शुक्रवार, 24 जून 2011

एक छोटी-सी जीत


एक छोटी-सी जीत
[For Public Agenda]
ऐसा रोज-रोज नहीं होता जब समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े लोग अपने हक के लिए लड़ पाते हों और फिर जीत भी जाते हों। पर बंगलूरू की घरेलू कामगार पापम्मा की कहानी असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे लाखों लोगों के लिए  मील का पत्थर है। नौकरी से अचानक निकाल दिए जाने पर अदालत का दरवाजा खटखटाने वाली पापम्मा से मिलने जब हम बंगलूरू के लिंगराजपूरम इलाके की झुग्गी-बस्ती में गए तो ईंटों के मलबे से भरे प्लाट पर प्लास्टिक शीट से बनी छोटी सी एक झोपड़ी के आगे पतली-दुबली सावंले रंग की 65 साल की महिला बैठी मिली। उसकी ओर इशारा करके उसके बेटे नागराज ने कहा- मैडम, शी इज पापम्मा, माई मदर!  बगल में ही चोट लग जाने की वजह से 25 साल से बेरोजगार, पापम्मा के पति भी बैठे थे। पापम्मा की टूटी हिन्दी को उसका बेटा नागराज हमें अंग्रेजी में समझा दे रहा था। बात बेटे से ही शुरू हुई, पापम्मा कहने लगी- 12वीं तक पढ़ा है, हम दलित हिन्दु हैं पर छोटे बेटे ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया है और यहीं किसी रियल इस्टेट ऑफिस  में काम करता है, इसे साढ़े पांच हजार रूपए मिलते हैं। पांच बच्चों में दो बेटे और दो बेटी  अपने-अपने परिवार के साथ रहते हैं जिन्हें किसी तरह पाल-पोष दिया था उसने। 22 साल तक 8 घंटे काम करने के एवज में महज 60 रूपए महीने की आमदनी पर सात लोगों का गुजारा, सोचने वाली बात है। इसलिए बच्चें छोटी उम्र से ही कुली का काम करने लगे और सबको बस रोटी मिलती रही। 2003 से पापम्मा को 500 रूपए मिलने षुरू हुए जबकि एक साल बाद 2004 में कर्नाटक सरकार ने घरेलू कामगारों के लिए 8 घंटे की न्यूनतम मजदूरी 2,279 तय कर दी। और 2007 में काम से निकाले जाने के छः महीने पहले, बार-बार कहने पर उसे 15 सौ मिलने शुरू हुए थे पर ये भी 2008 के सरकार के न्यूनतम मजदूरी के मानक से कम ही था। बहरहाल, ऐसा ही चलता रहता  अगर वो बीमार न पड़ती और 8 दिन काम पर ना जाती। नौंवे दिन जब वो काम करने गयी तो उसे गेटआउट कह दिया गया, बगैर कारण बताए। यहीं नहीं उन्होंने उसे पैसे देने से भी इनकार कर दिया, जबकि पापम्मा जब 60 रूपए पर काम करती थी, तो उसके मालिक उसे ये कहकर चुप करा देते थे कि जरूरत पर हम दे देंगे। 31 साल काम करने के बाद भी मिले इस अपमान और तिरस्कार ने उसे गहरी चोट दी।
अंततः पापम्मा अपने मामले को बंगलूरू के घरेलू मजदूर युनियन के पास ले गई।  युनियन  पापम्मा के मामले को अदालत ले गई जहां आखिर में फैसला पापम्मा के हक में हुआ। हालांकि पापम्मा को सेटलमेंट में 60 हजार रूपए ही मिले जबकि उसे 1 लाख 45 हजार मिलने चाहिए थे, पर ये भी अपनेआप में उल्लेखनीय है।
दरअसल, पापम्मा का मामला घरेलू काम करने वालों के हालात पर रोशनी डालता है। जहां सिर्फ मुंह से बोलकर सब तय होता है, कोई लिखित एग्रीमेंट नहीं होता और नौकरी पर होने का कोई रिकार्ड नहीं होता, ऐसे में शोषण होने पर कभी भी कुछ साबित ही नहीं किया जा सकता। देश के तमाम घरेलू कामगार इसी तरह से काम करते हैं जबकि इस क्षेत्र में काम करने वालों की तादाद लगभग 45 लाख है।  पर अभी तक सरकार के पास इनके लिए स्पष्ट कानून नहीं है, इन्हें किसी किस्म का सरकारी संरक्षण और आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा हासिल नहीं है। पापम्मा कानूनी सहायता ले पायी तो उसकी वजह बंगलूरू में घरेलू कामगारों के मजबूत यूनियन का होना और इसी के मार्फत आल्टरनेटिव लाॅ फोरम जैसे संगठनों से मिली कानूनी मदद है। जबकि अक्सर ऐसे मामले रजिस्टर ही नहीं हो पाते, इसलिए यह जीत अपने-आप में एक मिसाल तो है ही। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू ये है कि बावजूद इसके पापम्मा के हालात अब भी नहीं बदले हैं। सब जानते हुए भी वो फिर से 800 रूपए महीना पर चार घंटे रोजाना काम कर रही है। छः महीने पहले स्थानीय कारपोरेटर लावण्या गणेश  रेड्डी के आश्वाशन पर उसने अपना अस्थायी कच्चा घर तोड़ दिया था पर मकान बनाने के लिए कॉर्पोरटर फंड से पैसा नहीं मिला है।  अब वो डेढ़ हजार के किराये के एक कमरे में रहती है और बेटे के दिए दो हजार और अपने 8 सौ में से किराया देने के बाद 1300 रूपए में पति के साथ गुजारा करती है। ऐसा क्यों?े यह पूछने पर वह कहती हैं-इससे ज्यादा इस इलाके में कोई देने का तैयार नहीं होता, या तो मुझे इतने पर ही काम करना होगा या फिर घर बैठना होगा। घर बैठने से काम नहीं चलेगा और ज्यादा दूर काम करने मैं जा नहीं सकती। आल्टरनेटिव लाॅ फोरम की ओर से पापम्मा को कानूनी मदद देने वाली मैत्रेयी कृष्णन कहती हैं दरअसल, ये बहुत ही जटिल मसला है और बगैर किसी स्पष्ट कानून के किसी को न्याय दिलाना मुश्किल है। सबसे बड़ी दिक्कत तो घरेलू कामगार की पहचान की है। ऐसे में कोई भी पलट सकता है कि अमुक उसके यहां नौकरी नहीं करती है। दूसरी ओर सरकार ने 8 घंटे काम के एवज में लगभग 3 हजार न्यूनतम मजदूरी इनके लिए तय की है जबकि सरकार का ही मानना है कि बंगलूरू में गुजारे के लिए कम से कम 6 हजार रूपए मासिक जरूरी है। न्यूनतम मजदूरी के मानक का पालन अभी भी नहीं हो रहा। और इससे भी बड़ा सवाल उनके सम्मान का है जो कोई कोर्ट नहीं उनसे काम लेने वालें ही दे सकते हैं।  इसके लिए इनके प्रति नजरिए में बदलाव की जरूरत होगी।  मैत्रेयी कहती हैं हालांकि कर्नाटक में घरेलू कामगारों का यूनियन काफी मजबूत है और यहां जागरूकता भी है, इसलिए हफ्ते में एक दिन की छुट्टी इन्हें यहां मिल जाती है पर अभी भी काफी कुछ किया जाना बाकी है।
कर्नाटक घरेलू कामगार अधिकार यूनियन की गीता मेनन भी यही मानती हैं कि  सुधार सोच में बदलाव से ही संभव है और उस ओर पहला कदम यही होगा कि इन्हें नौकर नहीं बल्कि कामगार या श्रमिक समझा जाए। अपनी बेहतरी के लिए इनका संगठित होना बेहद जरूरी है तभी ये अपने हक के लिए लड़ पाएंगे।
वैसे, कर्नाटक घरेलू कामगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी मानक लागू करने वाला पहला राज्य है। लेकिन छः साल में न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलने का कोई भी मामला दर्ज नहीं हुआ है, इससे हकीकत समझा जा सकता है। दूसरी ओर केन्द्रीय श्रम मंत्री एम मल्लिकार्जून खाड़गे सबसे गरीब तबके के मजदूरों के लिए बनायी गई राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना जो कर्नाटक को छोड़कर 24 राज्यों में लागू है के तहत घरेलू कामगारों को भी लाने की बात कर रहे हैं। पर कर्नाटक में तो अभी मनरेगा के मजदूर ही इससे बाहर हैं।
बहरहाल, इसी साल अंतरराष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में पूरे विश्व के घरेलू कामगारों के लिए सम्मानजनक कार्यदशा  मुहैया कराने के लिए नया अंतरराष्ट्रीय कानून लाए जाने की चर्चा है। जबकि भारत में अभी भी ठोस कानून नहीं है। राष्ट्रीय सलाहकार समिति की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने हाल ही में प्रधानमंत्री  को प्रस्तावित राष्ट्रीय घरेलू कामगार नीति के तहत घरेलू कामगारों को व्यापक श्रम अधिकारों के ढ़ाचें में लाए जाने का सुझाव दिया है जिसके तहत बराबर भुगतान, काम करने की जगह पर यौन-शोषण  और अन्य शोषण के खिलाफ संरक्षण ,हफ्ते में एक और साल में 15 अवकाश देने का भी सुझाव दिया है। प्रस्तावित नीति की घोषणा के बाद हालात,  हो सकता है थोड़ा बदलें।




बंगलूरू में घरेलू कामगारों को सबसे पहले संगठित करने वाली और उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाली सामाजिक कार्यकर्ता और बंगलूरू गृह कार्मिक संघ की संस्थापिका रूथ मनोरमा से बातचीत
-कर्नाटक में घरेलू कामगारों की स्थिति क्या है?
बंगलूरू में घरेलू कामगारों की संख्या 3 लाख के करीब है, जिनमें से ज्यादातर किसी यूनियन से रजिस्टर्ड नहीं हैं। पर फिर भी यहां घरेलू कामगारों के युनियनों की मजबूत मौजूदगी है और इनके हक की लड़ाई में इनका सार्थक हस्तक्षेप है। कर्नाटक सरकार द्वारा न्यूनतम मजदूरी तय किये जाने को हम अपनी इस लड़ाई में एक महत्वपूर्ण कदम मानते हैं। यहां जागरूकता और हमारे काम से थोड़ा फर्क तो आया है और हालात बाकी जगह से कुछ बेहतर हैं।

-बंगलूरू गृह कार्मिक संघ की इसमें क्या भूमिका रही?
-1987 में हमने इसकी नींव रखी और तबसे हमारी लड़ाई जारी है। इससे पहले 1986 में पुलिस में घरेलू कामगारों का रिकार्ड और फोटो दिए जाने का आदेश  हुआ था। हमने वीमेन व्वाईस के जरिए इसका विरोध किया, क्योंकि ये इन कामगारों के सम्मान के खिलाफ था इसके बदले लेबर ऑफिस में इन्हें रजिस्टर्ड किया जाना चाहिए। खैर, वो आदेश  वापस ले लिया गया। न्यूनतम मजदूरी तय होना बंगलूरू गृह कार्मिक संघ की जीत रही है।
-न्यूनतम मजदूरी के बाद अगली मांग क्या है?
हम घरेलू कामगारों को असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की सूची में लाना चाहते हैं। राष्ट्रीय घरेलू कामगार अधिनियम पर हमारी नजर है। और राज्य सरकार की पहल पर भी। हमारी मांग इन्हें सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाए जाने की है। निर्माण क्षेत्र के मजदूरों को लेबर ऑफिस से मिलने वाले पहचान पत्र की तरह ही इन्हें भी आईडेंटिफिकेशन कार्ड मिलना चाहिए। इससे इन्हें 17 फायदें मिलेंगे। साथ ही प्रवासी कामकारों को सरकार की ओर से पूर्ण संरक्षण मिलना चाहिए
- बंगलूरू गृह कार्मिक संघ कामगारों को आर्थिक मदद भी मुहैया कराता है?
हम सदस्यों की आर्थिक मदद भी करते हैं, पर हमारे पास लाए गए मामलों में हम कानूनी मदद करते हैं। इनके सामाजिक, पारिवारिक मसलों में भी हस्तक्षेप करते हैं। लेकिन सरकार के पास इनकी मदद के लिए कोई फंड नहीं है। हम चाहते हैं कि सरकार मामूली सेस लगाकर इनके लिए कोई फंड बनाए और जरूरत पड़ने पर इनकी आर्थिक मदद करें।  

गुरुवार, 23 जून 2011

चंदन के तस्कर


(Published in Public agenda)
कभी दक्षिण-भारत के जंगलों में आतंक का पर्याय रहे और जंगल का राजा कहे जाने वाले वीरप्पन को मरे हुए 7 साल हो चुके हैं। अपने जीवनकाल में दस हजार टन से भी ज्यादा चंदन की लकड़ी की तस्करी करने वाले वीरप्पन ने कर्नाटक, तमिलनाडू और केरल के जंगलों से चंदन के पेड़ों की सफाई करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी, पर उसके जाने के बाद भी यहां एक नहीं बल्कि कई वीरप्पन सक्रिय हैं, जो रातों-रात बंगलूरू जैसे  शहर में विधानसभा से सटे वीवीआईपी इलाके से भी चंदन के पेड़ काट ले जाते हैं और उनका कोई कुछ नहीं कर पाता। हाल ही में तस्करों ने यहाँ चंदन के 3 पेड़ रातों रात काट डाले। जिसमें से एक तो  विधानसभा और हाई कोर्ट के सामने कब्बन पार्क जैसे इलाके  में था।  सार्वजनिक जगह पर साबुत बचा यह शहर का इकलौता चंदन का पेड़ था और जिसकी सुरक्षा में हमेशा  एक सशस्त्र सुरक्षाकर्मी भी तैनात रहता था। और 2 पेड़ सीवी रमण नगर इलाके के एक घर के अहाते से बंदुक की नोक पर काट लिया गया। एक पेशेवर तस्कर  केवल 3 मिनट में परिपक्व चंदन का पेड़ को काट डालता है। आईआईएम बंगलूरू के कैंपस से भी चंदन के पेड़ काट लिए जाते हैं । यहां तक कि इन्सटीट्यूट ऑफ वुड साईंस एंड टेकनॉलजी से भी पांच परिपक्व चंदन के पेड़ों को काटने की कोशिश की गई। सरकार द्वारा अभी भी तमाम सरकारी जमीन और भवनों के अहाते में चंदन के पेड़ लगाए गए हैं पर इन्हें तस्करी से बचाना बड़ा काम है। अभी भी तुराहल्ली के जंगल, बंगलूरू विश्वविद्यालय परिसर, जीकेवीके कैपस, इन्सटीट्यूट ऑफ वुड साईंस एंड टेकनॉलजी और इबलुर में चंदन के पेड़ों की ठीक-ठाक संख्या है जो कुछ सालों में परिपक्व हो जाएंगे पर ये तस्करों से बच पाएंगे या नहीं ये बड़ा सवाल है। अभी के हालात देखकर तो यही लगता है कि तस्करों के हौसले सरकार से ज्यादा बुलंद हैं। कर्नाटक फारेस्ट सेल के रिकार्ड के मुताबिक 2007 में राज्य में चंदन की लकड़ी की तस्करी के 88 मामले सामने आए थे जो 2008 में 191 हो गए लेकिन 2009 में 102 मामले ही दर्ज हुए। लेकिन मामलों में कमी इसलिए नहीं आयी कि पुलिस-प्रशासन ज्यादा मुस्तैद हो गया बल्कि इसलिए कि दिनों दिन चंदन के पेड़ घटते जा रहे है। असलियत ये है कि राज्य के जंगलों में संभवतः गिने-चुने ही प्राकृतिक रूप से उगे चंदन के पेड़ बचे हों या शायद  वो भी नहीं। जबकि कर्नाटक के उत्तरी इलाके में कभी हजारों किलोमीटर तक चंदन के जंगल हुआ करते थे।

अभी एक दशक पहले तक ही बंगलूरू में 97 बड़़े और पुराने चंदन के पेड़ हुआ करते थे जिसमें 21 कब्बन पार्क में थे। लेकिन जल्दी ही इनकी संख्या 21 से 6 रह गई, धीरे-धीरे सब माफियाओं की भेंट चढ़ते गए। और आखिरकार इकलौता पेड़ भी उनकी नजर हो गया। हांलाकि कब्बन पार्क और लाल बाग जैसी जगहों में चंदन के और पेड़़ है पर उन्हें लगाए कुछ ही साल हुए है और वो अभी परिपक्व नहीं हुए हैं।
चंदन, कर्नाटक की पहचान और संस्कृति का हिस्सा रहा है। सिल्क के साथ-साथ कर्नाटक अपने मैसूर सैंडल सोप और चंदन की लकड़ी से बनी खूबसूरत कलाकृतियां के लिए भी उतना ही जाना जाता है। यहां लाखों लोगों की रोजी रोटी, चंदन और इससे जुड़े कारोबार से चलती है मसलन, अगरबत्ती से लेकर  साबुन, टेल्कम पाउडर, परफ्यूम और ऐसे ही अनगिनत सौन्दर्य उत्पाद यहां बनते हैं। इसके अलावा चंदन की लकड़ी पर नक्काषी या इससे कलाकृतियां बनाने का काम भी यहां बड़े पैमाने पर होता है, दवाईयों में भी चंदन के तेल का इस्तेमाल होता है। यह कर्नाटक का राजकीय वृ़क्ष भी है। और मैसूर तो कर्नाटक का चंदन का षहर ही कहलाता है। देष का 70 प्रतिशत चंदन कर्नाटक ही मुहैया कराता रहा है। जो हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि दुनियां में सबसे बेहतरीन माना जाता है।  पर दिनों दिन बढती मांग और घटती आपूर्ति ने आज इस पेड़ के आस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया है।
वैसे चंदन के पेड़़ भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक कहीं भी लगाए जा सकते हैं, केवल सही किस्म का चयन करना होता है। फिलहाल देश में 27 किस्म के चंदन के पेड़ पाएं जातें है। मध्यम उर्वर मिट्टी, और थोड़ी ढाल वाली जमीन ताकि जड़ों में पानी नहीं रूके इसके लिए उत्तम है। लेकिन शुष्क जलवायु दशाओं में पेड़ में बनने वाले हार्टवुड और तेल की गुणवत्ता जरूर बहुत उम्दा हो जाती है। कर्नाटक की आबो हवा और प्राकृतिक दशाएं चंदन के पेड़ों के लिए एकदम सटीक है। सदाबहार जंगल का यह पेड़ 40 से 50 फीट तक उंचा और 3 से 8 फीट मोटा होता है। थोड़ा बैंगनीपन लिए हुए इसके भूरे रंग के फूल सुंगधहीन होते हैं। प्राकृतिक  चंदन के पेड़ कम से कम 30 साल में परिपक्व होते है। जबकि प्लानटेशन के तहत उगाए गए चंदन के पेडों में़ दस से पन्द्रह साल के भीतर ही  25 किलो तक संुगधित हार्टवुड का निर्माण हो जाता है। लेकिन अब चंदन के पेड़ों की ऐसी किस्में भी विकसित कर ली गई हैं जो 12 साल में तैयार हो जाती है। चंदन की लकड़ी की बिक्री हार्टवुड, ब्रांचवुड, चिप्स और पाउडर के रूप में होती है। हार्टवुड से ही चंदन की कलाकृतियां और गहने बनाए जाते हैं जबकि छाल को पीसकर उससे अगरबत्ती बनती है। जड़ों से तेल निकाला जाता है। और पेड़ को खरोंच-खरोंच कर पाउडर जमा किया जाता है।
दरअसल, चंदन मतलब पैसा! एक ऐसा पेड़, जो आकार नहीं बल्कि वजन के हिसाब से बेचा जाता है। आज एक टन भारतीय चंदन की लकड़ी की कीमत अंतर्राष्ट्रीय बाजार में लगभग 45 लाख से भी ज्यादा है। पिछले 18 साल से सालाना लगभग 18 प्रतिशत की दर से इसमें  इजाफा हो रहा है। जबकि 1 लीटर चंदन के तेल की कीमत सवा लाख से उपर है। दो साल पहले तक प्रति टन चंदन की लकड़ी की कीमत 20 लाख रूपए थी। मोटे तौर पर एक एकड़ में चंदन लगाने पर 12 से 15 साल में 22 से 25 लाख तक खर्च आता है और मुनाफा ढ़ाई करोड़ से उपर। यही वजह है कि निजी क्षेत्र की कई कंपनियां चंदन के प्लानटेशन में उतर चुकी हैं। सूर्या विनायक इंडस्ट्रीज, डी एस समूह और नामधारी सीड्स लिमिटेड कर्नाटक के अलावा देश के अन्य राज्यों में बड़े पैमाने पर चंदन की खेती कर रही हैं। श्री श्री एग्री ग्रुप जैसी कंपनी तो बिहार में भी चंदन की खेती की योजना बना रही है। इसके अलावा भारत को चंदन के उत्पादन में सबसे बड़ी चुनौती आस्ट्रेलिया से मिलने वाली है। जहां बड़े पैमाने पर भारतीय चंदन की प्लानटेषन की गई है और 2012 से वहां के चंदन की पहली खेप बाजार में आनी शुरू  हो जाएगी।
कर्नाटक के कुल 20 फीसदी हिस्से में जंगल हैं और कुल वन-क्षेत्र के 10 फीसदी में कभी चंदन हुआ करते थे जो अब घटकर महज 5 फीसदी या उससे भी कम रह गया है। यानी चंदन के प्राकृतिक वन-क्षेत्र विलुप्त होने के कगार पर हैं। तस्करी का आलम जब बंगलूरू में ऐसा है तो सहज समझा जा सकता है राज्य के जंगल कितने सुरक्षित हैं।  चंदन उत्पादन में अग्रणी रहे कर्नाटक में पिछले तीन साल से लकड़ी की नीलामी ही नहीं हुई है। जाहिर है  दूसरे राज्यों और आयात करके काम चलाया जा रहा है पर लंबे समय तक कच्चे माल की आपूर्ति नहीं होने की सूरत में लाखों लोगों की रोजी-रोटी पर इसका सीधा असर होगा। इसलिए  चंदन उत्पादन को लेकर सरकार गंभीर हो गई है। और चंदन की खेती का रकबा डेढ़ हजार एकड़ से बढ़ा कर दो हजार एकड़ करने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही सरकार ने चंदन की लकड़ी के उत्पादों से होने वाले मुनाफे पर लगाए जाने वाले 50 फीसदी कर में भी रियायत दे दी है। और उत्पादक राज्य सरकार के अलावा अन्य एजेंसियों को भी चंदन की लकड़ी बेच सकता है। यहां तक कि विभिन्न सरकारी संस्थान भी अगर अपने परिसर में लगे चंदन के पेड़ों को हटाते हैं तो  राज्य का वन विभाग उन्हें इसका भुगतान करेगा।  इसके अलावा नेशनल मेडीसिनल प्लांट बोर्ड भारत सरकार की ओर से भी चंदन की खेती पर सबसिडी दी जाती है साथ ही सभी र्राष्ट्रीय बैंक चंदन के पेड़ लगाने की परियोजनाओं के लिए कर्ज भी मुहैया कराते हैं।
हालात को देखते हुए ही राज्य सरकार विधानसभा के अगले सत्र में कर्नाटक राज्य वृक्ष संरक्षण कानून में संशोधन करने जा रही है। राज्य के वन मंत्री सी एच विजयशंकर ने इस संबंध में बताया कि कानून के पारित हो जाने के बाद चंदन के पेड़ के मालिक अंतर्राष्ट्रीय कीमत के अनुसार अपने पेड़ की लकड़ी भी बेच सकेंगे। गौरतलब है कि कर्नाटक में 2001 में वृक्ष संरक्षण कानून में संशोधन कर अपनी जमीन पर लगाए गए चंदन के पेड़ का मालिकाना हक भूस्वामी को दे दिया गया था पर उसकी बिक्री पर सरकार का नियंत्रण है। इसके इस्तेमाल के लिए सरकारी मंजूरी जरूरी है। यही नहीं बगैर सरकारी मंजूरी के चंदन की लकड़ी अपने पास रखना या इसे कहीं ले जाना भी गैरकानूनी है। जाहिर है ऐसे में पेड़ को बेचना और फिर सरकार की ओर से पैसे का भुगतान बड़ी समस्या थी। इसलिए किसान चंदन की खेती से दूर रह रहे थे।  है। किसानों को इससे जोड़ने के लिए कानून में संशोधन समय की मांग है।
कुल मिलाकर चंदन की लकड़ी उगाने वालों के लिए आने वाला समय सबसे मुफीद साबित होने वाला है। बशर्ते अगर उनके पेड़ वीरप्पनों से बच जाएं।