसले को उनके नजरिये से देखने की कोषिष करनी चाहिए। हफ्ते में दो-तीन जोड़े को सलाह देने वाली कलावती कामकाजी जोड़ों के लिए षनिवार और रविवार को भी काम करती हैं और काउंसिलिंग को काफी मददगार मानती हैं। तलाक के बढ़ते मामलों का कारण वो आपसी समझ में कमी, एक-दूसरे की उम्मीदों को ज्यादा तव्वजों नहीं देना और संवादहीनता की स्थिति को मानती हैं साथ ही अत्यधिक संवाद के हालात को भी खतरनाक करार देती है। कलावती कहती हैं आर्थिक परेषानी और आजादी में खलल भी तलाक की वजह बन रही है तो दूसरी ओर आर्थिक सुरक्षा और भरपूर निजी स्वतंत्रता भी आपसी संबंधों को कड़वा बना रही है। अब तक पचास से अधिक मामलों में काउंसिलिंग कर चुकी कलावती ने बच्चों को संबंधों को जोड़े रखने वाली कड़ी पाया है और संतानहीन जोड़ों को काउंसिलिंग बावजूद अलग होते पाया है। बहरहाल, बावजूद इसके वो काउंसिलिंग को काफी मददगार मानती है और षादी तोड़ने से पहले काउंसलर के पास जाने की सलाह जरूर देती हैं।

आई टी क्षेत्र के जोड़े मैरिज कांउंसलर मित्तिनरसिंहमूर्ति के पास षादी से पहले भी आते हैं, जब उनकी मर्जी की षादी में उनके मां-बाप बाधा बनते हैं। फिर बाद में जब षादी निभाना मुष्किल होने लगता है तब भी आते हैं।  मित्तिनरसिंहमूर्ति उन्हें पहले अलग रहने और फिर बाद में उनके पास आने की सलाह देते हैं। वो कहते हैं- हम उन्हें जोड़ने की भरसक कोषिष करते हैं पर वो अलग होने की बात पहले ही तय कर चुके होते हैं। अपने अनुभवों में नरसिंहमूर्ति ने पाया कि ज्यादा सफल और सक्षम जोड़े एक-दूसरे को कमोडिटी की तरह लेने लगे हैं और मतभिन्नता होने पर सिर्फ और सिर्फ अलग होना चाहते हैं। तलाक के बड़े कारणों में वो मां-बाप का हस्तक्षेप भी मानते हैं, खासतौर पर महिलाओं के संदर्भ में। नरसिंहमूर्ति कहते हैं षादी के बाद मां-बाप और बच्चे अलग रहें तो षादियों के बचे रहने की संभावना बढ़ सकती है। हांलाकि उनके पास एक ऐसा मामला भी आया था जिसमें पति के बीमार हो जाने पर उसके व्यवहार में आए चिड़चिड़ेपन को पत्नी ज्यादा दिनों तक सहन नहीं कर पायी और तलाक के लिए अर्जी दे दी।
दूसरी ओर बंगलूरू में निम्न मध्यवर्गीय और निम्न तबके की महिलाओं में एक नयी बात भी सामने आ रही हैं। चंूकि इस तबके की महिलाएं आर्थिक तौर पर सक्षम और उतनी षिक्षित नहीं है। साथ ही उनका अपना परिवार भी कमजोर आर्थिक हालात के कारण उनकी मदद नहीं कर सकता अतः वे तलाक के बजाए अलग रहने और गुजारे के लिए अर्जी दायर कर रही है। पिछले दो साल में ऐसे मामलों में 30 प्रतिषत की दर से इजाफा हुआ है। विषेशज्ञ इसकी एक वजह इस तबके में तलाक से जुड़ी सामाजिक अस्वीकार्यता को भी मानते हैं। गौरतलब है कि कानुनन पत्नी के पास आय का कोई साधन नहीं होने और तलाक नहीं चाहने पर वो गुजारा भत्ता के लिए अर्जी दायर कर सकती है। यहां तक कि एक छत के नीचे रहते हुए भी, पति से कोई संबंध नहीं होने पर उसे आजीवन गुजारा पाने का हक है जबकि तलाक की स्थिति में एक ही बार स्थायी सेटलमेंट हो जाता है।
इधर तलाक के बढ़ते मामलों ने प्राईवेट डिटेक्टिव एजेंसियों का काम भी काफी बढ़ा दिया है। पिनिया में सेवियर डिटेक्टिव सर्विसेज चलाने वाले मोहम्मद सादिक कहते हैं- हमारे पास तलाक चाहने के सालाना 50-60  मामले आते हैं। हालांकि आपसी रजामंदी से होने वाले तलाकों में हमारी कोई भूमिका नहीं होती पर विवाहेतर संबंधों के षक की पुश्टि के लिए लोग हमारी षार्ट स्क्रीन सेवा लेते हैं। सादिक बताते हैं-बंगलूरू में इस समय लगभग ढ़ाई हजार डिटेक्टिव एंजेंसी हैं और सभी के पास भरपूर काम है।  

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

कार्बन मुक्त भविष्य की आेर


( पबिलक एजेंडा में प्रकाशित लेख )




बंगलूरू का टीजेड हाउसिंग काॅम्पलेक्स यूं तो किसी भी आम आलीशान, लग्जरी हाउसिंग काॅम्पलेक्स की ही तरह दिखता है, अपेक्षाकृत थोड़ी ज्यादा हरियाली के साथ। लेकिन ऐसा है नहीं, दरअसल, टीजेड यानी जीरो एनर्जी डेवलपमेंट पूरी तरह से कार्बन मुक्त हाउसिंग काॅम्पलेक्स है। जो उर्जा और पानी के अलावा सीवरेज प्रणाली सभी के मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर है। 95 परिवारों का यह आशियाना अपनी जरूरत का पानी वर्षा जल संग्रह करके हासिल करता है। सौर उर्जा का इस्तेमाल करता है और जैविक ईंधन व कचड़े से अपने लिए बिजली बनाता है। एनर्जी एफिशियेंट उपकरणों का प्रयोग करता है और दिन में उपलब्ध अधिकतम प्राकृतिक प्रकाश का दोहन करता है।
बीसीआईएल, यानी बायोडायवरसिटी कन्जरवेशन इंडिया लिमिटेड ने इस आवासीय परिसर का निर्माण किया है। व्हाईटफील्ड स्थित यह आवासीय परिसर पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल और खुबसूरत हैं। उल्लेखनीय बात ये है कि पर्यावरण संरक्षण के मानकों पर पूरी तरह से खरा उतरने के बावजूद आधुनिक सुख-सुविधाओं में यहां कोई कटौती नहीं की गई है। केन्द्रीकृत सुरक्षा प्रणाली, लांड्री, कान्फ्रेस हाॅल, स्विमिंग पुल, रेस्तरां, जिम जैसी सभी आधुनिक सुविधाएं हैं यहां। पांच एकड़ में फैले टीजेड की परिकल्पना बीसीआईएल के प्रमुख चंद्रशेख्ार हरिहरन की है। उनका लक्ष्य एक ऐसा शहरी रिहाईश विकल्प मुहैया कराना था जो पानी, उर्जा और कचड़ा प्रबंधन सभी मामलों में पूरी तरह से आत्मनिर्भर हो। अतः टीजेड में निर्माण से जुड़े सभी पक्षों में प्राकृतिक संसाधन के संरक्षण और पर्यावरण पर उसके नकारात्मक प्रभाव कम से कम हों इसका ध्यान रखा गया है। यहां के घरों में आप पर्यावरण के अनुकूल जीरो इलेक्ट्रीसिटी इन बिल्ट रेफ्रिजरेटर पाएंगे, यानी सभी घरों के लिए एक मोटर और कंप्रेषर से संचालित होने वाला फ्रिज। साथ ही सौ प्रतिषत ताजी हवा पर आधारित वातानुकूलन प्रणाली है जो रेफ्रीजेंट के तौर पर पानी का इस्तेमाल करती है। दरअसल, टीजेड इस मायने में भी अन्य आवासीय परिसरों से अलग है कि यह अपने पूरे जीवन चक्र यानी निर्माण, जीवन काल और विध्वंस सभी चरणों में कार्बन उत्सर्जन कम से कम करेगा। इसलिए यह देशा की पहली ऐसी अवासीय परियोजना है जिसे क्लीन डेवलपमेंट मैकेनिज्म इनीषिएटिव के तहत कार्बन क्रेडिट हासिल है।
अर्थषास्त्री से पर्यावरण व्यवसायी बने चंद्रशेखर हरिहरन 1989 से ग्रीन बिल्डिंग की अवधारणा से जुड़े हुए हैं और दीर्घकालीन विकास के अर्थशास्त्र में यकीन रखते हैं। 11-12 साल उन्हें भारत के विभिन्न हिस्सों में रहने और काम करने का मौका मिला। वे अन्ना हजारे के साथ भी रहे और उन्हें रालेगांव सिद्धि के माॅडल को बहुत करीब से देखने और समझने का मौका मिला। इन अनुभवों ने चंद्रशेखर को शहरी विकास खासतौर पर भवन-निर्माण के क्षेत्र में कुछ नया करने की राह दिखायी। उनका काम पूरी तरह से पेशेवर और मांग यानी बाजार पर आधारित है। अपने ग्रीन बिल्डिंग का पहला माॅडल उन्होंने 1995 में पेश किया और 2003 से टीजेड के निर्माण में लगे। संसाधनों पर शहरी लोगों और उनकी जीवशैली से पड़ने वाले बोझ को कम करना उनका मकसद है। मुंबई में एक सम्मेलन में किसी ने उन्हें बताया भारत के शहरों में बसने वाली 40 फीसदी आबादी 75 फीसदी संसाधनों का इस्तेमाल करती है और सकल घरेलू उत्पादन में 60 प्रतिशत का योगदान करती है। इस जानकारी ने चंद्रशेखर की सोच को काफी प्रभावित किया। नतीजा आज टीजेड जैसे हाउसिंग काॅत्पलेक्स के रूप में सामने है जो एक बैकल्पिक शहरी आवासीय जीवन शैली मुहैया कराता है, वो भी मौजूदा जीवन  शैली से समझौता किए बगैर, पर्यावरण संरक्षण के सभी मानकों को पूरा करते हुए।


फिलहाल 30 लाख से डेढ़ दो करोड़ की कीमत वाले इन फ्लैट को हरिहरन कम लागत में भी लेकर आना चाहते हैं। और 7 से 10 लाख में भी ऐसे मकान बनाना चाहते हैं। टीजेड बीसीआईएल की पांचवी परियोजना है। हरिहरन कहते हैं और भी कंपनियां इस क्षेत्र में गंभीरता से काम कर रही हैं क्योंकि भविश्य इसी का है। बंगलूरू के अलावा उनका मैसूर, कुर्ग, गोवा और लोनावाला में भी इको-टुरिज्म के तहत ग्रीन बिल्डिंग परियोजनाओं पर काम चल रहा है। टीजेड से पहले बंगलूरू में बीसीआईएल की चार और परियोजनाओं में भी संरक्षण के प्राथमिक सिद्धांतों का ध्यान रखा गया था। लेकिन टीजेड भवन निर्माण को बिल्कुल नए सिरे से परिभाषित करता है। यह उपभोग को उत्पादन और पुर्नउत्पादन के साथ जोड़ता है और वो भी स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों के साथ। मसलन इंटों की जगह पर फ्लाई एश ब्लाॅक्स का प्रयेाग, प्लास्टर के लिए सीमेंट के बजाए मिट्टी और फर्श के लिए कडप्पा और कोटा पत्थर। दीवारों को पेंट फ्री सामग्री से बनाया गया है और प्राकृतिक तापमान नियंत्रण तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। साथ ही वैसी ही लकड़ियों का इस्तेमाल किया गया है जिनकी प्लांनटेशन होती है। टीजेड की उपलब्ध्यिां गौर करने लायक हैं मसलन, यहां निगम का पानी नहीं लिया जाता, सीवर लाईन की यहां जरूरत नहीं है क्योंकि पानी को रीसाईकल कर बागवानी में प्रयोग किया जाता है और फिर इससे भूजल को रिचार्ज किया जाता है। रेफ्रिजरेषन और वातानूकुलन में सीएफसी और एचसीएफसी का उत्सर्जन नहीं होता है। इस तरह कुल 20,000 टन कार्बन उत्सर्जन रोका जाता है।
हरिहरन बताते हैं भारत ग्रीन बिल्डिंग अभियान के अग्रणी देशों में से एक है। फिलहाल भारत में 321 मिलीयन वर्ग फुट प्रमाणित ग्रीन बिल्डिंग है जो अमेरिका के बाद सबसे ज्यादा है। लेकिन गुणवत्ता के मामले में भारत अमेरिका से आगे है। 2012 तक सीआईआई इंडिया इसे 1 बिलीयन वर्गफुट तक करने का लक्ष्य रखता है।
आवासीय भवनों के मामले में भी भारत का स्थान दूसरा है। हरिहरन कहते हैं संभवतः आने वाले समय में सभी सरकारी भवनों का ग्रीन बिल्डिंग होना अनिवार्य हो जाएगा साथ ही उर्जा के संदर्भ में उनका पांच नहीं ंतो तीन स्टार होना अनिवार्य हो जाएगा। उनके मुताबिक इससे बहुत फर्क पड़ेगा क्योंकि सरकार ने 580 सेज को मंजूरी दी है जिनमें लगभग 400 पर काम षुरू होने वाला है। 1,200 विशवविद्यालय बनने हैं ऐसे में सरकार की ओर से हरित दिशानिर्देष होना बहुत जरूरी है। दरअसल, भवन निर्माण से जुड़े सभी पक्षों को पर्यावरण के प्रति संवेदनशील बनाए जाने की जरूरत है क्योंकि अभी भी मात्रः 2 प्रतिशत निर्माण ही वास्तुकारों के दिशा-निर्देश में होता है।


चंद्रशेखर बीसीआईएल अल्टरनेटिव टेक फाउंडेशन के भी संस्थापक हैं। यह संस्था उर्जा और इंटेलीजेंट बिल्डिंग प्रबंधन में प्रयोग करती है। और ग्रीन आईडिया लैब की स्थापना में भी इनकी अहम् भूमिका रही। यह संस्था षहरी परिप्रेक्ष्य में ग्रीन बिल्डिंग के लिए जरूरी फ्रेमवर्क पर परामर्श श्मुहैया कराती है। पिछले दो दषक में उन्होंने कई सफल दीर्घकालीन योजनाओं को लांच किया है। 2006 में एडीबी वाटर चैंपियन अवार्ड हासिल करने वाले 63देषों के नौ एषियन में से वे पहले भारतीय हैं।
बंगलूरू में चित्रा विशनाथ जैसे वास्तुकार भी हैं जो इको-फ्रेडली जैसे शब्दों के चलन में आने से काफी पहले से इसे खुद के जीवन शैली का हिस्सा बना चुकी हैं। चित्रा के घर में आपको न ए.सी, पंखे की जरूरत होगी और न ही दिन के समय कृत्रिम रोशनी  की। उर्जा और जल संरक्षण को वो काफी पहले ही अपने जीवन-शैली का हिस्सा बना चुकी हैं। बंगलूरू में ही अब तक 500 से ज्यादा इको-फे्रन्डली भवन डिजायन कर चुकी हैं वों। चित्रा कहती हैं मांग बढ़ रही है इसलिए मेरे जैसे इको-फ्रेन्डली वास्तुकारों के लिए काम बढ़ रहा है। भविश्य ऐसे ही वास्तुकारों का है इसलिए नए वास्तुकार भी  इसी राह पर चल रहे हैं। 1990 से भवन-निर्माण डिजायन से जुड़ी चित्रा कहती हैं-हमने कुछ नया नहीं किया बल्कि स्थानीय संसाधनों का इस्तेमाल कर अपने जीने की बुनियादी सुविधाएं जुटाने, बनाने के हमारे पारंपरिक तरीकों को ही आधुनिक वास्तुकला में समायोजित किया है। बंगलूरू के अलावा चित्रा ने दिल्ली, मध्य-प्रदेष, हैदराबाद, मुंबई और कोलकाता के भी कुछ भवनों को डिजायन किया है और ये सभी इमारतें पूरी तरह पर्यावरण के अनुकूल हैं। चित्रा कहती हैं, ऐसी इमारतों में आकर सात्विकता का अनुभव होता है, जैसे प्रकृति एकदम आपके साथ है।

अपने घर के बारे में बताती हुई वो कहती हैं मेरा घर 15 साल पुराना है और 18 सौ वर्ग-फुट का है लेकिन अभी तक मुझे इसके रखरखाव पर मात्र 17 हजार रूपए खर्च करने पड़े है और मेरा बिजली का बिल सभी उपकरणों के इस्तेमाल के बावजूद 400 रूपए तक ही आता है इसकी वजह घर का प्राकृतिक प्रकाष पर ज्यादा निर्भर रहना और तापमान के लिए अनुकूलित तकनीक और सामग्री से बना होना है। चित्रा अपने भवनों में पेंट का इस्तेमाल नहीं करती हैं इसके बजाए प्लास्टर में मिट्टी का प्रयोग करती हैं और ईंट की शैली वाली दीवार बनाती हैं, जिन्हें पेंट की जरूरत नहीं पड़ती है। चित्रा कहती हैं-वैसे भी भारत में आज भी वही लेड वाले पेंट बिक रहे हैं जिन्हें 36 साल पहले यूरोप में बैन कर दिया गया था और 17 साल पहले अमेरिका में। इसी साल से भारत में लेड-मुक्त पेंट बिकने षुरू हुए हैं लेकिन लेड वाले पेंट पर रोक नहीं लगी है। चित्रा के पति विष्वनाथ जल संरक्षण से गहरे जुड़े हैं वे  रेनवाटर क्लब के मार्फत  वर्षा जल संरक्षन को आधुनिक निर्माण से जोड़ रहे हैं। चित्रा के द्वारा डिजायन की गई सभी इमारतों में वर्षा जल संरक्षण का विषेश प्रावधान होता है।
पिछले बारह साल से बंगलूरू में रह रहे फ्रीलांस पेंटर और म्यूरल आर्टिस्ट संजय सिंह के घर की वास्तुकार चित्रा विष्वनाथ ही हैं। संजय कहते हैं बंगलूरू में पर्यावरण अनुकूल इमारतें लोकप्रिय हो रही हैं और जगहों के मुकाबले यहां इकोफ्रेन्डली इमारतों की संख्या बढ़ रही हैं। वो खुद अपने अनुभव बताते हुए कहते हैं-वर्षा जल संरक्षण के कारण मेरा घर पानी के मामले में लगभग आत्मनिर्भर है। मेरे घर में पेंट का इस्तेमाल नहीं किया गया है और प्राकृतिक प्रकाश व हवा के अधिकतम इस्तेमाल का प्रावधान है। संजय सिंह के घर में भी ए.सी छोड़ें बिजली के पंखें तक नहीं हैं। संजय बताते हैं-दरअसल इको-फ्रेन्डली घर और सामान्य घर बनाने में लगभग खर्च बराबर ही आता है लेकिन लंबी अवधि में यह किफायती साबित होता है क्योंकि इसके रखरखाव का खर्च बच जाता है साथ ही पानी और बिजली पर होने वाले अतिरिक्त खर्च में भी बचत होती है।

कृतिदेव फान्ट में टाईप सामग्री को ब्लाग पर प्रकाशित करने के लिए कोई टूल बताएं

ब्लागर बंधुआे आप सब से एक मदद चाहिए, क्या आपलोग मुझे कोई एेसा
टूल बता सकते हैं जिसकी  सहायता से मैं कृतिदेव  फान्ट में टाईप सामग्री को
ब्लाग पर प्रकाशित करने योग्य फान्ट में कन्वर्ट का सकने में सक्षम हो सकुं।
आप सबके जवाब का इंतजार रहेगा।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

बदल रही है फिजा

बंगलूरू में रहने वाली बयालीस साल की अमूधा की सकि्यता को देखकर कहीं से एेसा नहीं लगता कि वो पिछले नौ साल से एचआईवी पाजीटिव हैं। दस साल पहले पति के एचवाईवी पाजीटिव होने का पता चलने पर इन्होंने अपना टेस्ट कराया तो अमूधा को खुद के एचआईवी पाजीटिव होने का पता चला। पति तो साल भर   बाद चल बसे लेकिन अमूधा आज अपने तीन बच्चों समेत सभी के कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। बेशक यह इतना आसान नहीं था,शुरूआती दो साल बहुत कठिन रहे, समाज में खुलकर अपने एचआईवी पाजीटिव होने का िजक्र करना बहुत मुशिकल था, पहली मुिशकल तो घर से ही शुरू हो गई जब उनकी गलती नहीं होने पर भी ससुराल वालों ने इन्हें बहिष्कृत कर दिया। फिर अगरबत्ती बनाकर परिवार का जैसे तैसे पालन पोषण शुरू किया। सरकारी पुनर्र्वास सूची में अमूधा के परिवार की संख्या 74 थी, ये सब देखकर वो अंदर से टूटने लगीं फिर ख्याल आया, मैं ही नहीं मुझसे आगे 73 परिवार आैर भी हैं, जिदंगी उनके लिए भी तो मुिशकल ही होगी। हांलाकि अमूधा के अपने माता पिता ने उनका काफी साथ दिया। लेकिन पति की मौत के बाद वो आज भी अपने ससुराल वालों से अपनी संपत्ति का केस लड़ रही हैं। अमूधा कहती हैं शुक्र है मेरे तीनों बच्चे एचआईवी निगेटिव िनकले। आज मैं अरूणोदया नेटवक आफ पाजीटिव पीपल की जिला अध्यक्ष हंू आैर कनार्टक पाजीटिव वुमैन की सचिव। साथ ही एसपीएईडी के मिलन प्रोजेक्ट में काम करती हंू आैर अपने ही जैसे लोंगों की काउंसििलंग करती हंू। उन्हें जीवन के आगे के संघष के लिए प्रेरित करती हंू। इन दस सालों के बारे में बात करते हुए वो कहती हैं । अब माहौल बदल गया है। हम खुलकर अपने बारे में अपने हक के बारे में बात करते हैं,मेरी झिझक मेरे बच्चों ने खत्म की जब 2004 में एक पत्रकार ने मुझपर स्टोरी करने के िलए मुझसे संपकर् किया। मैं तैयार नहीं थी, लेकिन मेरे बच्चों ने मुझसे कहा, किसी को तो आगे आना होगा, तुम्हे अपनी बात रखनी चाहिए] तभी आैर लोग भी सामने आएंगे, मेनस्ट्रीम में बगैर किसी झिझक के शामिल होंगे। अमूधा कहती हैं एचआईवी पाजीटिव के जीवित रहने की संभावना दस,बीस, तीस साल कुछ भी हो सकती है। अमूधा खुद आज किसी भी दवा का सेवन नहीं करतीं,बस नियिमत जांच कराती हैं आैर अपना हर तरह से ख्याल रखती हैं।
कुछ इसी से मिलती जुलती कहानी है सरोजा पूत्रम की, पिछले दस साल से एचआईवी पाजीटिव सरोजा आज किसी भी दवा का सेवन नहीं करतीं। सरोजा को भी अपने पति से ही एचआईवी संक्रमण हुआ था आैर ससुराल वालों ने उन्हें ही तिरष्कृत किया था। आैर तो आैर उन्हें अपना दूसरा बच्चा भी एचआईवी पाजीटिव होने के कारण खोना पड़ा। अपने माता पिता का साथ नहीं मिला होता तो शायद जीना इनके लिए मुमकिन नहीं हो पाता। हांलाकि सरोजा के भाई बहनों की शादी नहीं होने के कारण उनके पिता ने शुरू में अपनी बेटी के एचआईवी पाजीटिव होने की बात समाज में नहीं खोली। बहरहाल, आज सरोजा के भाई बहन उनका सबसे बड़ा संबल हैं आैर वह पूरी सक्रियता के साथ एड्स पीड़ितों के लिए काम कर रही हैं आैर कर्नाटक पीपल लीविंग विद एचआईवी/एड्स की अध्यक्ष हैं। इस संगठन में 42 हजार महिलाआे का नामाकंन है।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

स्वागत है तुम्हारा हमेशा ही

 
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सादा सा पन्ना
हाथों में कलम या कि तुलकिा
आैर कुछ इन्द्रध्नुषी रंग
एक अतीत
सुनहरा खटटा मीठा
सारी बातें
अब यादें.......

क्यु याद है ना!
साथ् साथ् चले थे
उन पहचानी सी
सड़कों पर
जिसे आंख खोलते के साथ
भ्रर लिया था हमने,
अपनी आंखों में
जैसे, हवाआे को
सांसों मे,
साथ साथ हंसे थे,
झगड़े थे, रूठे थे
मने थे, खेले थे
ये सब बातें
अपने, हमारे बारे में,
जिन्हें हमने हां,
सिफर्र् हमने ही तो
देखा था, महसूसा था
आैर इस क्रम में
वक्त कैसे
आगे निकल आया
आैर हम
इस मोड़ पर


वक्त के साथ
बहुत कुछ पीछे....
बहुत पीछे छुट जाता है
"अपने होने की "
चाहत और शर्त पर!
फिर भी
बहुत स्वभाविक है न-
कि पुरानी तस्वीरे
पार्क में खेलते बच्चे
बहुत कुछ याद दिला जाते हैं
चुपके से........
जैसे, अपनी गुडि़या की शादी,
टीचर.टीचर का खेल
अमरूदों की चोरी।

आैर युं ही
स्मृतियों पर पड़ी गर्द
थोड़ी धुली
पुरानी कड़ी फिर जुड़ी
भुली नहीं ना!
"एक मुक आमंत्रण"
छिपा है दूर कहीं......
हमेशा ही!

अब उकेर भी दो
कुछ रेखाएं आड़ी, तिरछी
आैर..........
फैला दो
इन्द्रधनुषी रंगों को
उस सादे से पन्ने पर
स्वागत है तुम्हारा हमेशा ही।