1
कहना होता है मुझे, छिपा लेता हूँ
सोचता हूँ हर वक़्त पर, सामने झटक देता हूँ
चाहता हूँ सब जिक्र करें तुम्हारा, कर दें कोई,
तो बन जाता हूँ अनजाना,
ये सब करते हुए जानता हूँ मैं
कितना झूठा हूँ मैं
सौ बार कहता हूँ तुमसे ज्यादा खुद से,
कुछ नहीं हमारे बीच
जबकि सारा दिन कुछ पलों
की आग में तपता निकाल देता हूँ
मैं डरता हूँ, खुद से ज्यादा तुम्हारे लिए ,
करता हूँ सारे वो जतन ,जैसे तुम हो ही नहीं
पर, लौटता हूँ जब रातों को पास अपने
लौट आती हो तुम भी !
2
कितना त्रासद है
जब हम चाहकर भी,
अपनी कमजोरी
छिपा न सकें,
कमजोरी,
खुद की तकलीफों से,
बाहर नहीं आ पाने की
दुर्बल होना
कितना दयनीय,
कितना दुखद है
तब और भी,
जब अपनी एक दुनिया
सब से छिपाने के लिए ही
बनायी होती है
तुम मिलते हो वहां
उसी पल में
मैं मिलती हूँ वहां
उसी मौसम में
लौटते तो कई बार हैं
पर, खिंच जाता है
वो पल, वो मौसम
हर बार वर्तमान में !
3
तुम्हें सुनते हुए
तुम्हें कहते हुए
छलक जाती हैं
आँखें,
रह जाते हैं लगभग सारे
जरूरी शब्द गले तक
और,,,,,सारे बेमतलब
बाहर !
तुम्हे प्यार करते हुए
आसमान की चाहत में
हो जाती हूँ मैं धरती
भूल जाती हूँ
उन तमाम तकलीफों को
जो लगा मुझे
तुम जानकार भी नहीं जानते
बावजूद इसके हर बार
सौपना चाहती हूँ मैं तुम्हें
अपनी सारी खुशबू , सारे रंग
और सारे गीत
बदले में तुमसे नहीं
इश्वर से कहती हूँ
तुम हो, ये यकीन है मुझे !