गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

मैं बेदाग़ निकलूंगा

(published in Public Agenda)
अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व प्रमुख जी माधवन नायर से मनोरमा की बातचीत
एंट्रिक्स-देवास सौदे में हुई अनियमितता के मद्देनजर केंद्र सरकार ने हाल ही में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र, (इसरो) के पूर्व प्रमुख जी माधवन नायर को जिम्मेदार ठहराते हुए नायर समेत चार वैज्ञानिकों की किसी भी सरकारी पद पर नियुक्ति पर रोक लगा दी है। बंगलुरू में माधवन नायर से इस विषय पर बातचीत के मुख्य अंशः

देवास को ही सौदे के लिए क्यों चुना गया?
यह कहा जा रहा है कि सौदे में पारदर्शिता नहीं बरती गयी।ऐसा बिल्कुल नहीं है। उस समय एक नयी तकनीक या प्रौद्योगिकी को देश में लाने का विचार था। सन् 2002 की सैटेलाइट नीति बनायी ही गयी थी सैटेलाइटों के निजी परिचालन को प्रोत्साहित करने के लिए। 
अगर कोई भी निजी ऑपरेटर इसरो से ट्रांसपोंडर उपलब्ध कराने को कहता तो इसरो उपलब्ध कराता और न होने की स्थिति में किराये पर लेकर उपलब्ध कराता है। साथ ही, किसी भी इसरो कर्मचारी को अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी से संबंधित उद्योग शुरू करने की अनुमति दी गयी और कहा कि उन्हें अपेक्षाकृत कम लागत पर अंतरिक्ष तकनीक मुहैया करायी जायेगी। देवास सौदे के पहले से ही इसरो एस बैंड संचार के लिए सैटेलाइट तकनीक विकसित कर रहा था और दिसंबर 2010 से पहले एस-बैंड स्पेक्ट्रम और परिक्रमा स्लॉट का इस्तेमाल करना भी अनिवार्य था।एक बार ऐसा सैटेलाइट विकसित हो जाने के बाद हमें सर्विस मुहैया कराने वाले चाहिए थे। 2002-2004 में ऐसा कोई नहीं था। सौदा सभी के लिए खुला था, लेकिन कोई नहीं आया। 
यह सौदा देवास को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। इसी दौरान डॉ शंकर के अधीन एक टीम बनी और तकनीकी टीम के प्रस्तावों के आधार पर एंट्रिक्स नाम से इसरो की व्यावसायिक शाखा बनी। यह सौदा एंट्रिक्स के मार्फत हुआ और इसके लिए पूरी प्रक्रिया का पालन हुआ, जिसमें अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग लोगों और विभागों की अपनी-अपनी भूमिका रही। इसके अलावा सौदे के लिए राशि तय करते समय इस बात का ध्यान रखा गया था कि सरकार को कोई नुकसान न हो। साथ ही पूरे निवेश पर सरकार को दस से पंद्रह फीसद लाभ हासिल हो। 

क्या यह सौदा पूरी तरह से देवास के पक्ष में था?
नहीं, बिल्कुल नहीं। उस समय यह तकनीक केवल जापान के पास थी। हमें सात सौ करोड़ का चेक ऑडिटर के मार्फत मिला था। देवास को चुनने का कारण यह था कि किसी और कंपनी की ओर से बोली नहीं लगायी गयी थी और देवास ने यह भरोसा दिया था कि वह यह तकनीक देश में लायेगी। दरअसल, जब हम सैटेलाइट आधारित संचार तकनीक लेकर आये थे, तब बाजार में उसका कोई खरीदार नहीं था, केवल दूरदर्शन और टाटा स्काई थे। हमने "पहले आओ, पहले पाओ' के तहत आनेवाली अकेली कंपनी देवास के साथ समझौता कर लिया जबकि इस अनुबंध के लिए कोई भी बोली लगा सकता था। 

इस पूरे मसले में आपकी भूमिका क्या रही?
मैं इस सौदे के दौरान इसरो का प्रमुख था और एंट्रिक्स का अध्यक्ष इसरो का प्रमुख ही होता है। लेकिन कोई भी प्रस्ताव पहले तकनीकी समीक्षा के लिए जाता है। फिर वित्त मंत्रालय के पास जाता है। इसके बाद सभी अपनी सिफारिशें इसरो प्रमुख के पास भेजते हैं। इसके अलावा अंतरिक्ष आयोग का अध्यक्ष इसरो का प्रमुख होता है। प्रधानमंत्री कार्यालय के प्रमुख सचिव और मंत्रिमंडल सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, वित्त सदस्य और अंतरिक्ष विभाग के अतिरिक्त सचिव भी इसके बोर्ड में होते हैं। इसरो की व्यावसायिक शाखा एंट्रिक्स और देवास के बीच 2005 में हुए करार के तहत कंपनी को 70 मेगाहर्टज एस-बैंड स्पेक्ट्रम डिजीटल मल्टीमीडिया सेवाओं के लिए बीस साल के लिए दिया गया था। इस करार पर मुहर एंट्रिक्स के बोर्ड ने मिलकर लगायी थी। मेरी भूमिका यही थी। 

राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी यह सौदा खतरा था?
नहीं।240 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम पहले भी सेना और रक्षा संबंधी जरूरतों के लिए निर्धारित था और 70 मेगाहर्ट्ज स्पेक्ट्रम को ही व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए रखा गया था। 

एक साल के बाद यह करार फिर से सुर्खियों में है। इसके पीछे क्या वजह है?
मैंने इस मसले का ट्रैक रिकॉर्ड नहीं रखा। सन् 2010 में यह मसला बाहर आया। एक बात और बाहर आ रही है - 2010 में जब मैं अध्यक्ष नहीं था, यूरोप से एक कंपनी आयी। दरअसल 2010 में ही अंतरिक्ष विभाग ने अगर कोई स्पष्टीकरण दिया होता तो यह विवाद होता ही नहीं। चतुर्वेदी समिति ने भी कहा है कि उस समय कोई कार्रवाई नहीं की गयी। अब जाकर किसी ने उन बातों का नोटिस लिया लेकिन सारा दोष उन लोगों के माथे मढ़ दिया जिन्होंने इस प्रक्रिया की शुरुआत की थी। 

इस विवाद पर आपका रुख क्या है?
मेरा कोई निजी एजेंडा नहीं है। लेकिन जो भी कहा जा रहा है, उससे मेरा गंभीर विरोध है। केवल प्रक्रिया में बरती गयी खामियों पर बात की जा रही है। जो लोग इसमें शामिल रहे हैं और जिम्मेदार हैं, उनके बारे में बात नहीं की जा रही। मैंने प्रधानमंत्री के पास अपील की है और उनके जवाब का इंतजार कर रहा हूं। मेरे लिए यह अपनी साख को बहाल करने और अपने सम्मान को बरकार रखने का सवाल है। मैंने 42 साल इसरो के लिए काम किया है और मुझे इस बात का गर्व है। मुझे भरोसा है कि मैं इस विवाद से बेदाग बाहर निकलूंगा। 

मंद होते बैंड के सुर


(Published in Public Agenda)
बंगलुरू जितना आईटी सिटी के तौर पर जाना जाता है उतना ही पब सिटी और देश  के बीयर कैपिटल के रूप में भी। सबसे ज्यादा पब देश में यहीं पर हैं और इन पबों में कार्यक्रम पेश करने वाले लाईव बैंड बंगलूरू के युवाओं की जीवन-शैली का अहम हिस्सा रहे हैं। पश्चिमी  संगीत खासतौर पर राॅक संगीत को लेकर यहां एक किस्म की दीवानगी रही है आश्चर्य  नहीं कि मेटेलिका को सुनने यहां चालीस हजार से ज्यादा की भीड़ जमा हो गई थी और आज भी दुनिया के तमाम नामी बैंड भारत में बंगलूरू में जरूर गाना चाहते हैं। लेकिन दूसरी हकीकत ये है कि बंगलुरू के कई लाईव बैंड खत्म हो गए हैं या खुद को बचाए रखने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। वजह यहां बार और पबों में लाईव बैंड के कार्यक्रमों पर लगी पाबंदी है।
दरअसल, बार और पबों में लाईव बैंड के साथ बारबालाओं के डांस को भी शामिल कर लिए जाने के बाद परेशानी की शुरूआत हुई। 2005 में मुंबई में बारबालाओं के काम करने पर पाबंदी लग जाने के बाद बड़ी संख्या में इनका पलायन बंगलुरू की ओर हुआ और अचानक यहां के पश्चिमी  संगीत आधारित लाईव बैंड के मायने बदल गए। लाईव बैंड के मार्फत बारबलाओं के डांस सभी बार और पबों का हिस्सा बनने लगे। इसी को रोकने के लिए कर्नाटक पुलिस कानून 2005 के तहत यहां 2008 से बार और पबों में लाईव बैंड पर बिल्कुल रोक लगा दी गई पर इसका मकसद बारगर्ल की संस्कृति को खत्म करना था। शुरूआत महिलाओं के बार या पब में किसी भी तरह  का काम करने पर मौखिक पाबंदी लगाकर की गई। जिसके खिलाफ  डोमलुर  के शेफ इन रीजेंसी बार एंड रेस्ट्रांट में काम करने वाली नाजिया और उनकी दो और सहकर्मियों ने कर्नाटक उच्च न्यायालय में अर्जी दायर कर दी। क्योंकि इस आदेश  के बाद उन्हें रेस्तरां के प्रबंधन ने नौकरी से निकाल दिया था। अदालत ने अपने फैसले में बार में उनके काम करने के अधिकार को बरकरार रखा। दरअसल, 31 मई 2011 को बंगलुरू के पुलिस कमिश्नर  ने अपने अफसरों को शहर के उन सभी बार और रेस्तरां को बंद करा देने का मौखिक आदेश  दिया था जहां महिलाएं बारबाला के तौर पर काम करती हैं। जबकि देश  की सर्वोच्च अदालत ने दिसंबर 2007 में ही ये कहा था कि महिलाओं को शराब परोसी जानेवाली जगहों पर भी काम करने का अधिकार है। कर्नाटक आबकारी अधिनियम 1965 के नियम 9 में सार्वजनिक स्थान पर किसी महिला के द्वारा शराब परोसे जाने को असंवैधानिक माना गया था पर 2008 में कर्नाटक उच्च अदालत ने कर्नाटक आबकारी अधिनियम 1965 के नियम 9 को खारिज कर दिया था। हांलाकि बंगलूरू पुलिस ने उसी समय कर्नाटक उच्च न्यायालय में ये हलफनामा पेश  कर कहा कि उनके द्वारा महिलाओं को बार में बारटेंडर के तौर पर काम करने से नहीं रोका जाता बल्कि उन बारों और रेस्तरां पर छापे मारे जाते हैं जो गैरकानूनी रूप  से चल रहे हैं और जहां कोई भी अवैध गतिविधि संचालित की जाती हो। लेकिन 2008 से यहां किसी भी सार्वजनिक जगह जहां शराब परोसी जाती हो वहां गीत-संगीत या लाईव बैंड के कार्यक्रम नहीं पेश  किए जा सकते।  अतिरिक्त पुलिस कमिश्नर  कानून और व्यवस्था बंगलुरू सुनील कुमार के मुताबिक बंगलुरू में वैसी जगहों जहां शराब परोसी जाती है, किसी भी किस्म के गीत-संगीत और नृत्य के कार्यक्रम दिन और रात किसी भी समय नहीं पेश  किए जा सकते हैं, लाईसेंस प्राप्त बार में रात साढ़े ग्यारह बजे तक शराब परोसी जा सकती हैं और महिलाएं वहां बारटेंडर के तार पर साढ़े ग्यारह बजे तक काम कर सकती हैं। लाईव बैंड शराब परोसने वाले बार को छोड़कर किसी भी सार्वजिक जगह पर कार्यक्रम पेश  कर सकते हैं। बंगलूरू पुलिस के मुताबिक फिलहाल बंगलूरू में लगभग साठ बारों में महिलाएं काम कर रही हैं और इनपर उनकी नजर हमेशा  रहती है।

बहरहाल, कानून और व्यवस्था के लिहाज से प्रशाषण  के पास अपने तर्क हैं पर बंगलुरू जहां लाईव बैंड की अपनी एक अलग संस्कृति रही है और इनकी अच्छी-खासी संख्या भी है, कई बैंड पबों और बार में कार्यक्रम करके ही खुद को चला पा रहे थे। लेकिन इस पाबंदी के कारण कई छोटे लाईव बैंड बंद हो गए, इसके कलाकार बेरोजगार हो गए। कुछ ने शहर बदल लिया। अमूमन रॉक,पॉप  और जैज संगीत पर आधारित इन लाईव बैंड समूहों के साथ ये दिक्कत रही है कि इनके श्रोता समूह अलग और युवा-पीढी के वे लोग हैं, जो पब और बार में जाते हैं।
वैसे कहने को बार और पबों में लाईव बैंड पर पाबंदी है पर सच में ऐसा है नहीं। कोरमंगला, इंदिरानगर, एमजी रोड जैसे इलाकों में कई पब  इस पाबंदी की धज्जिया उड़ाते मिल जाएंगे। खासतौर पर पश्चिमी  और मध्य बंगलुरू के बार और पबों में। कायरा रेस्तरा बार के निदेशक नवनीत कहते हैं उनके यहां शुक्रवार, शनिवार और रविवार को रात साढ़े आठ बजे से लाईव बैंड का लुत्फ लिया जा सकता है। इस दौरान उनके यहां शराब भी परोसी जाती है। शराब परोसी जानेवाली सार्वजनिक जगहों पर लाईव बैंड के कार्यक्रम पर पाबंदी की बात करने पर वो कहते हैं मेरी जानकारी में ऐसा केवल महिलाओं के शमिल होने और कार्यक्रम शालीन नहीं होने पर है। जहां तक मैं जानता हूँ केवल कायरा ही नहीं बल्कि लीजेंड ऑफ़ रॉक,  टेक फाईव, बी फ्लैट, फिलिंग स्टेशन,एक्सट्रीम स्पोर्टस बार, कासा डेल सोल जैसे और कई बार हैं जहां लाईव बैंड के कार्यक्रम होते हैं। इसके लिए कोई कोई विशेष अनुमति लेने की बात से भी इनकार किया उन्होनें। नवनीत ने तो यहां तक कहा कि उनके रेस्तरां में आयोजित मोहम्मद रफी नाईट में बंगलूरू के एसीपी मुरली ने भी अपना कार्यक्रम पेश किया था। और इनके यहां अच्छी खासी संख्या में लोग इनक कार्यक्रमों का लुत्फ उठाने आते हैं। सेंट मार्क रोड स्थित हार्ड रॉक कैफे बार में भी गुरूवार को लाईव बैंड का कार्यक्रम होता है। बार के मैनेजर ने बताया कि स्थानीय लाईव बैंड्स जिनमें लड़कियों का गाना और डांस होता है उनपर रोक है पर हमारे बार में फोकस केवल संगीत हैं और दिल्ली, उत्तर-पूर्व भारत के बैंड यहां हर सप्ताह अपने कार्यक्रम पश  करते हैं बंगलुरू में सिर्फ हार्ड रॉक ही नहीं कई और बार हैं जहां लाईव म्यूजिक बैंड्स कार्यक्रम पेश  करते हैं। ओर इसके लिए बंगलुरू पुलिस से विशेष  अनुमति हासिल करने की बात भी कहते हैं यही बात ला रॉक  कैफे के मैनेजर भी दोहराते हैं जहां हर रविवार को लाईव बैंड संगीत कार्यक्रम पेश  करता है। फिलहाल यहां 150 से ज्यादा बार हैं जिनमें  लाईव बैंड्स की परंपरा रही है, एम जी रोड स्थित आईस बार, कोकुन, रेस्टो बार, नेवादा पब, ब्लू तंत्रा, ओन  द रॉक्स  और अनलॉक  बार जैसे तमाम बार हैं जहां अभी भी लाईव बैंड सक्रिय है।
तस्वीर का दूसरा पहलू लाईव बैंड पर पाबंदी से बेरोजगार हुईं बारबालाओं की जिंदगी है। एक अनुमान के मुताबिक इस पाबंदी के बाद बार में काम करने वाली लगभग पैंतालीस हजार महिलाओं को जीविका के लिए देह-व्यापार अपनाना पड़ा है। महिलाओं के अधिकार और उनके खिलाफ हिंसा के लिए लड़ने वाली स्वयंसेवी संस्था विमोचना की शकुन कहती हैं लाईव बैंड पर रोक का सबसे बड़ा असर यही हुआ है कि सेक्स-वर्करों की संख्या में और इजाफा हो गया है। मुंबई में बार में महिलाओं के काम करने पर रोक लगने का तुरंत असर बंगलुरू पर हुआ था, मुंबई  से बड़ी संख्या में बारबालाएं यहां काम करने आयीं पर यहां भी रोक लग गयी। हमने उन महिलाओं के पुर्नवास की कोशिश  की जो हमारे पास मदद के लिए आयीं। इनमें ज्यादा संख्या नेपाल, बांग्लादेश  और उत्तर-पूर्व की लड़कियों की हैं,जिन्हें बारटेंडर की नौकरी मिली वो काम कर रही हैं। स्थानीय लड़कियां कर्नाटक के ही छोटे-छोटे शहरों में देह-व्यापार कर अपना गुजारा कर रही हैं। गौर करने वाली बात है कि बार और पबों में लाईव बैंड्स पर पाबंदी लग जाने के बाद ई-ब्रोथल और मसाज पार्लरों की संख्या यकायक काफी बढ़ गई। ज्यादातर बारबाला, बारटेंडर के ही रूप में काम करना चाहती हैं क्योंकि एक नई बारटेंडर को बीस से पैंतीस हजार तक तनख्वाह मिल जाती है, सेलीब्रिटी बारटेंडर की आय पचास हजार से उपर होती है। इसलिए आश्चर्य नहीं कि बंगलरू के पीपुल्स एजुकेशन  सोसाईटी, इंस्टीट्यूट ऑफ़  होटल मैनेजमेंट और क्राईस्ट कालेज में बारटेंडिंग एक कोर्स के तौर पर पढ़ाया जाता है। और काफी संख्या में लड़कियां इस कोर्स के तहत प्रशिक्षण भी ले रही हैं। अनुमानतः राज्य में साठ -सत्तर हजार से भी ज्यादा बार हैं, जाहिर है लड़कियों के लिए ये बड़ी संख्या में रोजगार का जरिया हो सकते हैं। मुंबई की ही तरह जहां अस्सी के दशक से बार और पबों में महिलाएं डांसर और बारटेंडर के तौर पर काम कर रही हैं बंगलूरू में भी महिलाएं अस्सी के दशक से ही बार और पबों में काम कर रही हैं। अस्सी के दौरान कैबरे का चलन था और नब्बे के दशक में लाईव बैंड्स मशहूर हुए। ये भी गौर करने वाली बात है कि इन डांस बार में काम करने वाली लड़कियों को अपने काम को लेकर कोई परेशानी नहीं है, बारमालिक उन्हें आईटी और बीपीओ क्षेत्र में काम करने वाली लड़कियों की तरह ही पूरी सुरक्षा मुहैया कराते हैं। और सबसे बड़ी बात डांस के कारण वो खुद को देह-व्यापार से बचा लेती हैं। लेकिन प्रशाशन  का रवैया जरूर उन्हें खलता है। जबकि चाहने पर भी उनके पास कोई विकल्प नहीं है। इसमें कुछ दोष सामाजिक सोच का भी है। एमजी रोड के बार में काम करने वाली एक बारबाला बताती है,  हमलोगों ने कुछ दूकानों में सेल्सगर्ल की नौकरी मांगी पर हमें अपमानित कर भगा दिया गया।  यही शिकायत कर्नाटक बार और रेस्तरां कामगार महिला कल्याण संघ की ओर से भी है कि बार में महिलाओं के काम करने पर रोक हट जाने के बावजूद पुलिस उन्हें काम नहीं करने देती केवल बड़े रेस्तराओं के डिस्कोथिक में ही महिलाओं को बतौर बारटेंडर आसानी से काम करने देती है। ये सीधे तौर पर बराबरी से काम करने के संवैधनिक अधिकारों की अवहेलना है।
दरअसल, कर्नाटक में भाजपा की सरकार बनने के साथ ही वेलेन्टाईन डे विरोध, बार और पबों में महिलाओं के काम करने पर रोक या पबों में जाने वाली महिलाओं पर मंगलोर में श्री राम सेने के कार्यकर्ताओं द्वारा हमला किए जाने जैसी घटनाओं को कुछ लोग भाजपा के  सांस्कृतिक शुद्धिकरण  के जबरन प्रयासों  के तौर पर भी देखते हैं। प्रसिद्ध थर्मल एंड ए क्वाटर लाईव बैंड  के जाने-माने सदस्य ब्रुस ली मनी तो इसे सांस्कृतिक अपराध का नाम देना ज्यादा पसंद करते हैं। इसकी अगली कड़ी शराब पर पूणतया रोक लगाने की मांग हैं लेकिन दस हजार करोड़ से ज्यादा राजस्व देने वाली शराब पर सचमुच पाबंदी लगाना और बात है। यही नहीं 2010 जुलाई में बंगलुरू सिटी पुलिस ने बारों और पबों के लिए आचार-संहिता जैसी एक निर्देशिका भी बनायी, जिसका पालन करना सभी बारमालिकों के लिए अनिवार्य है। आचार-संहिता के तहत महिलाओं के लिए शालीन कपड़े व एक जैसी वर्दी पहनना अनिवार्य है। बार मालिकों को महिला कर्मचारियों को नौकरी पर रखने के बाद पुलिस को उनकी तस्वीर के साथ पूरा विवरण भी देना होगा। किसी नयी महिला कर्मचारी को रखने या उसके नौकरी छोड़ने पर भी पुलिस को सूचना देनी होगी। साथ ही महिलाओं की संख्या बार की कुल सीट-संख्या की एक चैथाई ही होनी चाहिए। इस निर्देशिका  में अच्छी बात ये भी है कि बारमालिकों के लिए श्रम कानून का पालन भी अनिवार्य है मसलन, उन्हें महिलाओं को न्यूनतम मजदूरी, स्वास्थ्य सुविधा और प्रोविडेंट  फंड सभी कुछ देना होगा। इसलिए ड्रेस कोड पर लगभग सभी की सहमति है। कर्नाटक महिला कामगार संघ ने भी इसका विरोध नहीं किया।
कानूनन लाईव बैंड पुलिस के द्वारा वैध लाईसेंस जारी किए बिना नहीं चलने चाहिए पर बावजूद इसके, हकीकत में लगभग सौ बार ऐसे हैं जहां अभी भी गैरकानूनी तौर-तरीके से लड़कियों से बारबाला के अतिरिक्त मेहमानों का मनोरंजन करने का भी काम लिया जा रहा है। ड्रेस कोड का पालन नहीं किया जाता और सीसीटीवी भी पुलिस के कहने के बावजूद नहीं लगाया गया है। जिसके लिए पुलिस अफसरों को मोटी रिश्वत खिलायी जाती है। डिस्कोथिक के नाम पर भी बारबालाओं से डांस कराया जा रहा है। यानी अगर पाबंदिया हैं तो उसका तोड़ भी हैं पर इसके बीच सचमुच संगीत से प्यार करनेवालों और उसी से अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले लाईव बैंड नाहक मारा जा रहा है।